भारत के सबसे अधिक आबादी वाले और राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण राज्य के भगवाधारी मुखिया, अजय बिष्ट, उर्फ (योगी) आदित्यनाथ, स्वनिर्मित जाल में फंसे नजर आ रहे हैं। क्रूर बर्बरता से किसानों का कुचला जाना और सरकारी पैंतरों से माहौल का और बिगड़ना, दोनों ने विपक्ष में जान फूंकने का काम किया है - ऐसा लग रहा है। पर क्या ऐसे समय में जब पूरे देश में इस दुखद त्रासदी से आक्रोश की लहर दौड़ रही है, क्या बिखरा हुआ विपक्ष इस मामले पर एकजुट होकर आगे बढ़ पायेगा?
अलग ढंग से कहें, तो क्या सभी विपक्षी दल इस महत्वपूर्ण लड़ाई में अपना रिक्त स्थान बचाते हुए, लोकतंत्र और विचार-विभिन्नता के आदर्शों के लिए लड़ने का काम भी करेंगे?
हाथरस के बाद आक्रोश चढ़ा, फिर उतर गया; राज्य भर में मुसलमानों के जीवन और आजीविका पर संगठित और उग्र हमलों पर राजनैतिक चुप्पी कायम है; एक पुलिस अफसर की हत्या और मनमाने एनकाउंटरों को भी अनदेखा किया गया। तो क्या विधान सभा चुनाव से चार महीने पहले मंत्री-पुत्र द्वारा किसानों की निर्मम हत्या से विपक्ष में यह चिंगारी जलेगी?
प्रियंका गांधी की नजरबंदी और अवैध गिरफ्तारी अपमानजनक थी और राजनीतिक तौर पे यह एक निरंतर हमले का केंद्र होना चाहिए। गैर भाजपाई विपक्ष इस पल का फायदा उठाए। सभी राजनेता, महिला नेतृत्व, नागरिक समाज के लोग और साधारण जनता को इस अवैध हिरासत की निंदा करने की जरूरत है सिर्फ इसीलिए नहीं की यह निंदनीय और असभ्य था पर इसलिए भी की यह एक खतरनाक मिसाल नहीं बननी चाहिए।
2017 से कानून या संविधान के परे चलते हुए मुख्यमंत्री ने पुलिस और शासन को खुली छूट दी हुई है। उन्होंने कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी को सोमवार, 4 अक्टूबर को सुबह लगभग 4.30 बजे से पहले कथित तौर पर सीआरपीसी की धारा 151 के तहत हिरासत में ले लिया। उन्हें सीतापुर जिले के भीतर सफर करते समय हिरासत में लिया गया जो कि लखीमपुर खीरी से लगभग 20 किलोमीटर दूर है जहां धारा 144 लागू थी। कथित तौर पर सीतापुर में धारा 144 लागू नहीं की गई थी लेकिन उन्हें बाहर जाने की अनुमति नहीं दी। बुधवार देर शाम (6 अक्टूबर) तक गेस्ट हाउस में हिरासत में रखा और बाद में 'गिरफ्तार' कर लिया गया। उनके वाहन में कांग्रेस प्रवक्ता दीपेंदर हुड्डा समेत चार-पांच लोग ही सवार थे।
इस मनमाने कदम में, योगी सरकार, अपने ही बनाये हुए अलोकतांत्रिक मिसालों से आगे निकल गई। उदाहरण के तौर पे, हाथरस रेप केस के बाद-राहुल और प्रियंका समेत विपक्षी नेताओं और पत्रकारों को मौके पर जाने से रोका गया। जाहिर है, जब किसानों की मौत की बात आती है, तो आदित्यनाथ सरकार खुद को बैकफुट पर पाती है और घटनाक्रम पर एक तरफ़ा नियंत्रण रखना चाहती है।
कानूनी दायरे से परे घटीं कुछ गौरतलब बातें :
क्या पुलिस किसी महिला को सूर्यास्त के बाद गिरफ्तार कर सकती है? क्या बिना वारंट के गिरफ्तारी की जा सकती है? क्या यह गिरफ्तारी थी, जैसा कि प्रियंका ने दावा किया, या नजरबंदी? और क्या पुलिस (पुरुष) को उनके साथ हाथापाई करने का अधिकार है?
