ग्राउंड रिपोर्ट: फिसड्डी साबित हो रही जल परिवहन योजना, फिर भी फ्रेट विलेज के लिए छीनी जा रही किसानों की जमीनें

Written by विजय विनीत | Published on: August 20, 2024
उत्तर प्रदेश के वाराणसी में गंगा में जलपोत चलाने की फिसड्डी साबित हो चुकी परियोजना चंदौली और मिर्जापुर के करीब ढाई हजार किसानों के लिए जी का जंजाल बन गई है।


उत्तर प्रदेश के वाराणसी में गंगा में जलपोत चलाने की फिसड्डी साबित हो चुकी परियोजना चंदौली और मिर्जापुर के करीब ढाई हजार किसानों के लिए जी का जंजाल बन गई है। जल परिवहन को बढ़ावा देने के लिए बनारस में रामनगर के पास राल्हूपुर में गंगा नदी के किनारे करोड़ों की लागत से बना बंदरगाह लावारिश हाल में है। गंगा में पर्याप्त पानी नहीं होने की वजह से जलपोत नहीं चल पाए और बंदरगाह पर रखी गई महंगी मशीनरी अब जंग खा रही है, और यह परियोजना बुरी तरह फ्लाप साबित रही है। चंदौली के सपा सांसद वीरेंद्र सिंह ने किसानों की जबरिया छीनी जा रही जमीन और घर का मामला संसद में उठाकर मामले को गरमा दिया है। सांसद ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जलशक्ति मंत्रालय के पत्र भेजकर पूछा है कि जब गंगा में जल परिवहन शुरू करने के लिए पानी ही नहीं है तो फ्रेट विलेज के नाम क्यों किसानों को उनकी जमीन और घर से क्यों बेदखल किया जा रहा है?

बनारस से हल्दिया तक जल परिवहन शुरू कराने के लिए भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण ने गंगा वाटरवेट परियोजना शुरू करने की घोषणा की थी। इसी मकसद से बनारस के राल्हूपुर में बंदरगाह का निर्माण किया गया था। जल परिवहन भले ही शुरू नहीं हो सका, लेकिन फ्रेट विलेज के नाम पर सरकार और प्रशासन काफी दिनों से किसानों को तंग कर रही है। फ्रेट विलेज का मामला संसद में उठने के बाद ताहिरपुर, मिल्कीपुर और रसूलगंज के किसानों का रुख सरकार और प्रशासन के खिलाफ हो गया है। किसानों का कहना है कि मोदी सरकार जानबूझकर किसानों पर दबाव बना रही है कि वो अपना खेत-मकान छोड़कर कहीं और चले जाएं, ताकि वह जगह किसी कारपोरेट के हवाले किया जा सके। परियोजना के विरोध में तीनों गांवों के किसान लामबंद हैं और उन्होंने संघर्ष का बिगुल फूंका है। ऐलान किया है कि अगर उनकी जमीनें जबरिया अधिग्रहीत की गईं तो वो आर-पार की लड़ाई लड़ेंगे। वो किसी भी कीमत पर अपना मकान और खेत-खलिहान नहीं छोड़ेंगे।



ताहिरपुर के उन किसानों की जमीनों को गैर-वाजिब करार दिया जा रहा है जो राजा बनारस को खेती की टैक


चंदौली जिले के पश्चिमी पश्चिमी छोर के अंतिम गांव हैं, ताहिरपुर और मिल्कीपुर। रसूलगंज मिर्जापुर का आखिरी गांव हैं। इन गावों में करीब ढाई हजार लोग पारंपरिक रूप से खेती, किसानी और मछली पकड़ने का काम करते हैं। इनमें सर्वाधिक आबादी मुस्लिम, दलित और पिछड़ी जातियों के लोग हैं। मल्लाह, पटेल, हरिजन, डोम, कोइरी आदि  जातियों की आबादी सबसे ज्यादा है। भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण (आईडब्ल्यूएआई) ने कई साल पहले हल्दिया से बनारस तक गंगा में जलपोत चलाने और माल की ढुलाई करने की परियोजना बनाई थी। इसी मकसद से रामनगर के पास जाल्हूपुर में करोड़ों की लागत से बंदरगाह का निर्माण कराया गया और अब फ्रेट विलेज के नाम पर किसानों की करीब 70 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है।

गंगा में जल परिवहन की कोई संभावना दूर-दूर तक नहीं दिख रही है, लेकिन सरकार फ्रेट विलेज के नाम पर किसानों की खेती की जमीनें और उनका घर कब्जाने का दायरा बढ़ती जा रही है। पहले चरण में 70 एकड़ और दूसरे चरण में ताहिरपुर व मिल्कीपुर की करीब 121 बीघा (पक्का) जमीन का अधिग्रहण किया जाना है। आईडब्ल्यूएआई का दावा है कि वह मिल्कीपुर में करीब पौने तीन हेक्टेयर यानी 6.79 एकड़ जमीन ले चुका है और बाकी भूमि उसे खरीदनी है। सिंचाई विभाग की डेढ़ एकड़ जमीन भी इस महकमे के नाम दर्ज हो चुकी है।

इसी तरह ताहिरपुर में 40.77 एकड़ के मुकाबले 2.47 एकड़ खरीदी जा चुकी है। इतनी जमीन सरकारी है जो बंजर के रूप में दर्ज है। राल्हूपुर बंदरगाह फ्रेट विलेज के लिए ताहिरपुर-रसूलगंज, मिल्कीपुर और राल्हूपुर को चुना गया है। भविष्य में छोटा मिर्जापुर, नरायनपुर से लगायत चुनार तक फ्रेट विलेज का विस्तार किया जा सकता है। केंद्रीय जलमार्ग विकास प्रोजेक्ट की राल्हूपुर बंदरगाह और फ्रेट विलेज की लागत ₹ 5,369.18 के आस-पास है।



किसानों की उड़ी नींद

कीमती जमीन हथियाने के लिए चलाई जा रही फ्रेट विलेज योजना को लेकर ताहिरपुर और मिल्कीपुर के किसानों की नींद उड़ गई हैं। इस योजना के नाम पर जिन किसानों को घर-जमीन छोड़कर चले जाने का अल्टीमेटम दिया गया है उनमें ज्यादातर वो लोग हैं कई पीढ़ियों से गंगा में मछली पकड़कर अपने परिवार का पेट पालते आ रहे हैं। किसान इस योजना को फर्जी करार दे रहे हैं। इनका आरोप है कि उनकी जमीनें अडानी समूह को देने की योजना है और उन्हें बेघर कर दिया गया तो वो कहां जाएंगे?

