इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव के विवादास्पद बयान, दक्षिणपंथी विचारधाराओं को सशक्त करने वाले फैसले और राजनीतिक समूहों के साथ जुड़ाव, न्यायपालिका की स्वतंत्रता और भारत के धर्मनिरपेक्ष ढांचे के प्रति उसकी प्रतिबद्धता पर गंभीर सवाल खड़े करते हैं। ऐसे में कानूनी पेशेवर वर्ग और राजनेताओं ने इस पर कार्रवाई की मांग की है।
अपडेट: 10 दिसंबर, 2024 की दोपहर के समय सुप्रीम कोर्ट ने गत रविवार को विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव द्वारा दिए गए विवादास्पद भाषण के संबंध में रिपोर्टों को स्वीकार किया। न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय से उक्त भाषण के बारे में जानकारी मांगी है।
न्यायालय द्वारा जारी एक बयान में कहा गया, “सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक सिटिंग जज न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव द्वारा दिए गए भाषण की समाचार पत्रों की रिपोर्टों पर संज्ञान लिया है। हाईकोर्ट से विस्तृत जानकारी मांगी गई है और मामला विचाराधीन है।”
इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस शेखर कुमार यादव को विश्व हिंदू परिषद (VHP) द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में भड़काऊ टिप्पणी के लिए चौतरफा आलोचना का सामना करना पड़ रहा है। मुस्लिम विरोधी बयानबाजी और बहुसंख्यकवादी विचारों से भरे उनके भाषण की व्यापक रूप से निंदा की गई है, क्योंकि इसे संविधान पर हमला और न्यायिक मर्यादा का उल्लंघन माना जा रहा है। जस्टिस यादव ने न केवल विवादास्पद समान नागरिक संहिता (UCC) का समर्थन किया, बल्कि मुस्लिम समुदाय के खिलाफ अपमानजनक बयान भी दिए, उनकी धार्मिक प्रथाओं पर सवाल उठाए और कुछ सदस्यों को राष्ट्रीय प्रगति के लिए खतरा बताया। यह व्यवहार, जो एक सिटिंग जज के स्तर के अनुरूप नहीं है, न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर सवाल खड़े करता है और न्यायिक अधिकार का आड़ लेकर संविधानिक मूल्यों के क्षरण के बारे में गंभीर चिंता व्यक्त करता है।
न्यायिक जवाबदेही और सुधार अभियान (सीजेएआर) ने न्यायमूर्ति यादव के आचरण की तत्काल आंतरिक जांच की मांग की है और भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) संजीव खन्ना से निर्णायक कार्रवाई करने का आग्रह किया है। अपने पत्र में, सीजेएआर ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि न्यायाधीश के कार्यों ने न्यायपालिका में जनता के विश्वास को कम कर दिया है। इसने उनकी टिप्पणियों को मुसलमानों के खिलाफ 'अक्षम्य और अविवेकपूर्ण अपमान' करार दिया, जो न केवल उनके पद को शर्मसार करती हैं, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 12, 21, 25 और 26 सहित प्रस्तावना का उल्लंघन करती हैं, जो धर्मनिरपेक्षता, समानता और न्याय की गारंटी देती है।
पोलित ब्यूरो की सदस्य वृंदा करात ने भी न्यायमूर्ति यादव की टिप्पणियों की निंदा की और उनके भाषण को घृणास्पद भाषण तथा उनकी संवैधानिक शपथ के साथ विश्वासघात बताया। सीजेआई को लिखे अपने पत्र में करात ने कहा कि एक सिटिंग जज द्वारा दिए गए ऐसे बयान भारत के धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक मूल्यों का अपमान हैं और न्यायिक निष्पक्षता पर हमला है। उन्होंने कहा कि अल्पसंख्यक समुदाय का कोई भी वादी उस न्यायालय में निष्पक्ष व्यवहार की उम्मीद नहीं कर सकता जहां इस तरह के पूर्वाग्रह वाले विचार खुलेआम रखे जाते हैं। न्यायाधीश को हटाने की मांग करते हुए उन्होंने जोर देकर कहा कि बेंच में उनकी मौजूदगी न्यायपालिका और संविधान के प्रति उसकी प्रतिबद्धता का अपमान है।
