रोटी को तरसते हाथ: बनारस के मुस्लिम फनकारों की आंखों में मायूसी, फिसलता जा रहा बैज बनाने का हुनर-ग्राउंड रिपोर्ट

Written by विजय विनीत | Published on: February 22, 2025
पहले यूक्रेन से बड़े ऑर्डर मिलते थे, पर युद्ध के बाद वे बंद हो गए। जापान, कोरिया, अमेरिका और ब्रिटेन से कुछ ऑर्डर मिल रहे हैं, लेकिन मजूरी इतनी कम है कि लागत निकालना मुश्किल हो गया है।



बनारस की ऐतिहासिक गलियों में कभी कारीगरी की जो चमक थी, वह अब मंद पड़ती जा रही है। खासतौर पर जरदोजी का वह लहलहाता कारोबार, जिसने कभी अमेरिका के पेंटागन से लेकर यूरोप की गलियों तक अपनी छाप छोड़ी थी, अब बस एक बुझती हुई चिंगारी बनकर रह गया है। एक समय था जब शिवाला और चौहट्टा के मुहल्लों में सैकड़ों कारखाने जरदोजी के काम से गुलजार रहते थे। इस मुहल्ले के लोग जरी से बिल्ला बनाने के माहिर फनकार थे, लेकिन वक्त और हालात ने इन्हें वहां पहुंचा दिया, जहां इस कला को लंबे समय तक जिंद रख पाना आसान नहीं है। आज, मुश्किल से बैज बनाने वाले दस-पंद्रह कारखाने बचे हैं, जहां दिनभर मेहनत करने के बावजूद कारीगर मुश्किल से दो-ढाई सौ रुपये कमा पाते हैं।

शिवाला की गली में कदम रखते ही एक अजीब-सी उदासी और बीते वक्त की महक महसूस होती है। दीवारों पर चूने की पुरानी परतें झर रही हैं, गलियों में हल्की सीलन और गीली मिट्टी की गंध बसी हुई है। एक संकरी, सीलन भरी कोठरी में हल्की रोशनी झांक रही थी। भीतर दो लोग कारचोप पर झुके हुए बिल्ले पर कढ़ाई कर रहे थे। उनके हाथों की हरकतें मशीनी थीं, मगर आंखों में एक अजीब-सा सूनापन था। यह कोठरी एक कारखाना था, जहां कपड़े पर बैज की कढ़ाई की जाती है।

बैज बनाने वाले इस कारखाने में हमें मिले 63 वर्षीय सैयद माजिद अली। उनकी आंखों में पुरानी यादों की चमक थी, मगर आवाज में एक हल्का दर्द भी झलक रहा था। वे बताते हैं, "हमारे दादा हाफिज वाहिद अली के जमाने से यह इंब्रायडरी का काम चला आ रहा है। ब्रिटिशकाल में यह खूब फला-फूला। मेरे पिता सैयद शाहिद अली ने इसे आगे बढ़ाया, पर अब यह विरासत बचाना कठिन हो गया है।" दरवाजे की तरफ इशारा करते हुए वे कहते हैं, "पहले यहां बोर्ड टंगा था—'न्यू गोल्डेन इंब्रायडरी वर्क्स, शिवाला, वाराणसी'—अब वह भी गिर गया।"

सीलन भरी कोठरी में जिंदगी की जद्दोजहद

कमरे में धूल जमी थी, एक पुराना टेपरिकॉर्डर और लकड़ी की अलमारियां अतीत की कहानियां कह रही थीं। माजिद अली ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, "देखिए, हमारी हालत क्या हो गई है? हमारा घर कैसे चलता होगा?" उनकी उदास हंसी में गहरे दर्द की परतें साफ झलक रही थीं।

अंतिम पड़ाव की ओर बढ़ता एक दौर

माजिद अली बताते हैं, "19वीं सदी में बनारस में बैज बनाने की कला काफी लोकप्रिय थी। तब करीब 50 हजार मुस्लिम फनकार इस काम में लगे थे, लेकिन सरकार की बेरुखी के चलते यह कारोबार सिमट गया। अब मुश्किल से 60 लोग बैज बनाते हैं। बनारसी बैज जैसी कारीगरी दुनिया में कहीं नहीं मिलती।"

अब यह धंधा इतना कमजोर हो गया है कि इससे गुजारा मुश्किल हो गया है। एक कारीगर दिनभर में मुश्किल से एक-डेढ़ बैज बना पाता है, और मेहनताना मात्र दो-तीन सौ रुपये। पहले एक-डेढ़ रुपये की मजूरी भी घर चलाने के लिए काफी थी, लेकिन अब तीन-चार सौ रुपये में गुजारा करना नामुमकिन हो गया है।