ताहिरपुर के 42 वर्षीय बृजेश साहनी के चेहरे पर गहरी उदासी और तनाव साफ-साफ पढ़ा जा सकता है। वह कहते हैं, "हमारी करीब 20 विस्वा जमीन भी बंदरगाह के फ्रेट विलेज परियोजना में जाने वाली है। जिस समय बंदरगाह बन रहा था तो ताहिरपुर, मिल्कीपुर, राल्हूपुर और आसपास के दर्जनों गांवों के लोगों में रोजगार की एक उम्मीद जगी थी। किसानों और मछुआरों को लगा था कि रोजगार मिलने पर उनके दिन फिर जाएंगे और जिंदगी खुशहाल हो जाएगी। गंगा में जहाज चलाने के लिए पानी नहीं है, इसलिए जलपोत नहीं चलाए जा सके। इसके बावजूद सरकारी मशीनरी जमीन और घर-मकान छीनने के लिए हाथ धोकर हमारे पीछे पड़ गई। अफसर आते हैं और हमें घर-खेत छोड़ने का अल्टीमेटम देकर चले जाते हैं। जाते-जाते बुल्डोजर चलवाने की धमकी भी देते हैं।"

"हमारे खेतों में धान, गेहूं उगता है, तभी दो वक्त का चूल्हा जल पाता है। हमारी जमीनें फ्रेट विलेज की भेंट चढ़ गईं तो पेट पालना मुहाल हो जाएगा। ताहिरपुर की समूची मल्लाह बस्ती उजड़ जाएगी। इस बस्ती के लोगों के पास करीब 70 नौकाएं हैं, जिनके जरिये मछुआरा समाज के लोग किसी तरह से जिंदा हैं। इस गांव में हमारी कई पीढ़ियां खप गईं। समझ में नहीं आ रहा है कि सरकार हमें उजाड़ने पर क्यों उतारू है?  फ्रेट विलेज का दायरा अभी तीन गावों तक सीमित है, लेकिन सुना जा रहा है कि सरकार इसे छोटा मिर्जापुर, नरायनपुर से लगायत चुनार तक ले जाना चाहती है। ऐसे में तो खेती, मत्स्य पालन, पशुपालन ही नहीं, बुनकरी का धंधा भी चौपट हो जाएगा।"

बृजेश साहनी के परिवार के 48 वर्षीय शीतल प्रसाद साहनी के पास सिर्फ 15 बिस्वा जमीन और गंगा की मछलियों के भरोसे 12 लोगों के परिवार को पाल रहे हैं। इनकी रातों की नींद उड़ गई है। मौजूदा हालात का जिक्र करते हुए बृजेश कहते हैं, "सरकार जिन किसानों को उजाड़ने पर अमादा है, उनमें ज्यादातर लोग समाज के हासिये पर हैं। किसी की माली हालत ठीक नहीं है। घर और थोड़ जमीनें हैं, वह भी सरकार जबरिया छीन लेना चाहती है। हमारे खेत-खलिहान ही हमारी जिंदगी है। सरकार हमें जितना मुआवजा दे रही है, उतने में तो हम नई जमीन खरीदकर छोपड़ी भी नहीं बनवा सकते। हमारी समूची समाजिक और आर्थिक विरासत को लूटकर पूंजीपतियों के हवाले करने की योजना है, लेकिन हम ऐसा नहीं करने देंगे।"

अधिग्रहण के विरोध में विचार-विमर्श के लिए दलित बस्ती मे किसान और बौद्ध भिक्षुक

 
बेरंग है किसानों की जिंदगी

ताहिरपुर के बालचरण का दर्द भी कुछ ऐसा ही है। वह दलित बस्ती में रहते हैं। कहते हैं, "हमारी कई पीढ़ियां ताहिरपुर में मर-खप गईं। फिर भी हमारी जिंदगी में कोई रंग नहीं है। हम मुश्किल से एक छोटा सा मकान बनवा सके हैं। जिंदगी की नैया खेते-खेते हार चुके हैं, लेकिन आज भी हाशिये पर खड़े हैं। सत्ता के कई रंग लखनऊ की सियासत पर चढ़े। कभी पंजे का जलवा, कभी कमल खिला, कभी हाथी जमकर खड़ा हुआ तो कभी साइकिल सरपट दौड़ी, लेकिन हमारी जिंदगी बेरंग ही रही।"


"हमारा इकलौता घर ही चला गया तो हम अपने कुनबे के साथ कहां जाएंगे? हम हमेशा चिंता में डूबे रहते हैं। सुबह होती और रात गुजर जाती, लेकिन  सवाल जस का तस डंसता रहता है। हम गांव छोड़कर चले गए तो हमारे अपने लोग हमेशा के लिए छूट जाएंगे। सरकार हमारी जमीनों का जो मुआवजा दे रही है उससे कुछ भी नहीं होने वाला। हमारी बस्ती से सटा बनारस का राल्हूपुर गांव है। दस कदम के फासले पर तीस लाख रुपये बिस्वा में जमीनें बिक रही है और हमारी जमीनें सरकार कौड़ियों के दाम पर जबरिया हथिया लेना चाहती है। कितनी अजीब बात है कि गंगा में नियमित तौर पर कभी जहाज चले ही नहीं और हमारी जमीनों का अधिग्रहण करने के लिए सरकार गजब की तेजी दिखा रही है।"