अपने पत्र में करात ने कहा, “यह भाषण एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश की सामूहिक अंतरात्मा का अपमान है। यह भी कहा गया कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा यह कहा जाना न्याय की प्रक्रियाओं पर हमला है। कोई भी वादी उस न्यायालय में न्याय की उम्मीद नहीं कर सकता, जिसमें एक सदस्य अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ और बहुसंख्यक विचारों के पक्ष में पक्षपाती, पूर्वाग्रही, सार्वजनिक रूप से व्यक्त किया गया विचार रखता है।”
उन्होंने आगे कहा, “ऐसा सदस्य बेंच, न्यायालय और पूरी न्यायिक प्रणाली को बदनाम करता है। न्याय की अदालत में ऐसे लोगों के लिए कोई जगह नहीं हो सकती और होनी भी नहीं चाहिए। देश निस्संदेह इस मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय की कार्रवाई के लिए आभारी होगा।”
https://cpim.org/brinda-karats-letter-to-cji/
अखिल भारतीय अधिवक्ता संघ (एआईएलयू) ने भी इस विरोध में शामिल होते हुए न्यायमूर्ति यादव की टिप्पणी की निंदा की और इसे धार्मिक बहुसंख्यकवाद का समर्थन बताया। एआईएलयू के नेता विकास रंजन भट्टाचार्य और पीवी सुरेंद्रनाथ ने इस भाषण को हिंदुत्व राष्ट्र से जुड़ी विचारधारा को बढ़ावा देने वाला बताया, जो उनके अनुसार भारतीय संविधान के लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के विपरीत है।
वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने न्यायमूर्ति यादव के राजनीतिक रूप से प्रेरित वीएचपी कार्यक्रम में भाग लेने को न्यायिक स्वतंत्रता का “शर्मनाक” उल्लंघन बताया और उनके कार्यों के औचित्य पर सवाल उठाया।
वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने न्यायमूर्ति यादव के खिलाफ महाभियोग चलाने की मांग की है, जिससे उनकी आलोचना और बढ़ गई। सिब्बल ने कहा कि न्यायाधीश के बयान न्यायिक नैतिकता और स्वतंत्रता का गंभीर उल्लंघन हैं, उन्होंने चेताया कि कार्रवाई में विफलता उनके विभाजनकारी विचारों के लिए मौन समर्थन का संकेत देगी। सिब्बल ने जोर देकर कहा कि न्यायपालिका को निष्पक्ष और सांप्रदायिक विचारधाराओं के प्रभाव से मुक्त रहना चाहिए। उन्होंने राजनीतिक नेताओं से न्यायमूर्ति यादव को जवाबदेह ठहराने के लिए एकजुट होने का आग्रह किया।
लाइव लॉ के अनुसार, सिब्बल ने कहा, “मैं चाहूंगा कि कुछ जो सत्ता-पक्ष के लोग हैं, वे हमारे साथ जुड़ें, और हम मिलकर इस जज के इंपिचमेंट की प्रक्रिया शुरू करें। हमारा संविधान भी कहता है कि न्यायपालिका स्वतंत्र होनी चाहिए। मुझे पूरा विश्वास है कि प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और सत्ता में जो सांसद हैं, वे हमारे साथ होंगे। क्योंकि अगर वे साथ नहीं देंगे, तो ऐसा लगेगा कि वे जज के साथ हैं।”
न्यायमूर्ति यादव का भाषण यूसीसी पर तटस्थ चर्चा से कहीं अधिक सांप्रदायिक पूर्वाग्रह से भरा हुआ था। उन्होंने खुले तौर पर इस्लामिक रीति रिवाजों की आलोचना की, मुसलमानों को “कठमुल्ला” करार दिया और कहा कि उनकी मान्यताएं राष्ट्रीय प्रगति में बाधा डालती हैं। इस तरह की टिप्पणियों से न केवल एक विशिष्ट समुदाय का अपमान हुआ है, बल्कि संविधान के धर्मनिरपेक्ष और बहुलवादी ढांचे के साथ भी विश्वासघात हुआ है। उनकी टिप्पणियों की व्यापक आलोचना इस बात को स्पष्ट करती है कि तत्काल जवाबदेही की आवश्यकता है, क्योंकि उनका व्यवहार न्यायपालिका की निष्पक्षता और संविधानिक मूल्यों के प्रति आस्था को संकट में डाल चुका है।
राजनेताओं ने न्यायमूर्ति यादव की टिप्पणी की आलोचना की
