विकास या विनाश: मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट के लिए बुलडोज़र के तले कुचली जा रही हैं बनारस की दलित बस्तियां, कोई सुनने वाला नहीं-ग्राउंड रिपोर्ट

Written by विजय विनीत | Published on: January 20, 2025
“हमारी जिंदगी के न जाने कितने बरस शहर की गलियों में झाड़ू लगाते गुजर गए। अचानक हमें घर छोड़कर जाने को कहा गया, तो दिल की धड़कन तेज हो गई और हम बेहोश हो गए...।"



“बदबू, सड़न, गंदगी...साथ में बीमारियों का टीला। कभी कूड़े का पहाड़ हटाते हैं, तो कभी जान जोखिम में डालकर जहरीली गैस से भरे चैंबरों में घुसकर सफाई करते हैं। हम नर्क से इसलिए गुजरते हैं ताकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बाबा का ये शहर बनारस साफ रहे। साल 2023 में हमारे घरों पर नोटिसें चस्पा की गईं, और नगर निगम प्रशासन ने हमें नए साल का तोहफा 17 जनवरी 2025 को हमारी बस्ती पर बुलडोजर चलाकर दिया। हमें न तो सरकार कोई कायदे का ठिकाना दे रही है और न ही किरायेदार। जो कोई सुनता है कि हम गटर साफ करते हैं और झाड़ू लगाते हैं, तो दरवाजा बंद कर लेता है। घर टूटने वाला है, लेकिन यहां से जाएं कहां?”

यह व्यथा माया की है, जो बनारस के आईडीएच-कज्जाकपुरा की दलित बस्ती में रहती थीं और गलियों में झाड़ू लगाने का काम करती थीं। प्रशासन ने पीएम मोदी के एक ड्रीम प्रोजेक्ट के लिए दलितों की एक और बस्ती पर बुल्डोजर चलवा दिया। माया कहती हैं, “हमारी जिंदगी के न जाने कितने बरस शहर की गलियों में झाड़ू लगाते गुजर गए। अचानक हमें घर छोड़कर जाने को कहा गया, तो दिल की धड़कन तेज हो गई और हम बेहोश हो गए। सोचा कि किराए का मकान ही ढूंढ लें। कई घरों का दरवाजा खटखटाया। काफी तलाश के बाद मुझे एक कमरा मिला। जब मैंने मकान किराए पर लेने की इच्छा जताई, तो मुझसे पूछा गया कि आप किस जाति से हो और क्या करती हो? यह सवाल मुझे अटपटा लगा और गुस्सा भी आया, लेकिन मकान लेने की मजबूरी और असहाय होने की वजह से मेरा गुस्सा मेरे अंदर ही दफन हो गया।”

"कई घरों के दरवाज़े खटखटाए और हर जगह इसी तरह के सवाल किए गए। कई लोगों ने तो अंदर आने के लिए दरवाजा तक नहीं खोला। लोग हमें कमरा नहीं देना चाहते, क्योंकि हम कूड़े-कचरे का ढेर साफ करते हैं। मेरे मन में अजीब तरह का एक डर भी पैदा हो गया है। एक तरफ घर खाली करने का दबाव और दूसरी तरफ नगर निगम के बुलडोज़र के खौफ ने हमारी रातों की नींद और दिन का चैन छीन लिया है।"

"पहले बसाया, फिर उजाड़ दिया"

आईडीएच-कज्जाकपुरा, बनारस का वह इलाका जहां नगर निगम के आदमपुर जोन का दफ्तर है और उसके बगल में एक विशाल कूड़ाघर। इस कूड़ेघर के पीछे बसी सफाई कर्मचारियों की वह बस्ती, जहां 250 से अधिक जिंदगियां रहती थीं, आज उजाड़ दी गई है। दलित (हेला) समुदाय के ये लोग, जो दिन-रात बनारस की सफाई में जुटे रहते हैं, अब बेघर कर दिए गए हैं। वाराणसी नगर निगम ने इसी बस्ती को 2005 में बसाया था और अब उसी ने इसे अवैध घोषित कर दिया है। बस्ती पर बेदखली का नोटिस चस्पा कर, 17 जनवरी 2025 को बुलडोज़र चला दिया गया।

