यह रिपोर्ट ग्रामीण भारत में जल संरक्षण के कुछ वास्तविक उदाहरणों पर प्रकाश डालती है।

हाल के दिनों में भारत के बड़े हिस्सों में लू तेज होती जा रही है और पानी की कमी की कई रिपोर्टें भी सामने आ रही हैं, जिससे लोगों की स्थिति और भी खराब हो रही है। हालांकि, यह स्थिति अलग-अलग गांवों में काफी अलग हो सकती है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि वहां जल संरक्षण के प्रभावी प्रयास किए गए हैं या नहीं। हाल के वर्षों में मैंने कई ऐसे गांवों का दौरा किया है जहां अच्छे जल संरक्षण के प्रयास किए गए हैं। मैंने देखा कि प्रतिकूल मौसम की स्थिति में भी इन गांवों के लोग, साथ ही खेतों और अन्य जानवरों को पर्याप्त पानी की उपलब्धता के कारण बहुत राहत मिलती है। जल और नमी संरक्षण के कारण खेतों और चारागाहों की स्थिति भी कहीं बेहतर होती है। सबसे अहम बात यह है कि स्थानीय लोगों की भागीदारी और कम बजट में किए गए इन प्रयासों से लंबे समय तक टिकाऊ परिणाम मिले हैं।
एक गांव जिसे मैं खास तौर से याद करता हूं, वह है जहां जल संरक्षण के हालिया कोशिशों के कारण लोगों -खासकर महिलाओं- में जो उत्साह और खुशी मैंने देखी, वह बेहद प्रेरणादायक थी। इन कोशिशों ने उनके जिंदगी को बेहद सकारात्मक तरीके से बदला है। यह मध्य भारत के मध्य प्रदेश राज्य के टीकमगढ़ जिले का मड़खेड़ा गांव है। इस गांव के लोग लंबे समय से पानी की कमी के कारण बढ़ती परेशानियों का सामना कर रहे थे। जल स्तर लगातार गिर रहा था और कुओं में पानी का स्तर भी नीचे चला गया था। हैंडपंपों से पानी बूंद-बूंद टपकने लगा था। चूंकि यहां जल से जुड़ी अधिकांश जिम्मेदारियां महिलाओं पर ही होती हैं, इसलिए दूर-दराज से पानी लाने में उनकी मेहनत और भी बढ़ गई थी। कई महिलाओं को कुएं से बहुत नीचे से पानी खींचने के कारण पीठ दर्द की शिकायत हो गई थी।
इसी स्थिति में एक सामाजिक कार्यकर्ता मंगली सिंह ने गांव वालों से संपर्क किया। उन्होंने बताया कि वह जिस संगठन (सृजन - SRIJAN) से जुड़े हैं उसका एक कार्यक्रम है जिसमें पानी की धाराओं या मौसमी जल प्रवाह वाले क्षेत्रों में तश्तरीनुमा (सॉसर शेप्ड) संरचनाएं खोदी जाती हैं, ताकि वर्षा का कुछ पानी इनमें रुक कर सूखे मौसम में भी लंबे समय तक बना रहे। चूंकि यही वह समाधान था जिसकी गांव वालों को सख्त जरूरत थी, इसलिए उन्होंने इस प्रस्ताव को तुरंत खुशी खुशी स्वीकार कर लिया।
जब यह काम शुरू हुआ तो गांव के लोग इन संरचनाओं से निकली मिट्टी (गाद) को अपने खेतों में मेड़बंदी (बांध निर्माण) के लिए भी इस्तेमाल करने लगे। नई बनी इन संरचनाओं- जिन्हें "डोहा" कहा जाता है- में जल संरक्षण के फायदे बहुत जल्दी दिखाई देने लगे। जल्द ही गांव के लोगों ने ऊपर और नीचे की ओर और ड्यादा डोहा बनाए जाने की मांग की। इससे आसपास के गांवों सहित और भी ज्यादा किसान लाभान्वित होने लगे।

ये गांव दिखाते हैं कि जल संरक्षण किस हद तक जीवन को बेहतर बना सकता है।
जब यह कार्य चल रहा था, तो सामाजिक कार्यकर्ताओं का समुदाय के साथ संबंध और ज्यादा गहरा हो गया। मिलकर यह समझ बनी कि जल संरक्षण से पूरा फायदा हासिल करने के लिए, पूर्व में सरकार द्वारा किए गए जल संरक्षण कार्यों की कुछ टूटी हुई संरचनाओं (जैसे चेक डैम के फाटक) की मरम्मत भी जरूरी है। यहां भी परिणाम इतने उत्साहजनक रहे कि मात्र 20,000 रूपये (लगभग 250 अमेरिकी डॉलर) की लागत से एक स्थान पर मरम्मत के बाद जल उपलब्धता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। इसके बाद गांव वालों ने ऊपर और नीचे की ओर अन्य संरचनाओं की मरम्मत की मांग भी की। जब ये मरम्मत कार्य भी पूरे हो गए, तो गांव की जल स्थिति में आश्चर्यजनक रूप से बदलाव आया- जहां कभी भारी जल संकट था, वहां अब पानी की काफी दिखने लगी।
