उदारीकरण आज एक चिर परिचित शब्द है. आर्थिक उदारीकरण के 30 साल पुरे हो चके हैं. नव उदारवादी नीतियों की गोद में बैठकर अस्तित्व में आए उदारीकरण के ध्येताओं द्वारा उदारीकरण की नीतियों के पक्ष में कई बयान दिए गए हैं.
भारत के सबसे अमीर पूंजीपति मुकेश अम्बानी ने भी 3 दशक की उपलब्धि बताते हुए लेख लिखे. जब से आर्थिक उदारीकरण का आगमन देश में हुआ है चंद पूंजीपतियों को लाभ पहुँचाने के लिए लगातार कई जनविरोधी नीतियों को लाया गया है जो वर्तमान में भी तीव्रता के साथ जारी है. इन नीतियों के कारण भुखमरी, कुपोषण, और गरीबी का चेहरा और भयावह हुआ है. आज खेत, किसान, श्रम, श्रमिक, मजदूर, महिला,पर्यावरण, बारिश तापमान के बजाय मंदिर, मस्जिद, लव जिहाद, गौ माता, ज्यादा बड़े मुद्दे हो चुके हैं.
देश के विकास का मतलब आज आर्थिक विकास तक ही सिमट कर रह गया है. सामाजिक, राजनीतिक, मानवीय विकास या इनके अन्य पहलू गौण होते चले जा रहे हैं. छद्म आर्थिक विकास की चमक समाज में असमानता और गरीबी जैसी समस्याओं में भी सकारात्मकता खोज निकालती है. वायर की रिपोर्ट के अनुसार, “वर्तमान विकास मिथ्या सकारात्मकता का सबसे ज्यादा निर्माण करती है. वर्ष 2018 की फोर्ब्स की रिपोर्ट (जो केवल दुनिया के अमीरों के काम, जीवन शैली, और उनकी कमाई पर अध्ययन प्रकाशित करती है) के मुताबिक भारत के 100 अरबपतियों की कुल सम्पदा 32,964 अरब रूपये थी. वर्ष 2017 के अनंतिम आंकड़ों के अनुसार भारत के सबसे ज्यादा संपन्न 100 लोगों की कुल सम्पदा इस देश के 29.23 करोड़ लोगों की एक साल की कमाई है”.
उदारीकरण क्या है:
उदारीकरण का तात्पर्य उदार दृष्टिकोण से होता है फिर चाहे वह सामजिक क्षेत्र में हो, राजनीतिक या आर्थिक क्षेत्र में हो. उदारीकरण पिछले तीन दशक में भारत की व्यापरिक दुनिया में लाया गया एक बड़ा बदलाव है. यहाँ आर्थिक परिपेक्ष्य में उदारीकरण की चर्चा हो रही है. यह एक नयी आर्थिक नीति है जिसके द्वारा व्यवसाय और उद्योग पर लगे प्रतिबंधों को कम किया गया है या यूँ कहें कि सरकारों द्वारा आर्थिक क्रियाओं में न्यूनतम हस्तक्षेप किया जाता है जिससे उद्यमियों को कठिनाइयों का सामना न करना पड़े. यह नयी आर्थिक नीतियों का परिणाम है जो व्यवसाय में लाईसेंस प्रणाली को समाप्त करती है.
उदारीकरण की शुरुआत:
1980 का दशक भारत की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण नीतिगत बदलाव लेकर आया जब उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण माडल (एलपीजी) अस्तित्व में आया. इस मॉडल का मुख्य उद्देश्य दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के साथ भारत की अर्थव्यवस्था को तेजी से विकसित अर्थव्यवस्था बनाना तथा दूसरी अर्थव्यवस्थाओं के निकट पहुंचना या उनसे आगे निकलना था. भारत में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत 24 जुलाई 1991 के बाद तत्कालीन भारतीय सरकार द्वारा किया गया जिसे वर्तमान सरकार से जोरदार बल मिल रहा है.
भारत तेजी से विश्व आर्थिक व्यवस्था में समाहित होकर उदारीकरण का पूरा जोर विदेशी निवेश को आकर्षित करने में लगा चुकी थी. निवेशकों को नई-नई सहूलियतें दी जाने लगी. स्वतंत्र और अनियंत्रित कीमत नीति के संदर्भ में यह स्थिति आम आदमी को त्रस्त करने लगी. बाजार पर आधारित आर्थिक उदारीकरण की नीति के तहत राज्य को एक मूक दर्शक बना देना कितना कठिन, कितना जोखिम भरा और कितना एकांगी कदम होता है इन सवालों पर चर्चा करके ही हम उदारीकरण के यथार्थ से बाबस्ता हो सकते हैं.
