मनुस्मृति विरोध दिवस: बीएचयू में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर वार, तीन छात्राओं सहित 13 स्टूडेंट्स की गिरफ्तारी के पीछे कौन?-स्पेशल रिपोर्ट

Written by विजय विनीत | Published on: December 27, 2024
चर्चा के दौरान बीएचयू प्रॉक्टोरियल बोर्ड के गार्ड्स ने आकर छात्रों से बदसलूकी की और उन्हें घसीटते हुए प्रॉक्टोरियल बोर्ड ऑफिस ले गए। शाम करीब 7:30 बजे छात्रों को वहां बंद कर दिया गया।



उत्तर प्रदेश के वाराणसी स्थित बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में आयोजित ‘मनुस्मृति दहन दिवस’ पर चर्चा के दौरान 13 छात्रों की गिरफ्तारी ने बनारस को हिला कर रख दिया है। इस घटना ने न केवल बीएचयू बल्कि पूरे बनारस और आसपास के क्षेत्रों में लोगों को उद्वेलित कर दिया है। तमाम प्रबुद्ध नागरिक, सामाजिक कार्यकर्ता और छात्र इस मुद्दे पर प्रशासन, पुलिस और सरकार की नीतियों के खिलाफ खड़े नजर आ रहे हैं। मनमानी का आलम यह है कि लंका थाना पुलिस स्टूडेंट्स के खिलाफ दर्ज एफआआईआर की प्रतिलिपि देने में हीला-हवाला कर रही है।

बीएचयू में 25 दिसंबर को भगतसिंह स्टूडेंट्स मोर्चा द्वारा मनुस्मृति दहन दिवस पर एक चर्चा का आयोजन किया गया था। इस ऐतिहासिक दिन का महत्व इस बात में है कि डॉ. भीमराव अंबेडकर ने 1927 में इसी दिन मनुस्मृति को जलाया था। भगतसिंह स्टूडेंट्स मोर्चा के सदस्य इसी विषय पर चर्चा के लिए एकत्र हुए थे। चर्चा के दौरान बीएचयू प्रॉक्टोरियल बोर्ड के गार्ड्स ने आकर छात्रों से बदसलूकी की और उन्हें घसीटते हुए प्रॉक्टोरियल बोर्ड ऑफिस ले गए। शाम करीब 7:30 बजे छात्रों को वहां बंद कर दिया गया।

बाद में 26 दिसंबर 2024 को भगतसिंह स्टूडेंट्स मोर्चा के 13 सदस्यों पर गंभीर धाराओं के तहत एफआईआर दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। इस दौरान छात्रों को शारीरिक चोटें पहुंचाई गईं, उनके कपड़े फाड़ दिए गए और चश्मे तोड़ दिए गए। जो भी छात्र उनकी मदद के लिए पहुंचे, उन्हें भी धक्का-मुक्की और मारपीट का सामना करना पड़ा।


बीएचयू के गार्ड्स और वाराणसी पुलिस ने स्टूडेंट्स को कई तरह की धमकियां दीं, जिनमें "भविष्य खराब कर देने" और "देख लेने" जैसी धमकियां शामिल थीं। यह सभी कार्रवाई आर्ट्स फैकल्टी, बीएचयू में आयोजित 'मनुस्मृति दहन दिवस' की चर्चा के दौरान हुई। आरोप है कि गिरफ्तार छात्रों के साथ पुलिस और प्रॉक्टोरियल बोर्ड से जुड़े छात्रों के साथ मारपीट की। सभी को रात भर लंका थाने में बंद रखा गया और उन्हें अपने वकीलों तक से मिलने नहीं दिया गया।

साल 1927 में डॉ. भीमराव अंबेडकर ने मनुस्मृति को जलाकर जातिवादी और लैंगिक भेदभाव के प्रतीक के रूप में इसे खारिज किया था। लेकिन बीएचयू प्रशासन ने इस चर्चा को दबाने का प्रयास किया। बताया जा रहा है कि इस दौरान छात्रों को गंभीर चोटें आईं। उनके कपड़े फाड़ दिए गए और चश्मे तक तोड़ दिए गए। जो छात्र प्रॉक्टोरियल बोर्ड के पास मदद मांगने गए, उन्हें भी धक्का-मुक्की और मारपीट के बाद डिटेन कर लिया गया। इसके बाद BHU के गार्ड्स और वाराणसी पुलिस ने मिलकर छात्रों को तरह-तरह की धमकियां दीं, जिनमें भविष्य खराब करने और गंभीर परिणाम भुगतने की बातें शामिल थीं।

डिटेन किए गए छात्रों को जबरन पुलिस वैन में ठूंसकर, मारपीट करते हुए थाने ले जाया गया। जेल जाते हुए छात्रों ने "मनुस्मृति मुर्दाबाद" और "इंकलाब जिंदाबाद" के नारे लगाए। गिरफ्तार किए गए छात्रों में तीन लड़कियां भी थीं। छात्रों ने पुलिस की इस कार्रवाई को गैरकानूनी और आपत्तिजनक बताया। उनका कहना है कि शाम के बाद लड़कियों को डिटेन करना कानून का उल्लंघन और शक्ति का दुरुपयोग है। लंका थाने की पुलिस ने इस मामले में बार-बार यही कहा कि "मामला ऊपर से डील हो रहा है," जिससे भाजपा, आरएसएस और एबीवीपी जैसे संगठनों की संलिप्तता का संकेत मिलता है।

डिटेन किए गए सभी 13 छात्रों को जेल भेज दिया गया। गिरफ्तार किए गए छात्रों में मुकेश कुमार, संदीप जायसवाल, अमर शर्मा, अरविंद पाल, अनुपम कुमार, लक्ष्मण कुमार, अविनाश, अरविंद, शुभम कुमार, आदर्श, इप्सिता अग्रवाल, सिद्दी तिवारी और कात्यायनी बी रेड्डी के नाम शामिल हैं। इन छात्रों पर भारतीय दंड संहिता की धाराओं 132, 121(2), 196(1), 299, 190, 191(2), 115(2) और 110 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया है, जिनमें 10 साल तक की सजा का प्रावधान है।