जैसा कि मैंने कई ग्रामीणों से जाना, अब कई और किसान अपने खेतों की सिंचाई ठीक से कर पा रहे हैं और उनकी फसल की पैदावार लगभग 50% तक बढ़ गई है। कुछ किसान अब एक अतिरिक्त फसल भी उगा पा रहे हैं। कुओं और हैंडपंपों का जलस्तर बढ़ गया है, जिससे पीने का पानी भी अब आसानी से मिल जाता है।

जैसा कि मुझे कई ग्रामीणों से पता चला कि अब कई और किसान अपने खेतों की सिंचाई ठीक से कर पा रहे हैं और उनकी फसल की पैदावार लगभग 50% तक बढ़ गई है। कुछ किसान अब एक अतिरिक्त फसल भी उगा पा रहे हैं। कुओं और हैंडपंपों का जलस्तर बढ़ गया है, जिससे पीने का पानी भी अब आसानी से मिल जाता है। महिलाओं को अब पानी की जरूरी मात्रा लाने के लिए ज्यादा समय नहीं लगाना पड़ता और न ही उन्हें थकाऊ मेहनत करनी पड़ती है। इतना ही नहीं, पानी की उपलब्धता के कारण, जल प्रवाह क्षेत्र और मुख्य मरम्मत स्थल के पास एक सुंदर वन विकसित करने के लिए भी आवश्यक जल मिल सका है, जो आगे चलकर जल संरक्षण में भी योगदान देगा। जैसा कि एक युवा किसान मोनू यादव ने कहा, फायदे अनेक और दूरगामी रहे हैं। एक ऐसा फायदा जो तुरंत नहीं दिखता लेकिन बहुत महत्वपूर्ण है, वह है साझा भलाई के कार्यों के लिए आपसी सहयोग में वृद्धि। चूंकि डोहा से मिलने वाले लाभ कुछ वर्षों के बाद समाप्त हो सकते हैं यदि उनकी सफाई और देखरेख ठीक से न की जाए, इसलिए गांव में किसानों के समूह बनाए गए हैं। प्रत्येक डोहा के पास रहने वाले किसानों को सामूहिक रूप से उसके रखरखाव की जिम्मेदारी दी गई है।
ऐसे छोटे स्तर के जल संरक्षण कार्य बेहद किफायती हो सकते हैं। इस स्थान पर मरम्मत और गड्ढों (डोहा) की खुदाई सहित संपूर्ण कार्य की लागत लगभग 4,00,000 रूपये (लगभग 5,000 अमेरिकी डॉलर) रही है, जबकि इसके बहुपक्षीय और टिकाऊ लाभ कई गांवों तक फैल चुके हैं। दरअसल, SRIJAN ने अपने पूरे जल संरक्षण कार्यक्रम की योजना में कम लागत वाले कार्यों - जैसे डोहा गड्ढों की खुदाई और पहले से मौजूद संरचनाओं की मरम्मत व पुनर्निर्माण - पर खास जोर दिया है। पास के निवाड़ी जिले में गुलेन्दा गांव की जलधारा में किए गए डोहा खुदाई कार्य का अनुभव विशेष रूप से उत्साह बढ़ाने वाला रहा है।

ऐसे छोटे स्तर के जल संरक्षण कार्यों का एक और महत्वपूर्ण फायदा यह है कि इनमें स्थानीय समुदाय को योजना बनाने और क्रियान्वयन में शामिल करने की संभावनाएं काफी ज्यादा होती हैं। इसके साथ ही स्थानीय परिस्थितियों के प्रति उनकी गहरी समझ और अनुभव का लाभ भी लिया जा सकता है।
इसी कारण, छोटे पैमाने पर किए गए ये जल संरक्षण प्रयास अक्सर बड़े, महंगे और केंद्रीकृत योजनाओं की तुलना में अधिक रचनात्मक और सफल साबित होते हैं।
महज पांच साल पहले तक मध्यप्रदेश के शिवपुरी ज़िले के नदना गांव में अधिकांश घरों की स्थिति बेहद चिंताजनक थी। हाल ही में हुई एक सामूहिक चर्चा में इस गांव की कई महिलाओं ने बताया कि साल का अधिकांश पानी ढलान वाली जमीन पर से बहुत तेजी से बहकर गांव से बाहर निकल जाता था, जिससे आगामी लंबे सूखे मौसम के लिए कुछ भी पानी नहीं बचता था और जल पुनर्भरण (रीचार्ज) में भी बहुत कम योगदान होता था। इसके अलावा, ढलान पर बहते तेज पानी के साथ-साथ उपजाऊ मिट्टी की ऊपरी परत भी बहकर निकल जाती थी, जिससे खेतों की उर्वरता भी घट रही थी।

जब बारिश का सारा पानी तेजी से बहकर बाहर चला जाता था और उपजाऊ मिट्टी भी साथ ले जाता था, तब गांव की कृषि उत्पादकता बेहद कम हो गई थी। वास्तव में, मानसून के अलावा अन्य मौसमों में बहुत ही कम फसलें उगाई जा सकती थीं। कुछ जमीन तो ऐसी भी थी जो पूरी तरह से बिना खेती के रह जाती थी। पिछोर ब्लॉक में स्थित इस गांव में जल संकट केवल खेती के लिए ही नहीं, बल्कि पशुपालन के लिए भी एक बड़ी रूकावट बन गया था। सिर्फ ग्रामीणों और उनके पशुओं को ही नहीं, बल्कि वन्य जीवों को भी पानी की कमी से भारी परेशानी झेलनी पड़ रही थी।