विहिप के एक कार्यक्रम में न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव के विवादास्पद भाषण की न केवल कानूनी पेशवरों से बल्कि पार्टी लाइन से परे प्रमुख राजनीतिक नेताओं ने भी तीखी आलोचना की। राजनेताओं ने न्यायाधीश पर संवैधानिक मूल्यों को कमतर आंकने और बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाया। कुछ ने तो पीठ के लिए उनकी उपयुक्तता पर भी सवाल उठाए। सियासी हलकों से मिली प्रतिक्रिया ने भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने और न्यायिक तटस्थता की धारणा पर उनकी टिप्पणियों के व्यापक निहितार्थों को उजागर किया।
सपा नेता रामगोपाल यादव ने न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव की विवादास्पद टिप्पणी की आलोचना करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का जिक्र किया। उन्होंने आरएसएस पर न्यायिक परिणामों को प्रभावित करने के लिए सिस्टम में हेरफेर करने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा, "आरएसएस हमेशा से ऐसा ही रहा है; वे सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।"
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) [सीपीएम], तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) ने न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव की टिप्पणियों की कड़ी निंदा की और इसे एक सिटिंग जज के लिए विभाजनकारी तथा अनुचित करार दिया।
इन दलों ने कहा कि इस तरह के बयान न केवल न्यायिक औचित्य का उल्लंघन करते हैं, बल्कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता और तटस्थता पर गंभीर सवाल भी खड़ा करते हैं।
एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी ने विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) द्वारा आयोजित कार्यक्रम में न्यायमूर्ति यादव की भागीदारी की तीखी आलोचना की। ओवैसी ने बताया कि यह संगठन, जो भारतीय जनता पार्टी (भा.ज.पा.) के वैचारिक आधार के रूप में जाना जाता है, कई बार नफरत और हिंसा से जुड़े होने के कारण प्रतिबंधित किया जा चुका है। ओवैसी ने सरदार वल्लभभाई पटेल द्वारा आरएसएस पर लगाए गए प्रतिबंध का हवाला देते हुए इसे "घृणा और हिंसा की शक्ति" कहा और न्यायमूर्ति यादव के वीएचपी से जुड़ाव को चिंता का विषय बताया।
ओवैसी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा, “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने ऐसे संगठन के कार्यक्रम में भाग लिया। इस भाषण का आसानी से खंडन किया जा सकता है, लेकिन माननीय न्यायाधीश को यह याद दिलाना ज्यादा महत्वपूर्ण है कि भारत का संविधान न्यायिक स्वतंत्रता और निष्पक्षता की अपेक्षा करता है।” उनके बयान में न्यायमूर्ति यादव के सांप्रदायिक विचारधाराओं के साथ जुड़ाव पर बढ़ती बेचैनी को दर्शाया गया है, जिसमें कहा गया है कि उनके कार्यों ने न्यायपालिका की तटस्थ मध्यस्थ के रूप में भूमिका को कमजोर कर दिया है।
ये प्रतिक्रियाएं न्यायमूर्ति यादव की टिप्पणियों के खिलाफ व्यापक आक्रोश को दर्शाती हैं, जिन्हें संवैधानिक मूल्यों और न्यायिक नैतिकता से एक खतरनाक विचलन के रूप में देखा जा रहा है।
भाषण का विवरण
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव द्वारा विश्व हिंदू परिषद (VHP) के एक कार्यक्रम में दिए गए बयानों ने विवाद खड़ा कर दिया है। यह बयानों न केवल अत्यधिक पक्षपातपूर्ण हैं, बल्कि सांप्रदायिक भी हैं। प्रयागराज में उच्च न्यायालय के लाइब्रेरी हॉल में “समान नागरिक संहिता: एक संवैधानिक आवश्यकता” पर बोलते हुए, न्यायमूर्ति यादव का भाषण यूसीसी की वकालत से कहीं आगे बढ़कर मुसलमानों और उनके व्यक्तिगत कानूनों को निशाना बनाने वाले अपमानजनक और भड़काऊ बयानों में बदल गया। इससे न्यायिक औचित्य और निष्पक्षता पर गंभीर चिंता जताई गई है।