बालचरण के पास खड़ी 30 वर्षीया अनीता के चहरे पर चिंता की गहरी लकीरें और आखों में सख्त उदासी है। फ्रेट विलेज के लिए ताहिरपुर और मिल्कीपुर के किसानों की जमीनों के अधिग्रहण के सवाल पर वह फफक पड़ी और अपने गुस्से का इजहार करते हुए कहा, "जब हमारी जमीनें छिन जाएंगी तो अपने बाल-बच्चों को लेकर हम कहां जाएंगे? हमारे चार बच्चे हैं। पति मजूरी करते हैं। सब कुछ चला जाएगा तो हम उन्हें क्या खिलाएंगे? भूमि अधिग्रहण से पहले हमारी रजामंदी नहीं ली गई। सिर्फ फरमान सुना दिया गया कि हमें अपनी जमीनें खाली करनी होगी। हम गंगा से दूर हो जाएंगे तो हमारे बला-बच्चे मछली कैसे पकड़ेंगे और कैसे करेंगे परिवार का भरण-पोषण? "

ताहिरपुर की बेबी के पति लाल बहादुर आटो रिक्शा चलाते हैं। वह कहती हैं, "सरकार हमारे सवालों का जबाव दे। वो हमें यह बताए कि हम कहां जाएं और हमारी जिंदगी कैसे चलेगी? सरकार हमारी जमीनें जबरिया लेना चाहती है तो हमारी कब्रें खुदवा दे और उसमें हम सभी को दफन कर दे। हमारी जमीनें, हमारा घर सब कुछ ले जाए। जब तक हमारी सांसें चल रही हैं, हम जान दे देंगे, पर अपनी जमीन नहीं देंगे। वो बुल्डोजर लेकर आएंगे तो हम उसके आगे लेट जाएंगे। वो हमें मारकर ही हमें उजाड़ पाएंगे।"

मिल्कीपुर के पूर्व प्रधान भाईराम साहनी से मुलाकात हुई तो वो काफी गुस्से में दिखे और कहा कि जब गंगा में जहाज चलाने के लिए पानी ही नहीं तो फ्रेट विलेज क्यों और किसका हित साधने के लिए बनवाया जा रहा है। कौड़ियों के दाम पर हमारी जमीनें लेकर वो पूंजीपतियों के हवाले क्यों करना चाहते हैं। भाईराम कहते हैं, "अपनी जमीनों के बचाने के लिए तीनों गांवों के मल्लाह और बुनकर कई बार धरना, प्रदर्शन व आंदोलन कर चुके हैं। बंदरगाह का दंश हमने झेला है और अब प्रेट विलेज के नाम पर हमें उजाड़ने की तैयारी चल रही है। आप खबरें लिखकर चले जाएंगे, लेकिन उससे कुछ भी नहीं होगा। होगा वही, जो नौकरशाही चाहेगी। अफसरों और नेताओं के पास दिल नहीं है। उन्हें किसानों, बुनकरों और मल्लाहों के पेट की नहीं, अपनी नौकरी की चिंता है। वो हमें बरबाद करके चले जाएंगे। अच्छा यह होगा कि वो हमें यहीं जमीन में गाड़ दें और हमारी जमीनें ले जाएं।"

मतलबी नहीं होते गंगा पुत्र

भाईराम यहीं नहीं रुकते। वह कहते हैं, 'हम मां गंगा के गोद में पले-बढ़े हैं। साल 2014 में नरेंद्र मोदी बनारस से चुनाव लड़ने आए तो उन्होंने अपने पहले भाषण में कहा कि मैं गंगा पुत्र हूं। आया नहीं हूं, बुलाया गया हूं। उस समय लगा कि मछुआरों और नाविकों का कोई हमदर्द आया है। हमने उन्हें बंपर वोटों से विजय दिलाई और अब वही हमारी जमीनें छीनने में जुट गए हैं। हम तो गंगा की गोद में पले-बढ़े हैं। मोदी की तरह गंगा के पुत्र स्वार्थी और मतलबी नहीं होते। गंगा हमारी मां है और मां का व्यापार नहीं किया जा सकता। हमें कोई यह तो बताए कि जब हमारी जमीनें फ्रेट विलेज में चली जाएंगी तब हमें क्या मिलेगा? बनारस जिला प्रशासन ने राल्हूपुर बंदरगाह की जमीन के एवज में जो मुआवजा दिया है, चंदौली प्रशासन उसका एक चौथाई भी नहीं दे रहा है। दोनों जमीनें अगल-बगल हैं और दोनों का परगना राल्हूपुर ही है। बस जिले का नाम भर बदला है। बंदरगाह की जमीन बंजर थी और वह अनुपयोगी पड़ी थी। सरकार हमारी खेती की जमीनें कौड़ियों के दाम क्यों छीन रही है?"

भूमि अधिग्रहण के खिलाफ मुहिम की अगुवाई करने वाले विनय मौर्य और अखिलेश सिंह कहते हैं, "गंगा में माल की ढुलाई करने की भारत सरकार की वाटरवेज योजना फ्लाप हो चुकी है। ऐसे में फ्रेट विलेज का औचित्य समझ में नहीं आ रहा है। कारपोरेट घरानों के लिए गरीबों को उजाड़ा जाना ठीक नहीं है। हमें जो मुआवजा दिया जा रहा है उस कीमत से हम 20 से 25 किमी दूर मुश्किल से जमीन खरीद पाएंगे। 415 परिवारों की जमीन का अधिग्रहण करने और सैकड़ों परिवारों को उजाड़ने की योजना बनाई गई है। कुछ भूमाफिया ने सरकार को 10 हजार वर्ग मीटर वह जमीन बेच दी है, जिस पर नाला है। सिर्फ हवा में रजिस्ट्री कर दी गई और मुआवजा हड़प लिया गया। ग्रामीणों के बीच झूठ परोसा जा रहा है और भ्रम पैदा किया जा रहा है। फ्रेट विलेज की चौहद्दी स्पष्ट रूप से तय नहीं की जा रही है। अचरज की बात यह है कि एक तरफ भूमि अधिहग्रहण अभियान चलाया जा रहा है, दूसरी ओर चंदौली प्रशासन के नियामताबाद प्रखंड के जरिये मिल्कीपुर और ताहिरपुर के नाम पर धड़ल्ले से सरकारी धन भी खर्च कर रहा है। जब विकास का पैसा आना बंद ही नहीं हुआ तो भूमि अधिग्रहण की राजाज्ञा का मतलब क्या है? "

