एक मौन आपातकाल: महाराष्ट्र में उदासीनता, कर्ज और चरमराती व्यवस्था के बीच किसानों की आत्महत्या में इजाफा

Written by Tanya Arora | Published on: July 11, 2025
इस साल सिर्फ तीन महीनों में 767 किसानों ने आत्महत्या की, फिर भी राज्य की प्रतिक्रिया अब भी केवल दिखावटी, अपर्याप्त और भावशून्य है। यह जमीनी स्तर पर फैला संकट है जहां निराशा, कर्ज और इनकार करना ही किसानों की सच्चाई बन गए हैं।



महाराष्ट्र के राहत और पुनर्वास मंत्री मकरंद पाटिल ने 1 जुलाई 2025 को विधान परिषद में एक बेहद चिंताजनक आंकड़ा पेश किया। इसमें बताया गया कि जनवरी से मार्च के बीच राज्य भर में 767 किसानों ने आत्महत्या की। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, इनमें से अधिकांश मौतें राज्य के कृषि प्रधान क्षेत्रों -विदर्भ और मराठवाड़ा - में दर्ज की गईं। पश्चिम विदर्भ के केवल पांच जिलों -यवतमाल, अमरावती, अकोला, बुलढाणा और वाशिम - में ही 257 आत्महत्याएं दर्ज हुईं। वहीं, मराठवाड़ा के हिंगोली जिले से 24 नए मामले आत्महत्या करने वालों की सूची में शामिल हुए।

अप्रैल 2025 के अंत तक, आत्महत्या करने वाले किसानों की कुल संख्या बढ़कर 869 हो गई। ये आंकड़ा Scroll की रिपोर्ट में राहत और पुनर्वास विभाग की संभागीय स्तर की रिपोर्टों के हवाले से बताया गया है। इनमें अमरावती संभाग सबसे ऊपर रहा, जहां 327 किसानों ने आत्महत्या की। इसके बाद मराठवाड़ा में 269, नागपुर में 135, नासिक में 106, और पुणे संभाग में 32 मौतें दर्ज की गईं।

मराठवाड़ा, जो ऐतिहासिक रूप से भारत के सबसे सूखा-ग्रस्त और उपेक्षित इलाकों में रहा है, वह आज एक गहराते संकट से जूझ रहा है। सिर्फ जनवरी से मार्च 2025 के बीच, इसके आठ जिलों में कुल 269 किसानों आत्महत्याएं कीं। बीड में 71, छत्रपति संभाजीनगर में 50, नांदेड़ में 37, परभणी में 33, धाराशिव में 31, लातूर में 18, हिंगोली में 16 और जलना में 13 किसानों ने आत्महत्याएं कीं। टाइम्स ऑफ इंडिया की अप्रैल 2025 की रिपोर्ट के अनुसार, यह आंकड़ा 2024 की इसी अवधि में दर्ज 204 आत्महत्याओं की तुलना में तेज वृद्धि को दर्शाता है।

ये महज़ आंकड़े नहीं हैं बल्कि ये खोई हुई जिंदगियां हैं, टूटी हुईं परिवारों की कहानियां हैं और ऐसी समुदायों की पीड़ा है जिन्हें अब सहने की शक्ति नहीं बची। फिर भी महाराष्ट्र सरकार की प्रतिक्रिया ठंडी और केवल प्रक्रियात्मक रही है। पीटीआई की रिपोर्ट के अनुसार, जनवरी से मार्च 2025 के बीच दर्ज 767 आत्महत्या मामलों में से केवल 373 को ही "मुआवजे के लिए पात्र" माना गया। इनमें से भी सिर्फ 327 परिवारों को 1 लाख रूपये की राज्य सरकार की मानक अनुग्रह राशि दी गई। बाकी 200 मामलों को सिरे से खारिज कर दिया गया, जबकि 194 मामले अभी तक अफ़सरशाही की जांच प्रक्रिया में फंसे हुए हैं, जिनका कोई स्पष्ट नतीजा सामने नहीं आया है।