उन्हें किसी वकील के पास जाने की अनुमति नहीं थी, अदालत के समक्ष 24 घंटे के भीतर भी पेश नहीं किया गया। जबकि तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) के कुछ सांसद लखीमपुर खीरी जा पा रहे थे। प्रियंका, जो स्पष्ट रूप से यूपी सरकार के निशाने पर थीं, उन्हें अनुमति नहीं दी गई। हालांकि, उन्होंने अपने समय का इस्तेमाल राजनीतिक सूझबूझ के साथ किया। गिरफ्तारी का वीडियो प्रियंका की गुस्से वाली प्रतिक्रिया के साथ वायरल हो गया, उन्हें धूल-धूसरित कमरे को साफ करते हुए दिखाया गया, उन्होंने साक्षात्कार दिया, कांग्रेस कार्यकर्ताओं को संबोधित किया। दरअसल, सीतापुर में मंगलवार देर रात कांग्रेस कार्यकर्ताओं की जोरदार मशाल यात्रा इस बात का सबूत है कि उन्हें व्यापक समर्थन मिला है।
'प्रियंका मास्टरपीस' वह वीडियो था जिसमें उन्होंने प्रधान मंत्री को संबोधित किया था। विडंबना यह है कि मंगलवार को प्रधानमंत्री को लखनऊ में 'आजादी का अमृत महोत्सव' में '75 विकास परियोजनाओं' का उद्घाटन करने का समय मिला लेकिन उन्हें सिर्फ तीन घंटे की ड्राइव की दूरी पर लखीमपुर खीरी में मृत किसानों और पत्रकार को श्रद्धांजलि देने का न तो अनुग्रह था और न ही समय या इच्छा।
पूरे दो दिनों तक मरने वालों के साथ किसी तरह के अस्थायी 'निपटान' करने के बाद, यूपी प्रशासन और केंद्र दोनों ही सभी विपक्षी नेताओं को परिवारों से मिलने से दूर रखने के लिए सुरक्षा तैनात करने में व्यस्त थे। जबकि मुख्य आरोपी आशीष मिश्रा, जिसकी पहचान कई चश्मदीदों ने की है, से पूछताछ नहीं की गई है, न ही हिरासत में लिया गया है और न ही गिरफ्तार किया गया है।
आखिरकार बहन-भाई की जोड़ी, प्रियंका और राहुल, पीड़ितों के परिवारों से मिलने और अपना दुख साझा करने के लिए लखीमपुर खीरी के लिए सीतापुर से रवाना हुए। 10 अक्टूबर, अगले रविवार को, प्रियंका प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में एक 'विशाल रैली' को संबोधित करने की योजना बना रही हैं। पूर्व मुख्यमंत्री और राज्य के प्रमुख विपक्षी नेता अखिलेश यादव, जो खुद भी घर में नजरबंद थे, वे भी गांव पहुंचे। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री, भूपेंद्र बघेल, जिन्हें पहले लखनऊ में उतरने की अनुमति नहीं थी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और पंजाब के नवनियुक्त मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के साथ लखीमपुर खीरी गए। छत्तीसगढ़ और पंजाब दोनों राज्य सरकारों ने परिवारों को 50 लाख रुपये देने का वादा किया है, जबकि यूपी सरकार ने पहले 45 लाख रुपये की घोषणा की थी। उम्मीद है कि मारे गए इकलौते पत्रकार के परिवार को भी उचित मुआवजा मिलेगा।
अब समय आ गया है कि पूरे विपक्ष को एकजुट होकर यूपी में अपनी ताकत साबित करनी चाहिए। उन्हें न केवल प्रियंका की गिरफ्तारी की निंदा करनी चाहिए और एकजुटता के साथ सीतापुर पहुंचना चाहिए, बल्कि उन्हें संयुक्त विरोध रैलियां और प्रेस कॉन्फ्रेंस करनी चाहिए। एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने हत्याओं की तुलना जलियांवाला बाग हत्याकांड से की है। महाराष्ट्र कैबिनेट ने हत्याओं के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित किया है। अन्य विपक्षी दलों को प्रभावी ढंग से और तुरंत शामिल होना चाहिए और प्रतिरोध को बनाए रखना चाहिए।
