सिविल विवादों को आपराधिक बनाने पर सुप्रीम कोर्ट का यूपी पुलिस फटकार, इसे ‘कानून के शासन का पूरी तरह बिखड़ना’ बताया

Written by sabrang india | Published on: April 9, 2025
अपने सख्त आदेश में शीर्ष अदालत ने उत्तर प्रदेश में सिविल विवादों के रूटीन क्रिमिनलाइजेशन की आलोचना की। साथ ही राज्य पर पड़ने वाले खर्च की चेतावनी और सत्ता के निरंतर दुरुपयोग को दर्शाने वाले एक मामले में कार्यवाही पर रोक लगा दी।



उत्तर प्रदेश पुलिस को कड़ी फटकार लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 7 अप्रैल, 2025 को सिविल विवादों को आपराधिक मामलों में बदलने की बार-बार होने वाली और गैरकानूनी तरीके पर कड़ी आलोचना की और इसे राज्य में “कानून के शासन का पूरी तरह बिखड़ना” बताया। अदालत ने चेतावनी दी कि अगर ऐसी प्रथाएं जारी रहीं तो यूपी सरकार पर जुर्माना लगाया जा सकता है जो पुलिस द्वारा कानूनी मानकों की घोर अवहेलना पर उसकी चिंता की गंभीरता को रेखांकित करती है।

भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति संजय कुमार और न्यायमूर्ति केवी विश्वनाथन की पीठ एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी जिसमें एक एफआईआर को रद्द करने की मांग की गई थी, जिसमें आपराधिक विश्वासघात, आपराधिक धमकी और साजिश के आरोप लगाए गए थे जो न्यायालय की टिप्पणियों के अनुसार, ये अपराध स्पष्ट रूप से एक दीवानी धन विवाद से उपजे थे। ज्ञात होकि याचिकाकर्ता पहले से ही निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट (चेक धोखाधड़ी) की धारा 138 के तहत कार्यवाही का सामना कर रहा था और फिर भी पुलिस ने बिना किसी कानूनी आधार के अन्य आपराधिक आरोप लगाए।

लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, अपनी सख्त नाराजगी जाहिर करते हुए सीजेआई खन्ना ने कहा, "यह गलत है! यूपी में क्या हो रहा है? हर दिन, दीवानी मुकदमों को आपराधिक मामलों में बदल दिया जा रहा है। यह सही नहीं है। यह पूरी तरह से कानून के शासन का उल्लंघन है।" न्यायालय ने आगे समन आदेश और आरोपपत्र को कानूनी रूप से अस्थिर घोषित करते हुए टिप्पणी की कि ऋण चुकाने में विफलता, अपने आप में एक अपराध नहीं बन सकती है। यह न केवल राज्य की शक्ति का घोर दुरुपयोग है, बल्कि नागरिक विवादों में लोगों को परेशान करने के लिए आपराधिक कानून का जानबूझकर किया गया दुरुपयोग भी है।

अहम बात यह है कि न्यायालय ने उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) और जांच अधिकारी (आईओ) को दो सप्ताह के भीतर हलफनामा दाखिल करने का निर्देश दिया, जिसमें ऐतिहासिक निर्णय शरीफ अहमद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (नीचे बताया गया है) में निर्धारित निर्देशों का पालन करने के लिए उठाए गए कदमों की व्याख्या की गई। उस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से आदेश दिया था कि आरोपपत्र में सटीक, पूर्ण प्रविष्टियां होनी चाहिए और जांच अधिकारी को सहायक बयानों और दस्तावेजों के साथ प्रत्येक आरोपी की भूमिका को स्पष्ट रूप से रेखांकित करना चाहिए। न्यायालय ने यह सुनिश्चित करने के लिए इन प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों की आवश्यकता पर जोर दिया था कि आपराधिक अभियोजन का दुरुपयोग न हो और ठोस सबूतों पर आधारित रहे।

