वन गुर्जर परिवार गोविंद पशु विहार राष्ट्रीय उद्यान के लिए अपने वार्षिक प्रवास मार्ग पर थे, जब उन्हें परमिट होने के बावजूद प्रवेश से वंचित कर दिया गया था, और उन्हें तंबू में रहने के लिए मजबूर किया गया था।
उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने अधिकारियों को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया है कि वन गुर्जर परिवार, जो राष्ट्रीय उद्यान में प्रवेश से वंचित होने के बाद टेंट में रह रहे हैं, उन्हें 'पक्के घरों' में ठहराया जाए।
वन गुर्जर एक खानाबदोश जनजाति हैं जो सदियों से राज्य के वन क्षेत्रों में निवास कर रहे हैं। मुख्य न्यायाधीश राघवेंद्र सिंह चौहान और न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा की पीठ ने कहा कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 राज्य को अपने लोगों के जीवन को पशु अस्तित्व से कमतर आंकने से रोकता है।
17 मार्च को पिछली सुनवाई में, अदालत ने वन गुर्जर समुदाय के मुद्दों और अधिकारों की जांच नहीं कर पाने के चलते एक समिति गठित करने के लिए राज्य सरकार को फटकार लगाई थी और कहा था कि वह सरकार द्वारा छोड़ी गई कमियों की सराहना नहीं करती है।
याचिकाकर्ता का हलफनामा
याचिकाकर्ता, अर्जुन कसाना ने एक हलफनामा दायर कर कहा कि वन गुर्जर, एक वनवासी समुदाय पिछले सौ से अधिक वर्षों से वन क्षेत्रों में रह रहे हैं और एक खानाबदोश जनजाति हैं। साल के इस समय के दौरान, वे राज्य के निचले इलाकों में आते हैं और कुछ परिवार गोविंद पशु विहार राष्ट्रीय उद्यान, उत्तरकाशी में प्रवेश करने और जीवित रहने के लिए वैध परमिट रखते हैं।
हलफनामे में कहा गया है कि उन्हें उप निदेशक, कोमल सिंह द्वारा पार्क में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी गई है और इसलिए ये परिवार टेंट में रहने के लिए मजबूर हैं। वे जैसे तैसे जीवन यापन कर रहे हैं क्योंकि वे लॉकडाउन के कारण पड़ोसी गांव में दूध बेचने में भी असमर्थ हैं। याचिकाकर्ता ने खुले में टेंट में रहने वाले परिवारों की तस्वीरों के साथ एक पूरक हलफनामा दायर किया। याचिकाकर्ता ने प्रार्थना की कि इन परिवारों के लिए जिला मजिस्ट्रेट और पार्क के उप निदेशक द्वारा व्यवस्था की जाए।
महाधिवक्ता, एसएन बाबुलकर ने तर्क दिया कि उनके प्रवास से वन्यजीवों को खतरा हो सकता है और जब तक वे कोविड -19 टेस्ट में नेगेटिव नहीं आते, उन्हें प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। इस पर याचिकाकर्ता ने जवाब दिया कि इन परीक्षणों का संचालन करना सरकार का कर्तव्य है और जब तक इस तरह के परीक्षणों की व्यवस्था नहीं की जाती है, तब तक उनके जीवन को बचाने के लिए उचित व्यवस्था की जानी चाहिए।
याचिकाकर्ता द्वारा सप्लीमेंटरी हलफनामे के साथ जमा कराई गई तस्वीरों का जिक्र करते हुए उच्च न्यायालय ने कहा कि इनसे पता चलता है कि परिवारों को खुले आसमान के नीचे खुले खेतों में खुले तंबुओं में रहने के लिये मजबूर किया गया है। फोटो में छोटे बच्चे और नवजात शिशु कंबल में लिपटाकर जमीन पर सोते हुए दिखाई दे रहे हैं। फोटो से यह भी पता चलता है कि कुछ मवेशी तंबुओं के पास बंधे है जबकि कुछ अन्य मर गए हैं। अदालत ने कहा कि इससे पार्क के उपनिदेशक का निर्दयी रूख पता चलता है और नागरिक प्रशासन ने इन परिवारों को ऐसी दशाओं में जीने को मजबूर कर दिया है जो जानवरों के जीने लायक दशाओं से भी बदतर हैं।
न्यायालय ने कहा कि प्रथमदृष्टया भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीने के मूल अधिकार का प्रतिवादियों द्वारा उल्लंघन किया जा रहा है। उच्च न्यायालय ने उत्तरकाशी के जिलाधिकारी और पार्क के उपनिदेशक को इन परिवारों को 'पक्के मकानों' में रखने तथा उन्हें खाना, पानी और दवाइयों के अलावा उनके मवेशियों के लिए चारा उपलब्ध कराने के निर्देश दिए।