इस बस्ती की कहानी 2004 में शुरू हुई, जब ग्रैंडटैंक रोड के चौड़ीकरण के दौरान सड़क किनारे रहने वाले इन सफाई कर्मचारियों को वहां से हटा दिया गया। उस समय तत्कालीन नगर आयुक्त पुष्यपति सक्सेना ने मानवीय आधार पर आदेश जारी किया था कि इन लोगों को आईडीएच-अस्पताल परिसर में रहने दिया जाए, जब तक कि इनके लिए दूसरी जमीन की व्यवस्था न हो। लेकिन 20 साल बीत जाने के बाद भी इन्हें स्थायी ठिकाना नहीं दिया गया। और अब, बेदखली के फरमान ने उनकी जिंदगी पर कहर बरपा दिया है।


16 नवंबर 2023 को नगर निगम के उप प्रभारी अधिकारी (राजस्व) ने बस्ती में नोटिस चस्पा कर चेतावनी दी थी कि जमीन खाली कर दें। नोटिस में कहा गया था कि झुग्गी-झोपड़ी बनाकर किए गए अतिक्रमण को 23 नवंबर 2023 तक खुद हटा लें, नहीं तो अतिक्रमण विरोधी दस्ते द्वारा कार्रवाई की जाएगी। लोगों ने इस चेतावनी को नजरअंदाज नहीं किया, बल्कि उनकी मजबूरी थी कि वे कहां जाएं? लेकिन 17 जनवरी 2025 को बुलडोज़र ने उनकी मजबूरी और उम्मीद, दोनों को रौंद दिया।

बनारस में झुग्गी-झोपड़ियों को उजाड़ने का यह सिलसिला तब से तेज हुआ, जब खिड़किया घाट पर मल्लाहों और दलितों की बस्ती हटाकर नमो घाट बनाया गया। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के निर्माण के दौरान मणिकर्णिका घाट के पास की दलित बस्ती को उजाड़ा गया। फिर किला कोहना और करसड़ा की मुसहर बस्ती को हटाया गया। और अब, कज्जाकपुरा की बारी आई। आगे नक्खीघाट की दलित बस्ती को निशाना बनाया जा रहा है।

ऐसे चला बुल्डोजर

कड़ाडे की ठंड के मौसम में सुबह की उस उदास घड़ी में, जब कज्जाकपुरा के मलिन बस्ती में लोग अपनी झोपड़ियों के भीतर सर्दी से बचने की कोशिश कर रहे थे, नगर निगम का प्रवर्तन दल आ धमका। 17 जनवरी की सुबह, यह दिन उन 40 परिवारों के लिए तबाही लेकर आया, जिन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि एक झटके में उनकी मेहनत से बनाई छोटी-सी दुनिया उजड़ जाएगी।

"हम कहां जाएंगे?" यह सवाल आंखों में आंसू लिए 55 वर्षीय आशा देवी ने पूछा। पिछले 20 सालों से वह यहां रह रही हैं। उनका दर्द छलक पड़ा, "2005 में सड़क किनारे से हमें यहां लाया गया था। कहा गया था कि आपको मकान मिलेगा। हमने विश्वास कर लिया और झोपड़ियां बनाई। धीरे-धीरे अपने पैसे जोड़कर ईंट-मिट्टी से दीवारें खड़ी कीं। अब, हमें जबरदस्ती यहां से निकाला जा रहा है। गंगा किनारे जो जगह दी जा रही है, वो चार महीने तक पानी में डूबी रहती है। हम वहां कैसे जिएंगे?"


बस्ती में रोने-चीखने की आवाजें गूंज रही थीं। बच्चे अपनी किताबों और खिलौनों के लिए रो रहे थे, और महिलाएं अपनी गृहस्थी समेटने में लगी थीं। जिन हाथों ने दिन-रात मेहनत करके इन दीवारों को खड़ा किया था, वे आज बेबसी से इन्हें टूटते देख रहे थे। कमला, जो तीन बच्चों की मां हैं, ने कहा, "हम सफाईकर्मी हैं। हमें कोई किराए पर मकान नहीं देता। अब हम क्या करें? नगर निगम कहता है कि गंगा किनारे जाओ। वहां न स्कूल है, न अस्पताल, और बाढ़ आती है तो सबकुछ बह जाएगा। ये कैसा न्याय है?"