दलित बस्ती में हमारी मुलाकात अखिलेश सिंह से हुई तो उन्होंने मोदी-योगी सरकार की नीयत पर सवालिया निशान लगाया। उन्होंने कहा, "किसानों को मुआवजा न देना पड़े इसलिए किसानों की तमाम जमीनों को गैर-नामुमकिन श्रेणी में डाला जा रहा है। कई दशक पहले ताहिरपुर और मिल्कीपुर की जमीनें अनुपजाऊ, उबड़-खाबड़ थी। ये जमीनें कुश,बबूल और तमाम जंगली घासों से घिरी हुई थीं। ग्रामीणों ने हाड़तोड़ मेहनत की और उन्हें समतल कर धान, गेहूं, चना, सरसों, टमाटर, आलू, मक्का, ज्वार-बाजरा उगाना शुरू किया। जमीनें खेती लायक हुई तो मोदी सरकार ने फ्रेट विलेज के लिए जमीन अधिग्रहण की राजाज्ञा जारी कर दी। मछुआरों और किसानों के रातों की नींद उड़ गई है। यह वो तबका है जो दशकों से मोदी सरकार को वोट देता आ रहा है और अब वो अपनी कीमती जमीनों के छिन जाने की आशंका से परेशान हैं।"

किसानों को धमकाते हैं अफसर

ताहिरपुर, मिल्कीपुर और रसूलगंज के किसानों, मछुआरों और बुनकरों का आरोप है अधिकारी आए दिन तीनों गावों में पुलिस के साथ धमकते हैं और उन्हें जमीनें खाली करने के लिए धमकाते हैं। ताहिरपुर के किसान जितेंद्र कुमार गौतम, वीरेंद्र कुमार, विजय कुमार, राजेद्र प्रसाद, राम निवास कहते हैं, " पिछले साल भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण (आईडब्ल्यूएआई) के अफसर पुलिस फोर्स के साथ पत्थर का पिलर लेकर हमारे गांव में आए और मल्लाहों की जमीन जबरिया कब्जाने लगे। किसानों को न कोई मुआवजा दिया गया और न ही पुनर्वास की व्यवस्था की गई। अफसरों की दबंगई का किसानों ने कड़ा विरोध किया तो वो लौट गए। लेकिन जाते-जाते यह धमकी जरूर दे गए कि अगली दफा बुलडोजर लेकर आएंगे। तब जमीन भी लेंगे और घर भी ढहा देंगे। हमें खदेड़ा गया तो हम कहां ठांव खोजेंगे? हमें आशंका है कि हमारी जमीनें पहले फ्रेट विलेज के नाम ली जाएंगी और बाद में उसे उद्योगपतियों के हवाले कर दिया जाएगा?"

फ्रेट विलेज के लिए ताहिरपुर और मिल्कीपुर के किसानों की जमीन के अधिग्रहण के विरोध में किसान लामबंद हो रहे हैं। किसानों के तेवर को देखते हुए लगता है कि जमीनों का अधिग्रहण यूं ही नहीं करने देंगे। विरोध के स्वर तेज होते जा रहे हैं। इस मुद्दे को लेकर किसानों ने बेमियादी धरना शुरू करने का निर्णय लिया है। योजना से प्रभावित किसान महेंद्र कुमार, इकबाल अहमद, अशोक कुमार, आनंद कुमार कहते हैं, "हम लोग अपने पूर्वजों के समय से इसी जमीन पर खेती-बाड़ी करते आ रहे हैं। बहुत से जवान, अब बूढ़े हो गए हैं। दशकों बाद अब बताया जा रहा है कि उनकी जमीन बंजर है, जिस पर हम लोगों ने अतिक्रमण कर रखा है। जमीन ही हमारी आजीविका का मुख्य साधन है और सबका परिवार इस पर निर्भर है। हमें अगर बेदखल कर दिया जाएगा, तो हम कहां जाएंगे और क्या करेंगे? "

मिल्कीपुर व ताहिरपुर के ग्राम प्रधान कन्हैया लाल राव किसानों के साथ खड़े हैं। वह कहते हैं, "बंदरगाह के नाम पर दलित किसानों पर जमीन छोड़ने के लिए लगातार दबाव बनाया जा रहा है। हमारे पूर्वजों ने घर और जमीन का जो अभिलेख हमें दिया था, उसे उन्हें दिखाया जा रहा है और अनुरोध भी किया जा रहा है कि अगर खेती छोड़ दी तो कंगाल हो जाएंगे। हमारी सुनवाई किए बैगर हमारी जमीनों पर बार-बार खंभे गाड़कर कब्जा करने की कोशिशें की जा रही हैं। विरोध करने पर बुलडोजर से घर ढहाने की धमकी दी जा रही है। कुछ किसानों के पास हुकुमनामा है, जिसे प्रशासन मानने के लिए तैयार नहीं है। उस जमीन को अब बंजर बताया जा रहा है। मिल्कीपुर और ताहिरपुर में इस समस्या का सामना करने वाले अधिकतर परिवार दलित और मुसलमान हैं, जो खेती, मत्स्यपालन, पशुपालन के अलावा दिहाड़ी मजदूरी कर अपने परिवार का पेट पालते हैं।"

दलित बस्ती की सीमा देवी कहती हैं, "सूखे की मार से चंदौली के किसान-मजदूर पहले से ही तबाह हैं। हमारा घर और हमारी जमीनें ही छीन ली जाएंगी तो हम कहां जाएंगे? आईडब्ल्यूएआई के अफसर हमें किसान बने रहने नहीं देना चाहते हैं। सब कुछ वो ले लेंगे तो हमारे पास न जमीन बचेगी, न अपना घर। प्रशासनिक अधिकारी जब भी गांव में आते हैं तो डरा-धमकाते हैं और चले जाते हैं। जिस बंदरगाह के उद्घाटन के सालों बाद एक भी जहाज भी माल लेकर नहीं आया, उसके भविष्य क्या होगा, यह बात मामूली आदमी समझ सकता है।"

फ्रेट विलेज का विरोध क्यों? 