समय आ गया है कि योगी सरकार की निरंतर और निर्लज्ज क्रूरता को समाप्त किया जाए - मौका है - सामने ही चुनाव है। साहसी किसान आंदोलन किसी भी राजनीतिक दल के साथ गठबंधन के मामले में अपनी दूरी बनाए रख सकता है, लेकिन इससे इस शासन के खिलाफ विपक्षी एकता नहीं रुकनी चाहिए। केंद्रीय कैबिनेट में गृह राज्य मंत्री को बर्खास्त करने की मांग को बार-बार दोहराने की जरूरत है।
लोकतंत्र में अक्सर पार्टियां उन मुद्दों पर जगह बनाने के लिए एक दूसरे से संघर्ष करती हैं जो विपक्ष और विरोधी राजनीति में अहम हो जाए। ये मुद्दे मूल्य वृद्धि, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, राष्ट्रीय सुरक्षा, बढ़ते अपराध, दलितों और आदिवासियों पर अत्याचार, महिलाओं पर हमले होते हैं यदि हम कुछ शांत वर्षों को याद करे। तत्कालीन प्रधान मंत्री, जवाहरलाल नेहरू द्वारा एक युवा अटल बिहारी वाजपेयी को सम्मानजनक स्थान दिया गया था, जबकि उन्होंने 1962 में चीनी घुसपैठ के दौरान सरकार की कड़ी आलोचना की थी। अन्य, अधिक आक्रामक समय में दक्षिणपंथी महिला नेताओं को पाकिस्तानी सीमा पर हमारे सैनिकों की मौत पर, या तेल या खाद्य कीमतों में वृद्धि को लेकर सार्वजनिक रूप से जुझारू छाती पीटते हुए देखा गया है। संयोग से, पेट्रोल की कीमतें 100 रुपये से अधिक के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई हैं और रसोई गैस की कीमतों में हर दूसरे दिन वृद्धि की जा रही है।
मेरे घर, मुंबई पर 2008 के आतंकवादी हमलों के बाद, पड़ोसी राज्य गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी विपक्षी नेता के तौर पर वहां पहुंचे लेकिन तब एक मुख्यमंत्री के आगमन को किसी के द्वारा 'गिद्ध' या 'इस मुद्दे पर राजनीति' बोलकर बदनाम नहीं किया गया था। याद करे की दिवंगत कविता करकरे, अपने पति हेमंत करकरे की उस घातक रात (26 नवंबर) की गोली मारकर हत्या के बाद दुखी और शोक संतप्त होने के बाद भी मोदी की यात्रा के दौरान दी जाने वाली सहायता को दृढ़ता से अस्वीकार कर दिया था।
आपातकाल (1975-1977) से लड़ने के लिए वाम और दक्षिणपंथ ने एक साथ लड़ाई लड़ी। यह सब इसलिए हुआ और हो सकता है क्योंकि धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के मूल सिद्धांत और नैतिक आधार चारो तरफ अभिलषित थे । इसका मतलब है कि राजनीतिक विपक्ष का अपना लोकतांत्रिक स्थान रखने का अधिकार है। और अधिकार है राजनीतिक असंतोष व्यक्त करने का जब लोकतंत्र तानाशाही की राह चल पड़े। इसलिए, विपक्ष के लिए यह मौका हाथ से जाने देना एक बड़ी भूल साबित होगी।
सवाल यह है कि क्या यह त्रासदी जिसने योगी-मोदी गठबंधन को एक बार फिर बेनकाब कर दिया है, वास्तव में एक बहुसंख्यक और तानाशाही शासन से जूझने में एक निर्णायक लड़ाई के रूप में उभरेगी ? क्या यह वाकया देश में बहुल और धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक लोकतंत्र के सार और भावना को पुनर्जीवित करेगी? क्या विपक्ष एकजुट होगा और इस ऐतिहासिक क्षण की चुनौती पे खरा उतरेगा?
