भारत के अधिकांश इतिहास में हिरासत में (कस्टोडियल) यातनाओं को महिमामंडित किया गया है। मुख्यधारा की फिल्मों के अधिकतर मर्दाना नायक "अपने हाथों में कानून लेने" के लिए उत्सुक हैं और बिना कानूनी प्रक्रियाओं का पालन किए, बिना देरी के न्याय देने का काम करते नजर आते हैं। प्रिंट मीडिया का एक धड़ा भी ऐसे लोगों द्वारा वर्दी में की गई ज्यादती पर सवाल नहीं उठाते हैं। दुर्भाग्य से, भारत में पुलिस को गिरफ्तारी प्रक्रियाओं को दरकिनार करने के लिए जाना जाता है। कभी-कभी तो हिरासत में लोगों की संदिग्ध तौर पर मौत हो जाती है।
ओडिशा के कटक में राज्य पुलिस मुख्यालय के कार्यालय से हाल ही में एक आरटीआई का जवाब मिला है, जिसमें कहा गया है कि 2016-2017 के बाद से पुलिस अधिकारियों से लेकर सिपाही तक की कुल 868 शिकायतें मिलीं। ये शिकायतें ज्यादातर पुलिस अधिकारियों तक ही सीमित रहती हैं। उनके विशेष पुलिस स्टेशन आम जनता से सीधे निपटते हैं। इसी आरटीआई का जवाब बताता है कि जब ऐसे अधिकारियों, पुलिसकर्मियों पर अनुशासनात्मक कार्रवाइयों की बात आई तो राज्य के कुल पुलिस अधिकारियों की संख्या शून्य थी। यानि 2016 और 2017 में जनता के साथ दुर्व्यवहार करने के मामलों में किसी भी पुलिसकर्मी, अधिकारी पर कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं की गई। रिपोर्ट में कहा गया है, “विभाग के साथ सब ठीक नहीं है’ के स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं। जनता के साथ गलत आचरण के लिए कांस्टेबल के रैंक से लेकर भारतीय पुलिस सेवा (IPS) कैडर तक पर आरोप लगे थे। लेकिन किसी पर अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं हुई।
2016 में कुल 439 ऐसे मामले दर्ज किए गए थे, जबकि 2017 में, कुल 429 ऐसे मामले दर्ज किए गए, जिनमें "शीर्ष माननीयों" के खिलाफ 21 शिकायतें शामिल थीं।
इस समग्र परिदृश्य में पूर्व आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट को हाल ही में दोषी ठहराए जाने के बाद 20 जून को 30 साल पुराने कथित कस्टोडियल डेथ केस में आजीवन कारावास की सजा ने एक बार फिर पुलिस मशीनरी में जवाबदेही का सवाल सबसे सामने ला दिया है। यह क्षेत्र एक ब्लैक होल बना हुआ है, जहाँ किसी पुलिस अधिकारी को अपराध के लिए ज़िम्मेदार बनाना न केवल लगभग असंभव है, बल्कि इस विषय पर डेटा या जानकारी जुटाना भी उतना ही मुश्किल है। भट्ट के मामले को राजनीतिक प्रतिशोध के आरोपों में भी रखा गया है क्योंकि राज्य सरकार ने पिछले सात वर्षों से उनके ऊपर कठोर मुकदमा चलाया था।
टाइम्स ऑफ इंडिया ने एक रिपोर्ट में बताया कि भारत में 2001 से 2016 के बीच हिरासत में 1,557 मौत हुईं, इसके बारे में पिछले साल नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़े उपलब्ध हैं। इन 16 वर्षों में, हिरासत में मौतों के लिए दोषी ठहराए गए पुलिसकर्मियों की संख्या 26 है, जो उत्तर प्रदेश में उनमें से अधिकांश हैं। एनसीआरबी के वार्षिक प्रकाशन 'क्राइम इन इंडिया' के संस्करणों से संकलित आंकड़ों से पता चलता है कि इस 16 साल की अवधि में, सबसे ज्यादा, कस्टोडियल मौतों की संख्या, 362 है। यह आंकड़ा महाराष्ट्र का है। इसके बाद आंध्र प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल का नाम आता है। इस अवधि में गुजरात 180 कस्टोडियल मौतों के साथ तीसरे नंबर पर है, इन अपराधों के लिए किसी अधिकारी को दोषी नहीं ठहराया गया है। ये वे राज्य हैं जहां 100 से ज्यादा कस्टोडियल डेथ दर्ज की गई हैं। इन राज्यों में किसी भी अधिकारी अथवा कांस्टेबल पर कार्रवाई नहीं हुई। कार्रवाई के मामले में सिर्फ यूपी का नाम आता है जहां हिरासत में हुई मौतों के लिए 17 पुलिसकर्मियों को दोषी ठहराया गया। भारत सरकार ने 2016 से इस तरह के मामलों पर डेटा अपलोड करना ही बंद कर दिया है।