गिरफ्तार छात्रों का आरोप है कि पुलिस ने उनके साथ थाने में भी मारपीट की और उन्हें लंका थाने पर रातभर बंद रखा। उन्हें वकीलों से मिलने तक नहीं दिया गया। जब वकील ने मिलने की मांग की, तो लंका थाना के इंस्पेक्टर शिवाकांत मिश्रा ने कहा, "यह मेरा थाना है और यहां मेरे हिसाब से चलेगा। अपनी वकालत कोर्ट में करना।"


भगतसिंह स्टूडेंट्स मोर्चा की अध्यक्ष आकांक्षा आज़ाद ने स्टूडेंट्स के खिलाफ की गई कार्रवाई को "ब्राह्मणवादी और हिंदुत्ववादी ताकतों के इशारे पर किया गया दमन" बताया। हम बाबा साहब और भगत सिंह के विचारों के वारिस हैं। हमारी आवाज को दबाने के जितने भी प्रयास होंगे, हम उतने ही मजबूती से खड़े होंगे।"

आकांक्षा ने आरोप लगाया कि बीएचयू प्रशासन और पुलिस ने फासीवादी ताकतों के दबाव में यह कार्रवाई की। उन्होंने कहा, "मनुस्मृति जैसे ग्रंथ पर चर्चा करने पर छात्रों को जेल भेजा जाना लोकतंत्र का मखौल उड़ाने जैसा है। मनुस्मृति महिलाओं और दलितों को जानवर से भी बदतर दर्जा देती है, और इस तरह की दमनात्मक कार्रवाइयों से उनके सपनों और विचारों को कुचला नहीं जा सकता।"

भगतसिंह स्टूडेंट्स मोर्चा ने मांग उठाई है कि गिरफ्तार छात्रों की तुरंत रिहाई हो। झूठी रिपोर्ट को तत्काल रद्द किया जाए। छात्रों पर हिंसा करने वाले पुलिसकर्मियों और बीएचयू गाडर्स के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर कार्रवाई की जाए। संगठन ने कहा, "हमारे हौसले और सपनों को दबाया नहीं जा सकता। मनुस्मृति दिवस पर छात्रों की गिरफ्तारी ने एक बार फिर से यह साबित कर दिया है कि अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरा मंडरा रहा है। लेकिन बनारस की जनता, जो हमेशा से ज्ञान, संवाद और विचारों की भूमि रही है, इस अन्याय के खिलाफ चुप नहीं रहेगी।"

आकांक्षा का कहना है कि स्टूडेंट्स के मोबाइल फोन सीज कर दिए गए और उनके परिवारों को सूचित करने की अनुमति नहीं दी गई, जो सुप्रीम कोर्ट और मानवाधिकार आयोग के निर्देशों का स्पष्ट उल्लंघन है। 26 दिसंबर को छात्रों को रिमांड कोर्ट में पेश कर जेल भेज दिया गया। दर्ज की गई FIR में बेहद गंभीर धाराएं जोड़ी गई हैं। यह घटना न केवल छात्रों के अधिकारों का हनन है, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया और मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन भी है।

एफआईआर की कॉपी यहां देखें :



अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला 

इस घटना ने बनारस के सामाजिक और शैक्षणिक माहौल में उबाल ला दिया है। छात्रों, प्रबुद्ध नागरिकों और सामाजिक संगठनों ने इसे लोकतंत्र पर हमला और अभिव्यक्ति की आजादी का हनन बताया है। सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसे "ब्राह्मणवादी ताकतों के इशारे पर की गई दमनकारी कार्रवाई" करार दिया। बुद्धिजीवियों का कहना है कि "मनुस्मृति जैसे ग्रंथ पर चर्चा करना अपराध कैसे हो सकता है? यह ग्रंथ न केवल महिलाओं बल्कि दलितों और पिछड़ों के खिलाफ भी है।"

बनारस के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रेम प्रकाश यादव ने एक भावुक बयान में कहा, "मनुस्मृति पर चर्चा करना अपराध कैसे हो सकता है?" वे कहते हैं कि यह विवाद तब शुरू हुआ जब 25 दिसंबर की शाम को कुछ युवा अलाव जलाकर छुट्टी का आनंद ले रहे थे और मनुस्मृति की प्रासंगिकता पर चर्चा कर रहे थे। "छुट्टी मनाना और चर्चा करना कहां से अपराध बन गया?"

उन्होंने आरोप लगाया कि इन युवाओं को जबरन खींचकर ले जाया गया, उनके साथ मारपीट की गई, और पुलिस ने गैर-कानूनी तरीके से उन्हें हिरासत में लिया। शाम होते-होते पुलिस ने फर्जी रिमांड बनाकर उन्हें जेल भेज दिया। वे सवाल करते हैं, "बीएचयू जैसे संस्थान में मनुस्मृति पर शोध हो सकता है, लेकिन इस पर चर्चा करना अपराध क्यों बन गया?"

प्रेम प्रकाश यादव ने भावनात्मक रूप से बाबा साहेब अंबेडकर के विचारों का हवाला देते हुए कहा, "बाबा साहेब ने मनुस्मृति का कड़ा विरोध किया था। यह ग्रंथ दलितों, पिछड़ों और महिलाओं के खिलाफ था, जिसने इन समुदायों को पशुओं से भी बदतर स्थान दिया।" वे कहते हैं, "संविधान ने इसे शून्य घोषित कर दिया है। अगर इसकी चर्चा से किसी की धार्मिक भावना आहत हो रही है, तो यह पीड़ित समुदाय को तय करना चाहिए कि वे संविधान को मानते हैं या नहीं।"

अधिवक्ता यादव ने कहा कि यह घटना एक संगठित षड्यंत्र है। "नए कानून के तहत फर्जी मुकदमे दर्ज किए गए हैं। मानव वध जैसी गंभीर धाराएं लगाई गई हैं। यह आरएसएस और बीजेपी का प्रयास है कि स्टूडेंट्स का करियर चौपट कर दिया जाए। लेकिन ऐसा होने नहीं दिया जाएगा।" उन्होंने इस अन्यायपूर्ण कार्रवाई के खिलाफ सड़कों पर लड़ाई लड़ने का ऐलान किया। उन्होंने कहा, "यह केवल उन छात्रों की लड़ाई नहीं है, यह हमारी आने वाली पीढ़ी के अधिकारों और स्वतंत्रता की लड़ाई है। हम इसे चुपचाप नहीं सहेंगे। मनुस्मृति पर चर्चा करना अगर अपराध बन गया है, तो क्या यह संविधान और लोकतंत्र के मूल्यों पर हमला नहीं है?"