Trans: Bhaven
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अलग ढंग से कहें, तो क्या सभी विपक्षी दल इस महत्वपूर्ण लड़ाई में अपना रिक्त स्थान बचाते हुए, लोकतंत्र और विचार-विभिन्नता के आदर्शों के लिए लड़ने का काम भी करेंगे?
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प्रियंका गांधी की नजरबंदी और अवैध गिरफ्तारी अपमानजनक थी और राजनीतिक तौर पे यह एक निरंतर हमले का केंद्र होना चाहिए। गैर भाजपाई विपक्ष इस पल का फायदा उठाए। सभी राजनेता, महिला नेतृत्व, नागरिक समाज के लोग और साधारण जनता को इस अवैध हिरासत की निंदा करने की जरूरत है सिर्फ इसीलिए नहीं की यह निंदनीय और असभ्य था पर इसलिए भी की यह एक खतरनाक मिसाल नहीं बननी चाहिए।
2017 से कानून या संविधान के परे चलते हुए मुख्यमंत्री ने पुलिस और शासन को खुली छूट दी हुई है। उन्होंने कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी को सोमवार, 4 अक्टूबर को सुबह लगभग 4.30 बजे से पहले कथित तौर पर सीआरपीसी की धारा 151 के तहत हिरासत में ले लिया। उन्हें सीतापुर जिले के भीतर सफर करते समय हिरासत में लिया गया जो कि लखीमपुर खीरी से लगभग 20 किलोमीटर दूर है जहां धारा 144 लागू थी। कथित तौर पर सीतापुर में धारा 144 लागू नहीं की गई थी लेकिन उन्हें बाहर जाने की अनुमति नहीं दी। बुधवार देर शाम (6 अक्टूबर) तक गेस्ट हाउस में हिरासत में रखा और बाद में 'गिरफ्तार' कर लिया गया। उनके वाहन में कांग्रेस प्रवक्ता दीपेंदर हुड्डा समेत चार-पांच लोग ही सवार थे।
इस मनमाने कदम में, योगी सरकार, अपने ही बनाये हुए अलोकतांत्रिक मिसालों से आगे निकल गई। उदाहरण के तौर पे, हाथरस रेप केस के बाद-राहुल और प्रियंका समेत विपक्षी नेताओं और पत्रकारों को मौके पर जाने से रोका गया। जाहिर है, जब किसानों की मौत की बात आती है, तो आदित्यनाथ सरकार खुद को बैकफुट पर पाती है और घटनाक्रम पर एक तरफ़ा नियंत्रण रखना चाहती है।
कानूनी दायरे से परे घटीं कुछ गौरतलब बातें :
क्या पुलिस किसी महिला को सूर्यास्त के बाद गिरफ्तार कर सकती है? क्या बिना वारंट के गिरफ्तारी की जा सकती है? क्या यह गिरफ्तारी थी, जैसा कि प्रियंका ने दावा किया, या नजरबंदी? और क्या पुलिस (पुरुष) को उनके साथ हाथापाई करने का अधिकार है?