आईडब्ल्यूएआई की जल परिवहन योजना के साथ ही फ्रेट विलेज को हर कोई फर्जी करार दे रहा है। तथागत विहार चैरिटेबुल ट्रस्ट के बैनरतले बौद्ध अनुयाइयों और सैकड़ों किसानों ने 13 दिसंबर 2022 को मार्च निकाला और चंदौली की कलेक्टर ईशा दुहन को मांग-पत्र सौंपा। पत्र में इस बात का जिक्र किया गया है गंगा के पावन तट पर करीब पांच एकड़ में बुद्ध विहार स्थापित है। मौके पर भगवान बुद्ध की प्रतिमा, 42 फीट ऊंचा अशोक स्तंभ, बोधिवृक्ष के अलावा ध्यान केंद्र व दफ्तर मौजूद है। हरे-भरे परिसर में करीब एक हजार से अधिक शीशम, सागौन, कदम, बरगद, पीपल और ताड़ के पेड़ हैं। पूर्वांचल भर के बौद्ध अनुयायी यहां रोजाना दर्शन-पूजन और धम्म विपत्सना करते हैं।


यूपी के चंदौली जिले में गंगा के किनारे बसे ताहिरपुर और मिल्कीपुर में फ्रेट विलेज के लिए ज़मीन अधिग्रहण की राजाज्ञा जारी होने से मछुआरे और किसान ज़बर्दस्त गुस्से में हैं। बुद्ध विहार में भी सियापा छाया है। यहां बुद्ध का खुला मंदिर, बोधिवृक्ष और चुनार के बलुआ पत्थरों से निर्मित 42 फीट ऊंचे अशोक स्तंभ को सरकार ने जमींदोज कराने का अल्टीमेटम दिया है। तथागत विहार चैरिटेबल ट्रस्ट ने सामाजिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक उत्थान के लिए कई साल पहले बुद्ध विहार की स्थापना की थी। सरकार ने अब यहां फ्रेड विलेज बनाने की योजना बनाई है। इसके लिए राजाज्ञा जारी कर दी गई है।

बुद्ध विहार पर मंडरा रहे खतरे के संकट के चलते तथागत विहार चैरिटेबल ट्रस्ट से जुड़े विद्याधर काफी चिंतित हैं। विद्याधर बनारस के जाने-माने साहित्यकार और लेखक हैं। बौद्ध विहार स्थित गंगा दर्शिका के चबूतरे पर वह चिंतन और मनन की मुद्रा में बैठे मिले। वह कहते हैं, "बौद्ध विहार गंगा के किनारे दो सौ मीटर के दायरे में ग्रीन बेल्ट वाले गांवों में शामिल है। कानूनी तौर पर इसकी स्थिति किसी भी दशा में नहीं बदली जा सकती है। डबल इंजन की सरकार सिर्फ बौद्ध विहार ही नहीं, ताहिरपुर के साथ मिल्कीपुर (चंदौली) और उससे सटे रसूलगंज (मिर्जापुर) के 415 परिवारों की खेती की जमीनें भी छीन रही है। इन तीनों गांवों में करीब ढाई हजार लोग रहते हैं। यहां सर्वाधिक आबादी गरीब मछुआरों और मुसलमानों की है।"

"पूर्वांचल के सैकड़ों खेतिहर किसानों और बौद्ध अनुयायियों ने चंदा जुटाकर 05 सितंबर 2004 को इस जमीन का बैनामा लिया था। निर्माण के समय ही सारनाथ के मूलगंध कुटी विहार परिसर से बोधि वृक्ष का क्लोन लाकर यहां लगाया गया, जो अब एक बड़ा पेड़ बन गया है। बलुआ पत्थरों से बने अशोक स्तंभ को लगाने पर 10 लाख रुपये से अधिक खर्च किए गए हैं। इससे पहले भव्य बौद्ध मंदिर और मूर्तियों पर खासा धन खर्च किया गया। बौद्ध विहार का वजूद मिटाया गया तो पीएम नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र के बार्डर पर बसे इस गांव से एक इतिहास की मौत हो जाएगी। वैसे भी सिंचाई विभाग का लिफ्ट कैनाल इस परिसर को अलग करता है, जिसे अधिग्रहित करने का कोई औचित्य नहीं बनाता है।"

ना-मुमकिन घोषित की जा रहीं जमीनें

तथागत चैरिटेबल ट्रस्ट परिसर में रहने वाले भिक्षुक बुद्ध ज्योति, धम्म ज्योति और दीप ज्योति कहते हैं, "जिस स्थान पर बौद्ध विहार स्थापित किया गया है वह जमीन बैनामा के जरिये खरीदी गई थी। जिला प्रशासन ने हमारी पांच बीघे जमीन को इसलिए गैर-नामुमकिन घोषित कर दिया है ताकि मुआवजा नहीं देना पड़े। सत्ता में बैठे कुछ लोग अपने पूंजीपति दोस्तों को उपकृत करने के लिए बौद्ध विहार को उजाड़ देने पर आतुर हैं। सरकार भूमि अधिग्रहण कानून का खुलेआम उल्लंघन करते हुए कारपोरेट घरानों के इशारे पर यह सब कर रही है। उचित प्रतिकार एवं पारदर्शिता अधिकार अधिनियम 2013 की धारा-4 और धारा-2 की उपधारा (2) में व्यवस्था दी गई है कि 70 से 80 फीसदी लोगों की असहमति धारा-8 (3) के धारा-2-2 का उल्लंघन है। सामाजिक समाघात प्रभाव कानून की धारा-2 की उप धारा-2 के मुताबिक भूमि अधिग्रहण के लिए 70 से 80 फीसदी किसानों की सहमति जरूरी है। तीनों गांवों के किसानों ने जब अपनी जमीन देने से साफ इनकार कर दिया है तो उनकी जमीनें छीनने का सरकार को क्या हक है? "

भिक्षुक बुद्ध ज्योति यह भी कहते हैं, "फ्रेट विलेज के लिए हम बौद्ध विहार की जमीनें कौड़ियों के दाम पर नहीं देंगे। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर इस मुद्दे को उठाया जाएगा। सरकार हमें छेड़ेगी तो वह नहीं बचेगी। सरकार ने फर्जी योजना के नाम पर जिन गांवों को उजाड़ने की तैयारी कर रही है हम उसका डटकर विरोध करेंगे। इस मुद्दे पर सभी ग्रामवासी एक हैं। कबीर मठ, रविदास मंदिर के लोग भी हमारे साथ हैं। यह जनकल्याण का मुद्दा है। खेती-किसानी और गांवों के वजूद को बचाने का सवाल है। कितनी अचरज की बात है कि जिन जमीनों पर लोग डेढ़-दो सौ सालों से रह रहे हैं और लगान दे रहे हैं उनकी जमीनों को मोदी सरकार गैर-नामुमकिन बता रही है। किसानों की जमीन फोकट में हड़पने का यह नया हथियार है। हाल के दिनों में मिल्कीपुर और ताहिरपुर के किसानों की करीब 25 बीघे जमीन को सरकारी नुमाइंदों ने नाम-मुमकिन घोषित कर दिया है। भूमि अधिग्रहण के नाम पर सरकार का यह खेल जनता को रुला रहा है, जिसे किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।"