खेती और पशुपालन पर आधारित आजीविका के क्षेत्र में विकास की संभावनाएं बेहद कम होने के चलते, इस गांव के लोग - विशेषकर गरीब परिवारों से जुड़े लोग - बड़ी संख्या में प्रवासी मज़दूरी पर निर्भर होते जा रहे थे। यहां से जो लोग बाहर मज़दूरी के लिए जाते थे, उन्हें जो काम मिलता था, वह अक्सर शोषणकारी होता था और उसमें स्थायित्व भी नहीं होता था। लेकिन विकल्पों की भारी कमी के चलते, ग्रामीणों को तमाम कठिनाइयों और तकलीफ़ों के बावजूद इसे ही जीविका चलाने के एकमात्र साधन के रूप में अपनाना पड़ता था।
हालांकि, करीब चार वर्ष पहले इस गांव में जल संरक्षण के कई उपाय शुरू किए गए। इनमें खेतों में मेड़बंदी, छोटे तालाबों की खुदाई और गांव में वर्षा जल को रोकने के लिए एक गेबियन संरचना (पत्थरों से बनी विशेष दीवार) का निर्माण शामिल था, ताकि बारिश का एक बड़ा हिस्सा गांव में ही ठहर सके। गांव से होकर गुजरने वाले दो नालों, जो वर्षा जल को बाहर ले जाते हैं, उनमें स्थानीय ग्रामीणों की सलाह और भागीदारी से लगभग 80 स्थानों का चयन किया गया, जहां डोहा गड्ढों की खुदाई की गई।
इन सभी प्रयासों से गांव में अनेक स्थानों पर वर्षा जल को संरक्षित करने में मदद मिली और इसके साथ ही गांव का समग्र जल स्तर तथा कुओं का जलस्तर भी बढ़ गया। अब कुओं और हैंडपंपों से ज्यादा मात्रा में और अधिक आसानी से पानी हासिल किया जा सकता है। अब खेतों के पशु ही नहीं, बल्कि जंगली जानवरों को भी सूखे महीनों में पीने के लिए ज्यादा पानी मिल पा रहा है। नमी संरक्षण के कारण घास और अन्य हरियाली ज्यादा मात्रा में उगने लगी है, जिससे पशुओं के लिए चारे की स्थिति में भी सुधार हुआ है।

इसी के साथ-साथ खेती की उत्पादकता में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। अब गांव में गैर-मानसूनी फसलों, जैसे गेहूं की खेती अधिक हो रही है, और जो ज़मीन पहले लगभग बंजर या अनुपयोगी छोड़ दी जाती थी, अब वह भी खेती में लायी जा रही है। मृदा अपरदन (मिट्टी का कटाव) पर नियंत्रण होने के कारण मिट्टी की गुणवत्ता में भी सुधार हो रहा है। इन सभी सकारात्मक बदलावों के परिणामस्वरूप, गांव के लोगों की शोषणकारी प्रवासी मज़दूरी पर निर्भरता अब काफी हद तक कम हो गई है।
इस जिले के उमरीखुर्द गांव की स्थिति भी काफी हद तक इसी तरह बदली है, जिसका श्रेय खेतों में तालाब (फार्म पॉन्ड), डोहों की खुदाई और मेड़ों के निर्माण को जाता है। इन प्रयासों के साथ-साथ तालाब मत्स्य पालन (फिशरी) एक अन्य आजीविका के रूप में उभरा है, जिससे ग्रामीणों की आमदनी के स्रोत बढ़े हैं। हाल ही में हुई एक सामूहिक चर्चा में महिलाओं ने खुशी के साथ बताया कि, "अब गांव में कई ऐसे स्थानों पर भी पानी मिल जाता है, जहां पहले इस समय तक पूरा इलाका सूखा पड़ जाता था।"
शिवपुरी जिले के इन दोनों गांवों में ये पहल स्वैच्छिक संगठन सृजन (SRIJAN) द्वारा की गई, जिसे एक्सिस बैंक फाउंडेशन और इंडसइंड बैंक से मदद मिली। समुदायों का सृजन पर विश्वास और उनकी सक्रिय भागीदारी इस बात से भी स्पष्ट है कि उन्होंने स्वेच्छा से श्रमदान किया और कुछ आर्थिक संसाधन भी अपने स्तर पर जुटाए।
मध्य भारत के बुंदेलखंड इलाके के कई गांवों में, सृजन (SRIJAN) ने एक विशेष कार्यक्रम ‘बिवल’ (BIWAL – बुंदेलखंड इनिशिएटिव फॉर वॉटर, एग्रीकल्चर एंड लाइवलीहुड्स) शुरू किया। इस कार्यक्रम के कार्यान्वयन में क्षेत्र की अन्य प्रमुख स्वैच्छिक संगठनों को भी शामिल किया गया। इस पहल में जल संरक्षण को मृदा सुधार और कृषि उत्पादकता बढ़ाने के साथ बेहतर तरीके से जोड़ा गया और यह सब गांव की सामूहिक भागीदारी से, एक सरल लेकिन प्रभावी कार्यक्रम के रूप में संचालित किया गया।