उन्हें किसी वकील के पास जाने की अनुमति नहीं थी, अदालत के समक्ष 24 घंटे के भीतर भी पेश नहीं किया गया। जबकि तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) के कुछ सांसद लखीमपुर खीरी जा पा रहे थे। प्रियंका, जो स्पष्ट रूप से यूपी सरकार के निशाने पर थीं, उन्हें अनुमति नहीं दी गई। हालांकि, उन्होंने अपने समय का इस्तेमाल राजनीतिक सूझबूझ के साथ किया। गिरफ्तारी का वीडियो प्रियंका की गुस्से वाली प्रतिक्रिया के साथ वायरल हो गया, उन्हें धूल-धूसरित कमरे को साफ करते हुए दिखाया गया, उन्होंने साक्षात्कार दिया, कांग्रेस कार्यकर्ताओं को संबोधित किया। दरअसल, सीतापुर में मंगलवार देर रात कांग्रेस कार्यकर्ताओं की जोरदार मशाल यात्रा इस बात का सबूत है कि उन्हें व्यापक समर्थन मिला है।
'प्रियंका मास्टरपीस' वह वीडियो था जिसमें उन्होंने प्रधान मंत्री को संबोधित किया था। विडंबना यह है कि मंगलवार को प्रधानमंत्री को लखनऊ में 'आजादी का अमृत महोत्सव' में '75 विकास परियोजनाओं' का उद्घाटन करने का समय मिला लेकिन उन्हें सिर्फ तीन घंटे की ड्राइव की दूरी पर लखीमपुर खीरी में मृत किसानों और पत्रकार को श्रद्धांजलि देने का न तो अनुग्रह था और न ही समय या इच्छा।
पूरे दो दिनों तक मरने वालों के साथ किसी तरह के अस्थायी 'निपटान' करने के बाद, यूपी प्रशासन और केंद्र दोनों ही सभी विपक्षी नेताओं को परिवारों से मिलने से दूर रखने के लिए सुरक्षा तैनात करने में व्यस्त थे। जबकि मुख्य आरोपी आशीष मिश्रा, जिसकी पहचान कई चश्मदीदों ने की है, से पूछताछ नहीं की गई है, न ही हिरासत में लिया गया है और न ही गिरफ्तार किया गया है।
आखिरकार बहन-भाई की जोड़ी, प्रियंका और राहुल, पीड़ितों के परिवारों से मिलने और अपना दुख साझा करने के लिए लखीमपुर खीरी के लिए सीतापुर से रवाना हुए। 10 अक्टूबर, अगले रविवार को, प्रियंका प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में एक 'विशाल रैली' को संबोधित करने की योजना बना रही हैं। पूर्व मुख्यमंत्री और राज्य के प्रमुख विपक्षी नेता अखिलेश यादव, जो खुद भी घर में नजरबंद थे, वे भी गांव पहुंचे। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री, भूपेंद्र बघेल, जिन्हें पहले लखनऊ में उतरने की अनुमति नहीं थी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और पंजाब के नवनियुक्त मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के साथ लखीमपुर खीरी गए। छत्तीसगढ़ और पंजाब दोनों राज्य सरकारों ने परिवारों को 50 लाख रुपये देने का वादा किया है, जबकि यूपी सरकार ने पहले 45 लाख रुपये की घोषणा की थी। उम्मीद है कि मारे गए इकलौते पत्रकार के परिवार को भी उचित मुआवजा मिलेगा।
अब समय आ गया है कि पूरे विपक्ष को एकजुट होकर यूपी में अपनी ताकत साबित करनी चाहिए। उन्हें न केवल प्रियंका की गिरफ्तारी की निंदा करनी चाहिए और एकजुटता के साथ सीतापुर पहुंचना चाहिए, बल्कि उन्हें संयुक्त विरोध रैलियां और प्रेस कॉन्फ्रेंस करनी चाहिए। एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने हत्याओं की तुलना जलियांवाला बाग हत्याकांड से की है। महाराष्ट्र कैबिनेट ने हत्याओं के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित किया है। अन्य विपक्षी दलों को प्रभावी ढंग से और तुरंत शामिल होना चाहिए और प्रतिरोध को बनाए रखना चाहिए।
समय आ गया है कि योगी सरकार की निरंतर और निर्लज्ज क्रूरता को समाप्त किया जाए - मौका है - सामने ही चुनाव है। साहसी किसान आंदोलन किसी भी राजनीतिक दल के साथ गठबंधन के मामले में अपनी दूरी बनाए रख सकता है, लेकिन इससे इस शासन के खिलाफ विपक्षी एकता नहीं रुकनी चाहिए। केंद्रीय कैबिनेट में गृह राज्य मंत्री को बर्खास्त करने की मांग को बार-बार दोहराने की जरूरत है।
लोकतंत्र में अक्सर पार्टियां उन मुद्दों पर जगह बनाने के लिए एक दूसरे से संघर्ष करती हैं जो विपक्ष और विरोधी राजनीति में अहम हो जाए। ये मुद्दे मूल्य वृद्धि, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, राष्ट्रीय सुरक्षा, बढ़ते अपराध, दलितों और आदिवासियों पर अत्याचार, महिलाओं पर हमले होते हैं यदि हम कुछ शांत वर्षों को याद करे। तत्कालीन प्रधान मंत्री, जवाहरलाल नेहरू द्वारा एक युवा अटल बिहारी वाजपेयी को सम्मानजनक स्थान दिया गया था, जबकि उन्होंने 1962 में चीनी घुसपैठ के दौरान सरकार की कड़ी आलोचना की थी। अन्य, अधिक आक्रामक समय में दक्षिणपंथी महिला नेताओं को पाकिस्तानी सीमा पर हमारे सैनिकों की मौत पर, या तेल या खाद्य कीमतों में वृद्धि को लेकर सार्वजनिक रूप से जुझारू छाती पीटते हुए देखा गया है। संयोग से, पेट्रोल की कीमतें 100 रुपये से अधिक के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई हैं और रसोई गैस की कीमतों में हर दूसरे दिन वृद्धि की जा रही है।
मेरे घर, मुंबई पर 2008 के आतंकवादी हमलों के बाद, पड़ोसी राज्य गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी विपक्षी नेता के तौर पर वहां पहुंचे लेकिन तब एक मुख्यमंत्री के आगमन को किसी के द्वारा 'गिद्ध' या 'इस मुद्दे पर राजनीति' बोलकर बदनाम नहीं किया गया था। याद करे की दिवंगत कविता करकरे, अपने पति हेमंत करकरे की उस घातक रात (26 नवंबर) की गोली मारकर हत्या के बाद दुखी और शोक संतप्त होने के बाद भी मोदी की यात्रा के दौरान दी जाने वाली सहायता को दृढ़ता से अस्वीकार कर दिया था।
आपातकाल (1975-1977) से लड़ने के लिए वाम और दक्षिणपंथ ने एक साथ लड़ाई लड़ी। यह सब इसलिए हुआ और हो सकता है क्योंकि धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के मूल सिद्धांत और नैतिक आधार चारो तरफ अभिलषित थे । इसका मतलब है कि राजनीतिक विपक्ष का अपना लोकतांत्रिक स्थान रखने का अधिकार है। और अधिकार है राजनीतिक असंतोष व्यक्त करने का जब लोकतंत्र तानाशाही की राह चल पड़े। इसलिए, विपक्ष के लिए यह मौका हाथ से जाने देना एक बड़ी भूल साबित होगी।
सवाल यह है कि क्या यह त्रासदी जिसने योगी-मोदी गठबंधन को एक बार फिर बेनकाब कर दिया है, वास्तव में एक बहुसंख्यक और तानाशाही शासन से जूझने में एक निर्णायक लड़ाई के रूप में उभरेगी ? क्या यह वाकया देश में बहुल और धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक लोकतंत्र के सार और भावना को पुनर्जीवित करेगी? क्या विपक्ष एकजुट होगा और इस ऐतिहासिक क्षण की चुनौती पे खरा उतरेगा?
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