फिर भी, इन स्पष्ट निर्देशों के बावजूद यूपी पुलिस ने इन सुरक्षा उपायों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया। जवाबदेही की कमी से नाराज सीजेआई ने आईओ के खिलाफ अवमानना कार्यवाही शुरू करने का संकेत देते हुए कहा, "हमने यह स्पष्ट कर दिया है कि उन्हें केस डायरी में इसका विवरण देना होगा; उन्होंने इसे पेश नहीं किया है। यदि केस डायरी पेश की जाती है, तो आईओ को गवाह बॉक्स में प्रवेश करना होगा और कहना होगा कि यह मामला है... आईओ को अपने किए का नतीजा भुगतने दीजिए, यह चार्जशीट दाखिल करने का तरीका नहीं है।"

यद्यपि राज्य के ओर से पेश वकील ने यह तर्क देकर जिम्मेदारी से बचने की कोशिश की कि याचिकाकर्ताओं ने पहले उच्च न्यायालय का दरवाजा नहीं खटखटाया था लेकिन पीठ इससे सहमत नहीं थी। यूपी में कानूनी कार्रवाई की स्थिति पर बेहद चिंतित सीजेआई ने अफसोस जताया कि वकील सिविल अधिकार क्षेत्र के अस्तित्व को पूरी तरह से भूल गए हैं, इसलिए आपराधिक प्रावधानों का दुरुपयोग आम बात हो गई है।

मामले को बदतर बनाने के लिए जब राज्य के वकील ने शरीफ अहमद के सही हवाला खोजने के लिए छूट मांगी तो पीठ ने इसे मंजूरी दे दी, लेकिन कड़ी चेतावनी देते हुए कहा कि यदि अनुपालन नहीं दिखाया जाता है, तो यूपी पुलिस पर सीधे जुर्माना लगाया जाएगा। लाइव लॉ के अनुसार, न्यायालय ने अभियुक्तों के खिलाफ ट्रायल कोर्ट की कार्यवाही पर धारा 138 एनआई अधिनियम की लंबित कार्यवाही को छोड़कर, जो वर्तमान याचिका से संबंधित नहीं थी, स्पष्ट रूप से रोक लगाने का आदेश दिया।

पीठ के आदेश में कोई अस्पष्टता नहीं है: "संज्ञान लेने का आदेश, समन आदेश और साथ ही दायर आरोप पत्र स्पष्ट रूप से शरीफ अहमद और अन्य बनाम यूपी राज्य के फैसले के विपरीत है।" इसने यह भी स्पष्ट किया कि डीजीपी को पहले के निर्देशों को लागू करने के लिए उठाए गए कदमों की रूपरेखा पेश करते हुए एक हलफनामा प्रस्तुत करना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इस तरह का दुरुपयोग दोबारा न हो।

ऐसे समय में जब राज्य पुलिस बल, खास तौर से उत्तर प्रदेश में, नागरिक विवादों को आपराधिक बनाने की खतरनाक प्रवृत्ति दिखा रहे हैं - अक्सर लोगों को परेशान करने या बदला लेने के लिए - न्यायालय ने नागरिक और आपराधिक कानून के बीच की सीमाओं की पुष्टि करने के लिए कदम उठाया है। इसकी तीखी टिप्पणियां, जवाबदेही पर सख्त रुख और जुर्माने की चेतावनी सत्ता के ऐसे मनमाने इस्तेमाल के लिए संस्थागत असहिष्णुता का संकेत देती है। इससे भी अहम बात यह है कि यह आदेश प्रक्रियात्मक अखंडता और संवैधानिक मानदंडों को कायम रखने के लिए न्यायालय की प्रतिबद्धता को दोहराता है। दूसरी ओर, यूपी सरकार एक बार फिर खुद को कानूनी संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए कटघरे में पाती है जो उचित प्रक्रिया पर जोर-जबरदस्ती को प्राथमिकता देती है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप न केवल समय पर बल्कि आवश्यक भी है - न्याय के लिए, मिसाल के लिए और एक ऐसे राज्य में कानून के शासन की बहाली के लिए जहां यह तेजी से खत्म होता दिख रहा है।