पहले यूक्रेन से बड़े ऑर्डर मिलते थे, पर युद्ध के बाद वे बंद हो गए। जापान, कोरिया, अमेरिका और ब्रिटेन से कुछ ऑर्डर मिल रहे हैं, लेकिन मजूरी इतनी कम है कि लागत निकालना मुश्किल हो गया है।

माजिद अली के कारखाने में तीन कारचोप थे, जिन पर बैज और कार के झंडों की कढ़ाई हो रही थी। उन्होंने वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर के कुलपति की कार के लिए बनाया गया एक झंडा दिखाते हुए कहा, "हमारी कढ़ाई की महीन कला का अस्तित्व बचाने की लड़ाई जारी है, लेकिन मुकाबला अब चीन के कलाकारों से है। सरकार का सहयोग नहीं मिल रहा, जबकि पहले हमें सब्सिडी मिलती थी। अब हर चीज पर जीएसटी लग गया है।"

जरी से निर्मित इंग्लैंड का फ्लैग

माजिद अली के तीन बेटे हैं। बड़ा बेटा राहिल अली दुबई में फैशन डिजाइनर है, जबकि आदिल और सुऐब अख्तर प्राइवेट नौकरी करते हैं। माजिद कहते हैं, "हमने अपने बच्चों को यह हुनर नहीं सिखाया, क्योंकि हमें इसका भविष्य पता था। पहले बैज बनाने पर अनुदान मिलता था, अब सिर्फ जीएसटी का बोझ रह गया है।"

माजिद अली के कारखाने में काम कर रहे 55 वर्षीय मोहम्मद रिजवान ने कहा, "मैं दस साल की उम्र से यह काम कर रहा हूं। पहले बड़े-बड़े ऑर्डर मिलते थे, अब सिर्फ लोकल काम बचा है। उसी से किसी तरह परिवार चल रहा है।" उनके चेहरे की झुर्रियां मेहनत की गवाही दे रही थीं, और उनकी बुझती आंखों में एक पुरानी चिंगारी अब राख बनने को थी।

रिजवान बताते हैं, "अगर दो-ढाई सौ रुपये का काम मिल जाए तो खुद को खुशकिस्मत समझते हैं। लेकिन हारी-बीमारी का खर्चा सिर पर आ जाए तो कलेजा मुंह को आने लगता है। पहले भदैनी मुहल्ले में करीब तीन सौ लोग जरदोजी का काम करते थे, अब मुश्किल से आठ-दस फनकार बचे हैं। यहां पेंटागन के बिल्ले भी बनते हैं। पेंटागन यानी अमेरिकी सेना। हालांकि उन्होंने कहा कि अब काम में कोई दम नहीं है। बाहर के ऑर्डर लगातार कम होते जा रहे हैं। एक्सपोर्ट आदि को लेकर भी कई परेशानियां खड़ी होने लगी हैं। लेकिन हम काम इसलिए चला रहे हैं क्योंकि इसके अलावा पेट के लिए और कोई धंधा नहीं कर सकते।"

इस छोटे से कारखाने की खामोशी और बीते कल की यादें यह इशारा कर रही थीं कि एक दौर अपने अंतिम पड़ाव पर है। बनारस की गलियों में फैली यह कला धीरे-धीरे सिमट रही है, और इसके साथ ही खत्म हो रही हैं उन हाथों की कहानियां, जिन्होंने कभी इस शहर को अपने हुनर से रोशन किया था।

दम तोड़ रही बनारस की शाही कला

ज़री से बैज बनाने की बनारस की पारंपरिक कला मुगलकाल में पनपी। पहले सोने और चांदी के धागों का उपयोग करके सुंदर बैज बनाए जाते थे। इस कला का उद्गम प्राचीन फारस (वर्तमान ईरान) में हुआ, जहां से यह भारत में आई। 'ज़री' शब्द का अर्थ सोना है, जबकि 'ज़रदोज़ी' का अर्थ है सोने के धागों से कढ़ाई करना।

ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार, ज़री और ज़रदोज़ी कढ़ाई का प्रचलन भारत में प्राचीन काल से रहा है। मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल (16वीं सदी) में इस कला को विशेष प्रोत्साहन मिला, जिससे यह शाही परिधानों और सजावटी वस्त्रों का अभिन्न हिस्सा बन गई। हालांकि, औरंगज़ेब के शासनकाल में इस कला में गिरावट आई, लेकिन बाद में इसे फिर से पुनर्जीवित किया गया।

