भारतीय संवैधानिक अदालतें और धर्मनिरपेक्षता, भाग-1

Written by इरफान इंजीनियर | Published on: November 13, 2018
पिछले कुछ वर्षों से, परंपराओं और रीति-रिवाजों के नाम पर, भारत में धर्मनिरपेक्षता को पुनर्परिभाषित करने और उसकी सीमाओं का पुनः निर्धारण करने का चलन हो गया है। संविधान निर्माताओं ने एकमत से न सही, परंतु बहुमत से धर्मनिरपेक्षता को संविधान का अविभाज्य और अउल्लंघनीय हिस्सा बनाया था। स्वाधीनता के बाद के वर्षों में इस सिद्धांत का लगभग पूर्णतः पालन किया गया और धार्मिक संस्थाओं और धार्मिक नेताओं के प्रभाव और उनकी शक्तियों में शनैः-शनैः कमी लाई गई। सुधार हुए और समुदायों पर धार्मिक नेताओं और संस्थाओं का नियंत्रण कमजोर पड़ा। अनेक हिन्दू धार्मिक स्थलों को हिन्दुओं के सभी वर्गों और जातियों के लिए खोल दिया गया। धार्मिक संस्थाओं की दुनियावी गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए कई कानून बनाए गए। तिरूपति तिरूमला देवस्थानम् और त्रावणकोर कोच्चीन देवास्वम बोर्ड का गठन हुआ और अजमेर शरीफ दरगाह के प्रबंधन और नियंत्रण के लिए दरगाह ख्वाजा साहिब अधिनियम 1955 पारित किया गया। इन संस्थाओं को दान के रूप में प्राप्त होने वाली धनराशि के मनमाने उपयोग पर नियंत्रण लगाया गया। पारिवारिक कानूनों को समयानुकूल बनाने के लिए कई प्रावधान किए गए। इन सभी कदमों का संबंधित समुदायों के धार्मिक नेतृत्व ने विरोध किया। जाहिर है कि उनकी मनमानी पर अंकुश, उन्हें अच्छा नहीं लगा होगा। 



धर्मनिरपेक्ष राज्य धीरे-धीरे सुधार ला रहा था परंतु अल्पसंख्यकों के मामले में इसकी गति बहुत धीमी थी। दलितों के सामाजिक न्याय आंदोलन और स्त्रीवादियों के दबाव के चलते राज्य को सुधार करने पड़े। हमारा संविधान, धर्मनिरपेक्ष तो है ही, वह सुधारवादी भी है। इससे सामाजिक सुधारों के लिए जगह बनी और चूंकि कार्यपालिका भी धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्ध थी, इसलिए उसने इस तरह की मांगों को सहज स्वीकार किया। 

परंतु आज धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर धर्मनिरपेक्षता को नए अर्थ दिए जा रहे हैं। अनुदारवादी परंपराओं और रीति-रिवाजों को धर्म का हिस्सा बताकर नागरिकों के बीच समानता स्थापित करने के प्रयासों की राह मे रोड़े अटकाए जा रहे हैं और धार्मिक संस्थाओं और धार्मिक नेताओं के हाथों में और अधिक शक्तियां सौंपने के प्रयास हो रहे हैं। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान, अधिक से अधिक लोगों का समर्थन हासिल करने के लिए तत्कालीन नेतृत्व को मजबूरी में कुछ साम्प्रदायिक मांगों को स्वीकार करना पड़ा और धार्मिक प्रतीकों का प्रयोग भी हुआ। भारत के संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ था उचित प्रतिबंधों के साथ धार्मिक स्वतंत्रता और भाषाई, सांस्कृतिक और धार्मिक विविधताओं के बावजूद शांतिपूर्ण सहअस्तित्व। 

धार्मिक स्वतंत्रता का क्या अर्थ होना चाहिए? क्या यह धार्मिक श्रेष्ठतावादियों और धार्मिक संस्थाओं की स्वतंत्रता है? क्या इसका अर्थ यह है कि वे यह तय करें कि कौन-सी परंपराएं और रीतिरिवाज धर्म का हिस्सा हैं और इसलिए उन्हें नहीं छेड़ा जा सकता? या फिर धार्मिक स्वतंत्रता का अर्थ है हर व्यक्ति की अपने अंतःकरण के अनुरूप अपने धर्म का पालन और आचरण करने की स्वतंत्रता और धर्म के भीतर किसी भी प्रकार के भेदभाव का निषेध। सवाल यह भी है कि धार्मिक समुदाय या धार्मिक पंथ क्या है और अगर किसी धार्मिक समुदाय में असहमति या विरोध के स्वर उभरें तो उन्हें कितना महत्व दिया जाना चाहिए। 
भारत का संविधान, नागरिकों को अपने धर्म का पालन करने के अधिकार और धार्मिक पंथों के नेतृत्व के अपनी संस्थाओं को स्थापित करने और उनका प्रबंधन करने के अधिकार के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास करता है। हालिया अदालती निर्णयों से यह सवाल उपस्थित हुआ है कि किसी व्यक्ति के अपने धर्म का पालन करने और उसका आचरण करने के अधिकार को अधिक तरजीह दी जानी चाहिए या समुदाय के कुछ विशिष्ट रीति-रिवाजों और परंपराओं को बनाए रखने के अधिकार को। इसके दो उदाहरण हैं, सबरीमाला मंदिर में 10-50 वर्ष आयुवर्ग की महिलाओं के प्रवेश पर निषेध और तीन बार तलाक कहकर मुस्लिम पुरूषों का अपनी पत्नियों से संबंध विच्छेद कर लेने का अधिकार। दोनों ही मामलों में उच्चतम न्यायालय ने बहुमत से सुनाए गए अपने निर्णयों में नागरिकों के मूल अधिकारों को अधिक महत्व दिया, और धार्मिक समुदाय के अधिकारों को कम।  