आस्था नहीं, देशभक्ति का सवाल

बौद्ध विहार से जुड़े बनारस के जाने-माने साहित्यकार विद्याधर विद्याधर कहते हैं, " संस्था की संपत्ति के अधिग्रहण का सवाल सिर्फ आस्था का नहीं, देशभक्ति का भी है। सम्राट अशोक की लाट के नीचे हर रोज बौद्ध अनुयायी योग साधना करते हैं और सामाजिक सद्भाव कायम करने के लिए राष्ट्रीय एकता जिंदाबाद के नारे भी लगाते हैं। फ्रेट विलेज के नाम पर इस बौद्ध विहार को नेस्तनाबूत किया तो एक महान परंपरा टूटेगी और आस्था भी खंडित होगी। सात बीघे में फैले इस परिसर में एक हजार के अधिक हरे-भरे पेड़ काटे जाएंगे तो फ्रेट विलेज में लोग चिड़ियों को देख पाना ही भूल जाएंगे।"

विद्याधर कहते हैं, "फ्रेट विलेज के नाम पर जमीन  का अधिग्रहण करने से पहले सरकार किसानों के उन सवालों को जवाब दे कि क्या गंगा में नियमित तौर पर जलपोत चलाया जाएगा? मालवाहक जहाज चलाने के लिए क्या गंगा में पानी है? करोड़ों रुपये खर्च कर बने बंदरगाह की जमीनों पर मशीनें क्यों जंग खा रही हैं और गाय-भैसें और गधे जुगाली करते क्यों नजर आते हैं? फ्रेट विलेज की फर्जी योजना किसकी भलाई के लिए शुरू की गई है? एक तरफ ताहिरपुर के दुर्गा मंदिर को अधिग्रहण से मुक्त किया गया है और दूसरी तरफ मस्जिद और बुद्ध विहार पर ‘बुलडोजर’ चलाने का अल्टीमेटम क्यों दिया जा रहा है?"

बौध विहार से जुड़े वीरेंद्र मौर्य कहते हैं, "गंगा प्रदूषण मामले में हाईकोर्ट ने 22 अप्रैल 2011 को इस नदी से 500 मीटर के दायरे में स्थायी निर्माण पर रोक लगा रखी है। पलूशन बनाम स्टेट ऑफ यूपी एवं अदर्स की जनहित याचिका के तहत माननीय उच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि गंगा तट के 200 मीटर दायरे में राजस्व और सिंचाई विभाग के अभिलेखों में दर्ज तट के अनुसार कोई भी निर्माण कार्य प्रतिबंधित होगा। इस मामले में उत्तर प्रदेश के सभी प्राधिकरणों को हाईकोर्ट के आदेशों का पालन कराना बाध्यकारी होगा। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि सरकार किस कानून के तहत गंगा तट पर फ्रेट विलेज के लिए जमीन अधिग्रहीत करने की योजना बना रही है? हमें लगता है कि फ्रेट विलेज का मकसद कारपोरेट घरानों को उपकृत करना है। उन्हें मुनाफा कमवाने के लिए सरकार खुद कायदे-कानून की धज्जियां उड़ा रही है। फ्रेट विलेज की योजना चाहे जिस मकसद से गढ़ी गई है, उसे मानने के लिए न किसान तैयार हैं, न मछुआरे और न बुनकर।"

"बौद्ध विहार की स्थापना के लिए जिन लोगों ने आर्थिक मदद दी है उनमें ज्यादातर मौर्य, कुशवाहा, कोइरी, पटेल और दलित समुदाय के लोग शामिल हैं। प्रशासन की कोशिश यह होनी चाहिए कि वह दुर्गा मंदिर की तरह बौद्ध विहार को छोड़ दे, अन्यथा आस्था के इस केंद्र से जुड़े चंदौली, बनारस, गाजीपुर, जौनपुर, मिर्जापुर, सोनभद्र, भदोही समेत दर्जन भर जिलों के लाखों लोग भाजपा सरकार पर उंगली उठाने लग जाएंगे। फिलहाल बौद्ध विहार को बचाने के लिए हाईकोर्ट में याचिका दायर की गई है। कई और किसानों ने अदालतों में अलग-अलग याचिकाएं दायर की हैं। किसी याचिका पर अभी फैसला नहीं आया है।"

क्या है फ्रेट विलेज योजना?

भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण (आईडब्ल्यूएआई) हल्दिया से वाराणसी के बीच गंगा में जलयान से माल की ढुलाई के लिए दशकों से कोशिश कर रही है। माल की ढुलाई भले ही नहीं हो पा रही है, लेकिन इसे आधुनिक सुविधाओं से लैस करने के लिए पानी की तरह पैसे जरूर बहाए जा रहे हैं। शुरुआत में इस परियोजना के लिए 70 एकड़ जमीन की जरूरत बताई गई थी, लेकिन अब इसका दायरा बढ़ता जा रहा है।

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, रामनगर के राल्हूपुर में बंदरगाह के विस्तारीकरण योजना के तहत सौ एकड़ में एशिया का पहला फ्रेट विलेज स्थापित किया जाएगा। इस योजना पर करीब 3,055 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण से जुड़े प्रवीण कुमार पांडेय दावा करते हैं कि यूरोपीय देशों में नदियों के किनारे फ्रेट विलेज बनाए गए हैं। उसी तरह यहां भी लाजिस्टिक पार्क और बड़े-बड़े वेयर हाउस होंगे। कार्गो, पार्किंग, इलेक्ट्रिक सिटी स्टेशन, पावर हाउस, रेलवे ट्रैक, टीनशेड, टर्मिनल आदि का निर्माण कराया जाएगा। बंदरगाह के विस्तारीकरण योजना की यह अगली कड़ी है। यह वही बंदरगाह है जिसे पीएम नरेंद्र मोदी ने 12 नवंबर 2018 को रामनगर के समीपवर्ती गांव राल्हूपुर में उद्घाटन किया था।