बनारस की डिज़ाइन स्थानीय कला, संस्कृति और परंपराओं से प्रेरित होती हैं, जो इस क्षेत्र की समृद्ध विरासत को दर्शाती हैं। ज़रदोज़ी की डिज़ाइन बनाने की कला अनूठी है। सबसे पहले मक्खन कागज पर पेंसिल से डिज़ाइन तैयार किया जाता है, फिर सुई की मदद से डिज़ाइन की रूपरेखा पर छोटे छेद किए जाते हैं। कपड़े को 'अड्डा' नामक लकड़ी के फ्रेम पर कसकर बांधा जाता है। फिर कारीगर लंबे सुई और धागे की मदद से डिज़ाइन पर कढ़ाई शुरू करते हैं, जिससे बैज बनाया जाता है।

दम तोड़ रही अनूठी कला

हालांकि, पारंपरिक तकनीकों की समय और श्रम-साध्य प्रकृति के कारण, उत्पादन में कमी आई है। इस चुनौती से निपटने के लिए, नए कारीगरों को प्रशिक्षित करने में सरकार की दिलचस्पी नहीं है, ताकि वे अधिक समय-कुशल तकनीकों का उपयोग कर सकें, जिससे इस सुंदर कला का संरक्षण और संवर्धन हो सके। बनारस की ज़री से बैज बनाने की कला भारतीय सांस्कृतिक विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थी, जो अपनी सुंदरता और शिल्प कौशल के लिए विश्वभर में प्रशंसित रही है।

समय के साथ हर कला ने खुद को नए स्वरूप में ढाला, लेकिन बनारस में ज़री से बैज बनाने की कला धीरे-धीरे विलुप्त होने की ओर बढ़ रही है। यह हम नहीं, बल्कि ज़रदोज़ी से जुड़े कारीगर खुद कह रहे हैं। उनका मानना है कि अगर इस कला पर ध्यान नहीं दिया गया तो वह दिन दूर नहीं जब बनारस में कभी ज़री-ज़रदोज़ी का काम हुआ करता था, यह सिर्फ इतिहास बनकर रह जाएगा।

ज़री से बैज बनाने की कला को समझने के लिए हमने बनारस के पठानीटोला इलाके का दौरा किया। यहां की तंग गलियों में ज़रदोज़ी का काम करने वाले कारीगर रहते हैं। बातचीत में उन्होंने बताया कि अब मुनाफा उतना नहीं होता, जिससे घर चलाना मुश्किल हो गया है। एक कारीगर ने कहा, "हर कला को सरकार से सहयोग मिला, लेकिन ज़रदोज़ियों को भुला दिया गया। आज जब कोई और रास्ता नहीं बचता, तो ज़रदोज़ कोई दूसरा काम करने को मजबूर हो जाता है।"

ज़रदोज़ बताते हैं कि पहले इस पेशे में सैकड़ों मुस्लिम कारीगर थे, लेकिन आज मुश्किल से 50-60 से भी कम बचे हैं। नई पीढ़ी इस काम में नहीं आना चाहती क्योंकि इसमें मेहनत अधिक और आमदनी कम है। एक युवा कारीगर ने कहा, "हमारे पिता और दादा इसी पेशे में थे, लेकिन अब हम इसमें भविष्य नहीं देखते। मजबूरी में ही कुछ लोग इसे कर रहे हैं।"

करीब 15 साल से इस काम में लगे इज़हार बताते हैं, "13 साल की उम्र में यह काम शुरू किया था। पहले ठीक था, लेकिन अब महंगाई बढ़ गई है। मजदूरी कम मिलती है, इसलिए जीवनयापन कठिन हो गया है। इसीलिए बहुत से लोग ऑटो चला रहे हैं या कोई और काम कर रहे हैं।"

बैज के कारोबारी मोहम्मद सागीर बताते हैं, "इस कला में नए कारीगर नहीं जुड़ रहे हैं। पुराने कारीगरों में से कुछ का निधन हो गया, कुछ ने काम बदल लिया। अब गिने-चुने लोग ही इस पेशे में बचे हैं। कुछ कारीगर ऑटो रिक्शा चला रहे हैं, कुछ ने चाय की दुकान खोल ली, और कुछ दूसरे शहरों में पलायन कर चुके हैं। कुछ फनकार बनारस से पलायन कर अहमदाबाद चले गए और वहां बैज के बजाय ज़रदोज़ी कर रहे हैं। वहां इन कारीगरों की काफी डिमांड है।"

