जोशीमठ धंसने का कारण क्रोनी कैपिटलिज़्म है, प्राकृतिक आपदा या एक्ट ऑफ़ गॉड नहीं

Written by ओ.पी. भूरैता | Published on: January 23, 2023
पारिस्थितिक रूप से नाजुक हिमालयी इलाके में वर्तमान सरकार की विकास योजनाओं ने भी जोशीमठ को विनाश के रास्ते पर धकेला है।


फ़ोटो साभार: PTI

जोशीमठ का डूबना एक ऐसी आपदा है जो इसके घटने का इंतजार कर रही थी। वर्ष 2021 के आखिर में ही इमारतों में दरारें दिखाई देने लगीं थी, लेकिन बाद में वे खतरनाक रूप से बड़ी और चौड़ी होती चली गईं, और इसके अलावा 800 से अधिक घरों और सड़कों में नई दरारें दिखाई देने लगी। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर ने जो तस्वीरें जारी की उनके अनुसार, जोशीमठ में 27 दिसंबर 2022 और 7 जनवरी 2023 के बीच 12 दिनों में लगभग 5.4 सेंटीमीटर के पैमाने का तेज धंसाव देखा गया है। इसरो ने भी अप्रैल और नवंबर 2022 के बीच लगभग 9 सेमी की गिरावट दर्ज़ की थी। सरकारी निर्देश के तहत सार्वजनिक बयान पर पाबंदी लगाए जाने के बाद इस तथ्य को वेबसाइट से हटा दिया गया है।

उत्तराखंड के चमोली जिले के जोशीमठ शहर की आबादी 20,000 है और यह बद्रीनाथ और हेमकुंट साहिब तीर्थों को जाने वाले रास्ते पर मौजूद है। यह औली की अंतरराष्ट्रीय स्कीइंग  और फूलों की प्रसिद्ध घाटी का भी एक शुरुआती बिंदु है। यह शहर भारत-चीन सीमा से निकटता के कारण रणनीतिक रूप से भी महत्वपूर्ण है।

ऐसी रिपोर्टें आई हैं कि मौजूदा धंसाव का तात्कालिक कारण शहर के नीचे एक जलभृत है जो जो नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन (NTPC) द्वारा बनाई गई एक सुरंग के निर्माण के दौरान पंचर हो गया हो। लेकिन जोशीमठ के डूबने में दशकों नहीं तो सालों लगे हैं। यह कोई कुदरती आपदा नहीं बल्कि सरकार निर्मित पर्यावरण आपदा है। इसके डूबने में, कई जलविद्युत परियोजनाओं, बड़े पैमाने पर होटल निर्माण और सड़क निर्माण परियोजनाओं का योगदान है, जिसने इलाके की भार को वहन करने की क्षमता और भूवैज्ञानिकों और पर्यावरण विशेषज्ञों के विचारों की अनदेखी की है।

दशकों से वैज्ञानिक और विशेषज्ञ इसकी चेतावनी दे रहे थे। एमसी मिश्रा समिति ने 1976 से ही जोशीमठ में भारी निर्माण पर प्रतिबंध लगाने का सुझाव दिया था, क्योंकि यह बताया गया था कि जोशीमठ, प्राचीन में हुए एक भूस्खलन के ढेर पर बसा हुआ है जो काफी नाज़ुक है।  समिति ने उस वक़्त सुझाव दिया कि इलाके की सुरक्षा के लिए उसका वनीकरण किया जाए, शहर में उचित जल निकासी प्रणाली हो और अन्य उपचारात्मक उपायों की भी सिफारिश की थी। हालांकि, समिति के सुझावों को राजनीतिज्ञ-ठेकेदारों के गठजोड़ ने अपने निहित स्वार्थों के कारण नहीं माना और रिपोर्ट को दबवा दिया गया। 

हालांकि जोशीमठ 1,000 साल पुराना है, यह रेत और पत्थर के ढेर पर खड़ा है - एक पुराना भूस्खलन इलाका - जो बड़े पैमाने पर मानव बसाव के लिए एक ठोस जमीन नहीं है। इसका आधार नाजुक है और किसी भी भारी निर्माण के प्रति संवेदनशील है। फिर भी, हिमालयी समाज वहां सर्वाधिक पर्यावरण-हितैषी तरीके से रहता और फलता-फूलता रहा है। दुर्भाग्य से, पूंजीवाद की लोलुप प्रकृति और पारिस्थितिक रूप से नाजुक और संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र के प्रति वर्तमान सरकार की विकास नीतियों और रणनीतियों ने इसे विनाश के इस रास्ते पर धकेल दिया है। न तो प्राकृतिक आपदा और न ही एक्ट ऑफ गोड इस आपदा के लिए जिम्मेदार है, बल्कि क्रोनी कैपिटलिज्म ने इस आपदा को जन्म दिया है।

