कलकत्ता हाई कोर्ट के वापसी आदेश को केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में दी चुनौती, बांग्लादेशी अदालत ने छह निर्वासित बंगालियों को भारतीय नागरिक माना

Written by sabrang india | Published on: November 1, 2025
कलकत्ता हाई कोर्ट द्वारा पश्चिम बंगाल के बीरभूम ज़िले के छह नागरिकों को बांग्लादेश से वापस लाने का आदेश दिए जाने के बावजूद, केंद्र सरकार ने इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। वहीं, बांग्लादेश की एक अदालत और कई आधिकारिक दस्तावेज़ों ने पहले ही पुष्टि कर दी है कि ये सभी लोग भारतीय नागरिक हैं, न कि बांग्लादेशी।



गंभीर प्रक्रियागत चूक और न्यायिक अधिकार की अवहेलना को उजागर करने वाले एक चिंताजनक घटनाक्रम में, केंद्र सरकार ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के उस बाध्यकारी आदेश को मानने से इनकार कर दिया है, जिसमें उसे जून 2025 में बांग्लादेश निर्वासित किए गए छह भारतीय नागरिकों को वापस लाने का निर्देश दिया गया था।

द टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, 24 अक्टूबर को समाप्त हुई चार सप्ताह की समयसीमा के भीतर प्रत्यावर्तन की प्रक्रिया शुरू करने के बजाय, केंद्र सरकार ने 22 अक्टूबर को इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का निर्णय लिया।

इस कदम ने सरकार की विधिक प्रक्रिया, संवैधानिक सुरक्षा उपायों और संस्थागत जवाबदेही के प्रति उसकी प्रतिबद्धता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।

यह मामला तब सामने आया जब कलकत्ता उच्च न्यायालय ने छह लोगों के खिलाफ जारी निर्वासन आदेशों को निरस्त कर दिया था — जिनमें आठ माह की गर्भवती सुनाली (सोनाली) खातून, उनके पति दानिश शेख और आठ वर्षीय पुत्र सबीर शामिल थे — और केंद्र सरकार को निर्देश दिया था कि सभी छह लोगों को चार सप्ताह के भीतर भारत वापस लाया जाए।

यह समयसीमा 24 अक्टूबर 2025 को समाप्त हुई, लेकिन केंद्र सरकार ने 22 अक्टूबर को — यानी आदेश की अनुपालन अवधि समाप्त होने से दो दिन पहले — इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का निर्णय लिया।

रिपोर्टों के अनुसार, निर्वासित लोगों के परिजन आदेश के पालन को सुनिश्चित कराने के लिए उच्च न्यायालय में अवमानना कार्यवाही शुरू करने की तैयारी कर रहे थे।

कलकत्ता उच्च न्यायालय के आदेश की विस्तृत रिपोर्ट यहां पढ़ी जा सकती है।

सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका और केंद्र के तर्क

सुप्रीम कोर्ट में दायर अपनी याचिका में केंद्र सरकार ने कथित तौर पर यह सवाल उठाया है कि क्या कलकत्ता उच्च न्यायालय को इस मामले की सुनवाई का अधिकार था, यह तर्क देते हुए कि इसी प्रकार के कुछ मामले पहले से ही दिल्ली उच्च न्यायालय में लंबित हैं।

द टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार, केंद्र की ओर से पेश हुए अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल अशोक कुमार चक्रवर्ती ने दलील दी कि याचिकाकर्ता भोदू शेख — जो सुनाली के पिता और पश्चिम बंगाल के बीरभूम ज़िले के निवासी हैं — ने हेबियस कॉर्पस (हिरासत में लिए गए व्यक्ति की रिहाई) याचिका दायर करते समय कुछ तथ्यों को छिपाया।

संक्षेप में: कलकत्ता उच्च न्यायालय का प्रत्यावर्तन आदेश

पहले, कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा निर्वासन प्रक्रिया के विवरण प्रस्तुत करने के निर्देश के जवाब में केंद्र सरकार ने दावा किया था कि हिरासत में लिए गए छह लोग बांग्लादेशी नागरिक हैं।
हालांकि, सरकार के शपथपत्र में यह स्पष्ट नहीं किया गया कि उन्हें किस स्थान से और किस अथॉरिटी के आदेश पर भारत से बाहर भेजा गया था।

उच्च न्यायालय ने इस चूक को बेहद गंभीरता से लिया। भोदू शेख बनाम भारत संघ एवं अन्य मामले में 26 सितंबर 2025 को दिए गए निर्णय में, न्यायमूर्ति तपब्रत चक्रवर्ती और न्यायमूर्ति रीतोब्रतो कुमार मित्रा की खंडपीठ ने टिप्पणी की कि यह निर्वासन “बेहद जल्दबाजी में” किया गया था — और यह कार्यवाही गृह मंत्रालय के 2 मई 2025 के सर्कुलर की पूरी तरह अवहेलना में हुई थी, जिसमें स्पष्ट निर्देश था कि किसी भी व्यक्ति को उसके गृह राज्य की 30 दिन की सत्यापन प्रक्रिया पूरी किए बिना निर्वासित नहीं किया जा सकता।