बीएचयू के हृदय रोग विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. ओमशंकर ने भी इस पूरे प्रकरण पर गहरी चिंता व्यक्त की। वे कहते हैं, "लोकतंत्र में विचारों पर चर्चा करना अपराध कैसे हो सकता है? अगर बीएचयू में मनुस्मृति पर शोध कराया जा सकता है, तो इसके विरोध का अधिकार छात्रों को क्यों नहीं है?" उनका मानना है कि यह विरोध पूरी तरह अहिंसात्मक था, जिसमें किसी भी तरह का उपद्रव नहीं हुआ। उन्होंने सवाल उठाते हुए कहा, "जब छात्रों ने न तो किसी को नुकसान पहुंचाया और न ही किसी के साथ दुर्व्यवहार किया, तो फिर उन पर गंभीर धाराओं में मामला दर्ज कर जेल भेजने का औचित्य क्या है?"

डॉ. ओमशंकर ने मनुस्मृति की आलोचना करते हुए कहा कि यह ग्रंथ समाज में समानता के अधिकार को नकारता है और समुदायों के बीच विभाजन की खाई को गहरा करता है। "यह कैसा विरोधाभास है कि एक ओर इस ग्रंथ पर शोध को संस्थागत मान्यता दी जा रही है, और दूसरी ओर, इसके विरोध को असंवैधानिक ठहराया जा रहा है?" उन्होंने मांग की कि इस मामले की उच्चस्तरीय न्यायिक जांच होनी चाहिए। "अगर पुलिस ने फर्जी धाराएं लगाई हैं, तो उन्हें तुरंत हटाया जाए और छात्रों को न्याय मिले। लोकतंत्र का मतलब केवल सत्ता चलाना नहीं, बल्कि हर नागरिक को उसके विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता देना है।"

यह प्रकरण न केवल बीएचयू के छात्रों के अधिकारों पर सवाल खड़ा करता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि असहमति और विरोध की आवाज़ को दबाने के लिए किस हद तक कदम उठाए जा सकते हैं। यह सिर्फ एक मुद्दा नहीं है, बल्कि एक ऐसी लड़ाई है जो समानता, स्वतंत्रता, और न्याय के मूलभूत अधिकारों को बचाने के लिए लड़ी जा रही है। "क्या यह हमारे संविधान और लोकतंत्र के मूल्यों के खिलाफ एक संगठित हमला नहीं है?"


 संकट में भारतीय संविधान

बीएचयू (बनारस हिंदू विश्वविद्यालय) में चल रही घटनाएं न केवल शिक्षा और छात्रों की अभिव्यक्ति की आजादी पर सवाल खड़े करती हैं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र और संविधान के मूल सिद्धांतों पर भी गहरी चोट करती हैं। बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचारों और संविधान के प्रति सम्मान की कसमें खाने वाली सरकार के शासन में, उनकी विचारधारा पर चर्चा करना आज अपराध बन गया है।

कम्युनिस्ट फ्रंट कन्विनर मनीष शर्मा ने एक गंभीर सवाल उठाया है। वे कहते हैं, "एक तरफ मोदी सरकार और उनके मंत्री संविधान की रक्षा और बाबा साहेब के विचारों को अपनाने की बात करते हैं। दूसरी तरफ, जब छात्र मनुस्मृति जैसे विषयों पर चर्चा कर संविधान की मूल भावना को समझने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें संविधान विरोधी कहकर दंडित किया जाता है।" यह विरोधाभास न केवल सरकार की नीयत पर सवाल खड़ा करता है, बल्कि संविधान के प्रति उसकी कथनी और करनी के बीच के अंतर को भी उजागर करता है।

बीएचयू के इस मामले में लंका थाना पुलिस की भूमिका ने पूरे लोकतांत्रिक ढांचे को हिलाकर रख दिया है। पुलिस का काम कानून-व्यवस्था बनाए रखना है, लेकिन यहां पुलिस ने छात्रों की अभिव्यक्ति की आजादी को कुचलते हुए भाजपा के जनसंगठन जैसा व्यवहार किया। विरोध करने वाले छात्रों को गंभीर धाराओं में फंसाकर जेल भेजा गया। यह कदम न केवल गैर-कानूनी है, बल्कि समाज में डर का माहौल बनाने वाला भी है।

मनीष शर्मा का यह कहना कि "यह हिन्दुस्तान है, जहां लोकतंत्र सर्वोपरि है," एक सटीक और गहरी बात है। लेकिन जिस तरह से आज छात्रों की आवाज दबाई जा रही है, वह इस लोकतंत्र पर एक बड़ा सवालिया निशान खड़ा करता है। इस मामले को तात्कालिक संदर्भ में देखने की बजाय उसे संघ और बीजेपी द्वारा चलाए जा रहे नफरत और घृणा की राजनीति के बड़े संदर्भ में देखना होगा। मनुस्मृति को फिर से खड़ा करना और उसे सही ठहराना, देश को घनघोर जातिवाद और महिला-विरोधी मानसिकता की ओर धकेलने जैसा है। यह देश को हजारों साल पीछे ले जाने का प्रयास है, जिसे किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।

