हाईकोर्ट परिसर में डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा लगाए जाने का विरोध अब केवल कुछ अधिवक्ताओं तक सीमित नहीं रहा, बल्कि कई सामाजिक संगठनों और बुद्धिजीवियों ने भी इस निर्णय पर गंभीर आपत्ति जताई है।

मध्य प्रदेश के ग्वालियर हाईकोर्ट बार एसोसिएशन की एक बैठक में यह निर्णय लिया गया कि 21 मार्च 2025 को डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रस्तावित प्रतिमा के विरोध में अधिवक्ता लाल पट्टी बांधकर हाईकोर्ट परिसर में प्रदर्शन करेंगे। यह निर्णय कई अधिवक्ताओं और सामाजिक संगठनों के बीच असंतोष और नाराजगी का कारण बन गया है। अधिवक्ता विश्वजीत रतौनिया और अधिवक्ता धर्मेंद्र कुशवाह की पहल पर यह प्रतिमा स्थापित की जा रही है, जिसे अब विरोध का सामना करना पड़ रहा है।
द मूकनायक की रिपोर्ट के अनुसार, डॉ. भीमराव अंबेडकर न केवल भारतीय संविधान के शिल्पकार थे, बल्कि स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री के रूप में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका पूरा जीवन समाज के वंचित वर्गों — दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं — के अधिकारों की रक्षा और सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए समर्पित रहा। आज उन्हीं के अथक प्रयासों का परिणाम है कि देश के हाशिए पर खड़े समुदाय मुख्यधारा में शामिल हो पा रहे हैं। ग्वालियर हाईकोर्ट बार एसोसिएशन द्वारा प्रस्तावित विरोध प्रदर्शन के निर्णय की अधिवक्ताओं का एक बड़ा वर्ग कड़ी आलोचना कर रहा है और इस कदम को संविधान-विरोधी करार दे रहा है।
हाईकोर्ट के कई अधिवक्ताओं ने अंबेडकर प्रतिमा का विरोध कर रहे अधिवक्ताओं के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि यदि बार एसोसिएशन द्वारा प्रतिमा विरोधी प्रदर्शन किया गया, तो वे इस निर्णय का खुला विरोध करेंगे। अधिवक्ताओं का कहना है कि यह विरोध न केवल डॉ. भीमराव अंबेडकर के प्रति अपमान है, बल्कि उन संवैधानिक मूल्यों का भी अनादर है जिन पर भारतीय लोकतंत्र की नींव टिकी है।

हाईकोर्ट परिसर में डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा स्थापित करने के विरोध की गूंज अब केवल अधिवक्ताओं तक सीमित नहीं रही, बल्कि कई सामाजिक संगठनों और प्रबुद्ध वर्गों ने भी इस पर आपत्ति दर्ज कराई है। उनका तर्क है कि अंबेडकर किसी एक वर्ग के नहीं, बल्कि समस्त भारतीय नागरिकों के अधिकारों और समानता के संघर्ष के प्रतीक हैं। ऐसे महान संविधान निर्माता के योगदान को नजरअंदाज करना न केवल इतिहास के साथ अन्याय है, बल्कि यह न्यायपालिका की गरिमा को भी आघात पहुंचाने जैसा कृत्य है।
अधिवक्ता धर्मेंद्र कुशवाहा ने द मूकनायक से बातचीत में कहा कि डॉ. भीमराव अंबेडकर केवल दलित समाज के ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। उन्होंने भारतीय लोकतंत्र, संविधान और न्याय प्रणाली की नींव रखने में जो योगदान दिया, वह अमूल्य है। कुशवाहा का मानना है कि हाईकोर्ट परिसर में अंबेडकर की प्रतिमा स्थापित होना न केवल न्यायपालिका की गरिमा को बढ़ाएगा, बल्कि यह समावेशी मूल्यों की प्रतीक भी बनेगी — न कि किसी एक वर्ग के हित में लिया गया निर्णय। उन्होंने प्रतिमा का विरोध कर रहे अधिवक्ताओं से अपील की कि वे इस निर्णय पर पुनर्विचार करें और संविधान की मूल भावना को सही रूप में समझने का प्रयास करें।
अधिवक्ता धर्मेंद्र कुशवाहा ने यह भी सवाल उठाया कि जब अन्य महापुरुषों की प्रतिमाएं हाईकोर्ट परिसर में स्थापित की जा सकती हैं, तो डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा पर आपत्ति क्यों की जा रही है? उन्होंने इसे संविधान और सामाजिक न्याय की मूल भावना के खिलाफ बताया। बार एसोसिएशन के इस फैसले से न सिर्फ कई अधिवक्ता, बल्कि सामाजिक संगठन भी नाराज हैं और अब वे इस निर्णय को कानूनी रूप से चुनौती देने की तैयारी में हैं।
ज्ञात हो कि भारत में सार्वजनिक स्थलों पर महापुरुषों की प्रतिमाएं स्थापित करने पर कोई कानूनी रोक नहीं है, बशर्ते आवश्यक सरकारी अनुमति प्राप्त की गई हो। हाईकोर्ट परिसर जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में भी पहले कई महापुरुषों की प्रतिमाएं स्थापित की जा चुकी हैं। ऐसे में डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा का विरोध केवल नैतिक या वैचारिक नहीं, बल्कि कानूनी दृष्टिकोण से भी सवालों के घेरे में है। यह विरोध न्यायिक सिद्धांतों और संविधान प्रदत्त समानता के अधिकार के संदर्भ में गंभीर चिंताएं पैदा कर रहा है।
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द मूकनायक की रिपोर्ट के अनुसार, डॉ. भीमराव अंबेडकर न केवल भारतीय संविधान के शिल्पकार थे, बल्कि स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री के रूप में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका पूरा जीवन समाज के वंचित वर्गों — दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं — के अधिकारों की रक्षा और सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए समर्पित रहा। आज उन्हीं के अथक प्रयासों का परिणाम है कि देश के हाशिए पर खड़े समुदाय मुख्यधारा में शामिल हो पा रहे हैं। ग्वालियर हाईकोर्ट बार एसोसिएशन द्वारा प्रस्तावित विरोध प्रदर्शन के निर्णय की अधिवक्ताओं का एक बड़ा वर्ग कड़ी आलोचना कर रहा है और इस कदम को संविधान-विरोधी करार दे रहा है।
हाईकोर्ट के कई अधिवक्ताओं ने अंबेडकर प्रतिमा का विरोध कर रहे अधिवक्ताओं के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि यदि बार एसोसिएशन द्वारा प्रतिमा विरोधी प्रदर्शन किया गया, तो वे इस निर्णय का खुला विरोध करेंगे। अधिवक्ताओं का कहना है कि यह विरोध न केवल डॉ. भीमराव अंबेडकर के प्रति अपमान है, बल्कि उन संवैधानिक मूल्यों का भी अनादर है जिन पर भारतीय लोकतंत्र की नींव टिकी है।

