आज पटना के ऐतिहासिक गाँधी मैदान में दस हज़ार के करीब लोग जुटे. इनमें से अधिकांश दलित बहुजन समाज के लोग थे. हालाँकि, मंच पर भाषण देने वालों में दलित पिछड़े आदिवासियों के शायद 10 प्रतिशत लोग भी न रहे हों. खैर महत्व इस बात का है कि लड़ाई लड़ी जानी चाहिए. लेकिन ये भी आवश्यक है यदि हम कहते हैं कि हमने कोई आन्दोलन किया है तो इसकी सफलता इस बात से आंकी जानी चाहिए कि आपके आन्दोलन ने उन दबी कुचली जातियों का कितना नेतृत्व तैयार किया और कितना स्वतंत्र. सवाल इसलिए जरुरी है क्योंकि ये लोगों की आशाओं और आकांक्षाओं से जुडा है. इतने लोग दूर से चलकर जब आते है और 2 घंटे में परेशान हो जाते हैं तो उसके मतलब साफ़ हैं. या तो वे सभाओं में आ आकर थक चुके हैं, या उन्हें मंच के लोगों की बातें समझ नहीं आ रही हैं. या मंच से लोग उनके दिल की बात नहीं कह पा रहे हैं. तीनों ही परिस्थितियां घातक हैं क्योंकि आज के पूंजीवादी दौर में ताकतवर जातीयां फिर से मनुवादी व्यवस्था हम पे लादना चाहती हैं और वह केवल हमारे ग्रामीण भारत की परम्परागत व्यवस्था में संभव है.
चंपारण में गाँधी के आन्दोलन को याद करते हुए भूमि अधिकारों को समर्पित साथी पंकज जी और उनके सहयोगियों ने 14 मार्च को ये पदयात्रा शुरू की जो आज सुबह पटना के गाँधी मैदान पहुंची. पंकज जी ने चंपारण में सीलिंग के अतिरिक्त घोषित भूमि को भूमिहीन मुसहर समुदाय में बांटने के लिए आन्दोलन किया और बिहार सरकार ने उन्हें जेल भेज दिया. लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद पटना हाई कोर्ट ने उन्हें रिहा करने का आदेश दिया.
उनकी मुख्य मांगों में वास भूमिहीन परिवारों को वासभूमि आवंटन की बात कही गयी है. हालाँकि इसमें भूमि कितनी मिले, ये बात नहीं है. एक सवाल ये भी है कि राज्य सरकारों ने आवास की कई किस्म की योजनायें बनाई हैं. इंदिरा आवास योजना, लोहिया आवास, आंबेडकर आवास, बाल्मीकि आंबेडकर आवास, सरदार आवास, अटल आवास और न जाने क्या क्या. जरुरत इस बात की है कि इन सभी योजनाओं की जांच पड़ताल की जाए और पता किया जाए कि ये हैं क्या और इससे किसको लाभ मिला. क्या मात्र आवास युक्त भूमि के आवंटन से गरीबों के आवास की समस्या हल हो जायेगी? क्या आवासहीन लोगों को सरकार आवास बनाके नहीं दे सकती. क्या मनरेगा फंड से पंचायतें अपने भूमिहीन लोगों के लिए आवास नहीं बना सकती. ये कहने के लिए दो कारण हैं:
1. आवास युक्त जमीन का कागज़ मिलने के बाद भी आवास बनाने की समस्या होगी. ज्यादातर लोग झोंपडी से ज्यादा कुछ नहीं कर पायेंगे और इंदिरा आवास का फण्ड हर साल निर्धारित होता है. उसमें भी बहुत धांधली है. हर साल के कोटे में जितने लोगों को फण्ड मिलेगा वो तो आवास बना लेंगे लेकिन बाकी लोगों को इंतज़ार करना पड़ेगा. दूसरी बात ये कि जमीन का साइज़ कितना है. बंदोपाध्याय कमिटी ने बिहार में 10 डेसीमल जमीन की बात कही है लेकिन लोग 6 डेसीमल जमीन की चर्चा कर रहे हैं. बात यह है कि क्या वाकई में इस नाम मात्र की जमीन में कोई घर बना पायेगा. यदि हाँ तो इसकी शुरुआत उन सभी लोगों को करनी चाहिए जो इसकी मांग कर रहे है.