बुंदेलखंड क्षेत्र, जिसमें उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के 14 जिले शामिल हैं, में जल संरक्षण में एक ऐतिहासिक योगदान पारंपरिक रूप से सदियों पुराने जलाशयों (टंकियों) के जरिए हुआ है। इनमें से कुछ जलाशयों का निर्माण करीब 1000 वर्ष या उससे भी ज्यादा समय पहले हुआ था। ए.बी.वी. इंस्टीट्यूट ऑफ गुड गवर्नेंस ने ऐसे लगभग 1100 जलाशयों की पहचान की है। हालांकि, वर्षों तक साफ-सफाई और गाद निकासी (desilting) की अनदेखी के चलते इनमें से कई भारी मात्रा में गाद से भर गए हैं।इस स्थिति में सृजन (SRIJAN) ने इन जलाशयों की गाद निकासी का काम कराने की पेशकश की, जबकि किसानों ने खुद आगे बढ़कर खेतों में ले जाने के लिए यह उपजाऊ गाद उठाने का जिम्मा लिया।
जैसे-जैसे जलाशयों से गाद निकाली गई उनकी वर्षा जल संग्रहण क्षमता में वृद्धि हुई। साथ ही, यह उपजाऊ गाद खेतों में पहुंचने से प्राकृतिक खेती (बिना रासायनिक खाद के) की संभावना और सफलता भी बढ़ी। इस तरह, जल संरक्षण और कृषि सुधार- दोनों कार्यों को सकारात्मक रूप से एक-दूसरे से जोड़ा गया। उत्तर प्रदेश के महोबा जिले के बौरा गांव में सृजन और अरुणोदय संगठनों ने इस काम की शुरुआत की, जिसके बाद गांव में एक सामुदायिक संगठन बनाया गया जिसने इस पहल को आगे बढ़ाया। बाद में इस समुदाय ने खुद आगे आकर गाद निकासी का काम अपने स्तर पर करना शुरू कर दिया।
यह दृष्टिकोण राजस्थान के करौली जिले में विशेष रूप से बहुत उपयोगी साबित हुआ, जहां मकनपुरस्वामी गांव की पथरीली जमीन में उपजाऊ गाद (सिल्ट) के जमाव से कई एकड़ अनुपजाऊ भूमि खेती योग्य बन गई। इस तरह, यह एक और शानदार उदाहरण बन गया जिसमें जल संरक्षण और कृषि सुधार को एक साथ जोड़कर प्रभावी परिणाम हासिल किए गए। यहां गांववालों ने खुद अपनी पहल पर जल संरक्षण कार्य की शुरुआत की थी लेकिन सृजन (SRIJAN) के आने से उन्हें प्रेरणा और सहायता मिली।
तीन पोखर गांव में भूमि और मिट्टी की स्थिति चुनौतीपूर्ण है और साथ ही जंगली जानवर भी खेती में बाधा डालते हैं। फिर भी, इन मुश्किल परिस्थितियों के बावजूद कई किसानों की उम्मीद हैं, क्योंकि सृजन (SRIJAN) और अन्य स्वैच्छिक संगठनों ने गांव में कई नए पोखरों का निर्माण किया है, साथ ही पुराने पोखरों की मरम्मत भी कराई है। इनमें से कई पोखर एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, ताकि एक में पानी ज्यादा होने पर उसका अतिरिक्त पानी दूसरे में जा सके। यह संतुलित जल प्रबंधन का एक सरल लेकिन कारगर तरीका बन गया है। इस जिले के रावतपुरा गांव में पहले जो स्थिति कठिन और निराशाजनक थी वह अब काफी उम्मीद वाली दिखने लगी है। यहां भी कई नए पोखरों के निर्माण से उन ज़मीनों पर भी खेती संभव हो सकी है, जो पहले अव्यवहारिक या बंजर समझी जाती थीं।
ये तो केवल कुछ उदाहरण हैं उन गांवों के जहां तुलनात्मक रूप से बहुत ही सीमित बजट का सर्वोत्तम इस्तेमाल करते हुए जल संरक्षण के क्षेत्र में बेहद महत्वपूर्ण सुधार लाए गए। इन प्रयासों से गांवों को कई तरह से फायदा हुआ और कई मामलों में गांव की स्थिति हताशा से निकलकर आशा की ओर बढ़ी। इन जल संरक्षण की उपलब्धियों का एक और अहम पहलू यह है कि ये जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन (Climate Change Adaptation) में भी उपयोगी साबित हो रही हैं।
(लेखक "अर्थ सेव नाउ" अभियान के मानद संयोजक हैं। उनकी हाल में आईं पुस्तकें हैं: “मैन ओवर मशीन”, “प्रोटेक्टिंग अर्थ फॉर चिल्ड्रेन”, “प्लैनेट इन पेरिल” और “ए डे इन 2071”)