संवेदनशील पहाड़

जोशीमठ टेकटोनिक गतिविधियों के प्रति बहुत संवेदनशील है क्योंकि यह पृथ्वी की एक फॉल्ट लाइन पर मौजूद है। निकटवर्ती भूगर्भीय भ्रंश रेखा लगभग जोशीमठ को छूती है। इसके  अलावा, मेन सेंट्रल थ्रस्ट (MCT) भी शहर के अपेक्षाकृत करीब से गुजरता है। यह एक भूवैज्ञानिक दोष है जहां भारतीय और यूरेशियन प्लेटें टकराती हैं, जिससे हिमालय की ऊंची पर्वत श्रृंखलाएं बनती हैं। अन्य पर्वत श्रृंखलाओं की तुलना में, हिमालय अपेक्षाकृत युवा है और अधिक भूगर्भीय गतिविधि का केंद्र है। 

हाल ही में जोशीमठ ने तमाम वैज्ञानिक मतों को दरकिनार करते हुए पिछले कुछ दशकों में जलविद्युत परियोजनाओं, सुरंगों और सड़कों के निर्माण का बड़ा विस्फोट देखा है। सतह-स्तर की मानवजनित गतिविधियों ने प्राकृतिक जल निकासी प्रणालियों को बाधित कर दिया और जलभृतों को पंचर कर दिया। इन गतिविधियों के कारण मिट्टी का तेजी से कटाव हुआ।  इसके अलावा, इस शहर और इसके आसपास के इलाकों में जल निकासी की उचित व्यवस्था नहीं है।

अलकनंदा और भागीरथी नदियाँ, गंगा नदी की धाराओं के दो मुख्य स्रोत हैं। जोशीमठ अलकनंदा घाटी के पास स्थित है। अलकनंदा घाटी में दो विनाशकारी बाढ़, 1894 की बाढ़ और 1970 की बाढ़ रही हैं। 1894 की बाढ़ एक बड़े भूस्खलन के कारण आई थी। इसके विपरीत, 1970 की विनाशकारी बाढ़ सीधे तौर पर जंगलों की अंधाधुंध कटाई से जुड़ी हुई थी और इसी वजह से पेड़ों की रक्षा के लिए प्रसिद्ध चिपको आंदोलन शुरू हुआ था। 

7 फरवरी 2021 को जोशीमठ के पास अलकनंदा से मिलने वाली धौलीगंगा नदी में भीषण बाढ़ आई थी। इसने एनटीपीसी की नदी तपोवन जलविद्युत परियोजना के निर्माण को भारी नुकसान पहुंचाया था। 200 से ज्यादा लोग इस आपदा के शिकार हुए थे। इसकी सुरंग में पानी भर गया और रैनी गांव, जहां से विश्व प्रसिद्ध चिपको आंदोलन शुरू हुआ था, को भारी नुकसान हुआ था। घरों और खेतों में दरारें नजर आने लगी थी। इस गांव के लोग दो साल से सुरक्षित स्थान पर बसने/पुनर्वास का इंतजार कर रहे हैं। इस बाढ़ के कारण का अध्ययन नहीं किया गया है और न ही पारिस्थितिकी तंत्र को हुए नुकसान का कोई स्वतंत्र वैज्ञानिक आकलन किया गया है।

फिर से एनटीपीसी के प्रोजेक्ट पर काम शुरू हुआ और शायद इसी वजह से जोशीमठ आज बदहाल है। सितंबर 2022 में, उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (यूएसडीएमए) की रिपोर्ट ने रेखांकित किया था कि जून 2013 और फरवरी 2021 की बाढ़ ने इस इलाके पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। अक्टूबर 2021 में हुई भारी बारिश भी भूमि के तेज धंसने का कारण  बनी। 