आज जब देश के भीतर संविधान की भावना को कुचला जा रहा है, तब उसे बचाना किसी भी अन्य समय से अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। बाबा साहेब ने जिस संविधान की नींव रखी, वह समानता, स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय का प्रतीक है। लेकिन आज उसी संविधान और उसके मूल्यों को खत्म करने की साजिश रची जा रही है।

बीएचयू में छात्रों की अभिव्यक्ति की आजादी और सामाजिक समरसता की लड़ाई ने एक बार फिर भारतीय समाज के भीतर छिपे गहरे भेदभाव और असमानता के मुद्दों को सामने ला दिया है। बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अपने जीवन को सामाजिक समानता और न्याय की स्थापना के लिए समर्पित किया। उन्होंने मनुस्मृति को जलाकर इस देश को संविधान दिया, जो हर नागरिक को बराबरी का अधिकार देता है। लेकिन आज जब मनुस्मृति के विचारों को फिर से समाज में पनपाने की कोशिशें हो रही हैं, तो यह संघर्ष पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया है।

मनुस्मृति में महिलाओं की स्थिति

 कम्युनिस्ट फ्रंट के कन्वेनर मनीष शर्मा कहते हैं, "मैं बीएचयू के छात्रों को जेल भेजने के इस मामले को गंभीरता से लेता हूं। बाबा साहेब ने मनुस्मृति को जलाकर संविधान दिया था। अगर आज वही मनुस्मृति उन विचारों को वापस ला रही है, जिनकी वजह से हमें हजारों साल तक शोषण झेलना पड़ा, तो हम इसका विरोध करते रहेंगे। हम इसकी आलोचना करेंगे।" मनीष के ये शब्द सिर्फ आक्रोश नहीं, बल्कि एक सामाजिक आंदोलन की गूंज हैं। यह उस संघर्ष की तस्वीर है, जो समानता और न्याय की स्थापना के लिए बार-बार लड़ा गया है।

मनुस्मृति के पांचवें अध्याय का 148वां श्लोक समाज में महिलाओं की स्थिति को स्पष्ट करता है। उसमें लिखा गया है, "एक लड़की हमेशा अपने पिता के संरक्षण में रहनी चाहिए। शादी के बाद पति उसका संरक्षक होगा, और पति की मृत्यु के बाद वह अपने बच्चों की दया पर निर्भर रहेगी। किसी भी स्थिति में एक महिला स्वतंत्र नहीं हो सकती।" यह विचार न केवल महिलाओं की स्वतंत्रता पर कुठाराघात करता है, बल्कि उन्हें हमेशा किसी न किसी की दया पर निर्भर रहने वाला मानता है। ऐसे विचार आज के प्रगतिशील समाज के लिए अस्वीकार्य हैं।

मनुस्मृति केवल महिलाओं तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें दलितों और वंचित वर्गों के खिलाफ भी अपमानजनक बातें लिखी गई हैं। इसने भारतीय समाज को सैकड़ों साल तक बांटकर रखा, जहां जातिगत भेदभाव और लैंगिक असमानता ने समाज को गहराई तक जकड़ा हुआ था। आज जब हम संविधान की बात करते हैं, तो यह उसी असमानता और अन्याय के खिलाफ सबसे बड़ा हथियार है। बाबा साहेब का संविधान समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का प्रतीक है, जो मनुस्मृति के विपरीत है।

मनुस्मृति के विचारों को समाज में वापस लाने का मतलब है हजारों साल पीछे लौट जाना। यह न केवल जातिवाद को बढ़ावा देता है, बल्कि महिलाओं और वंचित वर्गों की गरिमा को भी खत्म करता है। ऐसे विचारों का विरोध करना केवल एक आंदोलन नहीं, बल्कि हर नागरिक का कर्तव्य है। यह संघर्ष केवल दलितों या महिलाओं का नहीं, बल्कि हर उस व्यक्ति का है, जो समानता और न्याय में विश्वास करता है।

आज जब देश में संविधान की भावना को कुचला जा रहा है और मनुस्मृति जैसे विचारों को बढ़ावा दिया जा रहा है, तब यह जरूरी है कि हम संविधान के पक्ष में खड़े हों। बाबा साहेब ने जिस समाज का सपना देखा था, उसे साकार करने की जिम्मेदारी हमारी है। बीएचयू में छात्रों की यह लड़ाई सिर्फ एक परिसर तक सीमित नहीं है। यह उस संघर्ष का प्रतीक है, जो देश में समानता और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए लड़ा जा रहा है। यह वक्त चुप बैठने का नहीं है। यह वक्त आवाज उठाने और संविधान की रक्षा के लिए आगे आने का है।

एडवोकेट ओमप्रकाश कहते हैं, "मनुस्मृति के विचारों का विरोध करना और संविधान के पक्ष में खड़ा होना केवल आज की जरूरत नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों की आजादी और सम्मान की गारंटी है। यह लड़ाई तभी खत्म होगी, जब हर नागरिक को समान अधिकार मिलेगा, और समाज से असमानता और भेदभाव पूरी तरह मिट जाएंगे। बीएचयू का यह मामला न केवल छात्रों की लड़ाई है, बल्कि पूरे देश के लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की आजादी और संविधान की रक्षा के लिए संघर्ष का प्रतीक है।"

"आज वक्त है कि हम इन मुद्दों पर चुप न रहें। यह याद रखें कि किसी भी लोकतंत्र का असली आधार उसकी जनता की आजादी है। जब इस आजादी पर खतरा होता है, तब उस लोकतंत्र की आत्मा मरने लगती है। यह संघर्ष केवल बीएचयू तक सीमित नहीं रहेगा। यह हर उस व्यक्ति की लड़ाई है, जो संविधान और लोकतंत्र के मूल्यों में विश्वास करता है। आज हर नागरिक की जिम्मेदारी है कि वह इस अन्याय के खिलाफ खड़ा हो और उन मूल्यों की रक्षा करे, जो हमारे देश की आत्मा हैं।"