स्थानीय निवासियों ने 2005 के उस पत्र को दिखाया, जिसमें तत्कालीन नगर आयुक्त ने आश्वासन दिया था कि सफाईकर्मियों के लिए उचित आवास की व्यवस्था होगी। पत्र में कहा गया था कि बारिश के मौसम को देखते हुए इन्हें अस्पताल परिसर में अस्थायी तौर पर रखा जाए और जल्द ही उनके लिए स्थायी जमीन का चयन किया जाएगा। लेकिन यह वादा आज तक अधूरा है।

राजस्व विभाग के अधिकारी शोभनाथ यादव से जब इस पर सवाल किया गया, तो उन्होंने मीडिया से बात करने से साफ इनकार कर दिया। मौके पर मौजूद नगर निगम के कर्मचारियों ने हथौड़े और औजारों से घर तोड़ने का काम जारी रखा।

औरतों की नींद-चैन गायब

दलित बस्ती की 40 वर्षीय अनीता जब यह कहती हैं, "जब हमारे पास घर नहीं होगा और उम्र ढल जाएगी तो कैसे जिंदा रहेंगे?" तो उनकी आवाज़ में बसी बेबसी हर सुनने वाले का दिल झकझोर देती है। सफाई कर्मचारी अनीता की ज़िंदगी पहले से ही कठिन थी, लेकिन बेदखली की नोटिस ने उनकी नींद और चैन छीन लिया। उनकी 37 वर्षीय बहन ज्योति, जो दिमागी रूप से कमजोर और हमेशा बीमार रहती है, अब और भी असहाय हो गई है। अनीता दिनभर कूड़ा साफ करके अपनी और बहन की ज़िंदगी किसी तरह चला रही थीं, लेकिन अब खुले आसमान के नीचे रो-रोकर उनका बुरा हाल है।

विमला और कमला की कहानी भी अनीता से जुदा नहीं है। 46 साल की विमला और 41 साल की कमला अविवाहित हैं और संविदा पर गलियों की सफाई का काम करती हैं। विमला कहती हैं, "हम किस पीड़ा से गुजर रहे हैं, यह उसी को समझ आएगा जो हमारे हालात से गुजरा हो। अपनी झोपड़ी खाली करना और फिर किराये का मकान ढूंढना हमारे लिए पहाड़ तोड़ने जैसा है।" उनकी बातों में एक गहरी नाराजगी झलकती है। वह कहती हैं, "सरकार गरीबी मिटाने के बजाय गरीबों को ही मिटाने में लगी है। दलितों के साथ यह भेदभाव गैर-कानूनी है। हम अगले विधानसभा चुनाव में मोदी-योगी और बीजेपी का विरोध करेंगे।"

45 साल की ऊषा, जिनके पति का निधन हो चुका है और इकलौती बेटी ससुराल में रहती है, दर्द से कहती हैं, "सरकार हमें ऐसे स्थान पर भेज रही है, जो हर साल गंगा की बाढ़ में डूब जाता है। अगर हमें कायदा का ठिकाना नहीं दे सकते, तो गंगा में फेंकवा दें। कम से कम झुग्गी-झोपड़ी खड़ा करने की जगह ढूंढनी नहीं पड़ेगी। यह सरकार गरीबों को सता रही है। यहां मॉल बनेगा, लेकिन उसकी दुकानें क्या हम जैसे गरीब खरीद पाएंगे? दौलतमंद ही दुकान लेंगे और वही मुनाफा कमाएंगे।"


सफाई कर्मचारी किरन का दर्द भी अलग नहीं है। वह कहती हैं, "किराये पर मकान ढूंढने में हज़ारों दिक्कतें आ रही हैं। कई मकान मालिक एडवांस लेकर भी मकान देने से मना कर देते हैं। कोनिया इलाका जो हमेशा गंदगी से बजबजाता है, वहां भी हमें कमरा नहीं मिल रहा। ऊपर से नगर निगम रोज धमकाता है कि झोपड़ी छोड़ दो, वरना बुलडोज़र का खर्चा भी हमसे वसूलेगा।"

दलित बस्तियों में पसरा मातम और टूटते सपने बनारस की उस तस्वीर को उजागर करते हैं, जिसे विकास के चकाचौंध में अनदेखा कर दिया गया है। कज्जाकपुरा की दलित बस्ती में, जहां महिलाएं अपने परिवारों को बचाने के लिए संघर्ष कर रही हैं, वहां हर चेहरा बेबस है। दलित फाउंडेशन की ममता कुमार साफ शब्दों में कहती हैं, "बनारस की सरकार दलित बस्तियों को दाग समझती है। बुलडोज़र का शोर उनकी आवाज़ को दबाने का नया तरीका बन गया है।"