हाल के दिनों में भारत के बड़े हिस्सों में लू तेज होती जा रही है और पानी की कमी की कई रिपोर्टें भी सामने आ रही हैं, जिससे लोगों की स्थिति और भी खराब हो रही है। हालांकि, यह स्थिति अलग-अलग गांवों में काफी अलग हो सकती है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि वहां जल संरक्षण के प्रभावी प्रयास किए गए हैं या नहीं। हाल के वर्षों में मैंने कई ऐसे गांवों का दौरा किया है जहां अच्छे जल संरक्षण के प्रयास किए गए हैं। मैंने देखा कि प्रतिकूल मौसम की स्थिति में भी इन गांवों के लोग, साथ ही खेतों और अन्य जानवरों को पर्याप्त पानी की उपलब्धता के कारण बहुत राहत मिलती है। जल और नमी संरक्षण के कारण खेतों और चारागाहों की स्थिति भी कहीं बेहतर होती है। सबसे अहम बात यह है कि स्थानीय लोगों की भागीदारी और कम बजट में किए गए इन प्रयासों से लंबे समय तक टिकाऊ परिणाम मिले हैं।
एक गांव जिसे मैं खास तौर से याद करता हूं, वह है जहां जल संरक्षण के हालिया कोशिशों के कारण लोगों -खासकर महिलाओं- में जो उत्साह और खुशी मैंने देखी, वह बेहद प्रेरणादायक थी। इन कोशिशों ने उनके जिंदगी को बेहद सकारात्मक तरीके से बदला है। यह मध्य भारत के मध्य प्रदेश राज्य के टीकमगढ़ जिले का मड़खेड़ा गांव है। इस गांव के लोग लंबे समय से पानी की कमी के कारण बढ़ती परेशानियों का सामना कर रहे थे। जल स्तर लगातार गिर रहा था और कुओं में पानी का स्तर भी नीचे चला गया था। हैंडपंपों से पानी बूंद-बूंद टपकने लगा था। चूंकि यहां जल से जुड़ी अधिकांश जिम्मेदारियां महिलाओं पर ही होती हैं, इसलिए दूर-दराज से पानी लाने में उनकी मेहनत और भी बढ़ गई थी। कई महिलाओं को कुएं से बहुत नीचे से पानी खींचने के कारण पीठ दर्द की शिकायत हो गई थी।
इसी स्थिति में एक सामाजिक कार्यकर्ता मंगली सिंह ने गांव वालों से संपर्क किया। उन्होंने बताया कि वह जिस संगठन (सृजन - SRIJAN) से जुड़े हैं उसका एक कार्यक्रम है जिसमें पानी की धाराओं या मौसमी जल प्रवाह वाले क्षेत्रों में तश्तरीनुमा (सॉसर शेप्ड) संरचनाएं खोदी जाती हैं, ताकि वर्षा का कुछ पानी इनमें रुक कर सूखे मौसम में भी लंबे समय तक बना रहे। चूंकि यही वह समाधान था जिसकी गांव वालों को सख्त जरूरत थी, इसलिए उन्होंने इस प्रस्ताव को तुरंत खुशी खुशी स्वीकार कर लिया।
जब यह काम शुरू हुआ तो गांव के लोग इन संरचनाओं से निकली मिट्टी (गाद) को अपने खेतों में मेड़बंदी (बांध निर्माण) के लिए भी इस्तेमाल करने लगे। नई बनी इन संरचनाओं- जिन्हें "डोहा" कहा जाता है- में जल संरक्षण के फायदे बहुत जल्दी दिखाई देने लगे। जल्द ही गांव के लोगों ने ऊपर और नीचे की ओर और ड्यादा डोहा बनाए जाने की मांग की। इससे आसपास के गांवों सहित और भी ज्यादा किसान लाभान्वित होने लगे।

ये गांव दिखाते हैं कि जल संरक्षण किस हद तक जीवन को बेहतर बना सकता है।
जब यह कार्य चल रहा था, तो सामाजिक कार्यकर्ताओं का समुदाय के साथ संबंध और ज्यादा गहरा हो गया। मिलकर यह समझ बनी कि जल संरक्षण से पूरा फायदा हासिल करने के लिए, पूर्व में सरकार द्वारा किए गए जल संरक्षण कार्यों की कुछ टूटी हुई संरचनाओं (जैसे चेक डैम के फाटक) की मरम्मत भी जरूरी है। यहां भी परिणाम इतने उत्साहजनक रहे कि मात्र 20,000 रूपये (लगभग 250 अमेरिकी डॉलर) की लागत से एक स्थान पर मरम्मत के बाद जल उपलब्धता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। इसके बाद गांव वालों ने ऊपर और नीचे की ओर अन्य संरचनाओं की मरम्मत की मांग भी की। जब ये मरम्मत कार्य भी पूरे हो गए, तो गांव की जल स्थिति में आश्चर्यजनक रूप से बदलाव आया- जहां कभी भारी जल संकट था, वहां अब पानी की काफी दिखने लगी।