संकरी गलियों में ज़रदोज़ी की पीड़ा

वाराणसी, भारत की सांस्कृतिक आत्मा, अपने हस्तशिल्प और परंपराओं के लिए जानी जाती है। यही वह शहर है, जिसके पास देश में सबसे अधिक जीआई टैग प्राप्त उत्पाद हैं। बनारसी साड़ियों की चमक और जरदोजी की कढ़ाई यहां की पहचान है। लेकिन इस सुनहरी कला के पीछे छुपे हैं वे हाथ, जो पीढ़ियों से इस विरासत को संजोए हुए हैं, और आज धीरे-धीरे गुमनामी के अंधेरे में धकेले जा रहे हैं।

वाराणसी के लल्लापुरा मोहल्ले की तंग गलियों में कुशल कारीगर पीढ़ियों से ज़रदोज़ी के अलावा बैज बनाने का काम कर रहे हैं। यह शिल्प दुनिया भर में प्रसिद्ध है। ये कारीगर बिल्ले, प्रतीक और वस्त्र तैयार करते हैं, जिनका उपयोग विदेशी गणमान्य व्यक्तियों, सैन्य अधिकारियों और प्रमुख धार्मिक हस्तियों द्वारा किया जाता है। वे ज़री (सोने और चांदी के धागे) और रेशम जैसी बारीक सामग्रियों का उपयोग कर अंतरराष्ट्रीय फैशन हाउस के कस्टम ऑर्डर भी पूरा करते हैं।

बनारस के एक कारीगर शकील ने बताया, "बनारसी ज़रदोज़ी को जीआई टैग मिला है। हमारे काम को 'बारदोज़ी' कहा जाता है। यह हमारे परिवार का तीसरी पीढ़ी का व्यवसाय है। मैं 15 वर्षों से इस शिल्प में लगा हूं। मेरे पिता और दादा भी यही काम करते थे, यह हमारे लिए सदी पुराना पेशा है। जीआई टैग मिलने के बाद हमारे हालात नहीं सुधरे। नतीजा, नये कारीगर भी अब इसमें ज्यादा रुचि नहीं ले रहे हैं।"

कारीगर शाह नवाज़ आलम बताते हैं कि वे ज़रदोज़ी के लिए ज़री और धातु के काम सहित विभिन्न तकनीकों का उपयोग करते हैं। वे कहते हैं, "ज़रदोज़ी पूरी तरह से हाथ से की जाने वाली कला है। वाराणसी के कुशल कारीगर इस शिल्प में विशेष विशेषज्ञता रखते हैं। पहले सोने-चांदी की ज़री से बैज बनाया जाता था और अब पीतल पर सोने के पानी वाले तारों का उपयोग कर बारीकी से बैज की कढ़ाई करते हैं। 'ज़री' सोने, चांदी और पीतल का मिश्रण है।" उन्होंने कहा कि एक बैच को तैयार करने में करीब बारह घंटे लगते हैं। वे बताते हैं, "हम यूरोप, अफ्रीका, अमेरिका समेत दुनिया के कई देशों के लिए ज़रदोज़ी के बैच तैयार करते हैं।"


जरदोजी, जो कभी नवाबों और बादशाहों के लिबास की शान थी, आज भी यूरोप, खाड़ी देशों और एशिया के बाजारों में अपनी अलग पहचान बनाए हुए है। जीआई विशेषज्ञ और पद्मश्री से सम्मानित डॉ. रजनीकांत बताते हैं, "काशी में आज भी विदेशी गणमान्य व्यक्तियों के लिए बैज, मोनोग्राम, प्रतीक चिन्ह और झंडों की कारीगरी होती है।"

2018 में जब फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों वाराणसी आए थे, तब महिला बुनकरों ने उनके सामने फ्रांस के प्रतीक चिन्ह की जरदोजी कढ़ाई प्रस्तुत की थी। जब मैक्रों ने देखा कि किस तरह धागों और ज़री से यह खूबसूरत कला उकेरी जा रही है, तो वे दंग रह गए। उन्होंने इसे स्वीकार किया और अपनी प्रसन्नता व्यक्त की। डॉ. रजनीकांत कहते हैं, "प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘लोकल से ग्लोबल’ मंत्र से अब विदेशों से लोग सीधे वाराणसी के मास्टर कारीगरों से संपर्क कर रहे हैं।"