ओडिशा के कटक में राज्य पुलिस मुख्यालय के कार्यालय से हाल ही में एक आरटीआई का जवाब मिला है, जिसमें कहा गया है कि 2016-2017 के बाद से पुलिस अधिकारियों से लेकर सिपाही तक की कुल 868 शिकायतें मिलीं। ये शिकायतें ज्यादातर पुलिस अधिकारियों तक ही सीमित रहती हैं। उनके विशेष पुलिस स्टेशन आम जनता से सीधे निपटते हैं। इसी आरटीआई का जवाब बताता है कि जब ऐसे अधिकारियों, पुलिसकर्मियों पर अनुशासनात्मक कार्रवाइयों की बात आई तो राज्य के कुल पुलिस अधिकारियों की संख्या शून्य थी। यानि 2016 और 2017 में जनता के साथ दुर्व्यवहार करने के मामलों में किसी भी पुलिसकर्मी, अधिकारी पर कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं की गई। रिपोर्ट में कहा गया है, “विभाग के साथ सब ठीक नहीं है’ के स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं। जनता के साथ गलत आचरण के लिए कांस्टेबल के रैंक से लेकर भारतीय पुलिस सेवा (IPS) कैडर तक पर आरोप लगे थे। लेकिन किसी पर अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं हुई।
2016 में कुल 439 ऐसे मामले दर्ज किए गए थे, जबकि 2017 में, कुल 429 ऐसे मामले दर्ज किए गए, जिनमें "शीर्ष माननीयों" के खिलाफ 21 शिकायतें शामिल थीं।
इस समग्र परिदृश्य में पूर्व आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट को हाल ही में दोषी ठहराए जाने के बाद 20 जून को 30 साल पुराने कथित कस्टोडियल डेथ केस में आजीवन कारावास की सजा ने एक बार फिर पुलिस मशीनरी में जवाबदेही का सवाल सबसे सामने ला दिया है। यह क्षेत्र एक ब्लैक होल बना हुआ है, जहाँ किसी पुलिस अधिकारी को अपराध के लिए ज़िम्मेदार बनाना न केवल लगभग असंभव है, बल्कि इस विषय पर डेटा या जानकारी जुटाना भी उतना ही मुश्किल है। भट्ट के मामले को राजनीतिक प्रतिशोध के आरोपों में भी रखा गया है क्योंकि राज्य सरकार ने पिछले सात वर्षों से उनके ऊपर कठोर मुकदमा चलाया था।
टाइम्स ऑफ इंडिया ने एक रिपोर्ट में बताया कि भारत में 2001 से 2016 के बीच हिरासत में 1,557 मौत हुईं, इसके बारे में पिछले साल नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़े उपलब्ध हैं। इन 16 वर्षों में, हिरासत में मौतों के लिए दोषी ठहराए गए पुलिसकर्मियों की संख्या 26 है, जो उत्तर प्रदेश में उनमें से अधिकांश हैं। एनसीआरबी के वार्षिक प्रकाशन 'क्राइम इन इंडिया' के संस्करणों से संकलित आंकड़ों से पता चलता है कि इस 16 साल की अवधि में, सबसे ज्यादा, कस्टोडियल मौतों की संख्या, 362 है। यह आंकड़ा महाराष्ट्र का है। इसके बाद आंध्र प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल का नाम आता है। इस अवधि में गुजरात 180 कस्टोडियल मौतों के साथ तीसरे नंबर पर है, इन अपराधों के लिए किसी अधिकारी को दोषी नहीं ठहराया गया है। ये वे राज्य हैं जहां 100 से ज्यादा कस्टोडियल डेथ दर्ज की गई हैं। इन राज्यों में किसी भी अधिकारी अथवा कांस्टेबल पर कार्रवाई नहीं हुई। कार्रवाई के मामले में सिर्फ यूपी का नाम आता है जहां हिरासत में हुई मौतों के लिए 17 पुलिसकर्मियों को दोषी ठहराया गया। भारत सरकार ने 2016 से इस तरह के मामलों पर डेटा अपलोड करना ही बंद कर दिया है।