एक स्वतंत्र देश के हर एक नागरिक को आवास का अधिकार है और इसकी मांग होनी चाहिए. ताकि सरकार उन्हें निर्धारित मापदंडों के हिसाब से आवास मुहैया करवा सके और सारे मापदंड दिल्ली या पटना से निर्धारित न हों अपितु स्थानीय भौगोलिक परिस्थितियों के मुताबिक़ हों. आवास के अधिकार से किसी को भी आपति नहीं हो सकती. लेकिन ये भूमि सुधार नहीं है. क्योंकि भूमि सुधारों का मतलब ऐतिहासिक भूलों को कानूनी तौर पर ख़त्म कर जातिगत सामंती मूल्यों को ध्वस्त करना है और ये पॉवर रिलेशन हमारे गाँवों में अभी भी बने हुए हैं. 6 डेसीमल की जमीन से गरीबों को कुछ रहने लायक तो मिल जाएगा लेकिन गाँव के सामंती रिश्ते ख़त्म नहीं होंगे.
यदि सामंती जातिवाद को पुर्णतः ख़त्म करना है तो समग्र कृषि सुधार करने होंगे और उसके लिए लैंड सीलिंग के कानूनों में न केवल बदलाव लाना होगा अपितु उनका इमानदारी से पालन भी करना होगा. क्या हम इसके लिए तैयार हैं? आज़ादी के बाद बिहार भी उन राज्यों में था जहां जमींदारी उन्मूलन अधिनियम लागु हुआ और बिहार भूमि सुधार कानून भी बना. विनोबा ने भी भूमिदान का अन्दोलान चलाया और बहुत भूमि दान में भी आई. गाँधी के आन्दोलन की भी बात हो रही है और चंपारण का नाम बड़े फक्र से लिया जाता है लेकिन चंपारण का दलित पिछड़ा आज भी भूमिहीन है और बहुत से स्थानों पर बंधुआ मजदूरी भी कर रहा है. गाँधी जी तो भरोसा दिला कर चले गए अब उनके शिष्यों की बारी है. जेपी ने भूमि के मसलों पर कुछ विशेष कहा हो ऐसा मुझे नहीं पता सिवाय इसके कि छात्र संघर्ष वाहिनी ने बोध गया आन्दोलन का समर्थन किया.
अब बात यह है कि जब इतने कानून बने तो फिर लागू क्यों नहीं हुए? जब भूमि सुधारों की बात कहेंगे तो कानूनों के लागू करने और न होने की बात भी तो आएगी. गाँव की चौखट पर एक ठाकुर, एक भूमिहार, एक ब्राह्मण और एक चमार, डोम या मुसहर साथ कैसे बैठेंगे जब गाँव के शक्ति समीकरणों का ईमानदार विश्लेषण नहीं होगा. क्यों भूमि सुधारों के बावजूद ताकतवर जातीयां वैसे ही बनी रहीं और दलित पिछड़े भूमिहीन ही रहे?
इन प्रश्नों के उत्तर दो बातों का ईमानदार विश्लेषण करके निकाल सकते हैं.
पहला ये कि लैंड सीलिंग कानून में क्या खामिया हैं. क्यों ये कानून निष्प्रभावी हो गया ? और दुसरा ये कि भूमिदान क्यों किया गया और वो जमीन किन लोगों के पास आई और अगर बची हुई है तो उसका क्या हुआ. क्या सरकार कोई श्वेत पत्र ला सकती है इस विषय पर.
सीलिंग कानून इसलिए निष्प्रभावी हुए क्योंकि कानून बनाने वालों के पास ही इतनी जमीन थी कि इसके लागू होने से उनकी जातीय सत्ता ख़त्म हो जाती. इसलिए उन्होंने कुछ ऐसे प्रावधान कर दिए जिनके इस्तेमाल से ये कानून प्रायः निष्प्रभावी हो गया और न्यायपालिका भी जातिवादी सामंतों का सबसे बड़ा हथियार बन गयी क्योंकि न्याय की देरी से गरीब की जिंदगी तो ख़त्म हो जाती है.
कानून ने कहा कि गौशालाओं, धार्मिक स्थलों की जमीनों जैसे मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, आश्रम आदि, बड़े शैक्षणिक ट्रस्टों, औद्योगिक यूनिटों पर सीलिंग कानून लागू नहीं होगा. मतलब ये कि इन सभी के नाम पर आप कितनी भी जमीन रखें सीलिंग नहीं लगेगी.