सिविल विवादों में आपराधिक कानून का दुरुपयोग करने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा यूपी पुलिस को फटकार लगाने का पिछला उदाहरण

28 नवंबर, 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने सिविल विवादों-खासकर भूमि संबंधी विवादों-को बार-बार आपराधिक मामलों में बदलने के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस को कड़ी फटकार लगाई थी। संपत्ति के मुद्दों से जुड़ी कई एफआईआर का सामना कर रहे एक व्यक्ति की अग्रिम जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने चेतावनी दी कि अगर इस तरह का दुरुपयोग जारी रहा तो वह यूपी के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) को ऐसे आदेश जारी करने में संकोच नहीं करेगा जिन्हें वह “जीवन भर याद रखेंगे”।

जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस उज्जल भुइयां की पीठ ने दर्ज की गई कई एफआईआर की विश्वसनीयता और उनके पीछे की मंशा पर सवाल उठाए थे। राज्य की ओर से पेश हुए वरिष्ठ वकील राणा मुखर्जी ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता जांच में शामिल नहीं हुआ है। हालांकि, कोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ता को आगे भी झूठे मामले और मनमानी गिरफ्तारी का डर है। लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, पीठ ने टिप्पणी की थी, "उसे पेश नहीं होना चाहिए क्योंकि वह जानता है कि आप एक और झूठा मामला दर्ज करेंगे और उसे गिरफ्तार कर लेंगे। हर बार एक नई एफआईआर होती है - अभियोजन पक्ष वास्तव में कितनी एफआईआर को बरकरार रख सकता है?"

पीठ ने बताया था कि पंजीकृत बिक्री विलेख के माध्यम से वैध संपत्ति खरीद के आधार पर किसी पर भूमि हड़पने का आरोप लगाना आपराधिक कानून का स्पष्ट दुरुपयोग है। "क्या यह एक दीवानी विवाद है या आपराधिक?" न्यायालय ने पूछा, इस बात पर जोर देते हुए कि यूपी पुलिस दीवानी असहमति को आपराधिक मामलों के रूप में मानकर एक सीमा पार कर रही है। पीठ ने पुलिस के अतिक्रमण के प्रणालीगत मुद्दे को भी संबोधित किया। इसने चेतावनी दी कि यदि यह तरीका बेरोकटोक जारी रहा, तो न्यायालय इसमें शामिल अधिकारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करेगा।

जब राज्य के वकील ने जिम्मेदारी बदलने का प्रयास किया, तो न्यायालय ने स्पष्ट किया कि मुद्दा पुलिस के आचरण से जुड़ा है और मुखर्जी से आग्रह किया कि वे सुनिश्चित करें कि अधिकारियों को मैसेज स्पष्ट रूप से दिया जाए।

अपने अंतरिम निर्देश में, न्यायालय ने याचिकाकर्ता को जांच में शामिल होने की अनुमति दी, लेकिन पुलिस को बिना पूर्व अनुमति के उसे गिरफ्तार करने से रोक दिया। पीठ ने कहा कि गिरफ्तारी की किसी भी वास्तविक आवश्यकता को पहले न्यायालय के समक्ष उचित ठहराया जाना चाहिए। इसने यह भी चेतावनी दी कि बुरे इरादे से काम करने वाले अधिकारियों को न केवल निलंबन का सामना करना पड़ेगा, बल्कि संभवतः अधिक गंभीर परिणाम भी भुगतने होंगे।

पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए, न्यायालय ने पुलिस को मोबाइल के जरिए समन जारी करने का निर्देश दिया, जिसमें जांच अधिकारी के समक्ष उपस्थित होने की तिथि, समय और स्थान का स्पष्ट उल्लेख हो।

न्यायालय का हस्तक्षेप उत्तर प्रदेश में दीवानी मामलों के आकस्मिक अपराधीकरण पर बढ़ती चिंता को दर्शाता है। यह मामला उन उदाहरणों की श्रृंखला में शामिल हो गया है, जहां न्यायपालिका को राज्य में पुलिस शक्तियों के दुरुपयोग को रोकने के लिए कदम उठाना पड़ा है।

