''मुस्तफा चोपड़ा के डेरे पर वनविभाग का हमला''- अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन

Written by Sabrangindia Staff | Published on: June 19, 2020
राजाजी नेशनल पार्क देहरादून के रामगढ़ रेंज में आशारोड़ी जंगल में दिनांक 16 व 17 जून 2020 को क्षेत्राधिकारी आन सिंह कांदली के नेतृत्व में वन विभाग की हथियारबन्द फोर्स द्वारा देहरादून-दिल्ली हाईवे से करीब 500 मीटर अन्दर जंगल में गुलाम मुस्तफा के डेरे पर तोड़फोड़ करने का मामला सामने आया है। इस मामले पर अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन ने कहा कि पुलिस मुस्तफा के डेरे पर बिना किसी पूर्व सूचना के पहुंची और उनके डेरे को तोड़कर नेस्तनाबूत करने लगी। उस समय डेरे पर केवल महिलाऐं थीं। महिलाओं ने वन विभाग द्वारा डेरे को उजाड़ने का विरोध किया, परन्तु वन विभाग की फोर्स ने उनकी एक न सुनी। महिलाओं की आवाज़ सुन डेरे के स्वामी मुस्तफा चोपड़ा डेरे पर आए और उन्होंने भी वन क्षेत्राधिकारी के समक्ष अपनी बात को रखते हुए बताया, कि इस ज़मीन पर वन अधिकार कानून 2006 के तहत व्यक्तिगत व सामुदायिक दावे प्रपत्र शासन स्तर पर विचाराधीन हैं, परन्तु वन क्षेत्राधिकारी ने मुस्तफा चोपड़ा की कोई बात नहीं सुनी। 


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अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन ने जानकारी देते हुए बताया कि वन गुज्जर परिवार के बच्चों ने अपने फोन में इस तमाम घटनाक्रम का वीडियो बना लिया है, वीडियो बनता देख वन विभाग की फोर्स ने वीडियो बनाने का विरोध किया और कहा कि तुम्हारे खिलाफ विभिन्न धाराओं में मुकदमा पंजीकृत कर तुम्हें और तुम्हारे परिवार को जेल भेज देंगे। इससे पहले भी वन विभाग ने मुस्तफा चोपड़ा पर अनेक फर्जी केस किए हुए हैं। मुस्तफा चोपड़ा विगत दो दशकों से राजाजी नेशनल पार्क में वन विभाग की तरफ से बेदखली के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। वनगुजर परिवार राजाजी पार्क के अस्तित्व में आने से पहले से बल्कि आज़ादी से पहले से ही इन वनों में रह रहे हैं।  इनकी बेदखली पर नैनीताल हाईकोर्ट द्वारा भी स्टे आर्डर दिया गया है व 2008 में वनाधिकार कानून के संसद में पास होते ही यह आर्डर दिया था कि, राजाजी नेशनल पार्क में वन गुज्जरों को वनाधिकार कानून के तहत उनके अधिकार प्रदान किए जाएं व उन्हें बेदखल न किया जाए। लेकिन कोर्ट के आर्डर की अवमानना करते हुए  वन गुज्जरों  के अधिकारों को बहाल नहीं किया गया। 

मुस्तफा चोपड़ा द्वारा हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के दरवाज़े खटखटाए जा चुके है जिसमें उनके पक्ष में ही फैसले हुए हैं लेकिन वन विभाग द्वारा कोर्ट के तमाम आदेशों को मानने से इनकार किया जाता रहा हे। इसी रंजिश के चलते वन विभाग ने इस घटना को अंजाम देकर झूठे मुकदमे दर्ज कराए हैं। जबकि फिलहाल सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी वन समुदाय की बेदखली व उत्पीड़नात्मक कार्यवाही पर रोक लगाई गई है।

वन अधिकार अधिनियम 2006 में स्पष्ट उल्लेख है कि जब तक दावेदारों के दावों का निस्तारण नहीं हो जाता, तब तक दावेदार को उक्त ज़मीन या डेरों से नहीं उजाड़ा जा सकता है, जो कोई भी ग्राम सभा का सदस्य, समिति का पदाधिकारी वन विभाग के अधिकारी व कर्मचारी या कोई अन्य इस अधिनियम के विरुद्ध कार्य करेंगे, उनके खि़लाफ़ अधिनियम की धारा 7 के अनुसार कड़ी कार्यवाही की जायेगी। 