अधिवक्ताओं ने इस विवाद पर चिंता जताते हुए कहा कि यदि किसी तरह की शांति भंग की आशंका थी, तो छात्रों को केवल मुचलके पर छोड़ दिया जाना चाहिए था। वे आरोप लगाते हैं कि बीएचयू प्रशासन ने पुलिस के साथ मिलकर छात्रों के खिलाफ साजिश रची है। "यह कार्रवाई छात्रों के भविष्य को बर्बाद करने की कोशिश है। उनकी शिक्षा, उनका करियर, सब कुछ खतरे में डाल दिया गया है।"

एडवोकेट राम दुलार, राकेश अग्रहरि, राजेश कहते हैं, "इतिहासकार नराहर कुरुंदकर ने इस मामले को ऐतिहासिक और कानूनी परिप्रेक्ष्य से देखा। वे कहते हैं, "स्मृति का अर्थ धर्मशास्त्र होता है, और मनुस्मृति को मनु द्वारा लिखे गए धार्मिक लेख के रूप में जाना जाता है। इसके 12 अध्यायों में लगभग 2684 श्लोक हैं, जिनमें कुछ संस्करणों में श्लोकों की संख्या 2964 है।" 

शोध और संवैधानिकता पर सवाल 

काशी हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) के संस्कृत धर्म विज्ञान संकाय (SVDV) में दो साल पहले 'मनुस्मृति' पर आधारित एक शोध परियोजना शुरू की गई थी। उस समय 'मनुस्मृति' पर रिसर्च के लिए वैकेंसी निकाली गई थी और दावा किया गया था कि 'मनु' नारी या शूद्र विरोधी नहीं थे। इस प्रोजेक्ट ने विश्वविद्यालय परिसर में बहस और विरोध की लहर पैदा कर दी है। बहुजन समाज के छात्रों ने इसे संविधान और समानता के सिद्धांतों के खिलाफ बताते हुए तीखा विरोध जताया है।

यह प्रोजेक्ट तब शुरू हुआ जब BHU के वर्तमान कुलपति प्रो.सुधीर कुमार जैन ने कार्यभार संभाला। 'भारतीय समाज में मनुस्मृति की उपादेयता' नामक इस प्रोजेक्ट को IOE (इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस) फंड से वित्त पोषित किया गया है। इसका प्रस्ताव कोविड काल में तैयार किया गया था और इसे प्रोफेसर आचार्य शंकर मिश्र के नेतृत्व में शुरू किया गया।



प्रोफेसर शंकर मिश्र का कहना है कि मनुस्मृति को लेकर समाज में बहुत से भ्रम हैं। वे कहते हैं, "आज लोग मनुस्मृति को स्त्रियों और दलितों के खिलाफ बताते हैं, लेकिन यह गलत है। मनु ने ये बातें किस परिस्थिति में कहीं, इसका सही आकलन नहीं किया जाता।" उनके अनुसार, मनुस्मृति का अध्ययन इसलिए जरूरी है ताकि इन भ्रांतियों को दूर किया जा सके।

प्रो. मिश्र ने इस शोध के लिए फेलोशिप की प्रक्रिया भी शुरू की है, जिसमें 40 साल से कम उम्र के आचार्य (PG) डिग्री धारक को 25,000 रुपये से अधिक का वेतन दिया जाएगा। उनका दावा है कि मनुस्मृति नारी विरोधी नहीं है, बल्कि स्त्रियों की स्वतंत्रता का समर्थन करती है। वे कहते हैं, "यदि कोई विधवा हो जाती है तो समाज उसे गलत नजर से देखता है। मनुस्मृति ने ऐसी स्त्रियों की गरिमा बचाने की बात कही है।"

प्रो. मिश्र का कहना है कि आज कल लोग "ढोल-गंवार-शूद्र-नारी" वाले श्लोक का गलत अर्थ निकालते हैं। उनके अनुसार, "ताड़ना का अर्थ सज़ा देना नहीं, बल्कि सही मार्ग दिखाना है।" वे धर्मशास्त्र को सरल शब्दों में लोगों के सामने पेश करना चाहते हैं ताकि लोग धर्म, वर्ण व्यवस्था और आश्रम व्यवस्था को सही रूप से समझ सकें।

संविधान बनाम मनुस्मृति

BHU के बहुजन समाज के छात्रों का मानना है कि मनुस्मृति पर शोध करना संविधान के सिद्धांतों के खिलाफ है। छात्र अजय कुमार भारती कहते हैं, "मनुस्मृति में शूद्रों को पढ़ने-लिखने का अधिकार नहीं दिया गया था। यह ग्रंथ जातियों में भेदभाव को बढ़ावा देता है। वर्तमान समय में यह पूरी तरह अप्रासंगिक है। संविधान में सभी को समान अधिकार दिए गए हैं, और मनुस्मृति का यह शोध संविधान का अपमान है।"

छात्रों का यह भी कहना है कि मनुस्मृति पर शोध करना उन वर्गों की भावनाओं को ठेस पहुंचाता है, जो सदियों से इस व्यवस्था के शोषण का शिकार रहे हैं। मनुस्मृति के कुछ श्लोकों को लेकर अक्सर विवाद होता है। खासतौर पर उन श्लोकों पर, जो महिलाओं और निचली जातियों के अधिकारों को सीमित करते हैं। एक श्लोक के अनुसार, "एक लड़की को हमेशा पिता, पति और पुत्र के संरक्षण में रहना चाहिए। किसी भी स्थिति में वह स्वतंत्र नहीं हो सकती।" ये विचार संविधान द्वारा दिए गए समानता और स्वतंत्रता के अधिकारों के विपरीत हैं।

