सेना फायरिंग व टाइगर रिजर्व के नाम पर शिवालिक वन गुर्जरों को उजाड़ने का हो रहा खेल?

Written by Navnish Kumar | Published on: October 19, 2020
सेना फायरिंग रेंज और टाइगर रिजर्व के नाम पर शिवालिक पहाड़ियों से वन गुर्जरों को उजाड़ने का खेल हो रहा है। कम से कम वन विभाग और ज़िला प्रशासन की हालिया कुछ सालों की गतिविधियों को देखकर तो यही कहा जा सकता है। तभी कानून आने के 14 बरस बाद भी ज़िला प्रशासन द्वारा वन गुर्जरों के वनाधिकार को मान्यता देने (दावा फार्म भराने आदि) की कोई पहल या शुरूआत नहीं की गईं है। उल्टे, गैरकानूनी तौर से पुनर्वास के नाम पर उन्हें वन भूमि से बेदखल करने की ही बात देखने व सुनने में आ रही है। 



खास यह है कि जिला प्रशासन के पास इनके पुनर्वास के लिए भी कोई ठोस कार्ययोजना नहीं हैं। वह तो बस, येन केन प्रकारेण इस घुमंतू यायावर पशुपालक वन गुर्जर समुदाय को एक बार, जैसे-तैसे करके जंगल से बाहर कर देना भर चाहता है। लेकिन इसके लिए प्रशासन, टाइगर रिजर्व जैसे जुमले उछालेगा, इसका भान शायद ही किसी को कभी रहा होगा। 

प्रशासनिक कवायद कितनी सही और कितनी जुमलेभरी हैं। इसकी हकीकत जानने को शिवालिक वन प्रभाग की थोड़ी पड़ताल करनी होगी। मसलन वन विभाग के ही अनुसार, सहारनपुर का शिवालिक आरक्षित वन क्षेत्र 33,229.46 हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैला है। जिसमें से 25,885.64 हेक्टेयर क्षेत्रफल में नवीनतम बार 2018 में आसन फील्ड फायरिंग रेंज को अनुमति दी गई है। यानि 33 हज़ार में से करीब 26 हज़ार हेक्टेयर वन क्षेत्र सेना की फायरिंग अभ्यास के लिए है। ऐसे में सेना के गोले व बारूद के बीच इसमें टाइगर कहां व कैसे विचरण करेंगे, अपने आप में प्रशासन के प्रस्ताव की पोल खोलने को पर्याप्त हैं। 

हालांकि टाइगर रिजर्व के प्रस्ताव में प्रशासन और वन विभाग द्वारा भी इस (फायरिंग रेंज) का, एक बड़े अवरोध के तौर पर जिक्र किया गया है कि फायरिंग रेंज, टाइगर रिजर्व में बड़ा अवरोध है। लेकिन इसी बीच खबर है कि उप्र सरकार ने शिवालिक के आरक्षित वन क्षेत्र को अगले 30 सालों तक सेना के अभ्यास के लिए आरक्षित कर दिया है। यानी अगले 30 सालों के लिए यह अवरोध पुख्ता हो गया है जो प्रस्तावित टाइगर रिजर्व के प्रशासनिक गुब्बारे (जुमले) की हवा निकालने को पर्याप्त है। 

रही बात, सेना की फायरिंग रेंज की तो भारतीय सेना, रिहायशी वन क्षेत्र को कभी अभ्यास के लिए नहीं चुनती है। खाली वन क्षेत्र जहां लोग (नागरिक) निवास नहीं करते हैं, को ही फायरिंग अभ्यास के लिए चुना जाता है। यहां वन विभाग के अनुसार, शिवालिक वनों में सैकड़ों की बड़ी संख्या में वन गुर्जर परिवार निवास करते हैं। टोंगिया परिवार भी हैं। ऐसे में क्या वन विभाग व जिला प्रशासन द्वारा सेना को झूठ बोला गया। अगर वन विभाग या प्रशासन सेना को जानकारी देता कि शिवालिक वन क्षेत्र में लोग (सैंकड़ो की बड़ी संख्या में वन गुर्जर व टोंगिया परिवार) निवास करते हैं तो क्या शिवालिक वन क्षेत्र को सेना, फायरिंग अभ्यास के लिए चुनती। नहीं, शायद कभी नहीं? 