उदारीकरण का नतीजा
लगातार 30 वर्षों से अलग अलग सरकारों के द्वारा उदारीकरण के फायदे जनता को गिनवाए गए हैं लेकिन दस्तावेज और देश के हालात इसके विपरीत स्थितियों को उजागर करता है. राजकोषीय घाटे, व्यापार असंतुलन, विदेशी कर्जों तथा मुद्रा प्रसार पर निरंतर बढती निर्भरता, सामान्य जीवन में संसाधन जुटाने की असमर्थता, बढती गैर क़ानूनी व् भ्रष्ट आर्थिक गतिविधियाँ, महामारी आदि के कारण अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में पहुँच चुका है.
आर्थिक उदारीकरण ने यह तय कर दिया कि जिसके पास धन होगा, उसे ही सेवाएं हासिल होंगी. सरकार धीरे-धीरे जनकल्याणकारी राज्य की अवधारणा का परित्याग कर देगी और यही हुआ भी है. ऑक्सफेम की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2017-18 में भारत के अरबपतियों ने 20,913 अरब रुपये की कमाई की. यह राशि भारत सरकार के बजट के बराबर थी. भेदभाव, असामनता, गरीबी में बेतहासा वृद्धि हुई है. भारत में उच्च पदस्थ अधिकारी को 8600 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से वेतन मिलता है, उसके परिणाम का मूल्यांकन लगभग नहीं होता है किंतु महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी क़ानून के तहत मज़दूर के लिए भारत में औसत मज़दूरी 187 रुपये तय है, जिसका मूल्यांकन भी होता है. यानी इसी स्तर पर 46 गुना का भेद दिखाई देता है. भारत के सबसे बड़े उद्योगपति मुकेश अंबानी की संपत्ति हर रोज़ 300 करोड़ रुपये के हिसाब से बढ़ी. जब से नई आर्थिक नीतियां आईं, चुनिंदा पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए खुलेआम जनविरोधी नीतियां बनाई जाने लगीं, तभी से देश राष्ट्र में तब्दील किया गया.
इन नीतियों से भुखमरी, कुपोषण और ग़रीबी का चेहरा और भी वीभत्स होने लगा, तो देश के सामने राष्ट्र को खड़ा कर दिया गया. देश के मुलभुत मुद्दों और जरूरतों को बहस से भी गायब कर दिया गया. राष्ट्र के मानक ऐसे तैयार किए गए कि सही को सही कहना राष्ट्र द्रोह करार दिया जाने लगा. अब हम ऐसे मुकाम पर आ खड़े हुए हैं, जब प्रमाण मांगना नया अक्षम्य अपराध क़रार दिया गया है.
असमानता के स्तर में बढ़ोतरी
असमानता कुदरती रूप से पैदा नहीं होती है. नीतियों और मानवीय लोलुपता का स्वभाव इसे जन्म देता है. जब राज्य व्यवस्था बढ़ती असमानता पर चिंतित नहीं होती है, तब देश के संसाधन और संभावनाएं बर्बाद हो जाते हैं.
क्रेडिट सुईस रिसर्च इंस्टिट्यूट की ग्लोबल वेल्थ रिपोर्ट-2018 (वैश्विक संपदा रिपोर्ट) के मुताबिक भारत की कुल संपदा 38,818 खरब रुपये की थी. इसमें से 30122.77 खरब रुपये की संपदा (78 प्रतिशत) पर देश के सबसे संपन्न 20 प्रतिशत लोगों का नियंत्रण था. इसके बाद अगले 40 प्रतिशत लोगों के पास 8695.2 खरब रुपये (22.4 प्रतिशत) की संपदा थी. यही भारत का मध्यम वर्ग कहलाता है, जो दो पहिया, चार पहिया, एचडी टेलीविज़न और घर की मासिक किश्त के भुगतान को जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य मानता है.
वह पर्यावरण, नदियों के सूखने, बढ़ती हिंसा, सांप्रदायिकता और लोकतांत्रिक मूल्यों को अपने जीवन का प्राथमिक मसला नहीं मानते हैं. देश के सबसे ग़रीब 20 प्रतिशत लोग केवल संपदा से वंचित ही नहीं हैं, बल्कि क्रेडिट सुईस की रिपोर्ट के मुताबिक भारत के सबसे गरीब 20 प्रतिशत (17 करोड़) लोगों की संपदा ऋणात्मक 349.36 खरब रुपये है, और उसके पास कोई संपदा नहीं है.