उनका दर्द तब और बढ़ जाता है जब वे यह कहती हैं, "यहां विकास का गुजरात मॉडल ऐसा है कि वंचित तबके को उजाड़ने की सनक में गरीबों की पूरी ज़िंदगी रौंदी जा रही है। हमारी संस्कृति और परंपराओं से सरकार को कोई सरोकार नहीं है। जब विश्वगुरु का आदेश आता है, तो बुलडोज़र बस्तियों पर गरजने लगता है। लेकिन सवाल यह है कि ये गरीब और दलित आखिर कहां जाएं?"

सिर्फ वोट बैंक बनकर रह गई हैं बस्तियां

थोड़ी देर की बातचीत के बाद बस्ती की महिलाओं ने अपनी तकलीफें बांटनी शुरू कीं। उनमें से एक ने कटाक्ष किया, "मोदी जी हमारी बस्ती में भी आएं और देखें कि हम रोज़ क्या झेल रहे हैं। नेता तभी आते हैं जब चुनाव की डुगडुगी बजती है। तब हर कोई यही पूछता है कि वोट किसे दोगे?"

शांति, रिंकी, मालती, रानी, और विजयलक्ष्मी जैसी महिलाएं, जो कम उम्र में विधवा हो गईं, अब बेदखली के कारण दोहरी मार झेल रही हैं। उनकी आंखों में आंसू थे जब उन्होंने कहा, "सबसे पहले हमारे घरों पर ही नोटिस चिपकाए गए और बुलडोज़र भी सबसे पहले हमारे घरों पर ही चला। हमें नहीं पता था कि वह नोटिस हमारी बर्बादी का परवाना बन जाएगा। ठंड के मौसम में हमारे सिर पर छत भी नहीं होगी। इतनी जिल्लत तो शायद अंग्रेजों के राज में भी नहीं हुई होगी।"

कज्जाकपुरा की लता देवी ने G-20 आयोजन के समय की घटनाओं को याद करते हुए कहा, "उस वक्त हमारी बस्ती को टेंट से ढक दिया गया था। हमें बाहर से सुंदर दिखाने की कोशिश की गई, लेकिन हमारी दुर्दशा को नज़रअंदाज़ कर दिया गया। हमारे पास स्थायी निवास प्रमाण-पत्र, वोटर आईडी, आधार कार्ड, और बिजली का बिल सब कुछ है। अगर हम अवैध थे, तो क्या पूर्व नगर आयुक्त की चिट्ठी झूठी थी? नगर निगम ने पहले कार्रवाई क्यों नहीं की?"

लता की आवाज़ में नाराजगी और दर्द दोनों थे। वह आगे कहती हैं, "बीजेपी के नेता अक्सर हमारी बस्ती में आकर हमें हिंदुत्व का पाठ पढ़ाते थे। लेकिन आज जब हम संकट में हैं, तो हमारे पक्ष में कोई खड़ा नहीं है। हम तो सरकार से सिर्फ इतना कह रहे हैं कि हमें जिल्लत भरी ज़िंदगी के मुहाने पर मत धकेलिए। हमें कोई ठिकाना दिला दीजिए, हम वहीं चले जाएंगे।"

बस्ती की बेचैनी अब हर गली और हर घर में दिखने लगी है। महिलाओं के माथे पर चिंता की लकीरें हैं और बच्चों की आंखों से उनके सपने गायब हो गए हैं। कई बच्चे परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, लेकिन अब किताबों से दूर हो गए हैं। बस्ती के एक बुजुर्ग ने कहा, "जब छत ही नहीं रहेगी, तो बच्चे कैसे पढ़ेंगे? पढ़ाई-लिखाई सब खत्म हो जाएगा। हमारी आने वाली पीढ़ी की ज़िंदगी अंधकार में धकेली जा रही है।"


कड़ाके की ठंड में आखिर हम कहां जाएं

ठंड के मौसम में नगर निगम द्वारा बस्ती कराए जाने के बाद सब के सब खुले आसमान के नीचे आ गए हैं। सफाईकर्मी प्रभात ने कहा, "बिना किसी वैकल्पिक व्यवस्था के अगर हमारी बस्ती उजाड़ दी गई तो हम अपने बच्चों और माता-पिता को लेकर कहां जाएंगे?"