मामले की अगली सुनवाई 16 जून को होगी।
अदालत का आदेश यहां पढ़ा जा सकता है:
उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने अधिकारियों को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया है कि वन गुर्जर परिवार, जो राष्ट्रीय उद्यान में प्रवेश से वंचित होने के बाद टेंट में रह रहे हैं, उन्हें 'पक्के घरों' में ठहराया जाए।
वन गुर्जर एक खानाबदोश जनजाति हैं जो सदियों से राज्य के वन क्षेत्रों में निवास कर रहे हैं। मुख्य न्यायाधीश राघवेंद्र सिंह चौहान और न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा की पीठ ने कहा कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 राज्य को अपने लोगों के जीवन को पशु अस्तित्व से कमतर आंकने से रोकता है।
17 मार्च को पिछली सुनवाई में, अदालत ने वन गुर्जर समुदाय के मुद्दों और अधिकारों की जांच नहीं कर पाने के चलते एक समिति गठित करने के लिए राज्य सरकार को फटकार लगाई थी और कहा था कि वह सरकार द्वारा छोड़ी गई कमियों की सराहना नहीं करती है।
याचिकाकर्ता का हलफनामा
याचिकाकर्ता, अर्जुन कसाना ने एक हलफनामा दायर कर कहा कि वन गुर्जर, एक वनवासी समुदाय पिछले सौ से अधिक वर्षों से वन क्षेत्रों में रह रहे हैं और एक खानाबदोश जनजाति हैं। साल के इस समय के दौरान, वे राज्य के निचले इलाकों में आते हैं और कुछ परिवार गोविंद पशु विहार राष्ट्रीय उद्यान, उत्तरकाशी में प्रवेश करने और जीवित रहने के लिए वैध परमिट रखते हैं।
हलफनामे में कहा गया है कि उन्हें उप निदेशक, कोमल सिंह द्वारा पार्क में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी गई है और इसलिए ये परिवार टेंट में रहने के लिए मजबूर हैं। वे जैसे तैसे जीवन यापन कर रहे हैं क्योंकि वे लॉकडाउन के कारण पड़ोसी गांव में दूध बेचने में भी असमर्थ हैं। याचिकाकर्ता ने खुले में टेंट में रहने वाले परिवारों की तस्वीरों के साथ एक पूरक हलफनामा दायर किया। याचिकाकर्ता ने प्रार्थना की कि इन परिवारों के लिए जिला मजिस्ट्रेट और पार्क के उप निदेशक द्वारा व्यवस्था की जाए।
महाधिवक्ता, एसएन बाबुलकर ने तर्क दिया कि उनके प्रवास से वन्यजीवों को खतरा हो सकता है और जब तक वे कोविड -19 टेस्ट में नेगेटिव नहीं आते, उन्हें प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। इस पर याचिकाकर्ता ने जवाब दिया कि इन परीक्षणों का संचालन करना सरकार का कर्तव्य है और जब तक इस तरह के परीक्षणों की व्यवस्था नहीं की जाती है, तब तक उनके जीवन को बचाने के लिए उचित व्यवस्था की जानी चाहिए।
याचिकाकर्ता द्वारा सप्लीमेंटरी हलफनामे के साथ जमा कराई गई तस्वीरों का जिक्र करते हुए उच्च न्यायालय ने कहा कि इनसे पता चलता है कि परिवारों को खुले आसमान के नीचे खुले खेतों में खुले तंबुओं में रहने के लिये मजबूर किया गया है। फोटो में छोटे बच्चे और नवजात शिशु कंबल में लिपटाकर जमीन पर सोते हुए दिखाई दे रहे हैं। फोटो से यह भी पता चलता है कि कुछ मवेशी तंबुओं के पास बंधे है जबकि कुछ अन्य मर गए हैं। अदालत ने कहा कि इससे पार्क के उपनिदेशक का निर्दयी रूख पता चलता है और नागरिक प्रशासन ने इन परिवारों को ऐसी दशाओं में जीने को मजबूर कर दिया है जो जानवरों के जीने लायक दशाओं से भी बदतर हैं।
न्यायालय ने कहा कि प्रथमदृष्टया भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीने के मूल अधिकार का प्रतिवादियों द्वारा उल्लंघन किया जा रहा है। उच्च न्यायालय ने उत्तरकाशी के जिलाधिकारी और पार्क के उपनिदेशक को इन परिवारों को 'पक्के मकानों' में रखने तथा उन्हें खाना, पानी और दवाइयों के अलावा उनके मवेशियों के लिए चारा उपलब्ध कराने के निर्देश दिए।
मामले की अगली सुनवाई 16 जून को होगी।
अदालत का आदेश यहां पढ़ा जा सकता है: