सीलिंग मामले में उत्तराखंड हाई कोर्ट का रुख प्रदेश के दलित आदिवासियों के लिए आशा की किरण

Written by Vidya Bhushan Rawat | Published on: October 2, 2017
कई बार बरसो के इंतज़ार के बाद ऐसे होता है के इतने सालो के संघर्ष में आपके साथ हुई परेशानियों को आप भूल जाते है . १९९७ से शहीद उधम सिंह नगर के दलितों के हक़ के चल रही लड़ाई से जब मैंने अपने को जोड़ा था तो इतने उतार चढाव के दौर देखे . लोग शायद भूल भी चुके थे क्योंकि न्याय की प्रक्रिया इतनी बड़ी और जटिल है के ये संविधान और परिभाषाओं में घिर के रह जाती है. इतने वर्षो में सीलिंग कानून को सही प्रकार से लागु करने के लिए इलाहबाद हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक और फिर लोकायुक्त से लेकर दोबारा से सुप्रीम कोर्ट ओर हाई कोर्ट के मेरे चक्करों पर पूरी एक पुस्तक तैयार है . मैं केवल एक सवाल पूछता हूँ के जब मुझ जैसे व्यक्ति को जिसे थोडा बहुत जानकारी है एक कानून के सही पालन करवाने के लिए २० से ऊपर साल लग रहे है तो फिर जिनका सब कुछ लुट रहा हो या लुट गया हो वो क्या करेंगे. केवल एक ही ताकत मेरे साथ थी और वो था मेरा दृढ निश्चय के इस मामले को अंत तक पहुंचाया जायेगा चाहे कुछ हो . लोग साथ हों या नहीं. जमीन के मामलो में तो वैसे ही कोई साथ  नहीं आता .

Uttarakhand High Court

दरअसल १९९२ से ही एस्कॉर्ट फर्म्स की लगभग १०८९ जमीन को सीलिंग कानून से बचाने के लिए अधिकारी और कंपनी दोनों ही काम कर रहे थे . उस जमीन पर काबिज कई लोगो में १५० दलितों का एक छोटा सा गाँव भी था जिसका नाम आंबेडकर गाँव था. वहा छोटा सा स्कूल, पंचायत भवन आदि सभी बने थे लेकिन एस्कॉर्ट के मालिको को जैसे इन दलितों को छोड़ और किसी से कोई दिक्कत नहीं थी. वे इस जमीन पर पंजाब से बड़े सिक्खों को धीरे धीरे बसा रहे थे ताकि सीलिंग कानून से बचा जा सके . १५० दलितों की बस्ती को सरकारी अधिकारियों और कंपनी की चालबाजियो के जरिये मार पीट कर उस जमीन से खदेड़ दिया गया ताकि वे किसी भी तरीके से मुकदम्मे का हिस्सा न बने . सरकारी अधिकारियों की भी यही इच्छा थी ताकि कंपनी से पैसा खाकर वे फिर जमीन उन्ही के हवाले कर दे . लेकिन आंबेडकर गाव संघर्ष समिति के हमारे साथियो ने सूबेदार जसराम के नेतृत्व में न्याय प्रक्रिया का दरवाजा खटकाया . उनको मुकदमे में पार्टी तो नहीं बनाया गया लेकिन अल्लाहाबाद हाई कोर्ट से ही उनकी उपस्थति के बारे में न्यायलय को पता चल चूका था .

न्यायमूर्ति श्री आर एन मेह्त्रोत्रा ने इस में एस्कॉर्ट की जमीन को सीलिंग सरप्लस घोषित करने के आदेश को सही ठहराया और उनको इस दलित बस्ती को बसाने के लिए १० लाख का मुआवजा देने की बात भी कही लेकिन कंपनी ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जहाँ पर फरवरी २००४ में जस्टिस शिव राज पाटिल और जस्टिस धर्माधिकारी की पीठ ने अलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्णय पर मुहर लगा दी और कंपनी पर दंड लगाने के लिए अधिकारियों को निर्णय करने का आदेश दिया और दस लाख के जुर्माने की बात को ये कहते हुए ख़ारिज कर दिया के ये प्रशाशनिक मामला है और इसे तय करना का अधिकार न्यायलय का नहीं है .