क्रेडिट सुईस ने अपने अध्ययन के लिए सकल मूल्य या संपदा के आकलन में परिवारों द्वारा अर्जित वितीय पूंजी और उनकी अचल संपत्ति, ज़मीन-जायदाद के मूल्य को शामिल किया है. इसमें से परिवारों के ऊपर मौजूद क़र्ज़ को घटा दिया गया है. यह रिपोर्ट बताती है कि भारत के सबसे संपन्न 1 प्रतिशत वयस्कों के पास 9976 खरब रुपये की संपदा है. यानी भारत के 80 प्रतिशत वयस्कों की कुल संपदा से अधिक का मालिकाना इन एक प्रतिशत पूंजीपतियों के क़ब्ज़े में है.
ऐसे में स्वाभाविक सा सवाल उठता है कि जब देश के आर्थिक विकास और आर्थिक नीतियों का सूत्र इन एक प्रतिशत लोगों के हाथ में है, तो हम अपनी व्यवस्था से आज किस स्वतंत्रता और किस लोक कल्याण की अपेक्षा रख सकते हैं?
वस्तुतः आर्थिक नीतियां समाज में किस तरह की स्थिति पैदा करेंगी, यह उसके नज़रिये से तय होता है. उदारीकरण और निजीकरण ने एक तरफ़ तो पूंजी और संसाधनों को कुछ लोगों के हाथ में केंद्रित किया है, तो दूसरी तरफ निजीकरण के लिए राज्य व्यवस्था ने लोक अधिकारों, बुनियादी सेवाओं, शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा आदि पर अपनी ज़िम्मेदारियों को सीमित किया है.
अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाने और देश के विकास के नाम पर लायी गयी यह नीति इन 30 वर्षों में देश को विदेशी पूंजी पर निर्भरता, आर्थिक उपनिवेशवाद की स्थापना और पूंजीपतियों का समाज में वर्चस्व को बढ़ावा दिया है. साथ ही गरीबी, बेरोजगारी व् असमानता में बेतहाशा वृद्धि हुई है. कुल मिलाकर कहा जाए तो देश के यह हालात वैश्विक आर्थिक संस्थाएं जैसे विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन, और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाब में राजनीतिक निर्णयों से होते हुए आर्थिक गुलामी तक जाएंगे.
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भारत के सबसे अमीर पूंजीपति मुकेश अम्बानी ने भी 3 दशक की उपलब्धि बताते हुए लेख लिखे. जब से आर्थिक उदारीकरण का आगमन देश में हुआ है चंद पूंजीपतियों को लाभ पहुँचाने के लिए लगातार कई जनविरोधी नीतियों को लाया गया है जो वर्तमान में भी तीव्रता के साथ जारी है. इन नीतियों के कारण भुखमरी, कुपोषण, और गरीबी का चेहरा और भयावह हुआ है. आज खेत, किसान, श्रम, श्रमिक, मजदूर, महिला,पर्यावरण, बारिश तापमान के बजाय मंदिर, मस्जिद, लव जिहाद, गौ माता, ज्यादा बड़े मुद्दे हो चुके हैं.
देश के विकास का मतलब आज आर्थिक विकास तक ही सिमट कर रह गया है. सामाजिक, राजनीतिक, मानवीय विकास या इनके अन्य पहलू गौण होते चले जा रहे हैं. छद्म आर्थिक विकास की चमक समाज में असमानता और गरीबी जैसी समस्याओं में भी सकारात्मकता खोज निकालती है. वायर की रिपोर्ट के अनुसार, “वर्तमान विकास मिथ्या सकारात्मकता का सबसे ज्यादा निर्माण करती है. वर्ष 2018 की फोर्ब्स की रिपोर्ट (जो केवल दुनिया के अमीरों के काम, जीवन शैली, और उनकी कमाई पर अध्ययन प्रकाशित करती है) के मुताबिक भारत के 100 अरबपतियों की कुल सम्पदा 32,964 अरब रूपये थी. वर्ष 2017 के अनंतिम आंकड़ों के अनुसार भारत के सबसे ज्यादा संपन्न 100 लोगों की कुल सम्पदा इस देश के 29.23 करोड़ लोगों की एक साल की कमाई है”.