संविधान में धर्मनिरपेक्षता संबंधी प्रावधान   
संविधान का अनुच्छेद 25 कहता है कि लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य व अन्य मूल अधिकारों के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा। संविधान यह भी कहता है कि राज्य को यह अधिकार होगा कि वह धार्मिक आचरण से संबद्ध किसी आर्थिक, वित्तीय, राजनैतिक या किसी अन्य लौकिक क्रियाकलाप का विनियमन या निर्बंधन कर सकता है और सामाजिक कल्याण और सुधार के लिए या सार्वजनिक  प्रकार की धार्मिक संस्थाओं को हिन्दुओं के सभी वर्गों व अनुभागों के लिए खोल सकता है। स्पष्टतः, अनुच्छेद 25, धार्मिक स्वतंत्रता को व्यक्ति के परिपेक्ष्य से परिभाषित करता है व यह कहता है कि वह केवल लोकव्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य व अन्य मूलाधिकारों के अधीन होगी। यह अनुच्छेद राज्य को यह अधिकार भी देता है कि वह धार्मिक आचरण से संबद्ध किसी आर्थिक या लौकिक गतिविधि का विनियमन कर सकता है। इनमें शामिल हैं धार्मिक ट्रस्टों का प्रबंधन व उनका प्रशासन, उनमें कर्मचारियों की नियुक्ति आदि। राज्य ऐसे कानून भी बना सकता है जिनसे यह सुनिश्चित हो सके कि सार्वजनिक प्रकार की हिन्दुओं की धार्मिक संस्थाओं के द्वार हिन्दुओं के सभी वर्गों और अनुभागों के लिए खुले हों।

जहां अनुच्छेद 25 का संबंध व्यक्तियों की अंतःकरण की स्वतंत्रता से है, वहीं अनुच्छेद 26, धार्मिक समुदायों या उनके किसी अनुभाग के अधिकारों से संबद्ध है। इनमें शामिल हैं धार्मिक प्रयोजनों के लिए संस्थाओं की स्थापना और पोषण और अपने धर्म विषयक कार्यों का प्रबंध करने का अधिकार। धार्मिक सम्प्रदायों और उनके अनुभागों की धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता भी लोकव्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के अधीन है। परंतु अनुच्छेद 25 के विपरीत, धार्मिक सम्प्रदायों के अधिकार, संविधान द्वारा प्रदत्त अन्य मूल अधिकारों के अधीन नहीं हैं। अतः सबरीमाला और तीन तलाक प्रकरणों को अनुच्छेद 25 द्वारा दिए गए धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने के अधिकार और अनुच्छेद 26 द्वारा धार्मिक समुदायों को धार्मिक प्रयोजनों के लिए संस्थाओं की स्थापना और पोषण करने और अपने धर्म विषयक कार्यों का प्रबंध करने के अधिकार के बीच विरोधाभास के नजरिए से भी देखा जा सकता है। 

तीन तलाक मामले में सायराबानो और अन्य मुस्लिम महिलाओं ने इस प्रथा को चुनौती देते हुए उसे असंवैधानिक और गैरकानूनी बताया और तर्क दिया कि यह प्रथा उन्हें संविधान के अनुच्छेद 14 व 15 द्वारा दिए गए समानता के अधिकार से वंचित करती है क्योंकि इसके अंतर्गत केवल मुस्लिम पुरूषों को अपनी पत्नियों को एकतरफा और मेल-मिलाप के किसी  प्रयास के बिना तलाक देने का अधिकार है। आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जो मुस्लिम समुदाय के दकियानूसी तबके का प्रतिनिधित्व करता है, ने कहा कि यद्यपि तीन तलाक एक गलत परंपरा है परंतु तीन बार तलाक कहने के बाद पति-पत्नि का संबंध विच्छेद हो जाता है, चाहे ये शब्द नशे में, गुस्से में या होशोहवास में न रहते हुए कहे गए हों। तलाक शब्द का तीन बार उच्चारण करने के बाद, विवाह समाप्त हो जाता है और संबंधित व्यक्ति अपनी तलाकशुदा पत्नि के साथ नहीं रह सकता। बोर्ड ने यह तर्क भी दिया कि अनुच्छेद 26 के अंतर्गत मुसलमानों को अपने धर्म विषयक कार्यों का प्रबंध करने का अधिकार है और इसमें तीन तलाक की प्रथा शामिल है।