कलकत्ता हाई कोर्ट का आदेश: छह भारतीयों के निर्वासन को बताया असंवैधानिक

कलकत्ता हाई कोर्ट ने केंद्र सरकार के इस दावे को खारिज कर दिया कि निर्वासित किए गए छह लोगों ने स्वयं को “बांग्लादेशी नागरिक” बताया था। अदालत ने कहा कि पुलिस अधिकारियों के सामने दिए गए ऐसे बयान, यदि वे बिना किसी कानूनी प्रक्रिया या सुरक्षा के दर्ज किए गए हों, तो वे संविधान के अनुच्छेद 14, 20(3) और 21 का उल्लंघन हैं।

अदालत ने विशेष रूप से सुनाली खातून के दस्तावेज़ों — आधार और पैन कार्ड — का उल्लेख किया, जिनसे सिद्ध हुआ कि उनका जन्म वर्ष 2000 में हुआ था। इस आधार पर न्यायालय ने कहा कि अधिकारियों का यह दावा झूठा है कि वह “1998 में अवैध रूप से भारत आई थीं।”

न्यायाधीशों ने कहा, “संदेह, चाहे कितना भी गहरा क्यों न हो, सबूत की जगह नहीं ले सकता।” अदालत ने 24 और 26 जून 2025 को जारी किए गए निर्वासन और हिरासत आदेशों को असंवैधानिक और अवैध घोषित किया।

पीठ ने यह भी कहा कि सरकार की कार्रवाई ने “संविधान द्वारा दिए गए निष्पक्षता और न्याय के अधिकार को कमजोर कर दिया।” अदालत ने केंद्र सरकार, एफआरआरओ दिल्ली और दिल्ली पुलिस को आदेश दिया कि छहों लोगों को ढाका स्थित भारतीय उच्चायोग के माध्यम से चार सप्ताह के भीतर भारत वापस लाया जाए।

सरकार ने इस आदेश पर रोक (स्टे) की मांग की, लेकिन अदालत ने उसे ठुकरा दिया और कहा — “स्वतंत्रता एक बार छिन जाए, तो उसे जल्द से जल्द वापस दिया जाना चाहिए।”

बांग्लादेशी अदालत ने छह पीड़ितों को भारतीय नागरिक माना

एक समानांतर और उल्लेखनीय घटनाक्रम में, बांग्लादेश की एक अदालत ने भी निर्वासित परिवारों के पक्ष में फैसला सुनाया।

30 सितंबर 2025 को चपाई नवाबगंज की सदर कोर्ट के वरिष्ठ न्यायिक मजिस्ट्रेट ने आदेश दिया कि सभी छह व्यक्ति — सुनाली खातून, दानिश शेख, उनका नाबालिग पुत्र सबीर, स्वीटी बीबी (32 वर्ष) और उसके दो बेटे (उम्र छह और सोलह वर्ष) — भारतीय नागरिक हैं, न कि बांग्लादेशी।

अदालत ने उनके आधार नंबर और बीरभूम ज़िले से जारी निवास प्रमाणपत्रों का हवाला देते हुए कहा कि इन लोगों को “भारतीय अधिकारियों द्वारा गलत तरीके से सीमा पार धकेल दिया गया” था।
मजिस्ट्रेट ने आदेश दिया कि यह निर्णय ढाका स्थित भारतीय उच्चायोग को भेजा जाए ताकि “उचित कूटनीतिक कार्रवाई” की जा सके।

विस्तृत रिपोर्ट यहां पढ़ी जा सकती है।

राजनीतिक प्रतिक्रिया: तृणमूल कांग्रेस ने केंद्र सरकार पर न्यायालय की अवमानना का आरोप लगाया

जब केंद्र सरकार द्वारा कलकत्ता हाई कोर्ट के आदेश का पालन करने की समयसीमा 24 अक्टूबर को समाप्त हुई, तब तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने केंद्र पर आरोप लगाया कि उसने “निर्लज्जता से न्यायिक आदेश की अवहेलना की है” और “अपने ही नागरिकों को असहाय छोड़ दिया है।”

द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, 24 अक्टूबर को टीएमसी ने कहा कि भाजपा-शासित केंद्र सरकार ने “अहंकार और उदासीनता के साथ कलकत्ता हाई कोर्ट के आदेश का उल्लंघन किया।”

पार्टी ने तीखे शब्दों में सवाल उठाया — “क्या सत्ता में होना भाजपा को यह अधिकार देता है कि वह हाई कोर्ट के आदेश को नज़रअंदाज़ करे? क्या यह उन्हें महिलाओं और बच्चों की पीड़ा को अनदेखा करने का लाइसेंस देता है? क्या आम नागरिकों को सत्ता के प्रतिशोधात्मक, प्रदर्शनकारी खेल में सौदेबाजी का पात्र बना दिया जाएगा?”