अब मेरा सवाल ये है कि ये सभी संस्थान, इदारे, धर्मस्थल, गौशालाएं, किन लोगों के पास हैं.
ये प्रश्न सबसे महत्वपूर्ण है. इसका उत्तर अगर ईमानदारी से मिल गया तो हम लड़ाई कभी हार नहीं सकते.
जब भूमि सुधारों की बात होती है तो इन प्रश्नों पे चुप्पी क्यों ?
अगर जमीन के समीकरण नहीं बदले तो लोकतंत्र नहीं हो सकता.
अगर ईमानदार प्रयास करना है तो साथी लोग आरटीआई डालें और इन प्रश्नों का पता ढूंढें. एक शोध पत्र लायें और फिर सरकार को कहें. क्या सरकार ये बात विधानसभा या लोकसभा में बता सकती है कि इन बड़ी सम्पतियों के मालिक कौन हैं. आप स्वयं ही पता कर सकते हैं कि कौन हैं ऐसी प्रभुत्वादी ताकतें.
आप जाति के आधार पर जनगणना की बात करें, हम उसके समर्थन में है. हम चाहते हैं कि इस देश में मंदिरों, मठों, आश्रमों, गौशालाओं, शिक्षण सस्थानों, फार्म हाउसों, औद्योगिक क्षेत्रों आदि के नाम पर लाखों एकड़ की जमीन पर जो कब्जे किये गए हैं वो किन किन जातियों और विचारधाराओं, राजनितिक जुगाड़बाजों के कब्जे में हैं.
भूमि सुधार क्यों नहीं हुए, उनका कारण आपको मिल जाएगा.
भूमि सुधारों पे काम करने वाले साथी क्या इन प्रश्नों पे चुप्पी रखेंगे या खुलके कुछ कहेंगे.
याद रखिए, भूमि राजनीति है, भूमि जाति है, भूमि पित्रसत्ता है, भूमि व्यापार है, भूमि धर्म है और इसलिए भूमि गाँव को नियंत्रित करती है और यही पटना, लखनऊ और दिल्ली की सत्ता की भी चाबी है. अगर ये सब नहीं होगा तो भूमि खेती करने वाले बहुजन समाज के हाथ में होती और गाँव की चौखट पर सब साथ साथ बैठते और दलित दूल्हो को घोड़े पर बैठने की सजा नहीं मिलती या मुसहरों को ईंट भट्टे पर काम न करना पड़ता और गाँव में दलितों को नदी किनारे की जमीनों पर न बैठना पड़ता.
भूमि सुधार सामाजिक लोकतंत्र की बुनियाद है जो राजनीतक लोकतंत्र को मजबूत करेगी. सवाल सरकार की ही नीयत का नहीं, हम सब की नीयत का भी है. क्या कोई आन्दोलन समुदायों के नेतृत्व को विकसित किये बिना या मौका दिए बिना हो सकता है. भूमि आन्दोलन के लिए आवश्यक है कि हमारे नेतृत्व के मंचों का भी लोकतंत्रीकरण हो और उनमें उन सभी लोगों की भूमिका हो जो हमारे विचारों से हटकर भी सोचते हैं. बाबा साहेब आंबेडकर ने संविधान सभा में जिन अंतरविरोधों की बात कही ही वो गाँव में मौजूद ब्राह्मणवादी जातिवादी सत्ता समीकरणों के बारे में थी कि जब तक सामाजिक और आर्थिक जीवन में गैर बराबरी रहेगी, राजनीतिक लोकतंत्र खतरे में रहेगा. इसका मतलब यह हुआ कि वो ये जानते थे सामाजिक भेदभावों को समाप्त किये बिना ये कानून, ये लोकतंत्र केवल ढकोसला है. इसलिए उन्होंने भूमि के राष्ट्रीयकरण की बात कही, खेती में कोआपरेटिव बढाने और भूमि के न्यायपूर्ण वितरण की बात कही.