अधिनियम की धारा 7 के अनुसार जहां कोई प्राधिकरण या समिति का कोई भी अधिकारी या सदस्य इस अधिनियम या उसके अधीन वन अधिकारों की मान्यता से संबंधित बनाए गए किसी नियम के उपबन्धों का उल्लंघन करेगा तो वह या वे इस अधिनियम के अधीन अपराध के दोषी समझे जायेगें और अपने विरुद्ध कार्यवाही किये जाने और जुर्माने से जो एक हजार रुपये तक हो सकेगा, दंण्डित किये जाने की भागी होगें। कोरोना महामारी के चलते सरकार लाॅकडाउन व सामाजिक दूरी जैसे कार्यक्रम चला रही है, परन्तु वन विभाग महामारी के बावजूद, वन आश्रित समुदायों के उपर अन्याय कर झूठे मुकदमे दर्ज कर जेल भेज रहे हैं।

ज्ञात हो कि वन गुज्जर समुदाय, घुमन्तु समुदाय से हैं, जो शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी से लेकर हिमालय की उच्च चोटियों में रहकर अपनी घुमन्तु जीवनशैली को सदियों से चलाते आ रहे हैं। इनका काम है मवेशियों को पालना और दूध बेच कर अपनी आय कमाना, सदियों से जंगलों में ही रहकर यह समुदाय पशुओं के बड़े बड़े रेबड़ रखते आए हैं जिसके लिए इन्हें बहुत ही कठिनाइयों से जीवन बिताना पड़ता है। गर्मियों में ये अपने तमाम पशुओं को लेकर हिमालय की ऊंची चोटियों पर चले जाते हैं, और जब पहाड़ों में बर्फ पड़ने लगती है तो ये अपने पशुओं को लेकर शिवालिक वनों में आ जाते हैं। संसद ने वनाधिकार कानून 2006 में पहली बार घुमन्तु समुदाय के अधिकारों को स्पष्ट रूप से उल्लेखित किया है, वरना आज़ादी के छह दशक बीतने पर भी यह विडम्बना है कि जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड़ व उत्तर प्रदेश में रहने वाले लाखों वन गुज्जर परिवारों का आज़ादी के बाद बने किसी भी कानून में जिक्र तक नहीं किया गया है। 

यह समुदाय देश के नक्शे से ही गायब है जिनके अधिकारों की कोई मान्यता नहीं है। 2006 में वनाधिकार कानून आने के बाद एक आशा की किरण जगी थी और मुस्तफा चोपड़ा और हरिपुर टांगीया वनग्राम के प्रधान मुन्नीलाल व यूनियन के संगठन सचिव ने कहा था कि ‘‘हमें आज़ादी 1947 में नहीं बल्कि 2006 में मिली है, जब हमें वास्तविक तौर पर वन विभाग की गुलामी से आज़ादी मिलेगी’’। 

लेकिन 2006 से लेकर 2020 तक वन विभाग की गुंडई और दबंगई बादस्तूर जारी है जिसपर अभी तक कोई भी सरकार लगाम कसने में कामयाब नहीं हुई है। दूसरी ओर इस कानून को लागू करने की राजनैतिक इच्छा की भी जबरदस्त कमी रही है जिसके चलते वनों में रहने वाला यह घुमन्तु समुदाय आज भी अपने मौलिक संवैधानिक अधिकारों से वंचित है। घनघोर जंगलों में रहने वाले इन समुदाय के लिए स्वास्थ, शिक्षा, स्वच्छ पेय जल, आवास, सड़क, बिजली इत्यादि आज भी एक सपना है। आज भी यह समुदाय कच्चे फूस के डेरे बना कर रहते हैं जिनकी दीवारें भी नहीं होती, ज्यादातर यह डेरे खुले होते हैं। जंगली जानवरों से बचने के लिए यह समुदाय डेरे के दहलीज़ पर आग जला कर रात को सोते है ताकि जानवर हमला न कर पाए।

यह विडम्बना है कि  ऐसे वन समुदाय जो कि आज़ादी के बाद भी अपने हक़ों से वंचित हैं, उन पर आज भी पुलिस व वन विभाग अत्याचार कर के उनका शोषण कर रहा है, और संविधान के विरुद्ध काम कर रहा है। न्याय मिलने के बजाय गुलाम मुस्तफा, उनकी पत्नी समेत 10 महिलाओं और बच्चों को पुलिस द्वारा आज गिरफ्तार कर लिया गया है। अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन, वन विभाग द्वारा की गयी इस तरह की इस घटना की निंदा करती है, तथा शासन स्तर पर मामले की निष्पक्ष जांच करने की मांग करती है और झूठे मुकदमों को निरस्त कर दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की मांग करती है। व वनगुजर समुदाय के सभी गिरफ्तार सदस्यों को बिना शर्त रिहा करने की मांग करती है।

रिपोर्ट- मुन्नीलाल एवं रोमा

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