निर्माण परियोजनाओं को लागू करने की हड़बड़ी 

वर्तमान सरकार के तहत तेजी से निर्माण परियोजनाओं की बाढ़ ने विनाश को इन नए और खतरनाक स्तरों पर ला दिया है। इस क्षेत्र में अब बड़ी संख्या में जलविद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। राज्य में लगभग 100 बांध हैं, और कई अन्य निर्माणाधीन हैं। कुछ अनुमानों के अनुसार, 450 से अधिक पनबिजली परियोजनाओं की योजना है, जिसका अर्थ है कि हर परियोजना कुछ दर्जन किलोमीटर के दायरे में हो सकती है। इनमें से कई को रन-ऑफ-द-रिवर परियोजनाएं माना जाता है, लेकिन, व्यवहार में, उनमें कुछ पानी को रोकना, सुरंग निर्माण और अन्य निर्माण कार्य शामिल हैं।

इसके अलावा, इन बांधों और पनबिजली परियोजनाओं के निर्माण में वृक्षों की कटाई शामिल है, जबकि इस नुकसान को दूर करने के लिए वनीकरण के प्रति उदासीनता है। बड़े पैमाने पर निर्माण गतिविधियाँ, डायनामाइट का इस्तेमाल करके विस्फोट करना, और अन्य संदिग्ध तकनीकें पहले से ही अस्थिर पहाड़ी इलाकों में और अधिक अस्थिरता को सक्रिय करती हैं। प्रक्रियाओं और प्रोटोकॉल का उल्लंघन करते हुए निर्माण मलबे को अक्सर नदी में फेंक दिया जाता है। यह मलबा नदी के प्रवाह को अवरुद्ध करता है और नदी के तल को ऊपर उठाता है, जिससे बाढ़ की संभावना बढ़ जाती है।

वर्षों से, ग्रामीणों, पर्यावरणविदों और विशेषज्ञों ने इन परियोजनाओं के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन किए हैं। उत्तराखंड में 2013 की आपदा के बाद, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ समिति ने अधिकांश प्रस्तावित परियोजनाओं को रद्द करने की सिफारिश की थी, जिसे एक दूसरी समिति ने समर्थन दिया था। उसके बाद, एक तीसरी चुनी हुई समिति ने इन सिफारिशों को पलट दिया, लेकिन इससे स्वीकृत कई परियोजनाएं अभी भी विवादित हैं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त चोपड़ा समिति ने कहा था कि सुरक्षा के आधार पर पैरा-हिमनदी इलाके में समुद्र तल से 2,200 से 2,500 मीटर के बीच कोई बांध या पनबिजली परियोजना शुरू नहीं की जानी चाहिए।

हिमालयी नदी बेसिन में एक लाख मेगावाट से अधिक पनबिजली का दोहन करने के लिए कई हजार बड़े, मध्यम और बड़े बांधों की योजना बनाई गई है, जिनमें से आधी ब्रह्मपुत्र से और शेष सिंधु और गंगा बेसिन से होंगी। पश्चिमी हिमालय में हिमाचल प्रदेश में देश की उच्चतम स्थापित जलविद्युत क्षमता 10,500 मेगावाट से अधिक है। सरकार इस क्षमता को दोगुना करने की योजना बना रही है।

बड़े पैमाने पर सड़क निर्माण भी चल रहा है, विशेष रूप से उत्तराखंड के चार प्रमुख तीर्थ स्थलों को जोड़ने और होटल और अन्य बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए 2016 में शुरू हुई 12,000 करोड़ रुपये की चार धाम परियोजना प्रमुख है। इस परियोजना को छोटी-छोटी परियोजनाओं में बांट कर पर्यावरण मंजूरी की प्रक्रिया को दरकिनार कर दिया गया है। 889 किलोमीटर लंबी परियोजना को, एक तथाकथित सभी मौसम वाली सड़क परियोजना कहा गया और 52 योजनाओं को 100 किलोमीटर से कम वाली परियोजनाओं में विभाजित कर दिया गया तथा  उन्हे पर्यावरणीय मूल्यांकन के बिना मंजूरी दे दी गई थी।

केदारनाथ शहर, जिसे 2013 में भारी नुकसान हुआ था, को पर्वतीय पारिस्थितिकी तंत्र की वहन क्षमता और नाजुकता की परवाह किए बिना पर्यटन को बढ़ावा देने के मक़सद के साथ अब उसका पुनर्निर्माण किया जा रहा है। आसपास के पर्यावरण पर प्रभाव और पारिस्थितिकी की भेद्यता के बारे में बहुत कम सोचा गया है। वैकल्पिक सुझावों को दरकिनार कर दिया गया है, जैसे विनियमित तीर्थयात्री यातायात के साथ कम ऊंचाई पर आवासीय बुनियादी ढांचे का निर्माण करना। उस पर खराब मौसम की घटनाओं के समय, भूस्खलन और ढलान अस्थिरता, और हिमनदों की निगरानी और इलाके की निगरानी लगभग न के बराबर है।

वैज्ञानिक समुदाय को चुप करना और सार्वजनिक आक्रोश को दबाना 

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) और उत्तराखंड सरकार ने इसरो समेत कई सरकारी संस्थानों को बिना पूर्वानुमति के जोशीमठ की स्थिति पर मीडिया के साथ बातचीत या सोशल मीडिया पर जानकारी साझा नहीं करने का निर्देश दिया है। तथ्यों और निष्कर्षों को साझा करने से वैज्ञानिक समुदाय को रोकना वर्तमान सरकार के दौरान पहला उदाहरण नहीं है। यह महामारी के दौरान भी हुआ था जब केंद्र सरकार ने सभी संस्थानों को बिना किसी पूर्वानुमति के जनता के साथ सूचना साझा करना बंद करने का निर्देश दिया था, जिसकी वजह से व्यापक रूप से अफवाहों और अवैज्ञानिक जानकारी फैलने की स्थिति बढ़ जाती है। 

जोशीमठ के निवासी डेढ़ साल से विरोध कर स्थानीय प्रशासन को लगातार चेतावनी दे रहे हैं कि ये परियोजनाएं उनके इलाके को तबाह कर देंगी। 2021 में, निवासियों और कार्यकर्ताओं ने केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के खिलाफ उत्तराखंड उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की थी। इसने जोशीमठ के पास धौलीगंगा-ऋषिगंगा उप-बेसिन में ब्लास्टिंग, स्टोन क्रशिंग और खनन गतिविधियों सहित कई को बंद करने की मांग की थी, और 105 मेगावाट ऋषिगंगा और 520 मेगावाट तपोवन-विष्णुगढ़ जलविद्युत परियोजनाओं के लिए पर्यावरण और वन मंजूरी को रद्द करने की भी मांग की थी। लेकिन एक आश्चर्यजनक फैसले में, उच्च न्यायालय ने जनता की याचिका को खारिज कर दिया और कहा कि उनकी  याचिका अत्यधिक प्रेरित है और याचिकाकर्ताओं को "एक अज्ञात हाथ की कठपुतली" बताते हुए एक आदेश पारित कर दिया था।

क्या हमने उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में 2013, 2021 और 2023 में आई आपदाओं की त्रासदियों से कोई सबक सीखा? यह महत्वपूर्ण सवाल है। इस सवाल का जवाब ही उत्तराखंड की नाजुक पारिस्थितिकी के भविष्य को तय करेगा। सबसे पहले तो, स्वतंत्र शोधकर्ताओं और विशेषज्ञों को शामिल कर, परियोजनाओं की तत्काल सुरक्षा और पर्यावरण समीक्षा जरूरी है। दूसरा, समीक्षा समान इलाकों के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत मानकों और प्रोटोकॉल पर आधारित होनी चाहिए। तीसरा, जलविद्युत, सड़क और रेलवे सहित किसी भी बड़ी विकास परियोजना की कल्पना, निर्माण और विकास करते समय पर्यावरण कानूनों और प्रोटोकॉल का सख्त पालन किया जाना चाहिए।

जोशीमठ एक चेतावनी है। यह न केवल पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील हिमालय में रहने वाले लोगों के लिए बड़ी चेतावनी है, बल्कि हिमालयी नदी प्रणालियों के तहत बाढ़ के मैदानों में रहने वालों की संभावित तबाही का भी संकेत है। साथ ही यह भी एक चेतावनी है कि समय रहते नाजुक और पर्यावरण रूप से संवेदनशील इलाकों में नासमझ, अवैज्ञानिक, खतरनाक, पर्यावरण की दृष्टि से हानिकारक और अलोकतांत्रिक विकास, बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को उलट दिया जाए। 

डॉ ओपी भूरैता, राज्य संसाधन केंद्र शिमला, हिमाचल प्रदेश के निदेशक हैं। व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं।

अनुवाद- महेश कुमार
साभार- न्यूजक्लिक

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