उदारीकरण क्या है:
उदारीकरण का तात्पर्य उदार दृष्टिकोण से होता है फिर चाहे वह सामजिक क्षेत्र में हो, राजनीतिक या आर्थिक क्षेत्र में हो. उदारीकरण पिछले तीन दशक में भारत की व्यापरिक दुनिया में लाया गया एक बड़ा बदलाव है. यहाँ आर्थिक परिपेक्ष्य में उदारीकरण की चर्चा हो रही है. यह एक नयी आर्थिक नीति है जिसके द्वारा व्यवसाय और उद्योग पर लगे प्रतिबंधों को कम किया गया है या यूँ कहें कि सरकारों द्वारा आर्थिक क्रियाओं में न्यूनतम हस्तक्षेप किया जाता है जिससे उद्यमियों को कठिनाइयों का सामना न करना पड़े. यह नयी आर्थिक नीतियों का परिणाम है जो व्यवसाय में लाईसेंस प्रणाली को समाप्त करती है.
उदारीकरण की शुरुआत:
1980 का दशक भारत की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण नीतिगत बदलाव लेकर आया जब उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण माडल (एलपीजी) अस्तित्व में आया. इस मॉडल का मुख्य उद्देश्य दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के साथ भारत की अर्थव्यवस्था को तेजी से विकसित अर्थव्यवस्था बनाना तथा दूसरी अर्थव्यवस्थाओं के निकट पहुंचना या उनसे आगे निकलना था. भारत में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत 24 जुलाई 1991 के बाद तत्कालीन भारतीय सरकार द्वारा किया गया जिसे वर्तमान सरकार से जोरदार बल मिल रहा है.
भारत तेजी से विश्व आर्थिक व्यवस्था में समाहित होकर उदारीकरण का पूरा जोर विदेशी निवेश को आकर्षित करने में लगा चुकी थी. निवेशकों को नई-नई सहूलियतें दी जाने लगी. स्वतंत्र और अनियंत्रित कीमत नीति के संदर्भ में यह स्थिति आम आदमी को त्रस्त करने लगी. बाजार पर आधारित आर्थिक उदारीकरण की नीति के तहत राज्य को एक मूक दर्शक बना देना कितना कठिन, कितना जोखिम भरा और कितना एकांगी कदम होता है इन सवालों पर चर्चा करके ही हम उदारीकरण के यथार्थ से बाबस्ता हो सकते हैं.
उदारीकरण का नतीजा
लगातार 30 वर्षों से अलग अलग सरकारों के द्वारा उदारीकरण के फायदे जनता को गिनवाए गए हैं लेकिन दस्तावेज और देश के हालात इसके विपरीत स्थितियों को उजागर करता है. राजकोषीय घाटे, व्यापार असंतुलन, विदेशी कर्जों तथा मुद्रा प्रसार पर निरंतर बढती निर्भरता, सामान्य जीवन में संसाधन जुटाने की असमर्थता, बढती गैर क़ानूनी व् भ्रष्ट आर्थिक गतिविधियाँ, महामारी आदि के कारण अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में पहुँच चुका है.
आर्थिक उदारीकरण ने यह तय कर दिया कि जिसके पास धन होगा, उसे ही सेवाएं हासिल होंगी. सरकार धीरे-धीरे जनकल्याणकारी राज्य की अवधारणा का परित्याग कर देगी और यही हुआ भी है. ऑक्सफेम की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2017-18 में भारत के अरबपतियों ने 20,913 अरब रुपये की कमाई की. यह राशि भारत सरकार के बजट के बराबर थी. भेदभाव, असामनता, गरीबी में बेतहासा वृद्धि हुई है. भारत में उच्च पदस्थ अधिकारी को 8600 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से वेतन मिलता है, उसके परिणाम का मूल्यांकन लगभग नहीं होता है किंतु महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी क़ानून के तहत मज़दूर के लिए भारत में औसत मज़दूरी 187 रुपये तय है, जिसका मूल्यांकन भी होता है. यानी इसी स्तर पर 46 गुना का भेद दिखाई देता है. भारत के सबसे बड़े उद्योगपति मुकेश अंबानी की संपत्ति हर रोज़ 300 करोड़ रुपये के हिसाब से बढ़ी. जब से नई आर्थिक नीतियां आईं, चुनिंदा पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए खुलेआम जनविरोधी नीतियां बनाई जाने लगीं, तभी से देश राष्ट्र में तब्दील किया गया.