प्रो. मिश्र का तर्क है कि वर्ण व्यवस्था गुण और कर्म के आधार पर बनाई गई थी, न कि जाति के आधार पर। वे गीता के उस श्लोक का उदाहरण देते हैं, जिसमें भगवान कृष्ण ने कहा, "चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।" उनका मानना है कि मनुस्मृति को सही संदर्भ में समझने और आधुनिक समाज के लिए उसकी प्रासंगिकता पर विचार करने की आवश्यकता है। लेकिन छात्रों और बहुजन समाज के लिए मनुस्मृति का नाम ही एक ऐतिहासिक अन्याय का प्रतीक है। वे इसे उस शोषण और भेदभाव का आधार मानते हैं, जिसने निचली जातियों और महिलाओं को सदियों तक उनके अधिकारों से वंचित रखा।

आज का भारत संविधान के नियमों और समानता के आदर्शों पर खड़ा है। ऐसे में मनुस्मृति जैसे ग्रंथ पर शोध करना इस सवाल को उठाता है कि क्या यह हमारे संवैधानिक मूल्यों को कमजोर करने का प्रयास है। BHU में चल रहे इस प्रोजेक्ट ने एक बार फिर से इस बहस को जन्म दिया है कि क्या ऐसे ग्रंथों पर शोध करना उचित है, जो भेदभाव और असमानता के प्रतीक रहे हैं। यह विवाद सिर्फ BHU तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सवाल पूरे समाज के सामने है कि हम किस दिशा में जा रहे हैं – समानता और आधुनिकता की ओर या फिर भेदभाव और पुरानी मान्यताओं की ओर?


मनुस्मृति क्या है? 

मनुस्मृति पर अक्सर विवाद उठते हैं, खासकर महिलाओं और वंचित वर्गों के संदर्भ में। इसे भारतीय समाज के जाति और लैंगिक भेदभाव का प्रतीक माना जाता है। 1927 में बाबा साहेब अंबेडकर ने इसे जलाकर विरोध व्यक्त किया था।

मनुस्मृति हिंदू धर्म का प्राचीन धर्मशास्त्र है। इसमें कुल 12 अध्याय और 2684 से 2964 श्लोक बताए गए हैं। इसे 1776 में पहली बार अंग्रेजी में अनुवादित किया गया। महर्षि मनु को मानव संविधान का प्रवक्ता माना जाता है। उन्होंने समाज के संचालन के लिए जो व्यवस्थाएं दीं, उसे 'मनुवाद' कहा गया। दरअसल, मनुस्मृति में महिलाओं की स्वतंत्रता और उनके अधिकारों को लेकर विवादास्पद बातें कही गई हैं।

यह महर्षि मनु द्वारा रचित समाज संचालन के नियमों का संकलन है। महिला को पिता, पति या पुत्र की संरक्षण में रहना चाहिए; किसी भी स्थिति में वह स्वतंत्र नहीं हो सकती (पांचवा अध्याय, 148वां श्लोक)। विवाह के बाद वह पति के संरक्षण में, और पति की मृत्यु के बाद अपने पुत्रों की दया पर निर्भर रहना चाहिए। किसी भी स्थिति में महिला स्वतंत्र नहीं हो सकती। महिलाएं पुरुषों को उत्तेजित करने और बहकाने का स्वभाव रखती हैं। ऐसे में उन्हें सख्त निगरानी में रखना चाहिए। महिलाओं का स्वभाव पुरुषों को बहकाना है।

मनुस्मृति में यह भी लिखा गया है कि, "उस महिला से विवाह न किया जाए जिसके बाल या आंखें लाल हों, जिसके अंग अतिरिक्त हों, जो अक्सर बीमार रहती हो, या जिसकी जाति नीची हो। उस महिला से विवाह न करें जिसका नाम आतंक, नदी, पेड़ या सांप के संदर्भ में हो। ब्राह्मण को भोजन के दौरान रजस्वला महिला, सूकर, कुत्ता या किन्नर को नहीं देखना चाहिए।"

मनुस्मृति में वर्णित ये नियम महिलाओं की स्वतंत्रता और समानता को नकारते हैं। यह ग्रंथ महिलाओं को पुरुषों के अधीन रखने और दलितों व वंचित वर्गों के अधिकारों को सीमित करने का प्रयास करता है। यही कारण है कि यह ग्रंथ हमेशा विवादों का केंद्र बनाता आ रहा है। इस पर बहस जारी रहना इस बात का प्रमाण है कि समाज में समानता और स्वतंत्रता के लिए लड़ाई अभी पूरी नहीं हुई है।

तमाम कुरीतियों के चलते डॉ. भीमराव अंबेडकर ने मनुस्मृति को जलाते हुए कहा था कि यह दलितों और महिलाओं के अधिकारों के खिलाफ है। दूसरी ओर, कुछ लोग इसे समाज कल्याण का मार्गदर्शक मानते हैं, हालांकि विवादास्पद हिस्सों को नजरअंदाज करने की वकालत करते हैं।

मनुस्मृति में आख़िर है क्या? 

इतिहासकार कुरुंदकर के भाषणों को एक किताब की शक्ल दी गई है जो मनुस्मृति के अंदर की दुनिया के बारे में बताती है। कुरुंदकर मनुस्मृति पर अपनी सोच को बताते हुए कहते हैं, "मैं उन लोगों में शामिल हूं जो मनुस्मृति को जलाने में विश्वास करते हैं।" मनुस्मृति के फॉर्मेट को समझाते हुए कुरुंदकर कहते हैं, "इस किताब की रचना ईसा के जन्म से दो-तीन सौ सालों पहले शुरू हुई थी। पहले अध्याय में प्रकृति के निर्माण, चार युगों, चार वर्णों, उनके पेशों, ब्राह्मणों की महानता जैसे विषय शामिल हैं। दूसरा अध्याय ब्रह्मचर्य और अपने मालिक की सेवा पर आधारित है।"