फ्रेट विलेज के लिए जिस तरह का नक्शा तैयार किया गया है उसमें मुसलमानों की आबादी वाले बाहरी हिस्से को अधिग्रहण के दायरे में रखा है, जबकि ताहिरपुर और वाजिदपुर के एक बड़े इलाके को सिर्फ इसलिए छोड़ दिया गया है, क्योंकि दोनों गांवों के बार्डर पर दुर्गा मंदिर है। दुर्गा मंदिर को बचाने के लिए भेदभाव की तोहमत योगी सरकार के माथे पर मढ़ी जाएगी सो अलग।

कबाड़ में बिकेंगी मशीनें

खास बात यह है कि भूमि अधिग्रहण से पहले बंदरगाह की न तो उपयोगिता समझी गई और न ही समीक्षा की। बनारस के कई अफसर ऐसे हैं जिन्हें कई सालों से यहीं जमे हुए हैं। यही वजह है कि जिन इलाकों में विकास की परियोजनाएं बनाई जा रही है वहां किसानों की भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक पहलुओं की पड़ताल कराने की जरूरत ही नहीं समझी जा रही है। खास बात यह सरकार की नजर उन इलाकों पर है जहां दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यक किसानों की जमीनें ज्यादा हैं।

जमीनों का अधिग्रहण ऐसी योजना के लिए किया जा रहा है जिसका कोई भविष्य ही नहीं है। महकमें के अफसर यह तह बता पाने की स्थिति में नहीं हैं कि रामनगर के बंदरगाह पर माल लेकर जलपोत कब उतरेंगे? वैसे भी भूमि अधिग्रहण से संबंधित एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय हाल ही में यह स्पष्ट कर चुका है कि राज्य द्वारा उचित न्यायिक प्रक्रिया का पालन किए बिना नागरिकों को उनकी निजी संपत्ति से ज़बरन वंचित करना मानवाधिकार और संविधान के अनुच्छेद 300-ए के तहत प्राप्त संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन है।

सर्वोच्च न्यायालय के मुताबिक, कानून से शासित किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में राज्य कानून की अनुमति के बिना नागरिकों से उनकी संपत्ति नहीं छीनी जा सकती है। कोर्ट ने यह भी कहा है कि कानून से संचालित कल्याणकारी सरकार होने के नाते सरकार संवैधानिक सीमा से परे नहीं जा सकती। सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला हिमाचल प्रदेश की विद्या देवी नामक एक निरक्षर महिला के मामले में दिया था जिसकी जमीन राज्य सरकार ने साल 1967-68 में सड़क निर्माण के लिए उसकी अनुमति के बगैर अधिगृहीत कर ली थी। सुप्रीम कोर्ट ने विद्या देवी बनाम हिमाचल प्रदेश सरकार व अन्य’ मामले में सुनवाई के दौरान सरकार के ‘एडवर्स पजेशन’ के तर्क को नकार दिया था।

भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण (आईडब्ल्यूएआई) ने हल्दिया-वाराणसी के बीच जलयान से माल की ढुलाई शुरू कराने के लिए बनारस के रामनगर के समीप राल्हूपुर में करीब 206 करोड़ की लागत से बंदरगाह का निर्माण कराया है, जो बालू की नहर की तरह ढह चुकी है। इस परियोजना को अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ड्रीम प्रोजेक्ट बताकर सरकार को बरगलाया जा रहा है और किसानों को भी। किसानों का आरोप है कि आईडब्ल्यूएआई जिन किसानों की जमीन पर नजरें गड़ाए हुए हैं, उनमें ज्यादातर दलित हैं, जिनका पुनर्वास किए बगैर जमीनें अधिग्रहीत नहीं नहीं की जा सकती हैं। मनमानी का आलम यह है कि राल्हूपुर में बने बंदरगाह की जमीन के एवज में किसानों का जितना मुआवजा दिया गया था, उतना मिल्कीपुर और ताहिरपुर के किसानों को देने के लिए भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण तैयार नहीं हैं।

किसानों को बरगला रहे अफसर

प्राधिकरण के अफसर यह भी बताने के लिए तैयार नहीं हैं कि जिस बंदरगाह और फ्रेट विलेज के लिए गरीब किसानों की जमीनों हथियाने के लिए उन पर दबाव बनाया जा रहा है, उससे विकास को कैसे रफ्तार मिलेगी? पिछले चार सालों में इस परियोजना पर पैसे तो पानी की तरह बहाए गए, लेकिन माल की ढुलाई से सरकार को फूटी कौड़ी भी नहीं मिली। राल्हूपुर बंदरगाह भले ही सिर्फ दिखावा साबित हो रहा है, लेकिन इसके नाम पर जमीनों के अधिग्रहण का दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है। शुरुआत में इस परियोजना के लिए 70 एकड़ जमीन की जरूरत बताई गई थी। करीब 38 एकड़ में बंदरगाह, जेटी, प्रशासनिक भवन, बिजली घर सहित सड़क मार्ग का निर्माण कराया जा चुका है।

बनारस के रामनगर के समीपवर्ती गांव राल्हूपुर में आईडब्ल्यूएआई के बंदरगाह का उद्घाटन 12 नवंबर 2018 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया था। उस समय इस बंदरगाह को जल परिवहन कि दिशा में मील का पत्थर बताया गया था और दावा किया गया था कि इसके जरिये सस्ती दरों पर माल की ढुलाई हो सकेगी। बंदरगाह में 5.586 हेक्टेयर में मल्टी मॉडल टर्मिनल का निर्माण कराया गया है। यहां 200 मीटर लंबा और 42 मीटर चौड़ा गंगा नदी पर जेट्टी बनाई गई है। प्रशासनिक भवन का निर्माण कार्य पूरा हो चुका है। लोडिंग अनलोडिंग के लिए 50 टन क्षमता के दो मोबाइल हार्बर क्रेन खड़े हैं और वो जंग खा रहे हैं। यात्रियों को चढ़ने उतरने के लिए फ्लोटिंग जेट्टी और सीढ़ी का निर्माण कार्य पूर्ण हो चुका है।