तृणमूल कांग्रेस का तीखा बयान: “न मानवीयता, न तत्परता, न शालीनता”

द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, टीएमसी के बयान में कहा गया, “पहले इन निर्दोष लोगों को बांग्लादेशी कहकर सीमा पार कर दिया गया। फिर लंबी कानूनी लड़ाई के बाद अदालत ने सच्चाई सामने लाई और उनके प्रत्यावर्तन (वापसी) का आदेश दिया। लेकिन केंद्र सरकार ने न कोई तत्परता दिखाई, न मानवीयता, न ही उन्हें घर लाने की बुनियादी शालीनता।”

टीएमसी नेताओं — शशि पांजा (महिला एवं बाल विकास मंत्री) और समीरुल इस्लाम (राज्यसभा सांसद एवं अध्यक्ष, प्रवासी श्रमिक कल्याण बोर्ड) — ने केंद्र सरकार की निष्क्रियता की कड़ी निंदा की।

द हिंदू के अनुसार, शशि पांजा ने कहा — “यह निर्वासन पूरी तरह गलत था। इस लड़ाई को तृणमूल कांग्रेस ने लड़ा। लेकिन केंद्र सरकार ने उन्हें वापस लाने के लिए एक भी कदम नहीं उठाया। उल्टा, वे लगातार उन्हें बांग्लादेशी बताते रहे ताकि वे वहीं फंसे रहें।”

समीरुल इस्लाम का बयान: “केंद्र का रवैया असंवैधानिक और अमानवीय”

द हिंदू से बातचीत में राज्यसभा सांसद समीरुल इस्लाम ने कहा कि केंद्र सरकार की निष्क्रियता “असंवैधानिक और अमानवीय” है — खासकर तब, जब बांग्लादेश की अदालत पहले ही इन छह लोगों को भारतीय नागरिक मान चुकी है।

उन्होंने बताया कि पश्चिम बंगाल सरकार सीमा पार फंसे इन छह लोगों से संपर्क स्थापित करने की लगातार कोशिश कर रही है, लेकिन अब तक कोई प्रत्यक्ष संवाद संभव नहीं हो सका है। इस्लाम ने यह भी बताया कि सुनाली बीबी गर्भवती हैं।

विस्तृत संदर्भ: बंगालीभाषी मज़दूरों पर बढ़ती कार्रवाई

यह विवाद ऐसे समय में सामने आया है जब मई 2025 से अब तक हज़ारों बंगालीभाषी प्रवासी मज़दूरों को भाजपा-शासित राज्यों में “अवैध प्रवासी” होने के शक में हिरासत में लिया गया, पूछताछ की गई या देश से निकाल दिया गया है।

सिटिज़न्स फ़ॉर जस्टिस एंड पीस (CJP) की रिपोर्ट के अनुसार, कई मामलों में मज़दूरों को हिरासत में लिए जाने के कुछ ही दिनों के भीतर “विदेशी” घोषित कर दिया गया और बिना किसी औपचारिक जांच या उनके गृह राज्यों को सूचित किए बांग्लादेश की सीमा पार भेज दिया गया।

मानवाधिकार संगठनों और वकीलों ने इन निर्वासन कार्रवाइयों को “अवैध, असंवैधानिक और विदेशी विरोधी (ज़ेनोफोबिक)” बताया है।

सुनाली खातून निर्वासन मामला: नागरिकता, प्रक्रिया और जवाबदेही पर गहरे सवाल

सुनाली खातून का मामला — जो अब भारत और बांग्लादेश के बीच कानूनी और कूटनीतिक तनाव का केंद्र बन गया है — यह दर्शाता है कि कार्यपालिका के हस्तक्षेप (executive overreach) और जातीय पहचान के आधार पर की गई कार्रवाइयाँ (ethnic profiling) कितनी गंभीर और दूरगामी प्रभाव डाल सकती हैं।

यह मामला भारत के संवैधानिक ढाँचे के तहत नागरिकता, विधिक प्रक्रिया (due process) और सरकारी जवाबदेही जैसे बुनियादी सिद्धांतों पर गंभीर सवाल उठाता है।

ऐसे ग़ैरकानूनी निर्वासन से जुड़ी विस्तृत रिपोर्टें यहां पढ़ी जा सकती हैं।

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