आदेश यहां पढ़ा जा सकता है



इन आरोपपत्रों को उचित तरीके से दाखिल करने पर सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश 1 मई, 2024 को दिए गए एक फैसले में, सर्वोच्च न्यायालय ने सीआरपीसी की धारा 173(2) के तहत आरोपपत्र दाखिल करने के संबंध में स्पष्ट निर्देश दिए। न्यायालय ने मजिस्ट्रेट को किसी अपराध का संज्ञान लेने में सक्षम बनाने के लिए एक अच्छी तरह से तैयार किए गए आरोपपत्र के महत्व पर जोर दिया।

तत्कालीन न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति एसवीएन भट्टी की पीठ ने कहा था कि जांच अधिकारियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि आरोपपत्र का हर कॉलम स्पष्टता और पूर्णता से भरा हो। यह अदालत के लिए आवश्यक है ताकि वह स्पष्ट रूप से समझ सके कि किस आरोपी पर किस अपराध का आरोप लगाया जा रहा है और कौन से साक्ष्य आरोपों का समर्थन करते हैं। आरोपपत्र में गवाहों की सूची के साथ-साथ सीआरपीसी की धारा 161 के तहत दर्ज उनके बयान भी शामिल होने चाहिए। महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रत्येक आरोपी kr विशिष्ट भूमिका को अलग से बताया जाना चाहिए।

पीठ ने कुछ राज्यों में इस तरह के तरीकों की आलोचना की, जहां पुलिस केवल एफआईआर के कंटेंट को दोहराती है और बिना किसी सहायक सामग्री का हवाला दिए इस पर सामान्य टिप्पणी करती है कि क्या कोई अपराध हुआ है। अदालत ने कहा कि इस तरह का तरीका आरोपपत्र के उद्देश्य को विफल करती है, जिसे मजिस्ट्रेट के लिए इन्फॉर्म्ड डिसिजन लेने के लिए आधार के रूप में काम करना चाहिए।

जबकि अदालत ने स्पष्ट किया कि आरोपपत्र में साक्ष्य के विस्तृत मूल्यांकन की आवश्यकता नहीं है - जो कि मुकदमे का उद्देश्य है - इसमें कम से कम उन कारणों और आधारों को शामिल किया जाना चाहिए जिनके कारण जांच अधिकारी ने निष्कर्ष निकाला कि कोई अपराध हुआ है। ये बुनियादी औचित्य मजिस्ट्रेट को यह निर्धारित करने में सक्षम बनाएंगे कि संज्ञान लेने, समन जारी करने या आरोप तय करने के लिए पर्याप्त आधार है या नहीं।

अदालत ने जोर देकर कहा कि आरोपपत्र अभियोजन पक्ष के मामले का संपूर्ण सारांश नहीं है, लेकिन इसमें एक गंभीर और पूरी जांच को प्रतिबिंबित करना चाहिए। इस रिकॉर्ड के आधार पर, मजिस्ट्रेट धारा 190(1)(बी) और धारा 204 सीआरपीसी के तहत शक्तियों का प्रयोग करता है। जहां संदेह पैदा होता है, या यदि कोई अपराध नहीं बनता है तो मजिस्ट्रेट कानून के तहत उपलब्ध अन्य विकल्पों को चुनने का विवेक रखता है।

अपनी स्थिति का समर्थन करने के लिए न्यायालय ने ऐतिहासिक मामले एच.एन. रिशबुद और इंदर सिंह बनाम दिल्ली राज्य का हवाला दिया, जिसमें जांच के मुख्य घटकों को रेखांकित किया गया था, जैसे कि अपराध स्थल का दौरा करना, तथ्य-खोज, गिरफ्तारी करना, गवाहों के साक्षात्कार, तलाशी और जब्ती के माध्यम से साक्ष्य इकट्ठा करना और इस बारे में राय बनाना कि कोई अपराध हुआ है या नहीं।