सबरीमाला मामले में याचिकाकर्ताओं ने कहा कि 10-50 वर्ष आयु वर्ग की महिलाओं के सबरीमाला मंदिर में प्रवेश पर प्रतिबंध, उनके अपने धर्म का पालन करने के मूलाधिकार का उल्लंघन व भेदभावपूर्ण है। प्रतिवादियों ने यह तर्क दिया कि सबरीमाला एक अत्यंत प्राचीन मंदिर है, जिसके अधिपति भगवान अयप्पा शाश्वत ब्रम्हचारी हैं। उन्होंने यह भी कहा कि इस आयुवर्ग की महिलाएं, शारीरिक कारणों से 41 दिनों का व्रत नहीं रख सकतीं और इसलिए उन्हे मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं दी जा सकती। उन्होंने यह तर्क भी दिया कि ये प्रतिबंध मंदिर की स्थापना के समय से ही लागू हैं और उनके साथ इसलिए छेड़छाछ़ नहीं की जा सकती क्योंकि वे धार्मिक समुदायों के अपने धर्म विषयक कार्यो का प्रबंध करने के अधिकार का हिस्सा हैं। 

हम यहां केवल ये दो उदाहरण दे रहे हैं परंतु ऐसे कई अन्य उदाहरण हैं जब व्यक्तियों ने उनके समुदाय द्वारा या धार्मिक संस्था द्वारा अपने धर्म का आचरण करने के उनके अधिकार पर अतिक्रमण करने का आरोप लगाया। दूसरी ओर, धार्मिक संस्थाएं यह तर्क देती आ रही हैं कि उन्हें अपनी परंपराओं और पारंपरिक आचरणों को बनाए रखने का अधिकार है क्योंकि वे प्राचीन हैं। कुल मिलाकर, उनका यह कहना है कि इन परंपराओं और आचरणों से चाहे किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के साथ अन्याय होता हो, तब भी वे इन्हें नहीं बदलेंगे। कहने की जरूरत नहीं कि कई प्राचीन परंपराएं अत्यंत अमानवीय और बर्बर हैं, जिनमें शामिल हैं दलितों के मंदिरों में प्रवेश पर प्रतिबंध, जादू-टोना और कम उम्र की महिलाओं को देवदासी बनाकर उन्हें वेश्यावृति में धकेलना। 

स्वाधीनता के बाद, अनुच्छेद 25 के अंतर्गत धार्मिक सुधार करने के अपने अधिकार का इस्तेमाल, कार्यपालिका और विधायिका ने यदा-कदा ही किया। मंदिरों में प्रवेश के संबंध में कई कानून पारित किए गए, जिन्हें संवैधानिक न्यायालयों में इस आधार पर चुनौती दी गई कि वे धार्मिक समुदायों के धर्म संबंधी कार्यों का प्रबंध करने के अधिकार का उल्लंघन करते हैं। किंतु इन सभी चुनौतियों को अदालतों ने खारिज कर दिया। कई राज्य सरकारों ने धार्मिक आचरण से संबद्ध आर्थिक और लौकिक क्रियाकलापों का विनियमन करने के लिए अधिनियम पारित किए। इनमें शामिल थे तिरूपति बालाजी मंदिर और अजमेर दरगाह में दान के रूप में आने वाले धन के प्रबंधन संबंधी कानून। हाल में महाराष्ट्र सरकार ने नरबलि, काला जादू और अन्य अमानवीय व अघोरी आचरणों को प्रतिबंधित करने के लिए एक अधिनियम पारित किया। इसका हिन्दू श्रेष्ठतावादी संस्थाओं जैसे सनातन संस्था ने कड़ा विरोध किया। यह अधिनियम डॉ दाबोलकर की हत्या के बाद पारित किया गया। वे लंबे समय से इस तरह के कानून के निर्माण के लिए संघर्षरत थे। सन् 2016 में महाराष्ट्र सरकार ने सामाजिक बहिष्कार को प्रतिबंधित करने वाला कानून पारित किया। 

कुछ अपवादों को छोड़कर, अदालतों ने व्यक्तियों द्वारा दमनकारी धार्मिक परंपराओं और रीति-रिवाजों, जो उनके अपने धर्म का आचरण करने के मूल अधिकार का उल्लंघन करते थे, को धार्मिक सम्प्रदायों द्वारा अनुच्छेद 26 के अंतर्गत अपने धर्म विषयक कार्यों का प्रबंधन करने के अधिकार पर तरजीह दी। सायराबानो मामले में तीन तलाक की प्रथा को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया और हाजी अली दरगाह, शनि सिगनापुर और अयप्पा मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी को भेदभापूर्ण और मूल अधिकारों का उल्लंघन निरूपित कर रद्द कर दिया। 

(अगले अंक में जारी) (अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)
 

बाकी ख़बरें