हमारी लड़ाई इसके बाद मुश्किल हुई . मई २००४ में यू पी ए सरकार आई . नेशनल एडवाइजरी कौंसिल बनी जिसकी अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गाँधी थी . हमें पता चल चूका था के सरकार इस जमीन पर कोई कार्यवाही नहीं कर रही है . मैंने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की कॉपी ऑफ़ सोनिया गाँधी के ऑफिस भिजवाया और पूरे case की संक्षिपत जानकारी भी लिखी. मैंने इस सन्दर्भ में शुरू से लेकर लिखा इसलिए मेरे पास पूरे सबूत लिखित में थे . सोनिया जी ने इसको उत्तराखंड सरकार को सौंप दिया . श्री नारायण दत्त तिवारी की सरकार इस पर कोई कार्यवाही करने को तैयार नहीं थी क्योंकि तराई में आज की समस्याओ के लिए तिवारी जी बहुत हद तक जिम्मेवार हैं . जब सरकार कुछ नहीं कर रही थी तो मैंने फिर लिखा के सरकार सीलिंग सरप्लस लैंड को अपने कब्जे में क्यों नहीं ले रहे है . मैं जानता था के उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड  के अधिकारी दलितों आदिवासियों को जमीन आवंटन में कोई दिलचस्पी नहीं दिखात्ते . मैंने एक पत्र के मार्फ़त पूछना चाहा के आखिर ये जमीन का सेटलमेंट कब होगा. सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट बार बार जाने का हमारा कोई इरादा नहीं था इसलिए हमने सूबेदार जसराम के मार्फ़त लोकायुक्त को एप्रोच किया लेकिन उत्तराखंड के अधिकारी कुछ नहीं कर रहे थे . फिर जनवरी २००५ में आनन् फानन में उत्तराखंड सरकार ने पुलिस कार्यवाही कर वहा बसे सीखो के घर उजाड़ दिए जिसके कारण हंगामा हुआ और पंजाब की लॉबी, अकालीदल और भाजपा कांग्रेस सभी ने मिलकर इस पर हंगामा खड़ा कर दिया के उत्तराखंड में सिखों के खिलाफ अन्याय हो रहा है. हालाँकि हम फिर बता देना चाहते हैं के ये सिखों का मामला नहीं है अपितु सीलिंग कानून का प्रश्न है और दलितों आदिवासियों के जमीन के अधिकारों का सवाल है. तिवारी जी ने अपने मंत्रियो को भेज कर जिन लोगो के घर उजड़े थे उन्हें मुआवजा दिलवा दिया और उन्हें कानूनी पट्टे देने की बात कही दी .अब वे लोग जो वहां पर गैर कानूनी तरीके से बसे थे और जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने ये माना के एस्कॉर्ट फर्म्स ने सीलिंग से बचने के लिए उन्हें बसाया गया था, आज सरकार की चालाकी के चलते उसी भूमि के कानूनी मालिक बन बैठे और जो दलित वहां पहले से बसे थे वो दर दर की ठोकरे खा रहे थे और सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार झेल रहे थे. उत्तराखंड के मुख्यधारा के नेताओं और आन्दोलन को तराई के इन हालातो से कुछ लेना देना नहीं था नहीं तो ये आज के दौर का एक बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण आन्दोलन बन चूका होता .

हमने माननीय लोकायुक्त के संज्ञान में ये बात लायी. दो वर्ष हुए मैं और सूबेदार जसराम लगातार चक्कर लगाते रहे लेकिन अधिकारी न तो अपनी गलती मानने को तैयार थे और न ही दलितों को एक भी इंच भूमि देने को तैयार थे . अंततः लोकायुक्त ने जो रिपोर्ट दी उस में साफ़ तौर पर लिखा के उत्तराखंड सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना की है और इसके लिए जिला अधिकारी और सम्बंधित विभाग के सचिव दोषी है . जैसा होता है लोकायुक्त की रिपोर्ट को सरकार ने ठन्डे बस्ते में डाल दिया . उस रिपोर्ट के आधार पर मैंने सोशल डेवलपमेंट फाउंडेशन की और से सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की जो जस्टिस के जी बालाकृष्णन की अदालत में एक वर्ष तक पड़ी रही क्योंकि उन्हें सुनने का समय नहीं था . फिर जस्टिस कपाडिया जब मुख्या न्यायाधीश बने तो उन्होंने पहली ही सुनवाई में हमें उत्तराखंड हाई कोर्ट में जाने के लिए कहा .

