नव उदारवादी सांप्रदायिकता के दल-दल में फंसे भारतीय राजनीतिक दल

Written by Dr. Amrita Pathak | Published on: January 21, 2022
वर्तमान में धर्मनिरपेक्ष देश भारत की राजनीति में साम्प्रदयिकता है या साम्प्रदयिक राजनीति का ही बोलबाला हो चुका है यह फर्क कर पाना आज मुश्किल हो रहा है. मौजूदा भारतीय राष्ट्रीय परिदृश्य में जिस तरह से राजनीतिक दलों और बौद्धिक वर्गों के द्वारा नवउदारवाद पर एक गहरी चुप्पी है उसी तरह से साम्प्रदयिक होती राजनीति या राजनीतिक साम्प्रदयिकता पर उनका मौन उनकी सर्वसम्मति को दर्शाता है.



भारत में धर्मनिरपेक्ष कही जाने वाली पार्टियाँ भी भाजपा की होड़ में साम्प्रदयिकता का सहारा ले रही हैं. यह केवल चुनावी दिनों में नहीं देखा जा रह है बल्कि सामान्य दिनों में भी आहिस्ता-आहिस्ता देश को लगभग सभी राजनीतिक दलों द्वारा साम्प्रदयिक समाज निर्माण की तरफ ले जाया जा रहा है. वर्षों से भाजपा और आरएसएस साम्प्रदयिक राजनीति करती आ रही है सांप्रदायिकता के पिच पर जाकर भाजपा को नहीं हराया जा सकता है. बावजूद उसके अन्य राजनीतिक दलों द्वारा सांप्रदायिकता का सहारा लिया जा रहा है जिससे भारतीय राजनीति सांप्रदायिकता के दल-दल में फंसता चला जा रहा है. 

क्या है सांप्रदायिकता: 
जब कोई धर्म या सम्प्रदाय के लोग खुद को सर्वश्रेष्ठ और दुसरे सम्प्रदाय को निम्न दर्जे का मानते हैं तो सांप्रदायिकता का जन्म होता है. भारत के संविधान के अनुसार सांप्रदायिकता की सीधी परिभाषा है कि धर्म का राजनीतिक सत्ता को हथियाने के लिए किया गया इस्तेमाल सांप्रदायिकता है. यानि कि अपने धर्म को बेहतर समझना और दुसरे धर्म से नफरत करना सांप्रदायिकता का मूल लक्षण है. सांप्रदायिक प्रवृति में लोग राष्ट्रीय हितों के बजाय धार्मिक हितों को महत्व देते हैं. 

धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल, हिन्दू धर्म के नाम पर किया जाए, अल्पसंख्यकों के वोट हासिल करने के लिए किया जाए, कट्टर हिंदुत्व के नाम पर किया जाए या नरम हिंदुत्व के नाम पर किया जाए वह सांप्रदायिक राजनीति की श्रेणी में ही आता है. अल्पसंख्यक नेताओं द्वारा उनके धर्मों के नाम पर की जाने वाली राजनीति भी सांप्रदायिक राजनीति है. भारतीय राजनीति की मुख्य धारा में सक्रिय शिव सेना, शिरोमणि अकाली दल, इन्डियन यूनियन मुस्लिम लीग, सहित कई अन्य पार्टियों या नेताओं की राजनीति सीधे-सीधे साम्प्रदयिक राजनीति है. अल्पसंख्यक पार्टियों/नेताओं की सांप्रदायिकता, बहुसंख्यक सांप्रदायिकता से कम खतरनाक है, ऐसा कहने से सांप्रदायिक राजनीति के फैलाव को कम नहीं किया जा सकता है. 

सांप्रदायिक राजनीति का विकल्प नहीं है जातिवादी राजनीति:
वर्षों पहले जातिवादी राजनीति को सांप्रदायिक राजनीति की काट या उसके विकल्प के रूप में माना गया था जिस समय मंडल बनाम कमंडल की बहस जोरों पर थी. वर्तमान में भारतीय राजनीति के विश्लेषण से यह समझना मुश्किल नहीं है कि जातिवाद की राजनीति अंततः धर्म से ही जुडी होती है जिसकी परिणति सांप्रदायिकता पर जाकर ख़त्म होती है. राजनीतिक नेताओं द्वारा परशुराम का फरसा, कृष्ण का सुदर्शन चक्र, ब्रह्मा, विष्णु, महेश को हाथी सहित अन्य जीवों में देखना, श्री राम द्वारा सीता की अग्नि परीक्षा का महिमा मंडन ऐसे क्रियाकलाप हैं जो इसे प्रमाणित करते हैं. सांप्रदायिक राजनीति की बिसात पर कभी राहुल गाँधी अपना जनेऊ दिखाते नजर आते हैं तो कभी प्रियंका गाँधी सहित अन्य क्षेत्रीय दल मंदिर-मस्जिद की चौखट पर नजर आते हैं. आज सांप्रदायिक राजनीति पर सर्वानुमति का ही नतीजा है कि देश में पिछड़े प्रधानमंत्री और दलित राष्ट्रपति को आगामी “हिन्दू राष्ट्र” के नायक के रूप में सहज स्वीकृति मिली हुई है. 