न्यायमूर्ति यादव ने कहा कि देश “बहुसंख्यक” (बहुमत) की इच्छाओं के अनुसार चलेगा, और यह केवल वही स्वीकार किया जाएगा जो बहुसंख्यकों के कल्याण और खुशी के लिए लाभकारी हो। उन्होंने बहुविवाह, हलाला और ट्रिपल तलाक जैसी इस्लामी प्रथाओं पर निशाना साधते हुए इन्हें भारतीय मूल्यों के साथ असंगत बताया। सती और अस्पृश्यता जैसे हिंदू धर्म के भीतर ऐतिहासिक सुधारों का उदाहरण देते हुए उन्होंने सवाल किया, “मुसलमानों को कई पत्नियां रखने की अनुमति देने वाले कानून को गैरकानूनी क्यों नहीं बनाया जा सकता?” इस प्रकार की टिप्पणियां न केवल धार्मिक विविधता के लिए संवैधानिक सुरक्षा की समझ की कमी को दर्शाती हैं, बल्कि वे सुधार की आड़ में पूरे समुदाय के व्यक्तिगत कानूनों को भी बदनाम करती हैं।
न्यायमूर्ति यादव ने "कठमुल्लों" का भी संदर्भ दिया, जो मुसलमानों के लिए एक अपमानजनक शब्द है, जिसे उन्होंने कट्टरपंथियों के रूप में बताया जो “लोगों को भड़काते हैं और देश की प्रगति को रोकते हैं।” उन्होंने इन्हें "देश के लिए खतरा" करार दिया, जिससे मुस्लिम समुदाय पर और कलंक लगा। यह मानते हुए कि सभी मुसलमान 'बुरे' नहीं हैं, उनकी यह टिप्पणी साम्प्रदायिक सामान्यीकरण और स्पष्ट पूर्वाग्रह को दर्शाती है।
उनके भाषण में उन्होंने यह भी कहा, “मैं इस उच्च न्यायालय का न्यायाधीश हूं, लेकिन मैं इस देश का नागरिक भी हूं और मैं एक नागरिक के रूप में वही कहूंगा जो इस देश के लिए उचित होगा।” ऐसे बयान न्यायपालिका के सदस्य से तटस्थता और धर्मनिरपेक्षता की अपेक्षाओं को कमजोर करते हैं।
जस्टिस यादव का भाषण, जो भड़काऊ और विभाजनकारी विचारों से भरा हुआ था, एक स्पष्ट बहुसंख्यकवादी दृष्टिकोण को बढ़ावा देता है, जो धर्मनिरपेक्षता और समानता के संवैधानिक प्रतिबद्धता को कमजोर करता है। न्यायपालिका, जिसका कार्य सभी नागरिकों, विशेषकर अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करना है, उसे इस प्रकार के सांप्रदायिक पूर्वाग्रह के समर्थन या प्रचार के रूप में नहीं देखा जा सकता।
न्यायमूर्ति यादव के निर्णयों और व्यवहार में हिंदुत्व पूर्वाग्रह का पैटर्न
पिछले तीन वर्षों में न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव के निर्णयों का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट होता है कि वे लगातार हिंदुत्व विचारधारा पर निर्भर रहे हैं। उनके फैसलों में अक्सर दक्षिणपंथी विचारधाराओं का समर्थन मिलता है, जिसमें गायों और हिंदू देवताओं के सम्मान की वकालत करना और धर्म परिवर्तन के खिलाफ षड्यंत्रों का पुनरुद्धार शामिल है। विशेष रूप से, उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सार्वजनिक रूप से प्रशंसा की है, जिससे उनकी निष्पक्षता पर चिंता बढ़ गई है।
यह व्यवहार न्यायिक आचार संहिता का उल्लंघन करता है, जो 1997 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपनाई गई थी। इस संहिता में कहा गया है कि न्यायाधीशों को राजनीतिक मामलों पर सार्वजनिक रूप से विचार व्यक्त करने से बचना चाहिए और न्यायिक निर्णयों पर बहस में शामिल नहीं होना चाहिए। यह संहिता न्यायाधीशों से अपेक्षाएँ रखती है कि वे अपने उच्च पद के अनुरूप आचरण करें और जनता के विश्वास को कमजोर करने से बचें।
न्यायमूर्ति यादव की वीएचपी कार्यक्रम में भागीदारी और दक्षिणपंथी विचारधारा से जुड़ाव
न्यायमूर्ति यादव की वीएचपी कार्यक्रम में भागीदारी और उनके वैचारिक रूप से प्रेरित निर्णयों का इतिहास उनके आचरण में चिंताजनक बदलाव का संकेत है। यह कार्यक्रम, जिस समय हुआ, वह भी महत्वपूर्ण था, क्योंकि इससे कुछ महीनों पहले सितंबर 2024 में वीएचपी के कानूनी प्रकोष्ठ द्वारा आयोजित एक विवादास्पद "न्यायाधीशों की बैठक" को लेकर चिंता थी। इस बैठक में सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश हेमंत गुप्ता सहित कई पूर्व न्यायाधीश शामिल थे। ऐसे कार्यक्रमों ने न्यायपालिका और दक्षिणपंथी संगठनों के बीच कथित संबंधों को लेकर गंभीर सवाल उठाए हैं।
ऐसी निकटता न्यायपालिका की स्वतंत्रता को खतरे में डालती है और संवैधानिक मूल्यों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता में विश्वास को कमजोर करती है। यदि इस प्रकार के आचरण पर रोक नहीं लगाई गई, तो इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं, जो भारतीय लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने के लिए गंभीर खतरे का कारण बन सकते हैं।
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न्यायालय द्वारा जारी एक बयान में कहा गया, “सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक सिटिंग जज न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव द्वारा दिए गए भाषण की समाचार पत्रों की रिपोर्टों पर संज्ञान लिया है। हाईकोर्ट से विस्तृत जानकारी मांगी गई है और मामला विचाराधीन है।”
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न्यायिक जवाबदेही और सुधार अभियान (सीजेएआर) ने न्यायमूर्ति यादव के आचरण की तत्काल आंतरिक जांच की मांग की है और भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) संजीव खन्ना से निर्णायक कार्रवाई करने का आग्रह किया है। अपने पत्र में, सीजेएआर ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि न्यायाधीश के कार्यों ने न्यायपालिका में जनता के विश्वास को कम कर दिया है। इसने उनकी टिप्पणियों को मुसलमानों के खिलाफ 'अक्षम्य और अविवेकपूर्ण अपमान' करार दिया, जो न केवल उनके पद को शर्मसार करती हैं, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 12, 21, 25 और 26 सहित प्रस्तावना का उल्लंघन करती हैं, जो धर्मनिरपेक्षता, समानता और न्याय की गारंटी देती है।
पोलित ब्यूरो की सदस्य वृंदा करात ने भी न्यायमूर्ति यादव की टिप्पणियों की निंदा की और उनके भाषण को घृणास्पद भाषण तथा उनकी संवैधानिक शपथ के साथ विश्वासघात बताया। सीजेआई को लिखे अपने पत्र में करात ने कहा कि एक सिटिंग जज द्वारा दिए गए ऐसे बयान भारत के धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक मूल्यों का अपमान हैं और न्यायिक निष्पक्षता पर हमला है। उन्होंने कहा कि अल्पसंख्यक समुदाय का कोई भी वादी उस न्यायालय में निष्पक्ष व्यवहार की उम्मीद नहीं कर सकता जहां इस तरह के पूर्वाग्रह वाले विचार खुलेआम रखे जाते हैं। न्यायाधीश को हटाने की मांग करते हुए उन्होंने जोर देकर कहा कि बेंच में उनकी मौजूदगी न्यायपालिका और संविधान के प्रति उसकी प्रतिबद्धता का अपमान है।
अपने पत्र में करात ने कहा, “यह भाषण एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश की सामूहिक अंतरात्मा का अपमान है। यह भी कहा गया कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा यह कहा जाना न्याय की प्रक्रियाओं पर हमला है। कोई भी वादी उस न्यायालय में न्याय की उम्मीद नहीं कर सकता, जिसमें एक सदस्य अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ और बहुसंख्यक विचारों के पक्ष में पक्षपाती, पूर्वाग्रही, सार्वजनिक रूप से व्यक्त किया गया विचार रखता है।”
उन्होंने आगे कहा, “ऐसा सदस्य बेंच, न्यायालय और पूरी न्यायिक प्रणाली को बदनाम करता है। न्याय की अदालत में ऐसे लोगों के लिए कोई जगह नहीं हो सकती और होनी भी नहीं चाहिए। देश निस्संदेह इस मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय की कार्रवाई के लिए आभारी होगा।”