उत्तराखंड उच्च न्यायालय के मुख्या न्यायाधीश जस्टिस बरिन घोष ने हमारी याचिका में सुनवाई की और जो निर्णय आया वो जानना जरुरी है . उस वक़्त तक न्यायलय में उत्तराखंडसरकार के वकीलों की केवल एक ही रट थी के सीलिंग सरप्लस जमीन का बंटवारा कैसे होना है ये सरकार का अधिकार है और इसे कोई चुनौती नहीं दे सकता . जस्टिस घोष ने सरकार को कहा के ज़मींदारी उन्मूलन अधिनियम की धारा २७ का अनुच्छेद १९८ बहुत महत्वपूर्ण है जिसमे सरकार को भूमि का प्रबंधन जनहित के अलावा प्राथामिकताओ के आधार पर लोगो को भूमि का आवंटन करना पड़ेगा जिसमे सर्वप्रथम युध्ह में मारे गए शहीदों के परिवार  लिए आवंटन, आपातकालीन आपदा से ग्रस्त लोगो के लिए आवंटन, अनुसूचित जाति और जनजाति के भूमिहीन परिवारों के लिए आवंटन और अन्य . इस प्रकार से उन्होंने पुछा के क्या आपने कोई वितरण किया है तो उस वक्त सरकार ने कोर्ट में झूठ बोलकर अपनी जान बचाई के अभी वितरण नहीं हुआ है इसलिए जस्टिस बरीन घोष ने एक वर्ष का समय दिया .

लगभग डेढ़ वर्ष बाद हम फिर कोर्ट में पहुंचे तो अवमानना की याचिका के साथ पर दुसरे जज साहेब ने ये कहते हुए याचिका डिसमिस कर दी के नयी सरकार है और आपको उन्हें स्वयं जा कर निर्णय की कॉपी देनी चाहिए थी जबकि सरकार के वकील हमेशा हमारी याचिका में उपलब्ध थे . उसके विरुद्ध फिर सुप्रीम कोर्ट गए और एक वर्ष में वहा भी तरह तरह के दबाव झेलते हुए हमें दोबारा उत्तराखंड हाई कोर्ट आना पड़ा . २०१३  में जस्टिस बरीन घोष ने याचिका को बहुत मुश्किल से स्वीकार तो कर लिया लेकिन अपने रिटायरमेंट होने तक उन्होंने याचिका को सुना नहीं . नए मुख्या न्यायाधीश जस्टिस के एम्  जोसफ भी २०१४ में आये और उनकी अदालत में एक दो बार सुनवाई हुई लेकिन पिछले एक वर्ष लगातार याचिका फाइनल हियरिंग के लिए होते हुए भी सुनवाई के लिए नहीं पहुँच पा रही थी. अंततः

२१ सितम्बर २०१७ को जब सुम्वाई हुइ तो जस्टिस के एम् जोसफ और जस्टिस आलोक सिंह ने पर्याप्त समय देते हुए याचिका पर सुनवाई की और इस याचिका को एक नया मोड़ भी दे दिया . उन्होने न केवल याचिका का दायरा बढाकर सम्पूर्ण उत्तराखंड कर दिया अपितु इसमें कई नए प्रश्न खड़े कर दिए जिनका जवाब देना अधिकारियों के लिए थोडा मुश्किल तो जरुर होगा लेकिन हम समझते हैं के ये प्रश्न उत्तराखंड में भूमि के प्रश्नों और दलित आदिवासियों के उन पर अधिकारों के हिसाब से बहुत महत्वपूर्ण बन गए हैं . हम उम्मीद करते हैं के अधिकारियों का रवैय्या इस विषय में सकारात्मक रहेगा .