इन नीतियों से भुखमरी, कुपोषण और ग़रीबी का चेहरा और भी वीभत्स होने लगा, तो देश के सामने राष्ट्र को खड़ा कर दिया गया. देश के मुलभुत मुद्दों और जरूरतों को बहस से भी गायब कर दिया गया. राष्ट्र के मानक ऐसे तैयार किए गए कि सही को सही कहना राष्ट्र द्रोह करार दिया जाने लगा. अब हम ऐसे मुकाम पर आ खड़े हुए हैं, जब प्रमाण मांगना नया अक्षम्य अपराध क़रार दिया गया है.
असमानता के स्तर में बढ़ोतरी
असमानता कुदरती रूप से पैदा नहीं होती है. नीतियों और मानवीय लोलुपता का स्वभाव इसे जन्म देता है. जब राज्य व्यवस्था बढ़ती असमानता पर चिंतित नहीं होती है, तब देश के संसाधन और संभावनाएं बर्बाद हो जाते हैं.
क्रेडिट सुईस रिसर्च इंस्टिट्यूट की ग्लोबल वेल्थ रिपोर्ट-2018 (वैश्विक संपदा रिपोर्ट) के मुताबिक भारत की कुल संपदा 38,818 खरब रुपये की थी. इसमें से 30122.77 खरब रुपये की संपदा (78 प्रतिशत) पर देश के सबसे संपन्न 20 प्रतिशत लोगों का नियंत्रण था. इसके बाद अगले 40 प्रतिशत लोगों के पास 8695.2 खरब रुपये (22.4 प्रतिशत) की संपदा थी. यही भारत का मध्यम वर्ग कहलाता है, जो दो पहिया, चार पहिया, एचडी टेलीविज़न और घर की मासिक किश्त के भुगतान को जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य मानता है.
वह पर्यावरण, नदियों के सूखने, बढ़ती हिंसा, सांप्रदायिकता और लोकतांत्रिक मूल्यों को अपने जीवन का प्राथमिक मसला नहीं मानते हैं. देश के सबसे ग़रीब 20 प्रतिशत लोग केवल संपदा से वंचित ही नहीं हैं, बल्कि क्रेडिट सुईस की रिपोर्ट के मुताबिक भारत के सबसे गरीब 20 प्रतिशत (17 करोड़) लोगों की संपदा ऋणात्मक 349.36 खरब रुपये है, और उसके पास कोई संपदा नहीं है.
क्रेडिट सुईस ने अपने अध्ययन के लिए सकल मूल्य या संपदा के आकलन में परिवारों द्वारा अर्जित वितीय पूंजी और उनकी अचल संपत्ति, ज़मीन-जायदाद के मूल्य को शामिल किया है. इसमें से परिवारों के ऊपर मौजूद क़र्ज़ को घटा दिया गया है. यह रिपोर्ट बताती है कि भारत के सबसे संपन्न 1 प्रतिशत वयस्कों के पास 9976 खरब रुपये की संपदा है. यानी भारत के 80 प्रतिशत वयस्कों की कुल संपदा से अधिक का मालिकाना इन एक प्रतिशत पूंजीपतियों के क़ब्ज़े में है.
ऐसे में स्वाभाविक सा सवाल उठता है कि जब देश के आर्थिक विकास और आर्थिक नीतियों का सूत्र इन एक प्रतिशत लोगों के हाथ में है, तो हम अपनी व्यवस्था से आज किस स्वतंत्रता और किस लोक कल्याण की अपेक्षा रख सकते हैं?
वस्तुतः आर्थिक नीतियां समाज में किस तरह की स्थिति पैदा करेंगी, यह उसके नज़रिये से तय होता है. उदारीकरण और निजीकरण ने एक तरफ़ तो पूंजी और संसाधनों को कुछ लोगों के हाथ में केंद्रित किया है, तो दूसरी तरफ निजीकरण के लिए राज्य व्यवस्था ने लोक अधिकारों, बुनियादी सेवाओं, शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा आदि पर अपनी ज़िम्मेदारियों को सीमित किया है.
अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाने और देश के विकास के नाम पर लायी गयी यह नीति इन 30 वर्षों में देश को विदेशी पूंजी पर निर्भरता, आर्थिक उपनिवेशवाद की स्थापना और पूंजीपतियों का समाज में वर्चस्व को बढ़ावा दिया है. साथ ही गरीबी, बेरोजगारी व् असमानता में बेतहाशा वृद्धि हुई है. कुल मिलाकर कहा जाए तो देश के यह हालात वैश्विक आर्थिक संस्थाएं जैसे विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन, और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाब में राजनीतिक निर्णयों से होते हुए आर्थिक गुलामी तक जाएंगे.
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