हाईकोर्ट परिसर में डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा स्थापित करने के विरोध की गूंज अब केवल अधिवक्ताओं तक सीमित नहीं रही, बल्कि कई सामाजिक संगठनों और प्रबुद्ध वर्गों ने भी इस पर आपत्ति दर्ज कराई है। उनका तर्क है कि अंबेडकर किसी एक वर्ग के नहीं, बल्कि समस्त भारतीय नागरिकों के अधिकारों और समानता के संघर्ष के प्रतीक हैं। ऐसे महान संविधान निर्माता के योगदान को नजरअंदाज करना न केवल इतिहास के साथ अन्याय है, बल्कि यह न्यायपालिका की गरिमा को भी आघात पहुंचाने जैसा कृत्य है।
अधिवक्ता धर्मेंद्र कुशवाहा ने द मूकनायक से बातचीत में कहा कि डॉ. भीमराव अंबेडकर केवल दलित समाज के ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। उन्होंने भारतीय लोकतंत्र, संविधान और न्याय प्रणाली की नींव रखने में जो योगदान दिया, वह अमूल्य है। कुशवाहा का मानना है कि हाईकोर्ट परिसर में अंबेडकर की प्रतिमा स्थापित होना न केवल न्यायपालिका की गरिमा को बढ़ाएगा, बल्कि यह समावेशी मूल्यों की प्रतीक भी बनेगी — न कि किसी एक वर्ग के हित में लिया गया निर्णय। उन्होंने प्रतिमा का विरोध कर रहे अधिवक्ताओं से अपील की कि वे इस निर्णय पर पुनर्विचार करें और संविधान की मूल भावना को सही रूप में समझने का प्रयास करें।
अधिवक्ता धर्मेंद्र कुशवाहा ने यह भी सवाल उठाया कि जब अन्य महापुरुषों की प्रतिमाएं हाईकोर्ट परिसर में स्थापित की जा सकती हैं, तो डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा पर आपत्ति क्यों की जा रही है? उन्होंने इसे संविधान और सामाजिक न्याय की मूल भावना के खिलाफ बताया। बार एसोसिएशन के इस फैसले से न सिर्फ कई अधिवक्ता, बल्कि सामाजिक संगठन भी नाराज हैं और अब वे इस निर्णय को कानूनी रूप से चुनौती देने की तैयारी में हैं।
ज्ञात हो कि भारत में सार्वजनिक स्थलों पर महापुरुषों की प्रतिमाएं स्थापित करने पर कोई कानूनी रोक नहीं है, बशर्ते आवश्यक सरकारी अनुमति प्राप्त की गई हो। हाईकोर्ट परिसर जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में भी पहले कई महापुरुषों की प्रतिमाएं स्थापित की जा चुकी हैं। ऐसे में डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा का विरोध केवल नैतिक या वैचारिक नहीं, बल्कि कानूनी दृष्टिकोण से भी सवालों के घेरे में है। यह विरोध न्यायिक सिद्धांतों और संविधान प्रदत्त समानता के अधिकार के संदर्भ में गंभीर चिंताएं पैदा कर रहा है।
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