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अखिल भारतीय अधिवक्ता संघ (एआईएलयू) ने भी इस विरोध में शामिल होते हुए न्यायमूर्ति यादव की टिप्पणी की निंदा की और इसे धार्मिक बहुसंख्यकवाद का समर्थन बताया। एआईएलयू के नेता विकास रंजन भट्टाचार्य और पीवी सुरेंद्रनाथ ने इस भाषण को हिंदुत्व राष्ट्र से जुड़ी विचारधारा को बढ़ावा देने वाला बताया, जो उनके अनुसार भारतीय संविधान के लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के विपरीत है।
वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने न्यायमूर्ति यादव के राजनीतिक रूप से प्रेरित वीएचपी कार्यक्रम में भाग लेने को न्यायिक स्वतंत्रता का “शर्मनाक” उल्लंघन बताया और उनके कार्यों के औचित्य पर सवाल उठाया।
वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने न्यायमूर्ति यादव के खिलाफ महाभियोग चलाने की मांग की है, जिससे उनकी आलोचना और बढ़ गई। सिब्बल ने कहा कि न्यायाधीश के बयान न्यायिक नैतिकता और स्वतंत्रता का गंभीर उल्लंघन हैं, उन्होंने चेताया कि कार्रवाई में विफलता उनके विभाजनकारी विचारों के लिए मौन समर्थन का संकेत देगी। सिब्बल ने जोर देकर कहा कि न्यायपालिका को निष्पक्ष और सांप्रदायिक विचारधाराओं के प्रभाव से मुक्त रहना चाहिए। उन्होंने राजनीतिक नेताओं से न्यायमूर्ति यादव को जवाबदेह ठहराने के लिए एकजुट होने का आग्रह किया।
लाइव लॉ के अनुसार, सिब्बल ने कहा, “मैं चाहूंगा कि कुछ जो सत्ता-पक्ष के लोग हैं, वे हमारे साथ जुड़ें, और हम मिलकर इस जज के इंपिचमेंट की प्रक्रिया शुरू करें। हमारा संविधान भी कहता है कि न्यायपालिका स्वतंत्र होनी चाहिए। मुझे पूरा विश्वास है कि प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और सत्ता में जो सांसद हैं, वे हमारे साथ होंगे। क्योंकि अगर वे साथ नहीं देंगे, तो ऐसा लगेगा कि वे जज के साथ हैं।”
न्यायमूर्ति यादव का भाषण यूसीसी पर तटस्थ चर्चा से कहीं अधिक सांप्रदायिक पूर्वाग्रह से भरा हुआ था। उन्होंने खुले तौर पर इस्लामिक रीति रिवाजों की आलोचना की, मुसलमानों को “कठमुल्ला” करार दिया और कहा कि उनकी मान्यताएं राष्ट्रीय प्रगति में बाधा डालती हैं। इस तरह की टिप्पणियों से न केवल एक विशिष्ट समुदाय का अपमान हुआ है, बल्कि संविधान के धर्मनिरपेक्ष और बहुलवादी ढांचे के साथ भी विश्वासघात हुआ है। उनकी टिप्पणियों की व्यापक आलोचना इस बात को स्पष्ट करती है कि तत्काल जवाबदेही की आवश्यकता है, क्योंकि उनका व्यवहार न्यायपालिका की निष्पक्षता और संविधानिक मूल्यों के प्रति आस्था को संकट में डाल चुका है।
राजनेताओं ने न्यायमूर्ति यादव की टिप्पणी की आलोचना की
विहिप के एक कार्यक्रम में न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव के विवादास्पद भाषण की न केवल कानूनी पेशवरों से बल्कि पार्टी लाइन से परे प्रमुख राजनीतिक नेताओं ने भी तीखी आलोचना की। राजनेताओं ने न्यायाधीश पर संवैधानिक मूल्यों को कमतर आंकने और बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाया। कुछ ने तो पीठ के लिए उनकी उपयुक्तता पर भी सवाल उठाए। सियासी हलकों से मिली प्रतिक्रिया ने भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने और न्यायिक तटस्थता की धारणा पर उनकी टिप्पणियों के व्यापक निहितार्थों को उजागर किया।
सपा नेता रामगोपाल यादव ने न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव की विवादास्पद टिप्पणी की आलोचना करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का जिक्र किया। उन्होंने आरएसएस पर न्यायिक परिणामों को प्रभावित करने के लिए सिस्टम में हेरफेर करने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा, "आरएसएस हमेशा से ऐसा ही रहा है; वे सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।"