संवैधानिक नियमों से परे और धर्म निरपेक्ष बुद्धिजीवियों के अपार समर्थन से सत्ता में आई आम आदमी पार्टी भी आज सांप्रदायिक राजनीति को गहरा करने में मशगूल है. वे भाजपा और आरएसएस के कार्यों को आगे ले जाने का काम कर रही है. आप पार्टी के कार्यों को देख कर उनकी मंशा का पता लगाया जा सकता है मसलन, चुनावी जीत पर पार्टी कार्यालयों में हवन और मंत्रोचारण का आयोजन, बड़ी संख्यां में होने वाले धार्मिक प्रवचनों में पार्टी की सीधे हिस्सेदारी, मोहल्लों में सुन्दरकाण्ड आयोजित करने का सरकारी फैसला और विधानसभा जैसी संवैधानिक सार्वजानिक जगहों पर भी रामलीला आदि धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन आदि. 

नव उदारवादी प्रभाव के साथ सांप्रदायिक राजनीति हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ रही है. यह राजनीति लोकतंत्र में ही फल-फूल रही है और साथ ही  लोकतान्त्रिक मूल्यों को निगल रही है. संवैधानिक संस्थाएं जैसे चुनाव आयोग, सुप्रीम कोर्ट, कार्यपालिका सांप्रदायिक रंगों में सराबोर होते नजर आ रहे हैं. आज नफरती बयानबाजी, भीड़ हत्या, हिंसक गतिविधियों का खुलेआम आह्वाहन, महिला विरोधी बयानबाजी व बुल्लीबाई एप्स आदि देश में बेरोकटोक चलने वाली सांप्रदायिक राजनीति की ही देन हैं. भारत सहित दुनिया भर में किसी भी धर्म का सर्वोत्तम रूप करुणा दया सद्भाव और सामाजिक उल्लास से परिलक्षित होता है. साम्प्रदयिक राजनीति धर्म के उस सर्वोच्च स्वरुप को बेशर्मी से छिन्न-भिन्न कर रही है. 

नवउदारवाद की जद में आकर व सत्ता के खेल में उलझ कर भाजपा समेत लगभग सभी राजनीतिक दलों ने अपनी विचारधारा से समझौता किया है. आम आदमी पार्टी (आप) घोषित रूप से राजनीति में किसी भी विचारधारा का निषेध करने वाली पार्टी रही है. अन्य पार्टियों ने नवउदारवाद के प्रभाव में आकर धीरे-धीरे संवैधानिक मूल्यों और राजनीतिक विचारधारा का त्याग किया है. आप पार्टी चूंकि सीधे नवउदारवाद की कोख से उत्पन्न हुई है इसलिए शुरू से ही संविधान की विचारधारा के प्रति उपेक्षात्मक नजरिया रखे हुए है. 

आम आदमी पार्टी सांप्रदायिक गतिविधियों के साथ कुशल प्रबंधन बिठा कर चुनावी राजनीति करती है. वह कभी भाजपा के साथ तो कभी रेडिकल दलों के साथ गठजोड़ कर राजनीति करती रही है. कई राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना है कि पारिवारिक नेतृत्व के जिद्द की वजह से कांग्रेस का क्षरण हो रहा है और आम आदमी पार्टी कांग्रेस पार्टी की जगह लेने की सुनियोजित कोशिश कर रही है. आने वाले समय में नव उदारवादी नीतियों को निर्विध्न रूप से बढ़ने और फलने फूलने का मौका मिलेगा. भविष्य के ‘नए भारत’ का सपना नवउदारवाद की सीढियों से आगे बढ़ता नजर आ रहा है. आज यह मान लेने की जरुरत है कि नव उदारवादी नीतियों के साथ चल कर सांप्रदायिकता प्रबल होती है. देश की राजनीतिक पार्टियों द्वारा नव उदारवादी नीतियों को मौन सहमति देकर राजनीतिक दल लगातार सांप्रदायिकता के दल-दल में फंसता जा रहा है जो लोकतंत्र व् भारतीय संविधान के मूल्यों को बनाए रखने में बड़ी चुनौती है. 

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