भूमि सुधार बिना भूमि के पुनर्वितरण के संभव नहीं है. पुनर्वितरण तब तक संभव नहीं है जब तक गाँव की सीलिंग की जमीनों, भूदान की जमीनों को भूमिहीन दलित बहुजन समाज में आवंटित न किया जाए, तभी गाँव के सत्ता समीकरणों में बराबरी आएगी और सही मायने में लोकतंत्र स्थापित होगा. एक भूमिहीन ग्राम प्रधान अपने पद पर केवल संकेतात्मक तौर पर बैठा रहता है और कोई भी काम के लिए गाँव के ताकतवर लोगों के इशारे पर चलता है. गाँव में ताकतवर जातियां जमीन की ताकत पर खड़ी हैं और वे ही अत्याचार भी करती हैं. दलितों पर अत्याचारों के अधिकांश मामले जमीन के हैं. इसलिए जमीन का लोकतंत्रीकरण दरअसल देश में स्वस्थ लोकतंत्र को पैदा करेगा और जातीय भेदभाव को समाप्त करने की दिशा में एक बहुत बड़ा कदम होगा.
लाख टके का सवाल यह है के क्या वाकई में हम ऐसा चाहते हैं?
चंपारण में गाँधी के आन्दोलन को याद करते हुए भूमि अधिकारों को समर्पित साथी पंकज जी और उनके सहयोगियों ने 14 मार्च को ये पदयात्रा शुरू की जो आज सुबह पटना के गाँधी मैदान पहुंची. पंकज जी ने चंपारण में सीलिंग के अतिरिक्त घोषित भूमि को भूमिहीन मुसहर समुदाय में बांटने के लिए आन्दोलन किया और बिहार सरकार ने उन्हें जेल भेज दिया. लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद पटना हाई कोर्ट ने उन्हें रिहा करने का आदेश दिया.
उनकी मुख्य मांगों में वास भूमिहीन परिवारों को वासभूमि आवंटन की बात कही गयी है. हालाँकि इसमें भूमि कितनी मिले, ये बात नहीं है. एक सवाल ये भी है कि राज्य सरकारों ने आवास की कई किस्म की योजनायें बनाई हैं. इंदिरा आवास योजना, लोहिया आवास, आंबेडकर आवास, बाल्मीकि आंबेडकर आवास, सरदार आवास, अटल आवास और न जाने क्या क्या. जरुरत इस बात की है कि इन सभी योजनाओं की जांच पड़ताल की जाए और पता किया जाए कि ये हैं क्या और इससे किसको लाभ मिला. क्या मात्र आवास युक्त भूमि के आवंटन से गरीबों के आवास की समस्या हल हो जायेगी? क्या आवासहीन लोगों को सरकार आवास बनाके नहीं दे सकती. क्या मनरेगा फंड से पंचायतें अपने भूमिहीन लोगों के लिए आवास नहीं बना सकती. ये कहने के लिए दो कारण हैं:
1. आवास युक्त जमीन का कागज़ मिलने के बाद भी आवास बनाने की समस्या होगी. ज्यादातर लोग झोंपडी से ज्यादा कुछ नहीं कर पायेंगे और इंदिरा आवास का फण्ड हर साल निर्धारित होता है. उसमें भी बहुत धांधली है. हर साल के कोटे में जितने लोगों को फण्ड मिलेगा वो तो आवास बना लेंगे लेकिन बाकी लोगों को इंतज़ार करना पड़ेगा. दूसरी बात ये कि जमीन का साइज़ कितना है. बंदोपाध्याय कमिटी ने बिहार में 10 डेसीमल जमीन की बात कही है लेकिन लोग 6 डेसीमल जमीन की चर्चा कर रहे हैं. बात यह है कि क्या वाकई में इस नाम मात्र की जमीन में कोई घर बना पायेगा. यदि हाँ तो इसकी शुरुआत उन सभी लोगों को करनी चाहिए जो इसकी मांग कर रहे है.
एक स्वतंत्र देश के हर एक नागरिक को आवास का अधिकार है और इसकी मांग होनी चाहिए. ताकि सरकार उन्हें निर्धारित मापदंडों के हिसाब से आवास मुहैया करवा सके और सारे मापदंड दिल्ली या पटना से निर्धारित न हों अपितु स्थानीय भौगोलिक परिस्थितियों के मुताबिक़ हों. आवास के अधिकार से किसी को भी आपति नहीं हो सकती. लेकिन ये भूमि सुधार नहीं है. क्योंकि भूमि सुधारों का मतलब ऐतिहासिक भूलों को कानूनी तौर पर ख़त्म कर जातिगत सामंती मूल्यों को ध्वस्त करना है और ये पॉवर रिलेशन हमारे गाँवों में अभी भी बने हुए हैं. 6 डेसीमल की जमीन से गरीबों को कुछ रहने लायक तो मिल जाएगा लेकिन गाँव के सामंती रिश्ते ख़त्म नहीं होंगे.