नुकसान का एक दुष्चक्र

हर आत्महत्या एक परिवार को तोड़ देती है। बुलढाणा के 43 वर्षीय कैलाश अर्जुन नागरे जैसे किसान, जिन्हें कभी महाराष्ट्र सरकार के युवा किसान पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, ने होली के दिन अपने खेत में जहर खाकर आत्महत्या कर ली। मार्च 2025 में पीटीआई ने इस रिपोर्ट को प्रकाशित किया था। उनके सुसाइड नोट में भीषण जल संकट और सरकारी उदासीनता को दोषी ठहराया गया था। नागरे ने हाल ही में खड़कपूर्णा जलाशय से 14 गांवों के लिए सिंचाई के पानी की मांग को लेकर पांच दिनों की भूख हड़ताल की थी। प्रदर्शनकारी किसानों द्वारा जवाबदेही की मांग के कारण उनके शव को घंटों तक नहीं ले जाने दिया गया। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, किसान नेता रविकांत तुपकर ने कहा, "यह आत्महत्या नहीं है; यह राज्य द्वारा प्रेरित हत्या है।"

वर्धा की 17 वर्षीय सोनिया उइके का उदाहरण लीजिए, जिसने 4 जुलाई, 2025 को इसलिए फांसी लगा ली क्योंकि उसका परिवार उसकी 12वीं कक्षा की स्कूल फीस नहीं भर पा रहा था। पीटीआई की रिपोर्ट के अनुसार, उसके घर का दौरा करने के बाद एनसीपी (सपा) सांसद अमर काले ने कहा, "हम किसानों की आत्महत्या से आगे बढ़कर उनके बच्चों की आत्महत्या की ओर बढ़ गए हैं।"

दुखों का हिसाब

इस संकट की जड़ में किसानों के खिलाफ एक आर्थिक मॉडल छिपा है। जैसा कि वरिष्ठ किसान कार्यकर्ता विजय जवंधिया ने रेडिफ को बताया, सरकार आरबीआई के अनुसार 3.5% की कम मुद्रास्फीति का जश्न मना रही है, जबकि किसानों द्वारा चुकाई गई कीमत को नजरअंदाज कर रही है। रेडिफ से बात करते हुए उन्होंने कहा, "महंगाई इसलिए गिरी क्योंकि सब्जियों और फसलों की कीमतें गिर गईं, न कि इसलिए कि किसानों के लिए जिंदगी सस्ती हो गई।" उर्वरक, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी लागतें काफी ज्यादा हैं, वहीं आयात और नीतिगत उपेक्षा के कारण फसलों की कीमतें गिर गईं। सोयाबीन 4,892 रूपये के एमएसपी के मुकाबले 4,000 रूपये प्रति क्विंटल पर बिका। कपास 7,500 रूपये के एमएसपी के मुकाबले 7,000 रूपये पर बिका। तुअर दाल की कीमतें 12,000 रूपये से गिरकर 6,000 रूपये प्रति क्विंटल पर आ गईं।

खाद्य नीति विशेषज्ञ देविंदर शर्मा ने द हिंदू को दिए एक बयान में कहा, "हर फसल के साथ किसान पैसे गंवा रहा है। मुद्दा यह नहीं है कि कृषि गैरलाभकारी है, बल्कि यह कि हमने इसे टिकाऊ रहने लायक ही नहीं छोड़ा है।" उन्होंने राष्ट्रीय सैंपल सर्वे कार्यालय (NSSO) के हालिया "सिचुएशन असेसमेंट सर्वे" का हवाला दिया, जिसमें यह सामने आया कि खेती से किसानों की औसत मासिक आय मात्र 10,218 रूपये है। यह खेती से मिलने वाली आमदनी रोजाना केवल 27 रूपये तक सीमित हो जाती है, जो मुश्किल से एक खाना खरीदने के लिए पर्याप्त है, कर्ज चुकाने की तो बात ही छोड़ दें।

सरकारी मदद: आधी अधूड़ी भरपाई

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, जनवरी से मार्च 2025 के बीच दर्ज 767 आत्महत्या के मामलों में से केवल 373 मामलों को मुआवजे के लिए पात्र माना गया; 200 मामलों को खारिज कर दिया गया, और 194 मामलों की जांच अभी जारी है। पात्र मामलों में से भी सिर्फ 327 परिवारों को ही सरकार द्वारा वादे के अनुसार 1 लाख रूपये की वित्तीय सहायता मिली। यह आंकड़े सरकारी सहायता प्रणाली की भारी कमजोरी और किसानों तक सहायता पहुंचाने में हो रही विफलता को दर्शाते हैं।