बिखर रही सुनहरे धागों से बुनी तकदीर

कभी बनारस की तंग गलियों में कारीगरों की उंगलियां सोने-चांदी के तारों से ऐसे बैज गढ़ती थीं, जो शान और गरिमा का प्रतीक होते थे। पूरी दुनिया की फौजें—अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, जर्मनी, फ्रांस—यहां के दस्तकारों के बनाए बैज और मोनोग्राम पहनकर गर्व महसूस करती थीं। बनारस की जरदोजी सिर्फ फैशन का हिस्सा नहीं थी, बल्कि यह वर्दी का मान और सेना की पहचान थी।

जरदोजी का काम बनारस की तंग गलियों में सदियों से फलता-फूलता रहा है। कभी जिन कारीगरों के घरों में शिल्पकला की रोशनी थी, आज वहां अंधेरा है। लेकिन वक्त की मार ऐसी पड़ी कि इस हुनर को बचाए रखना अब संघर्ष बन गया है। पहला झटका तब लगा जब गाजियाबाद में मशीन से बैज बनाने का काम शुरू हुआ। मशीनों ने हाथ के बनाए बारीक और महीन काम की जगह लेनी शुरू कर दी। धीरे-धीरे सरकार और सैन्य संगठनों के बड़े ऑर्डर भी मशीनों से बनने वाले बैजों की तरफ मुड़ गए।

फिर चीन ने इस बाज़ार में घुसपैठ कर ली। सस्ते और थोक में बनने वाले बैजों ने हाथ से बनी इस कला को गहरी चोट दी। सस्ते दाम और तेज़ उत्पादन की होड़ में बनारस के दस्तकार पीछे छूटते गए। जिन उंगलियों ने दशकों तक बारीक जरदोजी के जरिए दुनिया के फौजी अफसरों और सैनिकों के सीने पर गर्व के तमगे बनाए थे, आज वही उंगलियां मजबूरी में अधूरे सपनों को टटोल रही हैं।

आज हालत यह है कि जिन गलियों में बैज बनाने की गूंज थी, वहाँ अब सन्नाटा पसरा है। सैकड़ों कारीगरों के घरों में चूल्हे ठंडे पड़ गए हैं। पहले जहाँ एक बैज कारीगर सम्मानजनक कमाई कर लेता था, अब वे "हैंड टू माउथ" की स्थिति में आ गए हैं। मेहनत उतनी ही, लेकिन दाम आधे से भी कम। मजबूरी में कइयों ने ये काम छोड़ दिया, तो कुछ अब भी उम्मीद लगाए बैठे हैं कि शायद कभी पुराने दिन लौट आएं।

पत्रकार अतीक अंसारी की चिंता वाजिब है। वे कहते हैं, "बनारस की वे गलियां, जो कभी जरदोजी के सुनहरे धागों से रोशन थीं, अब गुमनामी की कगार पर हैं। लेकिन विडंबना देखिए, जिन हाथों की कारीगरी विदेशी नेताओं को प्रभावित कर रही है, वे ही हाथ आज आर्थिक तंगी और उपेक्षा के शिकार हैं। ब्रिटेन, अमेरिका, बेल्जियम, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी और रूस तक बनारसी जरदोजी की चमक बिखरी थी, लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण कई बाजार ठप हो गए हैं। दशकों से इस शिल्प में लगे मुस्लिम परिवार अब असमंजस में हैं—क्या वे इस कारीगरी को जिंदा रख पाएंगे? या फिर यह भी बस किताबों और संग्रहालयों तक सीमित हो जाएगी?"

अतीक यह भी कहते हैं, "जरदोजी के काम में धैर्य, सटीकता और लगन चाहिए। यह सिर्फ कढ़ाई नहीं, बल्कि संस्कृति की बुनाई है। जरी से बैज बनाने की परंपराओं की यह कसीदाकारी अगर समय रहते संभाली न गई, तो मशीनों की ठक-ठक में इंसानी हाथों की यह बारीकी खो जाएगी। जरूरत है कि सरकार, समाज और स्थानीय उद्योग इस पारंपरिक कला को संजोने के लिए आगे आएं। नहीं तो वह दिन दूर नहीं, जब बनारस की ये जरदोजी की गलियां भी सिर्फ एक कहानी बनकर रह जाएंगी—एक अधूरी, उदास, बीते वक़्त की कहानी।"

(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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