जैसा कि मैंने कई ग्रामीणों से जाना, अब कई और किसान अपने खेतों की सिंचाई ठीक से कर पा रहे हैं और उनकी फसल की पैदावार लगभग 50% तक बढ़ गई है। कुछ किसान अब एक अतिरिक्त फसल भी उगा पा रहे हैं। कुओं और हैंडपंपों का जलस्तर बढ़ गया है, जिससे पीने का पानी भी अब आसानी से मिल जाता है।

जैसा कि मुझे कई ग्रामीणों से पता चला कि अब कई और किसान अपने खेतों की सिंचाई ठीक से कर पा रहे हैं और उनकी फसल की पैदावार लगभग 50% तक बढ़ गई है। कुछ किसान अब एक अतिरिक्त फसल भी उगा पा रहे हैं। कुओं और हैंडपंपों का जलस्तर बढ़ गया है, जिससे पीने का पानी भी अब आसानी से मिल जाता है। महिलाओं को अब पानी की जरूरी मात्रा लाने के लिए ज्यादा समय नहीं लगाना पड़ता और न ही उन्हें थकाऊ मेहनत करनी पड़ती है। इतना ही नहीं, पानी की उपलब्धता के कारण, जल प्रवाह क्षेत्र और मुख्य मरम्मत स्थल के पास एक सुंदर वन विकसित करने के लिए भी आवश्यक जल मिल सका है, जो आगे चलकर जल संरक्षण में भी योगदान देगा। जैसा कि एक युवा किसान मोनू यादव ने कहा, फायदे अनेक और दूरगामी रहे हैं। एक ऐसा फायदा जो तुरंत नहीं दिखता लेकिन बहुत महत्वपूर्ण है, वह है साझा भलाई के कार्यों के लिए आपसी सहयोग में वृद्धि। चूंकि डोहा से मिलने वाले लाभ कुछ वर्षों के बाद समाप्त हो सकते हैं यदि उनकी सफाई और देखरेख ठीक से न की जाए, इसलिए गांव में किसानों के समूह बनाए गए हैं। प्रत्येक डोहा के पास रहने वाले किसानों को सामूहिक रूप से उसके रखरखाव की जिम्मेदारी दी गई है।
ऐसे छोटे स्तर के जल संरक्षण कार्य बेहद किफायती हो सकते हैं। इस स्थान पर मरम्मत और गड्ढों (डोहा) की खुदाई सहित संपूर्ण कार्य की लागत लगभग 4,00,000 रूपये (लगभग 5,000 अमेरिकी डॉलर) रही है, जबकि इसके बहुपक्षीय और टिकाऊ लाभ कई गांवों तक फैल चुके हैं। दरअसल, SRIJAN ने अपने पूरे जल संरक्षण कार्यक्रम की योजना में कम लागत वाले कार्यों - जैसे डोहा गड्ढों की खुदाई और पहले से मौजूद संरचनाओं की मरम्मत व पुनर्निर्माण - पर खास जोर दिया है। पास के निवाड़ी जिले में गुलेन्दा गांव की जलधारा में किए गए डोहा खुदाई कार्य का अनुभव विशेष रूप से उत्साह बढ़ाने वाला रहा है।

ऐसे छोटे स्तर के जल संरक्षण कार्यों का एक और महत्वपूर्ण फायदा यह है कि इनमें स्थानीय समुदाय को योजना बनाने और क्रियान्वयन में शामिल करने की संभावनाएं काफी ज्यादा होती हैं। इसके साथ ही स्थानीय परिस्थितियों के प्रति उनकी गहरी समझ और अनुभव का लाभ भी लिया जा सकता है।
इसी कारण, छोटे पैमाने पर किए गए ये जल संरक्षण प्रयास अक्सर बड़े, महंगे और केंद्रीकृत योजनाओं की तुलना में अधिक रचनात्मक और सफल साबित होते हैं।
महज पांच साल पहले तक मध्यप्रदेश के शिवपुरी ज़िले के नदना गांव में अधिकांश घरों की स्थिति बेहद चिंताजनक थी। हाल ही में हुई एक सामूहिक चर्चा में इस गांव की कई महिलाओं ने बताया कि साल का अधिकांश पानी ढलान वाली जमीन पर से बहुत तेजी से बहकर गांव से बाहर निकल जाता था, जिससे आगामी लंबे सूखे मौसम के लिए कुछ भी पानी नहीं बचता था और जल पुनर्भरण (रीचार्ज) में भी बहुत कम योगदान होता था। इसके अलावा, ढलान पर बहते तेज पानी के साथ-साथ उपजाऊ मिट्टी की ऊपरी परत भी बहकर निकल जाती थी, जिससे खेतों की उर्वरता भी घट रही थी।

जब बारिश का सारा पानी तेजी से बहकर बाहर चला जाता था और उपजाऊ मिट्टी भी साथ ले जाता था, तब गांव की कृषि उत्पादकता बेहद कम हो गई थी। वास्तव में, मानसून के अलावा अन्य मौसमों में बहुत ही कम फसलें उगाई जा सकती थीं। कुछ जमीन तो ऐसी भी थी जो पूरी तरह से बिना खेती के रह जाती थी। पिछोर ब्लॉक में स्थित इस गांव में जल संकट केवल खेती के लिए ही नहीं, बल्कि पशुपालन के लिए भी एक बड़ी रूकावट बन गया था। सिर्फ ग्रामीणों और उनके पशुओं को ही नहीं, बल्कि वन्य जीवों को भी पानी की कमी से भारी परेशानी झेलनी पड़ रही थी।
