निर्विरोध चुनाव पर सुप्रीम कोर्ट का अहम सवाल : 'क्या उम्मीदवार का न्यूनतम वोट प्रतिशत तय होना चाहिए'

Written by sabrang india | Published on: April 26, 2025
सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि क्या चुनावी क़ानून में यह जोड़ा जा सकता है कि यदि किसी सीट पर केवल एक उम्मीदवार बचता है, तो भी उसे तब तक निर्वाचित न घोषित किया जाए जब तक वह तय न्यूनतम प्रतिशत वोट हासिल न कर ले।



सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार 24 अप्रैल को एक बड़ा सवाल उठाते हुए पूछा कि क्या चुनावी कानून में ऐसा कोई नियम जोड़ा जा सकता है कि यदि किसी सीट पर सिर्फ एक ही उम्मीदवार हो और उसे तभी निर्वाचित घोषित किया जाए जब उसे लोगों के एक तय प्रतिशत वोट मिलें।

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, जस्टिस सूर्यकांत की अध्यक्षता वाली दो जजों की पीठ ने केंद्र सरकार और चुनाव आयोग से पूछा कि, ‘क्या यह एक स्वागतयोग्य और प्रगतिशील कदम नहीं होगा कि जब केवल एक उम्मीदवार बचा हो, तब भी यह शर्त हो कि उसे निर्वाचित तभी घोषित किया जाएगा जब वह कम से कम 10% या 15% (जो भी निर्धारित हो) वोट हासिल करे?’

सुनवाई के दौरान जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि, ‘हमारा संविधान जिसे हम सलाम करते हैं वह बहुत गतिशील है। यह बहुमत आधारित लोकतंत्र की बात करता है। जब लोकतंत्र की नींव ही बहुमत है, तो फिर यह क्यों न तय किया जाए कि भले ही बाकी सभी उम्मीदवार पीछे हट जाएं, फिर भी कुछ न्यूनतम मतदाता तो उस उम्मीदवार के पक्ष में हों।’

ये पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति एन के सिंह भी शामिल थे, ‘विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी’ की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें अनुरोध किया गया था कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 53(2) को, जहां तक यह लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के प्रत्यक्ष चुनावों पर लागू होती है, असंवैधानिक करार दिया जाए या रद्द कर दिया जाए। प्रावधान कहता है कि निर्विरोध चुनाव के मामले में, चुनाव आयोग बिना चुनाव कराए ही एकमात्र मौजूदा उम्मीदवार को विजेता घोषित कर सकता है।

याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद दातार ने तर्क दिया कि मान लीजिए किसी क्षेत्र से चार उम्मीदवार नोमिनेशन करते हैं और आखिरी दिन तीन उम्मीदवार अपना नाम वापस ले लेते हैं। ऐसे में यदि 1 लाख मतदाताओं में से 10,000 उस उम्मीदवार को वोट देना चाहते हैं, लेकिन 25,000 नोटा (इनमें से कोई नहीं) विकल्प को चुनना चाहते हैं, तो क्या उन्हें यह विकल्प नहीं मिलना चाहिए?

इस तर्क का विरोध करते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने कहा कि पिछले 25 वर्षों में मात्र एक बार ऐसा हुआ है कि कोई चुनाव निर्विरोध हुआ हो, ‘बाकी सभी चुनावों में प्रतिस्पर्धा होती रही है।’

दातार ने कहा कि वह केवल संभावित खतरे को सामने ला रहे हैं, क्योंकि कुछ हालात ऐसे बन सकते हैं जहाँ कोई प्रत्याशी अन्य उम्मीदवारों से नामांकन वापस ले लेने को कहे, ताकि वह बिना किसी मुकाबले के जीत हासिल कर सके।

जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि यदि इसे एक शैक्षणिक दृष्टिकोण से भी देखा जाए, तो यह एक अच्छा सुधार हो सकता है, इससे किसी को कोई असुविधा नहीं होनी चाहिए।

जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि ‘नोटा को अदालत के फैसले के बाद स्वीकार किया गया, जो मतदाता की इच्छा को दर्शाने का एक जरिया है। लेकिन यहां स्थिति यह है कि मतदाता भी विवश हैं और चुनाव आयोग भी। ऐसी परिस्थिति आ सकती है और नहीं भी आ सकती, लेकिन यदि हम ऐसा प्रावधान रखें कि यदि आखिर में सिर्फ एक उम्मीदवार बच जाए तो उसे जीतने के लिए कम से कम 10%, 15% या 25% वोट हासिल करने हों, तो यह एक अच्छी पहल होगी।’

इस टिप्पणी पर द्विवेदी ने कहा कि ‘नोटा को लागू करना आसान था, लेकिन अगर सामान्य चुनावों में भी यह कहा जाए कि जब तक कोई उम्मीदवार कुल मतदाताओं के 50% वोट न पाए, वह जीत नहीं सकता.. तो यह एक बड़ा चुनावी बदलाव होगा, जिस पर संसद को विचार करना पड़ेगा।’

इस पर जस्टिस सूर्यकांत ने कहा, ‘आप सही हो सकते हैं कि यह संसद के कानून से संचालित होता है, हम सिर्फ इतना कह रहे हैं कि आप इस प्रस्ताव पर विचार करें, क्योंकि हमारा लोकतंत्र हर चुनौती से निपटने में सक्षम रहा है और हर भारतीय को इस पर गर्व है।’

जज ने कहा, ‘अभी भले ही आपके सामने ऐसी कोई स्थिति न हो, लेकिन भविष्य की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए कानून बनाया जा सकता है, ताकि कल यदि यह स्थिति आती है, तो हमारे पास उसे सुलझाने का उपाय पहले से मौजूद हो। यदि कोई व्यक्ति केवल डिफॉल्ट के कारण संसद पहुंच जाए, जबकि उसे 5% वोट भी न मिले हों, तो क्या यह लोकतंत्र की भावना के अनुरूप कहा जा सकता है? इस पर विचार करना आवश्यक है, क्योंकि आप जनता की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।’

उन्होंने कहा कि इससे पूरे निर्वाचन क्षेत्र का बेहतर प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होगा और बहुदलीय व्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा।

केंद्र सरकार की ओर से पेश हुए अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणि ने द्विवेदी की बात से सहमति जताते हुए कहा, ‘अगर कोई सुझाव महज़ वांछनीय है तो अदालत उसकी भावना को समझ सकती है, लेकिन केवल इस वजह से किसी कानून को रद्द नहीं किया जा सकता।’

इस पर जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि, ‘हम किसी कानून को रद्द करने की बात नहीं कर रहे, हम तो केवल यह सुझाव दे रहे हैं कि मौजूदा कानून में एक प्रावधान जोड़ा जा सकता है।’

इस पर अटॉर्नी जनरल ने कहा कि "इस पर भी कहीं न कहीं कुछ विचार-विमर्श होना आवश्यक है...।"

आखिर में, अदालत ने माना कि इस मुद्दे पर और चर्चाएं आवश्यक हैं और केंद्र सरकार को अपना जवाब दाखिल करने के लिए चार सप्ताह का समय दिया। सुप्रीम कोर्ट अब इस मामले की अगली सुनवाई जुलाई में करेगा।

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