और भी बुरा यह है कि असुरक्षित किसानों के बड़े वर्ग को इस आंकड़े में पूरी तरह से शामिल ही नहीं किया जाता। द हिंदू के अनुसार, पत्रकार पी. साइनाथ कहते हैं, "महिला किसान, दलित, आदिवासी और पट्टेदार कृषक को व्यवस्थित रूप से बाहर रखा जाता है। यदि किसी किसान के पास 7/12 जमीन का दस्तावेज नहीं है, तो उनकी मृत्यु को दर्ज तक नहीं किया जाता।" 2014 के बाद आत्महत्या आंकड़ों के तरीकों में बदलाव के चलते, जैसे कि पट्टेदार किसानों को कृषि मजदूर के रूप में वर्गीकृत करना, संकट की वास्तविक गंभीरता और भी कम हो गई। पीपल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया ने ये बताया है। इससे यह साफ होता है कि सरकारी आंकड़ों में कई सबसे कमजोर वर्ग की पीड़ा छुपी रह जाती है और संकट का असली स्वरूप जनता तक नहीं पहुंच पाता।

शोषण के बीज: HTBT कपास संकट

महाराष्ट्र के कपास क्षेत्र को भी अब अनियंत्रित बीज बाजार ने कमजोर कर दिया है। द हिंदू से बातचीत में, जवंधिया ने चेतावनी दी कि इस वर्ष इस्तेमाल में आने वाले 2 करोड़ कपास बीज के पैकेटों में से लगभग 1 करोड़ गैर-प्राधिकृत F2 (दूसरी पीढ़ी के) बीज हैं। ये जेनेटिकली कमजोर, अनधिकृत हाइब्रिड बीज 2,000 रूपये प्रति किलोग्राम की भारी कीमत पर बेचे जा रहे हैं, जबकि इनके उत्पादन की लागत मात्र 40 रूपये प्रति किलोग्राम है। इससे एक ग्रे मार्केट बन गया है जो हताश किसानों का शोषण कर रहा है। जवंधिया ने सरकार से आग्रह किया है कि वे प्योरलाइन कपास किस्में उपलब्ध कराएं, ताकि किसान हर मौसम में निजी कंपनियों से बीज खरीदने के बजाय इन्हें फिर से रोप सकें।

इलाके में बोझ की असमानताएं

विदर्भ और मराठवाड़ा में आत्महत्याओं की संख्या कोंकण या पश्चिमी महाराष्ट्र की तुलना में ज्यादा होने के पीछे व्यवस्थागत उपेक्षा की बड़ी भूमिका है। विदर्भ की कृषि मुख्यतः बारिश पर निर्भर है और जोखिम भरी मानी जाती है। यहां जमीन के बंटवारे के कारण खेत की औसत भूमि मात्र पांच एकड़ रह गई है, जिससे परिवारों की खेती बेहद सीमित हो गई है। इसके विपरीत, पश्चिमी महाराष्ट्र में किसान बागवानी, सब्सिडी और बेहतर सिंचाई सुविधाओं का लाभ उठाते हैं। कोनकण की ग्रामीण अर्थव्यवस्था मुंबई से आने वाले रेमिटेंस (भेजी गई धनराशि) से सहारा पाती है। (Rediff, जुलाई 2025)

राज्य सरकार महिलाओं के लिए 1,500 रूपये प्रति माह की लाडकी बहिन योजना और किसानों के लिए 6,000 रूपये की पीएम-किसान सहायता जैसी योजनाएं लगातार घोषणा करती रहती है। लेकिन जब इन राशियों की तुलना 8वीं वेतन आयोग के तहत एक चपरासी की 45,000 रूपये मासिक वेतन से की जाती है, तो ये मदद बहुत छोटी लगती हैं। जवंधिया कहते हैं, "दो भारत हैं। सरकार में एक चपरासी 45,000 रूपये प्रति माह कमाता है, जबकि किसान को लाडकी बहिन योजना के तहत 1,500 रूपये मिलते हैं। और एक महिला के लिए जो पूरा खेत परिवार संभालती है, 1,500 रूपये क्या मायने रखते हैं?"