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) [सीपीएम], तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) ने न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव की टिप्पणियों की कड़ी निंदा की और इसे एक सिटिंग जज के लिए विभाजनकारी तथा अनुचित करार दिया।
इन दलों ने कहा कि इस तरह के बयान न केवल न्यायिक औचित्य का उल्लंघन करते हैं, बल्कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता और तटस्थता पर गंभीर सवाल भी खड़ा करते हैं।
एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी ने विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) द्वारा आयोजित कार्यक्रम में न्यायमूर्ति यादव की भागीदारी की तीखी आलोचना की। ओवैसी ने बताया कि यह संगठन, जो भारतीय जनता पार्टी (भा.ज.पा.) के वैचारिक आधार के रूप में जाना जाता है, कई बार नफरत और हिंसा से जुड़े होने के कारण प्रतिबंधित किया जा चुका है। ओवैसी ने सरदार वल्लभभाई पटेल द्वारा आरएसएस पर लगाए गए प्रतिबंध का हवाला देते हुए इसे "घृणा और हिंसा की शक्ति" कहा और न्यायमूर्ति यादव के वीएचपी से जुड़ाव को चिंता का विषय बताया।
ओवैसी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा, “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने ऐसे संगठन के कार्यक्रम में भाग लिया। इस भाषण का आसानी से खंडन किया जा सकता है, लेकिन माननीय न्यायाधीश को यह याद दिलाना ज्यादा महत्वपूर्ण है कि भारत का संविधान न्यायिक स्वतंत्रता और निष्पक्षता की अपेक्षा करता है।” उनके बयान में न्यायमूर्ति यादव के सांप्रदायिक विचारधाराओं के साथ जुड़ाव पर बढ़ती बेचैनी को दर्शाया गया है, जिसमें कहा गया है कि उनके कार्यों ने न्यायपालिका की तटस्थ मध्यस्थ के रूप में भूमिका को कमजोर कर दिया है।
ये प्रतिक्रियाएं न्यायमूर्ति यादव की टिप्पणियों के खिलाफ व्यापक आक्रोश को दर्शाती हैं, जिन्हें संवैधानिक मूल्यों और न्यायिक नैतिकता से एक खतरनाक विचलन के रूप में देखा जा रहा है।
भाषण का विवरण
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव द्वारा विश्व हिंदू परिषद (VHP) के एक कार्यक्रम में दिए गए बयानों ने विवाद खड़ा कर दिया है। यह बयानों न केवल अत्यधिक पक्षपातपूर्ण हैं, बल्कि सांप्रदायिक भी हैं। प्रयागराज में उच्च न्यायालय के लाइब्रेरी हॉल में “समान नागरिक संहिता: एक संवैधानिक आवश्यकता” पर बोलते हुए, न्यायमूर्ति यादव का भाषण यूसीसी की वकालत से कहीं आगे बढ़कर मुसलमानों और उनके व्यक्तिगत कानूनों को निशाना बनाने वाले अपमानजनक और भड़काऊ बयानों में बदल गया। इससे न्यायिक औचित्य और निष्पक्षता पर गंभीर चिंता जताई गई है।
न्यायमूर्ति यादव ने कहा कि देश “बहुसंख्यक” (बहुमत) की इच्छाओं के अनुसार चलेगा, और यह केवल वही स्वीकार किया जाएगा जो बहुसंख्यकों के कल्याण और खुशी के लिए लाभकारी हो। उन्होंने बहुविवाह, हलाला और ट्रिपल तलाक जैसी इस्लामी प्रथाओं पर निशाना साधते हुए इन्हें भारतीय मूल्यों के साथ असंगत बताया। सती और अस्पृश्यता जैसे हिंदू धर्म के भीतर ऐतिहासिक सुधारों का उदाहरण देते हुए उन्होंने सवाल किया, “मुसलमानों को कई पत्नियां रखने की अनुमति देने वाले कानून को गैरकानूनी क्यों नहीं बनाया जा सकता?” इस प्रकार की टिप्पणियां न केवल धार्मिक विविधता के लिए संवैधानिक सुरक्षा की समझ की कमी को दर्शाती हैं, बल्कि वे सुधार की आड़ में पूरे समुदाय के व्यक्तिगत कानूनों को भी बदनाम करती हैं।
