यूपी की नई सोशल मीडिया नीति: 'सरकार का प्रचार करने पर मिलेगा पैसा, विरोध करने पर हो सकती है जेल

Written by sabrang india | Published on: August 30, 2024


यूपी सरकार ने सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर्स के लिए एक नई स्कीम शुरू की है। इसके तहत सरकार के काम का प्रचार-प्रसार करने वालों को महीने में 8 लाख रुपये तक मिल सकते हैं, जबकि विरोध करने वालों को सजा का सामना करना पड़ सकता है।  

उत्तर प्रदेश सरकार ने एक नई सोशल मीडिया नीति को मंज़ूरी दी है, जिसमें आपत्तिजनक कंटेंट पोस्ट करने पर सख़्त सज़ा का प्रावधान है। कैबिनेट की बैठक में स्वीकृत की गई इस नीति का उद्देश्य लोगों को कल्याणकारी योजनाओं और सरकार की उपलब्धियों के बारे में जानकारी उपलब्ध कराना है।

आजतक की रिपोर्ट के अनुसार, योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली सरकार ने सरकार से संबंधित कंटेंट जैसे वीडियो, ट्वीट, पोस्ट और रील को विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स जैसे एक्स (पूर्व में ट्विटर), फेसबुक, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर साझा करने को प्रोत्साहित करने के लिए यह नीति लागू की है।

इस नीति में डिजिटल एजेंसियों और फर्मों के लिए सोशल मीडिया पर विज्ञापनों के लिए भुगतान प्राप्त करने की व्यवस्था की रूपरेखा भी दी गई है। कंटेंट क्रिएटर्स को विभिन्न प्लेटफॉर्म्स पर उनके सब्सक्राइबर और फॉलोअर्स की संख्या के आधार पर चार समूहों में वर्गीकृत किया गया है, जिसमें प्रति माह का भुगतान 30,000 रुपये से 5 लाख रुपये तक है। यूट्यूब वीडियो और पॉडकास्ट के लिए भुगतान 4 लाख रुपये से 8 लाख रुपये तक है।

नई नीति का सबसे अहम पहलू राष्ट्र-विरोधी कंटेंट पोस्ट करने पर कड़ी सज़ा का प्रावधान है। नीति में कहा गया है कि ऐसे कंटेंट पोस्ट करने वाले व्यक्तियों को तीन साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सज़ा हो सकती है। पहले ऐसी कार्रवाइयों को आईटी अधिनियम की धारा 66ई और 66एफ के तहत निपटाया जाता था। इसके अलावा, जो लोग अभद्र या अश्लील कंटेंट पोस्ट करते हैं, उन्हें आपराधिक मानहानि के आरोपों का भी सामना करना पड़ सकता है।

रिपोर्ट के मुताबिक, सरकार के एक प्रवक्ता ने कहा, "यह नीति यह सुनिश्चित करने के लिए बनाई गई है कि जनता को सरकार की कल्याणकारी पहल के बारे में अच्छी तरह से जानकारी हो, साथ ही उन लोगों के ख़िलाफ़ सख़्त रुख बनाए रखा जाए जो हानिकारक या राष्ट्र-विरोधी कंटेंट फैलाने के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का ग़लत इस्तेमाल करते हैं।"

योगी सरकार की इस नीति को लेकर कांग्रेस ने प्रदेश सरकार को घेरा है। एक्स पर पोस्ट करते हुए कांग्रेस ने लिखा, "यूपी सरकार सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर्स के लिए नई स्कीम लेकर आई है। इसके मुताबिक, सरकार के काम का प्रचार-प्रसार करने वाले को महीने के 8 लाख रुपये तक मिल सकते हैं और विरोध करने वालों को सजा भी भुगतनी पड़ सकती है। यानी, डिजिटल मीडिया पर सरेआम कब्जा। सरकार अब बिना किसी डर या संकोच के सरेआम मीडिया को गोद लेने पर उतारू हो गई है। यह लोकतंत्र के लिए खतरा नहीं तो और क्या है?"



बता दें कि यूपी सरकार की इस नीति से पहले, केंद्र ने ऐसी गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए तीन साल पहले इंटर्मीडियरी गाइडलाइंस और डिजिटल मीडिया एथिक्स कोड्स जारी किए थे।

केंद्र की इंटर्मीडियरी गाइडलाइंस और डिजिटल मीडिया एथिक्स कोड्स 2021 में लागू हुए थे। ये नियम केंद्र सरकार के इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (MeitY) और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय (MIB) द्वारा तैयार किए गए थे। ये नियम सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 87 पर आधारित हैं और 2018 के मसौदा मध्यस्थ नियमों को डिजिटल मीडिया के लिए ओटीटी विनियमन और आचार संहिता के साथ जोड़ते हैं।

समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने इस नीति पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि यह खुद के प्रचार-प्रसार का एक तरीका है, जिसमें सार्वजनिक धन का उपयोग करना एक नए प्रकार का भ्रष्टाचार है। यूपी कांग्रेस के अध्यक्ष ने इसे "अलोकतांत्रिक" और "संविधान-विरोधी" कहा, क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत भारत के नागरिकों को गारंटीकृत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर आघात करता है।

यह ध्यान रखना चाहिए कि भारतीय संवैधानिक कानून में संवैधानिक सर्वोच्चता का सिद्धांत यह दावा करता है कि कोई भी नीति या कानून संविधान के माध्यम से स्थापित कानूनों और प्रक्रियाओं को कुचल नहीं सकता है। संविधान भारत में सर्वोच्च कानूनी प्राधिकार है और सभी विधायी और कार्यकारी कार्यों को इसके प्रावधानों के अनुरूप होना चाहिए। यह सिद्धांत सुनिश्चित करता है कि संविधान के साथ असंगत कोई भी कानून या नीति अमान्य मानी जाएगी।

भारतीय न्यायपालिका न्यायिक समीक्षा के तंत्र के माध्यम से इस सिद्धांत को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) जैसे ऐतिहासिक मामलों ने इस बात पर जोर दिया है कि संसद के पास संविधान में संशोधन करने की शक्ति है, लेकिन वह इसके "मूल ढांचे" को नहीं बदल सकती। यह सिद्धांत सुनिश्चित करता है कि किसी भी विधायी या कार्यकारी कार्रवाई को संविधान में निहित मौलिक सिद्धांतों का पालन करना चाहिए।

इसके अलावा, नीतियों और प्रशासनिक आदेशों को कानून की ताकत प्राप्त करने के लिए विधायी प्रक्रिया का पालन करना चाहिए। वे संवैधानिक जनादेशों का उल्लंघन नहीं कर सकते और मौजूदा कानूनों के अनुरूप होने चाहिए। इस प्रकार, भारतीय कानूनी व्यवस्था में संविधान की सर्वोच्चता को संरक्षित करते हुए कोई भी नीति लागू नहीं की जा सकती यदि वह संवैधानिक प्रावधानों से टकराती है।

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