कर्ज में डूबे, भुला दिए गए परिवार

इसका असर पीढ़ियों तक जाता है। बीड के पाली में, मीना ढेरे 250 रूपये रोजाना पर प्याज के खेतों में काम करती हैं, जबकि उनकी बुज़ुर्ग सास उनके बच्चों की देखभाल करती हैं। उनके पति अशोक ने 3 लाख रूपये का कर्ज लेने के बाद जनवरी 2025 में आत्महत्या कर ली। छत्रपति संभाजीनगर में, 45 वर्षीय साधना कालस्कर, नवंबर 2024 में अपने पति की आत्महत्या के बाद 6 लाख रूपये का शादी का कर्ज चुकाने की कोशिश में एक टिन की छत के नीचे रहती हैं। द हिंदू ने ये रिपोर्ट प्रकाशित किया।

सामाजिक कार्यकर्ता नितनवरे ने कहा, "सरकार की नीतियां राहत की बातें करती हैं, लेकिन जमीनी हकीकत तो अलग ही है।" उन्होंने आगे कहा, "आत्महत्या के बाद परिवार के पास सिर्फ दुख ही नहीं बचता, बल्कि कर्ज, बकाया स्कूल फीस, और भूखे बच्चे भी रह जाते हैं।"

राजनीतिक अखाड़ा, लेकिन कोई दीर्घकालिक समाधान नहीं

2024-25 के चुनावी दौर में किसान आत्महत्या एक केंद्रीय मुद्दा बन गई। प्रधानमंत्री मोदी ने सोयाबीन के लिए 6,000 रूपये प्रति क्विंटल एमएसपी का वादा किया, जबकि कांग्रेस के राहुल गांधी ने 7,000 रूपये का वादा किया। लेकिन इन सुर्खियों के अलावा, कुछ खास नहीं बदला। 3 जुलाई को, विपक्षी दलों ने महाराष्ट्र विधानसभा में वाक आउट किया और राज्य पर सोयाबीन किसानों के भुगतान न होने के संकट की अनदेखी करने का आरोप लगाया। पीटीआई ने अपनी रिपोर्ट में ये लिखा।

आत्महत्या के आंकड़ों पर राहुल गांधी की प्रतिक्रिया जनता की हताशा को दर्शाती है: "तीन महीनों में 767 परिवार बिखर गए। क्या यह सिर्फ एक आंकड़ा है? या हमारी सामूहिक अंतरात्मा पर एक धब्बा?"



हर कुछ घंटों में एक मौत

किसान पुत्र आंदोलन जैसे किसान अधिकार समूहों का अनुमान है कि महाराष्ट्र अब हर दिन 7-8 किसानों को खो रहा है। ये महज़ आर्थिक विफलताएं नहीं हैं बल्कि ये जानबूझकर की गई उपेक्षा, बढ़ती लागत, न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) में गिरावट और बढ़ते कर्ज के कारण पैदा हुई नीतिगत हत्याएं हैं। दो दशकों से भी ज्यादा समय में, महाराष्ट्र में 39,825 किसानों ने आत्महत्या की है। इनमें से 22,193 की पुष्टि कृषि संकट के कारण हुई। सरकार ने मुआवजे के तौर पर 220 करोड़ रूपये का भुगतान किया है, यानी एक मृतक किसान पर औसतन सिर्फ 55,000 रूपये।

ये आंकड़े भयावह हैं, लेकिन ये इस घटना का केवल एक हिस्सा ही बयां करते हैं। हर मौत के पीछे एक अनसुनी आवाज, एक अनदेखा विरोध, एक अधूरा कर्ज और एक अधूरा सपना छिपा है। महाराष्ट्र का किसान संकट मौसमी नहीं, बल्कि संरचनात्मक है। जब तक इस बात को स्वीकार नहीं किया जाता, राज्य अपने किसानों और उनके भविष्य को, एक-एक करके आत्महत्या करते हुए, दफनाता रहेगा।

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