यदि सामंती जातिवाद को पुर्णतः ख़त्म करना है तो समग्र कृषि सुधार करने होंगे और उसके लिए लैंड सीलिंग के कानूनों में न केवल बदलाव लाना होगा अपितु उनका इमानदारी से पालन भी करना होगा. क्या हम इसके लिए तैयार हैं? आज़ादी के बाद बिहार भी उन राज्यों में था जहां जमींदारी उन्मूलन अधिनियम लागु हुआ और बिहार भूमि सुधार कानून भी बना. विनोबा ने भी भूमिदान का अन्दोलान चलाया और बहुत भूमि दान में भी आई. गाँधी के आन्दोलन की भी बात हो रही है और चंपारण का नाम बड़े फक्र से लिया जाता है लेकिन चंपारण का दलित पिछड़ा आज भी भूमिहीन है और बहुत से स्थानों पर बंधुआ मजदूरी भी कर रहा है. गाँधी जी तो भरोसा दिला कर चले गए अब उनके शिष्यों की बारी है. जेपी ने भूमि के मसलों पर कुछ विशेष कहा हो ऐसा मुझे नहीं पता सिवाय इसके कि छात्र संघर्ष वाहिनी ने बोध गया आन्दोलन का समर्थन किया.
अब बात यह है कि जब इतने कानून बने तो फिर लागू क्यों नहीं हुए? जब भूमि सुधारों की बात कहेंगे तो कानूनों के लागू करने और न होने की बात भी तो आएगी. गाँव की चौखट पर एक ठाकुर, एक भूमिहार, एक ब्राह्मण और एक चमार, डोम या मुसहर साथ कैसे बैठेंगे जब गाँव के शक्ति समीकरणों का ईमानदार विश्लेषण नहीं होगा. क्यों भूमि सुधारों के बावजूद ताकतवर जातीयां वैसे ही बनी रहीं और दलित पिछड़े भूमिहीन ही रहे?
इन प्रश्नों के उत्तर दो बातों का ईमानदार विश्लेषण करके निकाल सकते हैं.
पहला ये कि लैंड सीलिंग कानून में क्या खामिया हैं. क्यों ये कानून निष्प्रभावी हो गया ? और दुसरा ये कि भूमिदान क्यों किया गया और वो जमीन किन लोगों के पास आई और अगर बची हुई है तो उसका क्या हुआ. क्या सरकार कोई श्वेत पत्र ला सकती है इस विषय पर.
सीलिंग कानून इसलिए निष्प्रभावी हुए क्योंकि कानून बनाने वालों के पास ही इतनी जमीन थी कि इसके लागू होने से उनकी जातीय सत्ता ख़त्म हो जाती. इसलिए उन्होंने कुछ ऐसे प्रावधान कर दिए जिनके इस्तेमाल से ये कानून प्रायः निष्प्रभावी हो गया और न्यायपालिका भी जातिवादी सामंतों का सबसे बड़ा हथियार बन गयी क्योंकि न्याय की देरी से गरीब की जिंदगी तो ख़त्म हो जाती है.
कानून ने कहा कि गौशालाओं, धार्मिक स्थलों की जमीनों जैसे मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, आश्रम आदि, बड़े शैक्षणिक ट्रस्टों, औद्योगिक यूनिटों पर सीलिंग कानून लागू नहीं होगा. मतलब ये कि इन सभी के नाम पर आप कितनी भी जमीन रखें सीलिंग नहीं लगेगी.
अब मेरा सवाल ये है कि ये सभी संस्थान, इदारे, धर्मस्थल, गौशालाएं, किन लोगों के पास हैं.
ये प्रश्न सबसे महत्वपूर्ण है. इसका उत्तर अगर ईमानदारी से मिल गया तो हम लड़ाई कभी हार नहीं सकते.
जब भूमि सुधारों की बात होती है तो इन प्रश्नों पे चुप्पी क्यों ?
अगर जमीन के समीकरण नहीं बदले तो लोकतंत्र नहीं हो सकता.