इस बंदरगाह को दिल्ली-हावड़ा रेल मार्ग से जोड़ने लिए नजदीकी जिवनाथपुर स्टेशन से नई सिंगल लाइन बिछाई जा रही है। यह रेलवे लाइन 5.6 किमी लंबी होगी। ताजा स्थिति यह है कि राल्हूपुर बंदरगाह सन्नाटे में है। बंदरगाह के इर्द-गिर्द गाय-भैस और गधे जुगाली करते नजर आते हैं। पिछले चार सालों में बनारस-कलकत्ता अंतर्देशीय जलमार्ग पर लगातार न कोई जलपोत चला और न ही माल की ढुलाई हो सकी।

मकबूल आलम रोड पर स्थित आईडब्ल्यूएआई के चमचमाते दफ्तर में मौजूद सहायक जलीय सर्वेक्षक समेत कोई भी अफसर मीडिया के सवालों का जवाब देने के लिए तैयार नहीं होता। हर कोई पल्ला झाड़ लेता है। नाम नहीं छापने की शर्त पर वो इतना ही कहते हैं कि "हमने जलमार्ग तैयार कर दिया है। जब तक कारोबारियों और व्यापारियों की सोच नहीं बदलेगी, तब तक न गंगा नदी में जलपोत चल सकेंगे और न माल की ढुलाई संभव हो पाएगी।"

छिछली गंगा में कैसे चलेंगे जलपोत?

बनारस से हल्दिया के बीच जलमार्ग पर जलयान चलाने में सबसे बड़ी बाधा है गंगा में गहराई की कमी। नदी विशेषज्ञों के मुताबिक, जलपोत चलाने के लिए गंगा में न पर्याप्त चौड़ाई है, न ही सभी साजो-समान से लैस टर्मिनल। उच्च क्षमता वाले जलयानों की कमी भी एक बड़ी चुनौती है। गंगा में बने जलमार्ग पर हर साल गाद भर जाती है, जिसके चलते कोई भी व्यवसायी जलयान उतारने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। बनारस के पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, "टैक्स पेयर का अरबों रुपये खर्च करने के बावजूद राष्ट्रीय जलमार्ग प्राधिकरण इस योजना को रफ्तार नहीं दे सका। साल भर जल की समुचित मात्रा का आभाव, माल परिवहन के लिए जलयानों की कमी, उचित टर्मिनल, रैंप और मकैनिकल हैंडलिंग के आभाव में इस योजना ने दम तोड़ दिया है।"

फ्रेट विलेज का मामला तब से गरमाता जा रहा है जब चंदौली के सपा सांसद वीरेंद्र सिंह ने इस मुद्दे को संसद में जोरदार ढंग से उठाया है। किसानों के पक्ष में उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पोत परिवहन और जलमार्ग मंत्री सर्बानंद सोणोवाल ने को चिट्ठी भेजी है। मोदी और सोणोवाल ने सांसद के पत्र का जवाब देते हुए कहा है, "बनारस में जल परिवहन बंदरगाह के विस्तारीकरण के दौरान वहां के किसानों और गरीबों की समस्याओं के मामले का निस्तारण करने के लिए संबंधित अधिकारी को आवश्यक कार्रवाई करने के लिए निर्देश दिया गया है। सांसद वीरेंद्र सिंह के संसद में कड़े विरोध के बावजूद सरकार और प्रशासन ने इस परियोजना को रद्द करने के लिए कोई पहल नहीं की है।"




सांसद वीरेंद्र सिंह ने सबरंग इंडिया से बातचीत करते हुए कहा, "हमने संसद को बताया था कि बनारस में जल परिवहन परियोजना की सफलता 001 फीसदी है। इस बंदरगाह को किसी प्राइवेट कंपनी को देने की बात चल रही है। इसी के विरोध में हमने पीएम और जलशक्ति मंत्री को चिट्ठी भेजी है। हम किसानों और मछुआरों के हितों की लड़ाई सड़क से संसद तक लड़ेंगे। पीएम नरेंद्र मोदी एवं पोत परिवहन और जलमार्ग मंत्री सर्बानंद सोणोवाल ने हमारे पत्र के जवाब में कहा है कि हम इस पर कार्रवाई कर रहे हैं। अगर किसानों के साथ जोर जबर्दस्ती की गई तो हम पोत परिवहन और जलमार्ग मंत्री सर्बानंद सोणोवाल से बात करेंगे। हमें लगता है कि यह पूंजीपतियों को उपकृत करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी फ्रेट विलेज के बहाने गांवों को उजाड़ देना चाहते हैं। बीजेपी सरकार को किसानों से कोई लेना-देना नहीं है। इन्हें पता है कि गंगा में सर्दी और गर्मी के दिनों में जलपोत चलाने लायक पानी नहीं रहता है। ऐसे में फ्रेट विलेज के नाम पर गांवों को उजाड़ने की जरूरत क्यों है? "

सांसद वीरेंद्र यह भी कहते हैं, "सिर्फ बड़ा ख्वाब देख लेने भर से कुछ नहीं होता। जब गंगा में पानी ही नहीं और उसमें जलपोत चल नहीं सकते तो टैक्सपेयर का पैसा बेवजह क्यों उड़ाया जा रहा है। एक योजना फ्लाप हो गई तो दूसरी फ्रेट विलेज की योजना क्यों और किसके लिए लाई जा रही है? किसानों की जमीनें छीनने से पहले सरकार इस आशय का श्वेतपत्र जारी करे कि रामनगर में बंदरगाह के लोकार्पण के बाद गंगा में कितने जलपोत चले? कितना माल ढोया गया और सरकार को कितना मुनाफा हुआ? हमें लगता है कि सिर्फ सरकारी धन के बंदरबांट के लिए फ्रेट विलेज योजना की बनाई गई है। हालात ऐसे ही रहे तो एक वो भी दौर आएगा जब वाटर-वे परियोजना की मशीनें कबाड़ में बेचनी पड़ेंगी। तब शायद इन मशीनों को खरीदने वाले कबाड़ी भी नहीं मिल पाएंगे...!"

 (विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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