"तीसरे अध्याय में शादियों की किस्मों, विवाहों के रीति रिवाजों और श्राद्ध यानी पूर्वज़ों को याद करने का वर्णन है। चौधे अध्याय में गृहस्थ धर्म के कर्तव्य, खाने या न खाने के नियमों और 21 तरह के नरकों का ज़िक्र है। पांचवें अध्याय में महिलाओं के कर्तव्यों, शुद्धता और अशुद्धता आदि का ज़िक्र है। छठे अध्याय में एक संत और सातवें अध्याय में एक राजा के कर्तव्यों का ज़िक्र है। आठवां अध्याय अपराध, न्याय, वचन और राजनीतिक मामलों आदि पर बात करता है। नौवें अध्याय में पैतृक संपत्ति, दसवें अध्याय में वर्णों के मिश्रण, ग्यारहवें अध्याय में पापकर्म और बारहवें अध्याय में तीन गुणों व वेदों की प्रशंसा है। मनुस्मृति की यही सामान्य रूपरेखा है।"

मनुस्मृति के विवादित पहलू

दलित चिंतक राजीव लोचन बताते हैं कि "मनुस्मृति में अधिकार, अपराध, बयान और न्याय के बारे में बात की गई है। ये वर्तमान समय की आईपीसी और सीआरपीसी की तरह लिखी गई है। जब ब्रितानी लोग भारत आए तो उन्हें लगा कि जिस तरह मुस्लिमों के पास क़ानून की किताब के रूप में शरिया है, उसी तरह हिंदुओं के पास भी मनुस्मृति है। इसकी वजह से उन्होंने इस किताब के आधार पर मुक़दमों की सुनवाई शुरू कर दी। इसके साथ ही काशी के पंडितों ने भी अंग्रेज़ों से कहा कि वे मनुस्मृति को हिंदुओं का सूत्रग्रंथ बताकर प्रचार करें। इसकी वजह से ये धारणा बनी की मनुस्मृति हिंदुओं का मानक धर्मग्रंथ है।"

"जब बुद्ध संघों की भारत में ख्याति फैलने लगी थी तो ब्राह्मणों ने प्रभुत्व कम होता देख इस किताब को लिखकर अपने प्रभुत्व को फिर से जमाने की कोशिश की। उन्होंने एक मिथक रचा कि ब्राह्मण का स्थान समाज में सबसे ऊपर है और समाज में ब्राह्मणों और दूसरे लोगों के लिए अलग-अलग नियम हैं। वर्णों के मुताबिक़, इसी वजह से ब्राह्मणों की कम सज़ा मिलती थी लेकिन दूसरे लोगों को कड़ी सज़ा मिलती थी। ये कहा गया कि जो व्यक्ति ग़लत काम करेगा, उसे कड़ी सज़ा का सामना करना पड़ेगा। ये किताब बताती है कि किसी भी स्थिति में ब्राह्मणों का सम्मान किया जाना चाहिए। किसी भी महिला का कल्याण तभी हो सकता है, जब एक पुरुष का कल्याण हो जाए। एक महिला को किसी तरह के धार्मिक अधिकार नहीं हैं। वह अपने पति की सेवा करके स्वर्ग प्राप्त कर सकती है। मनुस्मृति में यही सब लिखा है।"

राजीव लोचन यह भी कहते हैं, "मनुस्मृति ने शूद्रों के शिक्षा पाने के अधिकार को खारिज कर दिया था। शिक्षा देने की विधि मौखिक हुआ करती थी। ऐसे में कुछ ब्राह्मणों को छोड़कर कोई ये नहीं जानता कि मनुस्मृति आख़िर क्या है। ब्रिटिश राज के दौरान ये किताब क़ानूनी मामलों में इस्तेमाल होने की वजह से ख़ासी चर्चित हो गई। विलियम जोनास ने मनुस्मृति का अंग्रेजी में अनुवाद किया है। इसकी वजह से लोगों को इस किताब के बारे में पता चला। महात्मा ज्योतिबा फुले मनुस्मृति को चुनौती देने वाले पहले व्यक्ति थे। खेतिहर मजदूरों, सीमांत किसान और समाज के दूसरे वंचित और शोषित तबकों की सोचनीय हालत देखकर उन्होंने ब्राह्मणों और व्यापारियों की आलोचना की।"

जब अंबेडकर ने जलाई मनुस्मृति

डॉ बाबा साहेब अंबेडकर ने 25 जुलाई, 1927 को महाराष्ट्र के कोलाबा ज़िले में (वर्तमान में रायगड) के महाद में सार्वजनिक रूप से मनुस्मृति को जलाया था। अंबेडकर अपनी किताब 'फ़िलॉसफ़ी ऑफ हिंदूइज़्म' में लिखते हैं, "मनु ने चार वर्ण व्यवस्था की वकालत की थी। मनु ने इन चार वर्णों को अलग-अलग रखने के बारे में बता कर जाति व्यवस्था की नींव रखी। हालांकि, ये नहीं कहा जा सकता है कि मनु ने जाति व्यवस्था की रचना की है। लेकिन उन्होंने इस व्यवस्था के बीज ज़रूर बोए थे।"

उन्होंने मनुस्मृति के विरोध को अपनी किताब 'कौन थे शूद्र' और 'जाति का अंत' में भी दर्ज कराया है। उस दौर में दलितों और महिलाओं को एक सामान्य ज़िंदगी जीने का अधिकार नहीं था। इसके साथ ही ब्राह्मणों के प्रभुत्व की वजह से जाति व्यवस्था का जन्म हुआ। डॉ. अंबेडकर बताते हैं कि जाति व्यवस्था एक कई मंजिला इमारत जैसी होती है जिसमें एक मंजिल से दूसरी मंजिल में जाने के लिए कोई सीढ़ी नहीं होती है। उन्होंने कहा है, "वर्ण व्यवस्था बनाकर सिर्फ कर्म को ही विभाजित नहीं किया गया बल्कि काम करने वालों को भी विभाजित कर दिया।"

अंबेडकर के मनुस्मृति जलाने के बाद देश भर में कई जगह इस किताब को जलाया गया। इससे अख़बारों में देश और समाज पर मनुस्मृति के प्रभाव जैसे मुद्दों पर चर्चा शुरू हो गई। ये चीज़ें भारत की स्वतंत्रता के बाद भी चलती रहीं। साल 1970 में कांशी राम ने बामसेफ का गठन किया और ऐलान किया कि समाज दो हिस्सों में बंटा है जिसमें से एक हिस्सा मनुवादी हैं और दूसरा हिस्सा मूलनिवासी है।


मनुवाद का समर्थन किसने किया?