न्यायमूर्ति यादव ने "कठमुल्लों" का भी संदर्भ दिया, जो मुसलमानों के लिए एक अपमानजनक शब्द है, जिसे उन्होंने कट्टरपंथियों के रूप में बताया जो “लोगों को भड़काते हैं और देश की प्रगति को रोकते हैं।” उन्होंने इन्हें "देश के लिए खतरा" करार दिया, जिससे मुस्लिम समुदाय पर और कलंक लगा। यह मानते हुए कि सभी मुसलमान 'बुरे' नहीं हैं, उनकी यह टिप्पणी साम्प्रदायिक सामान्यीकरण और स्पष्ट पूर्वाग्रह को दर्शाती है।
उनके भाषण में उन्होंने यह भी कहा, “मैं इस उच्च न्यायालय का न्यायाधीश हूं, लेकिन मैं इस देश का नागरिक भी हूं और मैं एक नागरिक के रूप में वही कहूंगा जो इस देश के लिए उचित होगा।” ऐसे बयान न्यायपालिका के सदस्य से तटस्थता और धर्मनिरपेक्षता की अपेक्षाओं को कमजोर करते हैं।
जस्टिस यादव का भाषण, जो भड़काऊ और विभाजनकारी विचारों से भरा हुआ था, एक स्पष्ट बहुसंख्यकवादी दृष्टिकोण को बढ़ावा देता है, जो धर्मनिरपेक्षता और समानता के संवैधानिक प्रतिबद्धता को कमजोर करता है। न्यायपालिका, जिसका कार्य सभी नागरिकों, विशेषकर अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करना है, उसे इस प्रकार के सांप्रदायिक पूर्वाग्रह के समर्थन या प्रचार के रूप में नहीं देखा जा सकता।
न्यायमूर्ति यादव के निर्णयों और व्यवहार में हिंदुत्व पूर्वाग्रह का पैटर्न
पिछले तीन वर्षों में न्यायमूर्ति शेखर कुमार यादव के निर्णयों का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट होता है कि वे लगातार हिंदुत्व विचारधारा पर निर्भर रहे हैं। उनके फैसलों में अक्सर दक्षिणपंथी विचारधाराओं का समर्थन मिलता है, जिसमें गायों और हिंदू देवताओं के सम्मान की वकालत करना और धर्म परिवर्तन के खिलाफ षड्यंत्रों का पुनरुद्धार शामिल है। विशेष रूप से, उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सार्वजनिक रूप से प्रशंसा की है, जिससे उनकी निष्पक्षता पर चिंता बढ़ गई है।
यह व्यवहार न्यायिक आचार संहिता का उल्लंघन करता है, जो 1997 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपनाई गई थी। इस संहिता में कहा गया है कि न्यायाधीशों को राजनीतिक मामलों पर सार्वजनिक रूप से विचार व्यक्त करने से बचना चाहिए और न्यायिक निर्णयों पर बहस में शामिल नहीं होना चाहिए। यह संहिता न्यायाधीशों से अपेक्षाएँ रखती है कि वे अपने उच्च पद के अनुरूप आचरण करें और जनता के विश्वास को कमजोर करने से बचें।
न्यायमूर्ति यादव की वीएचपी कार्यक्रम में भागीदारी और दक्षिणपंथी विचारधारा से जुड़ाव
न्यायमूर्ति यादव की वीएचपी कार्यक्रम में भागीदारी और उनके वैचारिक रूप से प्रेरित निर्णयों का इतिहास उनके आचरण में चिंताजनक बदलाव का संकेत है। यह कार्यक्रम, जिस समय हुआ, वह भी महत्वपूर्ण था, क्योंकि इससे कुछ महीनों पहले सितंबर 2024 में वीएचपी के कानूनी प्रकोष्ठ द्वारा आयोजित एक विवादास्पद "न्यायाधीशों की बैठक" को लेकर चिंता थी। इस बैठक में सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश हेमंत गुप्ता सहित कई पूर्व न्यायाधीश शामिल थे। ऐसे कार्यक्रमों ने न्यायपालिका और दक्षिणपंथी संगठनों के बीच कथित संबंधों को लेकर गंभीर सवाल उठाए हैं।
ऐसी निकटता न्यायपालिका की स्वतंत्रता को खतरे में डालती है और संवैधानिक मूल्यों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता में विश्वास को कमजोर करती है। यदि इस प्रकार के आचरण पर रोक नहीं लगाई गई, तो इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं, जो भारतीय लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने के लिए गंभीर खतरे का कारण बन सकते हैं।
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