खेती और पशुपालन पर आधारित आजीविका के क्षेत्र में विकास की संभावनाएं बेहद कम होने के चलते, इस गांव के लोग - विशेषकर गरीब परिवारों से जुड़े लोग - बड़ी संख्या में प्रवासी मज़दूरी पर निर्भर होते जा रहे थे। यहां से जो लोग बाहर मज़दूरी के लिए जाते थे, उन्हें जो काम मिलता था, वह अक्सर शोषणकारी होता था और उसमें स्थायित्व भी नहीं होता था। लेकिन विकल्पों की भारी कमी के चलते, ग्रामीणों को तमाम कठिनाइयों और तकलीफ़ों के बावजूद इसे ही जीविका चलाने के एकमात्र साधन के रूप में अपनाना पड़ता था।
हालांकि, करीब चार वर्ष पहले इस गांव में जल संरक्षण के कई उपाय शुरू किए गए। इनमें खेतों में मेड़बंदी, छोटे तालाबों की खुदाई और गांव में वर्षा जल को रोकने के लिए एक गेबियन संरचना (पत्थरों से बनी विशेष दीवार) का निर्माण शामिल था, ताकि बारिश का एक बड़ा हिस्सा गांव में ही ठहर सके। गांव से होकर गुजरने वाले दो नालों, जो वर्षा जल को बाहर ले जाते हैं, उनमें स्थानीय ग्रामीणों की सलाह और भागीदारी से लगभग 80 स्थानों का चयन किया गया, जहां डोहा गड्ढों की खुदाई की गई।
इन सभी प्रयासों से गांव में अनेक स्थानों पर वर्षा जल को संरक्षित करने में मदद मिली और इसके साथ ही गांव का समग्र जल स्तर तथा कुओं का जलस्तर भी बढ़ गया। अब कुओं और हैंडपंपों से ज्यादा मात्रा में और अधिक आसानी से पानी हासिल किया जा सकता है। अब खेतों के पशु ही नहीं, बल्कि जंगली जानवरों को भी सूखे महीनों में पीने के लिए ज्यादा पानी मिल पा रहा है। नमी संरक्षण के कारण घास और अन्य हरियाली ज्यादा मात्रा में उगने लगी है, जिससे पशुओं के लिए चारे की स्थिति में भी सुधार हुआ है।

इसी के साथ-साथ खेती की उत्पादकता में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। अब गांव में गैर-मानसूनी फसलों, जैसे गेहूं की खेती अधिक हो रही है, और जो ज़मीन पहले लगभग बंजर या अनुपयोगी छोड़ दी जाती थी, अब वह भी खेती में लायी जा रही है। मृदा अपरदन (मिट्टी का कटाव) पर नियंत्रण होने के कारण मिट्टी की गुणवत्ता में भी सुधार हो रहा है। इन सभी सकारात्मक बदलावों के परिणामस्वरूप, गांव के लोगों की शोषणकारी प्रवासी मज़दूरी पर निर्भरता अब काफी हद तक कम हो गई है।
इस जिले के उमरीखुर्द गांव की स्थिति भी काफी हद तक इसी तरह बदली है, जिसका श्रेय खेतों में तालाब (फार्म पॉन्ड), डोहों की खुदाई और मेड़ों के निर्माण को जाता है। इन प्रयासों के साथ-साथ तालाब मत्स्य पालन (फिशरी) एक अन्य आजीविका के रूप में उभरा है, जिससे ग्रामीणों की आमदनी के स्रोत बढ़े हैं। हाल ही में हुई एक सामूहिक चर्चा में महिलाओं ने खुशी के साथ बताया कि, "अब गांव में कई ऐसे स्थानों पर भी पानी मिल जाता है, जहां पहले इस समय तक पूरा इलाका सूखा पड़ जाता था।"
शिवपुरी जिले के इन दोनों गांवों में ये पहल स्वैच्छिक संगठन सृजन (SRIJAN) द्वारा की गई, जिसे एक्सिस बैंक फाउंडेशन और इंडसइंड बैंक से मदद मिली। समुदायों का सृजन पर विश्वास और उनकी सक्रिय भागीदारी इस बात से भी स्पष्ट है कि उन्होंने स्वेच्छा से श्रमदान किया और कुछ आर्थिक संसाधन भी अपने स्तर पर जुटाए।
मध्य भारत के बुंदेलखंड इलाके के कई गांवों में, सृजन (SRIJAN) ने एक विशेष कार्यक्रम ‘बिवल’ (BIWAL – बुंदेलखंड इनिशिएटिव फॉर वॉटर, एग्रीकल्चर एंड लाइवलीहुड्स) शुरू किया। इस कार्यक्रम के कार्यान्वयन में क्षेत्र की अन्य प्रमुख स्वैच्छिक संगठनों को भी शामिल किया गया। इस पहल में जल संरक्षण को मृदा सुधार और कृषि उत्पादकता बढ़ाने के साथ बेहतर तरीके से जोड़ा गया और यह सब गांव की सामूहिक भागीदारी से, एक सरल लेकिन प्रभावी कार्यक्रम के रूप में संचालित किया गया।