 चीफ जस्टिस पी के जोसफ ने उत्तराखंड सरकार से पुछा :
  1. शहीद उधम सिंह नगर ही नहीं अपितु पूरे उत्तराखंड में सीलिंग सरप्लस लैंड की स्थिति क्या है.
  2. सीलिंग एक्ट की धारा २५ के अंतर्गत किन किन लोगो और प्रतिष्ठानों को भूमि आवंटित की गयी है और उसकी क्या शर्ते हैं .
  3. भूमि सुधार अधिनिनियम की धारा २७ के अंतर्गत क्या भूमि का सेटलमेंट किया गया है या नहीं और यदि हाँ तो कितना . पूरे प्रदेश के आंकड़े मांगे गए हैं .
  4. सरकार को एक एफिडेविट देकर बताना  होगा के उत्तराखंड में क्या कोई भी आदिवासी कृषि श्रमिक भूमिहीन है या नहीं और जिनको भूमि अधिनियम की धारा १९८ के तहत जमीन का आवंटन नहीं हुआ है . दरअसल सरकार के वकील की दलील थी के प्रदेश में कोई भी आदिवासी भूमिहीन नहीं है इसलिए उत्तराखंड बनने के बाद किसी भी आदिवासी को भूमि आवंटित नहीं की गयी है .
  5. सेक्शन २५ के तहत आवंटित भूखंडो के बारे में उनकी शर्तो के अलावा ये भी बताना होंगा के क्या वे स्थाई तौर पर दी गयी है या अस्थाई.
उम्मीद है के हाई कोर्ट अपने  अंतिम निर्णय में न केवल संवैधानिक प्रश्नों की बेबाक व्याख्या करेगा अपितु उसके निर्णय से धरातल पर भूमिहीन दलित आदिवासियों और अन्य भूमिहीनों को भी व्यापक लाभ होगा . ये भी आवश्यक है हाई कोर्ट ‘जन हित ‘ की व्याख्या करे क्योंकि आज सबसे ज्यादा विस्थापन और भूमि का अधिग्रहण जनहित के नाम पर हुआ है . दुसरे ये के क्या सरकार के पात असीमित अधिकार है भूमि अधिग्रहण और उसके सेटलमेंट के और जो प्रश्न इस याचिका के मार्फ़त उठे हैं क्या सेक्शन २७ महत्वपूर्ण है या सेक्शन २५. हम ये मानते हैं के सीलिंग कानून हो या ज़मींदारी उन्मूलन, ये सभी सामाजिक न्याय के कानून है जो ऐतिहासिक अन्याय को ख़त्म करने के लिए बने हैं इसलिए सीलिंग की अतिरिक्त भूमि के आवंटन में जनहित की सबसे पहले बात भूमिहीन लोगो की होनी चाहिए. जनहित में यदि जनता ही नदारद होती तो हित किस बात का .

अगर बीस वर्षो के संघर्ष के बाद भी लोगो को न्याय मिलेगा तो मैं समझता हूँ के इस संघर्ष में मैंने जो भूमिका अदा की है. मैं जनता हूँ के गरीब जनता के पास न्याय पर विश्वास करने के लिए कुछ नहीं है और वो खामोश है क्योंकि उन्हें लगता है अब कानून पर चल कर कुछ मिलने वाला नहीं लेकिन उसने विद्रोह नहीं किया अपितु अपनी जिंदगी को दोबारा शुरू किया . कोर्ट कचहरी से दूर. मुझे बहुत से लोगो ने कहा के ये लड़ाई कभी ख़त्म नहीं होने वाली और तुम्हे इससे कुछ हासिल नहीं होने वाला लेकिन मेरा तो निर्णय था के अगर किसी काम को लो तो उसे अंत तक पहुँचाओ नहीं तो मत लो. इस पूरे संघर्ष में मुझे बहुत परेशानिया झेलनी पड़ी है लेकिन उसकी बात फिर कभी अभी तो केवल इतना के अगर कोर्ट का निर्णय हमारे संघर्षरत साथियो और अन्य भूमिहीनों को लाभ पहुंचाता है तो वो मेरे लिए बेहद  आत्मीय संतोष की बात होगी और मुझे उम्मीद है के इससे देश भर में चल रहे भूमि आन्दोलनों को भी   भी एक नयी  दिशा मिलेगी .
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