अगर ईमानदार प्रयास करना है तो साथी लोग आरटीआई डालें और इन प्रश्नों का पता ढूंढें. एक शोध पत्र लायें और फिर सरकार को कहें. क्या सरकार ये बात विधानसभा या लोकसभा में बता सकती है कि इन बड़ी सम्पतियों के मालिक कौन हैं. आप स्वयं ही पता कर सकते हैं कि कौन हैं ऐसी प्रभुत्वादी ताकतें.
आप जाति के आधार पर जनगणना की बात करें, हम उसके समर्थन में है. हम चाहते हैं कि इस देश में मंदिरों, मठों, आश्रमों, गौशालाओं, शिक्षण सस्थानों, फार्म हाउसों, औद्योगिक क्षेत्रों आदि के नाम पर लाखों एकड़ की जमीन पर जो कब्जे किये गए हैं वो किन किन जातियों और विचारधाराओं, राजनितिक जुगाड़बाजों के कब्जे में हैं.
भूमि सुधार क्यों नहीं हुए, उनका कारण आपको मिल जाएगा.
भूमि सुधारों पे काम करने वाले साथी क्या इन प्रश्नों पे चुप्पी रखेंगे या खुलके कुछ कहेंगे.
याद रखिए, भूमि राजनीति है, भूमि जाति है, भूमि पित्रसत्ता है, भूमि व्यापार है, भूमि धर्म है और इसलिए भूमि गाँव को नियंत्रित करती है और यही पटना, लखनऊ और दिल्ली की सत्ता की भी चाबी है. अगर ये सब नहीं होगा तो भूमि खेती करने वाले बहुजन समाज के हाथ में होती और गाँव की चौखट पर सब साथ साथ बैठते और दलित दूल्हो को घोड़े पर बैठने की सजा नहीं मिलती या मुसहरों को ईंट भट्टे पर काम न करना पड़ता और गाँव में दलितों को नदी किनारे की जमीनों पर न बैठना पड़ता.
भूमि सुधार सामाजिक लोकतंत्र की बुनियाद है जो राजनीतक लोकतंत्र को मजबूत करेगी. सवाल सरकार की ही नीयत का नहीं, हम सब की नीयत का भी है. क्या कोई आन्दोलन समुदायों के नेतृत्व को विकसित किये बिना या मौका दिए बिना हो सकता है. भूमि आन्दोलन के लिए आवश्यक है कि हमारे नेतृत्व के मंचों का भी लोकतंत्रीकरण हो और उनमें उन सभी लोगों की भूमिका हो जो हमारे विचारों से हटकर भी सोचते हैं. बाबा साहेब आंबेडकर ने संविधान सभा में जिन अंतरविरोधों की बात कही ही वो गाँव में मौजूद ब्राह्मणवादी जातिवादी सत्ता समीकरणों के बारे में थी कि जब तक सामाजिक और आर्थिक जीवन में गैर बराबरी रहेगी, राजनीतिक लोकतंत्र खतरे में रहेगा. इसका मतलब यह हुआ कि वो ये जानते थे सामाजिक भेदभावों को समाप्त किये बिना ये कानून, ये लोकतंत्र केवल ढकोसला है. इसलिए उन्होंने भूमि के राष्ट्रीयकरण की बात कही, खेती में कोआपरेटिव बढाने और भूमि के न्यायपूर्ण वितरण की बात कही.
भूमि सुधार बिना भूमि के पुनर्वितरण के संभव नहीं है. पुनर्वितरण तब तक संभव नहीं है जब तक गाँव की सीलिंग की जमीनों, भूदान की जमीनों को भूमिहीन दलित बहुजन समाज में आवंटित न किया जाए, तभी गाँव के सत्ता समीकरणों में बराबरी आएगी और सही मायने में लोकतंत्र स्थापित होगा. एक भूमिहीन ग्राम प्रधान अपने पद पर केवल संकेतात्मक तौर पर बैठा रहता है और कोई भी काम के लिए गाँव के ताकतवर लोगों के इशारे पर चलता है. गाँव में ताकतवर जातियां जमीन की ताकत पर खड़ी हैं और वे ही अत्याचार भी करती हैं. दलितों पर अत्याचारों के अधिकांश मामले जमीन के हैं. इसलिए जमीन का लोकतंत्रीकरण दरअसल देश में स्वस्थ लोकतंत्र को पैदा करेगा और जातीय भेदभाव को समाप्त करने की दिशा में एक बहुत बड़ा कदम होगा.
लाख टके का सवाल यह है के क्या वाकई में हम ऐसा चाहते हैं?