इसके अलावा, डबलू कुजूर बनाम झारखंड राज्य में हाल ही में दिए गए फैसले पर भरोसा किया गया, जहां न्यायालय ने पूरे भारत में पुलिस अधिकारियों को धारा 173(2) सीआरपीसी और संबंधित राज्य पुलिस मैनुअल के अनिवार्य प्रावधानों का सख्ती से पालन करने का निर्देश दिया। न्यायालय ने कहा कि ऐसा करने में किसी भी तरह की विफलता को उन न्यायालयों द्वारा गंभीरता से लिया जाएगा जहां पुलिस रिपोर्ट या आरोप पत्र दायर किया गया है।

मुख्य दिशा-निर्देश निर्धारित किए गए-

1. आवश्यक संपूर्ण जानकारी: आरोप पत्र में सभी कॉलम में पूरी और स्पष्ट प्रविष्टियां होनी चाहिए ताकि मजिस्ट्रेट को अपराध, अभियुक्त की भूमिका और सहायक साक्ष्य को समझने में सहायता मिल सके।

2. भूमिकाओं का विशिष्ट निर्धारण: प्रत्येक आरोपी व्यक्ति की भूमिका स्पष्ट रूप से और अलग से दर्शाई जानी चाहिए। सामान्य या अस्पष्ट आरोप स्वीकार्य नहीं हैं।

3. अनिवार्य अनुलग्नक: धारा 161 सीआरपीसी के तहत दर्ज किए गए बयान और गवाहों की सूची आरोपपत्र के साथ संलग्न की जानी चाहिए।

4. एफआईआर की पुनरावृत्ति से बचें: केवल एफआईआर की सामग्री की नकल करना पर्याप्त नहीं है। आरोपपत्र में स्वतंत्र जांच के परिणाम को दर्शाना चाहिए और जिस साक्ष्य पर भरोसा किया गया है उसे प्रस्तुत करना चाहिए।

5. आरोपपत्र में पर्याप्त आधार और कारण होने चाहिए: जबकि साक्ष्य का विस्तृत विश्लेषण आवश्यक नहीं है, आरोपपत्र में अभियोजन को उचित ठहराने के लिए पर्याप्त आधार और कारण होने चाहिए।

6. संज्ञान की सुविधा: आरोपपत्र एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है जो मजिस्ट्रेट को यह निर्णय लेने की अनुमति देता है कि धारा 190(1)(बी) और 204 सीआरपीसी के तहत संज्ञान लेना है, प्रक्रिया जारी करना है या मामले को खारिज करना है।

7. गहन जांच को प्रतिबिंबित करें: हालांकि मामले का व्यापक वर्णन होने की उम्मीद नहीं है, लेकिन रिपोर्ट में एक गंभीर और पूर्ण जांच को प्रतिबिंबित करना चाहिए।

8. मजिस्ट्रेट के विवेक पर कोई असर नहीं: यदि मजिस्ट्रेट को सामग्री अपर्याप्त लगती है, तो वे संज्ञान के साथ आगे नहीं बढ़ने का विकल्प चुन सकते हैं और अन्य उपलब्ध कानूनी विकल्पों का उपयोग कर सकते हैं।

9. जांच प्रक्रिया की पुष्टि: एच.एन. रिशबुद बनाम दिल्ली राज्य का हवाला देते हुए न्यायालय ने दोहराया कि जांच में घटनास्थल का दौरा करना, तथ्यों का पता लगाना, गिरफ्तारियां करना, साक्ष्य इकट्ठा करना और इस बारे में राय बनाना शामिल है कि क्या अपराध बनता है।

10. सख्त अनुपालन की आवश्यकता: डबलू कुजूर बनाम झारखंड राज्य का हवाला देते हुए, न्यायालय ने निर्देश दिया कि पुलिस अधिकारियों को धारा 173 (2) सीआरपीसी और राज्य पुलिस मैनुअल का सख्ती से पालन करना चाहिए। अनुपालन में विफलता को न्यायालयों द्वारा गंभीरता से लिया जाएगा।

अदालत का फैसला यहां पढ़ा जा सकता है



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