दरअसल यह मामला पहले भी उठ चुका है। बताते हैं कि एक बार तो फायरिंग रेंज यहां से शिफ्ट भी हो गई थी। लेकिन फिर से अनुमति दे दी गई है। यह भी तब, जब करीब दो साल पहले सेना के गोले की चपेट में आने से एक वन गुर्जर महिला की मृत्यु भी हो गई थी। तब सेना के एक कर्नल ने वन गुर्जरों के बीच पहुंचकर, इस बात को माना भी था कि खाली वन क्षेत्र होने की रिपोर्ट पर ही अभ्यास किया जाता है। 

खैर, ताजा मामला हाल में उस वक्त उठा है जब शिवालिक के सभी वन गुर्जर, 15 अक्तूबर को वन भूमि पर अपने वनाधिकार की मान्यता के लिए एकजुट हुए थे। वन गुर्जरों ने सेना के संदर्भ में खास तौर से इसका जिक्र किया कि दो साल पहले सेना के गोले से महिला की मृत्यु हो गई थी। तब उन्होंने रिपोर्ट भी नहीं कराई थी। वन गुर्जर तालिब प्रधान, नूर जमाल आदि ने कहा कि महिला की मृत्यु पर उन्होंने उस वक्त सेना के खिलाफ कोई शिकायत तक दर्ज नहीं कराई थी क्योंकि हमारी सेना है। कहा कि तब सेना के एक कर्नल भी उनके बीच आए थे और बताया था कि वन विभाग आदि द्वारा खाली वन क्षेत्र होने की रिपोर्ट दी जाती है, तभी अभ्यास किया जाता है। सांसद हाजी फजलुर्रहमान ने भी रिपोर्ट दर्ज न कराने की बात को दोहराते हुए, सेना के प्रति लोगों (वन गुर्जर समुदाय) के प्रेम व सम्मान की सराहना की थी।

अब पर्यावरणीय क्षति के सवाल को एकबारी नजरअंदाज भी कर दें तो भी महत्वपूर्ण है कि यहां (शिवालिक वन क्षेत्र में) विश्व प्रसिद्ध सिद्धपीठ मां शाकुम्भरी देवी का मंदिर स्थित है जहां पूरे साल, लाखों की बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। कई बड़े मेले भी लगते हैं। ऐसे क्षेत्र में न टाइगर रिजर्व प्रस्तावित हो सकता है और न ही फायरिंग रेंज। 

सवाल वन गुर्जर समुदाय के भोलेपन व अज्ञानता का भी है कि वह महिला की मृत्यु को सेना से संबंधित गलती समझते हुए, शिकायत भी न करने की दुहाई दे रहे हैं जबकि हकीकत में इसमें सेना का कोई फाल्ट या मामला ही नहीं बनता है, यह घटना पूर्णरूपेण वन विभाग व प्रशासन की गलत रिपोर्ट की देन (गलती) थी। शिकायत करते तो वन विभाग की ज़िम्मेवारी व जवाबदेही फिक्स होती और उस पर कार्रवाई भी होती। 

अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के राष्ट्रीय महासचिव अशोक चौधरी कहते हैं कि वन गुर्जर समुदाय के प्रभावित पक्ष को इसकी पुलिस शिकायत करनी चाहिए थी। ताकि वन विभाग व प्रशासन की जवाबदेही तय हो पाती।

कहा शिवालिक आरक्षित वन क्षेत्र में बड़ी संख्या में लोग (वन गुर्जर व टोंगिया) निवास करते हैं लिहाज़ा नियमानुसार यहां फायरिंग रेंज बन ही नहीं सकती हैं या कहे कि होनी ही नहीं चाहिए। दूसरा, सेना कभी ऐसी जगह फायरिंग अभ्यास नहीं करती है जहां देश के नागरिक (लोग) निवास करते हों। यहां तो टोंगिया व वन गुर्जरों के अतिरिक्त सिद्धपीठ पर हर साल लाखों की संख्या में लोग आते हैं। चौधरी कहते हैं कि पहले इन्हीं सब वजहों से एक मर्तबा फायरिंग रेंज यहां से शिफ्ट भी हो गई थी।

यही नहीं, चौधरी आगे कहते हैं कि वनाधिकार कानून-2006 के अनुसार, वन भमि पर टाईगर प्रोजेक्ट आदि किसी भी गतिविधि के लिए, आरक्षित वन क्षेत्र के अंतर्गत आ रही गांव सभाओं की अनुमति लेना अनिवार्य है जो भी नहीं ली गई है। ऐसी प्रक्रिया न करके, वन क्षेत्र को टाइगर रिजर्व के लिए प्रस्तावित करना, वनाधिकार कानून का भी उल्लंघन है। 

उन्होंने कहा कि ज़िला प्रशासन को टाइगर रिजर्व जैसी जुमलेबाजी से बचना चाहिए और लोगों (वन गुर्जर समुदाय) को उजाड़ने की बजाय, उनके वनाधिकार को सुनिश्चित करने को पहल करनी चाहिए। ताकि अरसे से आजादी की रोशनी की किरण को तरस रहा वन गुर्जर समुदाय, समाज की मुख्य धारा से जुड़कर देश की विकास यात्रा में सहयोगी बन सके और सम्मानपूर्ण जीवन जी सके।

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