बुंदेलखंड क्षेत्र, जिसमें उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के 14 जिले शामिल हैं, में जल संरक्षण में एक ऐतिहासिक योगदान पारंपरिक रूप से सदियों पुराने जलाशयों (टंकियों) के जरिए हुआ है। इनमें से कुछ जलाशयों का निर्माण करीब 1000 वर्ष या उससे भी ज्यादा समय पहले हुआ था। ए.बी.वी. इंस्टीट्यूट ऑफ गुड गवर्नेंस ने ऐसे लगभग 1100 जलाशयों की पहचान की है। हालांकि, वर्षों तक साफ-सफाई और गाद निकासी (desilting) की अनदेखी के चलते इनमें से कई भारी मात्रा में गाद से भर गए हैं।इस स्थिति में सृजन (SRIJAN) ने इन जलाशयों की गाद निकासी का काम कराने की पेशकश की, जबकि किसानों ने खुद आगे बढ़कर खेतों में ले जाने के लिए यह उपजाऊ गाद उठाने का जिम्मा लिया।
जैसे-जैसे जलाशयों से गाद निकाली गई उनकी वर्षा जल संग्रहण क्षमता में वृद्धि हुई। साथ ही, यह उपजाऊ गाद खेतों में पहुंचने से प्राकृतिक खेती (बिना रासायनिक खाद के) की संभावना और सफलता भी बढ़ी। इस तरह, जल संरक्षण और कृषि सुधार- दोनों कार्यों को सकारात्मक रूप से एक-दूसरे से जोड़ा गया। उत्तर प्रदेश के महोबा जिले के बौरा गांव में सृजन और अरुणोदय संगठनों ने इस काम की शुरुआत की, जिसके बाद गांव में एक सामुदायिक संगठन बनाया गया जिसने इस पहल को आगे बढ़ाया। बाद में इस समुदाय ने खुद आगे आकर गाद निकासी का काम अपने स्तर पर करना शुरू कर दिया।
यह दृष्टिकोण राजस्थान के करौली जिले में विशेष रूप से बहुत उपयोगी साबित हुआ, जहां मकनपुरस्वामी गांव की पथरीली जमीन में उपजाऊ गाद (सिल्ट) के जमाव से कई एकड़ अनुपजाऊ भूमि खेती योग्य बन गई। इस तरह, यह एक और शानदार उदाहरण बन गया जिसमें जल संरक्षण और कृषि सुधार को एक साथ जोड़कर प्रभावी परिणाम हासिल किए गए। यहां गांववालों ने खुद अपनी पहल पर जल संरक्षण कार्य की शुरुआत की थी लेकिन सृजन (SRIJAN) के आने से उन्हें प्रेरणा और सहायता मिली।
तीन पोखर गांव में भूमि और मिट्टी की स्थिति चुनौतीपूर्ण है और साथ ही जंगली जानवर भी खेती में बाधा डालते हैं। फिर भी, इन मुश्किल परिस्थितियों के बावजूद कई किसानों की उम्मीद हैं, क्योंकि सृजन (SRIJAN) और अन्य स्वैच्छिक संगठनों ने गांव में कई नए पोखरों का निर्माण किया है, साथ ही पुराने पोखरों की मरम्मत भी कराई है। इनमें से कई पोखर एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, ताकि एक में पानी ज्यादा होने पर उसका अतिरिक्त पानी दूसरे में जा सके। यह संतुलित जल प्रबंधन का एक सरल लेकिन कारगर तरीका बन गया है। इस जिले के रावतपुरा गांव में पहले जो स्थिति कठिन और निराशाजनक थी वह अब काफी उम्मीद वाली दिखने लगी है। यहां भी कई नए पोखरों के निर्माण से उन ज़मीनों पर भी खेती संभव हो सकी है, जो पहले अव्यवहारिक या बंजर समझी जाती थीं।
ये तो केवल कुछ उदाहरण हैं उन गांवों के जहां तुलनात्मक रूप से बहुत ही सीमित बजट का सर्वोत्तम इस्तेमाल करते हुए जल संरक्षण के क्षेत्र में बेहद महत्वपूर्ण सुधार लाए गए। इन प्रयासों से गांवों को कई तरह से फायदा हुआ और कई मामलों में गांव की स्थिति हताशा से निकलकर आशा की ओर बढ़ी। इन जल संरक्षण की उपलब्धियों का एक और अहम पहलू यह है कि ये जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन (Climate Change Adaptation) में भी उपयोगी साबित हो रही हैं।
(लेखक "अर्थ सेव नाउ" अभियान के मानद संयोजक हैं। उनकी हाल में आईं पुस्तकें हैं: “मैन ओवर मशीन”, “प्रोटेक्टिंग अर्थ फॉर चिल्ड्रेन”, “प्लैनेट इन पेरिल” और “ए डे इन 2071”)