मनुवाद का समर्थन करने वालों की संख्या भी कम नहीं है। इतिहासकार नरहर कुरुंदकर समझाते हुए कहते हैं, "मनुस्मृति के समर्थकों का एक गुट कहता हैं कि इस सृष्टि की रचना ब्रह्मा ने की थी और दुनिया का कानून प्रजापति-मनु-भृगु की परंपरा से आया है। ऐसे में इसका सम्मान किया जाना चाहिए।"

कुरुंदकर अपनी किताब में इसके बारे में बताते हैं, "मनुस्मृति का बचाव के लिए ये भी कहा जाता है कि स्मृतियां वेदों पर आधारित हैं। और मनुस्मृति भी वेदों के हिसाब से ही है। इस वजह से इसे वेदों की तरह ही सम्मान मिलना चाहिए। शंकराचार्य के साथ-साथ दूसरे धर्मगुरुओं ने भी इसी आधार पर इसका बचाव किया। मनुस्मृति के आधुनिक समर्थक कहते हैं कि इस किताब के कुछ हिस्सों को छोड़ दिया जाए तो ये किताब समाज के कल्याण की बात करती है।"

कुरुंदकर कहते हैं, "आधुनिक शिक्षा इन लोगों के लिए आधुनिक दिमाग़ की रचना नहीं कर सकी। इसलिए ये लोग परंपरा को मानने वाले और रूढ़िवादी बने रहे। आधुनिक शिक्षा ने परंपराओं को मानते रहने के लिए नए तर्क दिए। डॉक्टर अंबेडकर को ऐसे लोगों पर ग़ुस्सा आता था। उन्हें लगता था कि शिक्षा व्यवस्था पारंपरिक दिमाग़ को बदलने में नाकाम साबित हुई है। इसकी जगह रूढ़िवादी लोगों ने आधुनिक शिक्षा को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया। अंबेडकर सोचते थे कि यही लोग जाति व्यवस्था और पाखंडियों के संरक्षक हैं।"

गहनों और कपड़ों पर सवाल

दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षा शास्त्र विभाग के प्रो. बीरेंद्र सिंह रावत कहते हैं, "एक अज्ञात महिला द्वारा साल 1882 में लिखी गई पुस्तक सीमन्तनी उपदेश" भारतीय ज्ञान परंपरा की एक अद्वितीय और प्रगतिशील रचना है। यह पुस्तक पितृसत्तात्मक समाज, स्त्री शोषण, और धार्मिक पाखंड पर कठोर प्रहार करती है। लेखिका एक विधवा थीं, जिन्होंने अपनी जाति और समाज में व्याप्त स्त्री-विरोधी परंपराओं को न केवल पहचाना, बल्कि उनके खिलाफ आवाज भी उठाई। यह पुस्तक उस समय लिखी गई थी जब भारत में नारीवाद का कोई संगठित आंदोलन नहीं था।

पुस्तक में ब्राह्मणवादी पितृसत्ता, मनु स्मृति, और तुलसीदास जैसे विचारकों की स्त्रियों के प्रति भेदभावपूर्ण विचारधाराओं को चुनौती दी गई है। लेखिका ने स्पष्ट किया कि "पतिव्रता धर्म" जैसे नियम पुरुषों की खुदगर्जी को बनाए रखने के लिए बनाए गए थे। उन्होंने मनु के इस कथन पर कड़ा प्रहार किया कि स्त्री को अपने पति, चाहे वह कितना ही दुर्व्यवहारी क्यों न हो, देवता के समान मानना चाहिए।

लेखिका ने विधवाओं को दूसरी शादी करने की सलाह दी, यदि वे इसे आवश्यक समझें। उनका तर्क था कि यौन इच्छाएं प्राकृतिक हैं, और समाज को इन्हें समझना चाहिए। उन्होंने पुनर्विवाह को महिलाओं के अधिकार और गरिमा का हिस्सा माना। इसके साथ ही उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि यदि कोई "भला पति" न मिले, तो अकेले रहना बेहतर है।

लेखिका ने गहनों और कपड़ों को स्त्री शोषण का प्रतीक बताया। उन्होंने सवाल उठाया कि सुहाग चिन्ह जैसे बिंदी और चूड़ियां, जिनका कोई तार्किक आधार नहीं है, महिलाओं पर क्यों थोपी जाती हैं। उन्होंने लिखा कि गहने महिलाओं को गुलामी की जंजीरों में बांधने का प्रतीक हैं।

पुस्तक में महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए जागरूक होने और शिक्षा प्राप्त करने पर जोर दिया गया। लेखिका ने यह भी कहा कि महिलाओं को अपने जीवनसाथी चुनने का अधिकार होना चाहिए और यदि परिवार या समाज इसमें बाधा डाले, तो कानून का सहारा लेना चाहिए।

लेखिका ने हिंदू धर्म को सुधारने की अपील की। उन्होंने कहा कि यदि समाज को सही दिशा में ले जाना है, तो उन ग्रंथों को त्यागना होगा जो स्त्रियों के लिए अपमानजनक नियम बनाते हैं। उन्होंने यह भी लिखा कि महिलाओं को "खुदगर्ज धर्म" को नकार कर तार्किक और व्यावहारिक जीवन अपनाना चाहिए। "सीमन्तनी उपदेश" केवल एक पुस्तक नहीं, बल्कि समाज में स्त्रियों के लिए स्वतंत्रता, समानता, और अधिकारों की शुरुआत का आह्वान है। यह उस समय की सोच और व्यवस्था के खिलाफ एक मजबूत आवाज थी।

(विजय विनीत वरिष्ठ पत्रकार हैं। बनारस से उनकी विशेष रिपोर्ट)

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