राजकुमार, पिछले 20 वर्षों से कज्जाकपुरा दलित बस्ती में रह रहे थे। उन्होंने रोष व्यक्त करते हुए कहा, "हमारा अपराध क्या है? हमने अपनी मेहनत की कमाई से यहां झोपड़ियां बनाई थीं। नगर निगम ने खुद हमें यह जमीन दी थी। अब मॉल बनाने के नाम पर हमारे सिर से छत छीनी जा रही है।"

कज्जाकपुरा की यह बस्ती, जिसमें वाल्मीकि समुदाय के लगभग 45 परिवार रहते हैं, नगर निगम की 20 साल पुरानी योजना का हिस्सा थी। चौकाघाट-राजघाट मार्ग चौड़ीकरण के दौरान इन परिवारों को यहां बसाया गया था। उस समय नगर निगम ने वादा किया था कि उन्हें स्थायी रूप से यहां बसाया जाएगा और दोबारा नहीं हटाया जाएगा।

सफाईकर्मी बताते हैं कि उन्हें लगातार नोटिस दी जा रही थी और अचानक बुल्डोजर चला दिया गया। 23 नवंबर 2023 को मिली पहली नोटिस के बाद से उनका डर और बढ़ गया था। "नोटिस में लिखा है कि अगर हमने जमीन खाली नहीं की, तो बुलडोजर चलाकर बस्ती साफ कर दी जाएगी।"

बस्ती पर बुलडोजर चलने के खतरे को देखते हुए सफाईकर्मियों ने हाईकोर्ट का रुख किया है। हालांकि, नगर निगम का दबाव अब भी बना हुआ है। सफाईकर्मी रोज प्रशासन के चक्कर काट रहे हैं। उन्होंने जिलाधिकारी से मुलाकात की कोशिश की, लेकिन वह नहीं मिले। इसके बाद उन्होंने अपर नगर मजिस्ट्रेट द्वितीय से मिलकर अपनी समस्या बताई और बस्ती न उजाड़ने की गुहार लगाई।

बस्ती के निवासी इस समय घोर चिंता और बेबसी में हैं। सफाईकर्मी पूजा देवी ने कहा, "हम ठंड में अपने बच्चों को लेकर सड़क पर कैसे रहेंगे? कोई हमारी बात नहीं सुन रहा। नगर निगम ने 20 साल पहले हमें यहां बसाया और अब हमें अपराधी की तरह निकाला जा रहा है। क्या गरीब होना ही हमारा गुनाह है?"


बस्ती को बचाने के लिए मौन मार्च

दलित बस्तियों को बचाने के लिए कज्जाकपुरा और नक्खीघाट के लोगों ने 21 नवंबर, 2023 को मौन मार्च निकाला था और कलेक्टर को छह सूत्री मांग-पत्र भी सौंपा था। यहां के दलित समुदाय के लोग पिछले एक साल से यह मांग उठा रहे थे कि उन्हें उजाड़े जाने से पहले स्थायी रूप से बसाया जाए। उनकी मांग है कि तीन किमी के दायरे में मकान दिए जाएं, सफाई कर्मचारियों को मुफ्त बीमा और स्वास्थ्य सुविधाएं दी जाएं, बच्चों को मुफ्त शिक्षा मिलनी चाहिए और संविदा कर्मचारियों को स्थायी नियुक्ति दी जाए। बस्ती के लोग बताते हैं कि इस वैकल्पिक आवास की मांग को लेकर वे महापौर से भी मिले थे, लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई।

बनारस शहर में रोजाना करीब 600-700 टन गंदगी निकलती है। यह गंदगी शहर में डेंगू, मलेरिया, चिकनगुनिया, हैज़ा, टाइफाइड और हेपेटाइटिस जैसी घातक बीमारियों का कारण बनती है। बस्ती के लोग कहते हैं, "हमें पशुओं के मल-मूत्र, सड़े हुए खाद्य पदार्थ, धातुओं के टुकड़े, तार, अस्पतालों से निकला कूड़ा, कांच के टुकड़े और ब्लेड जैसी चीज़ों की सफाई करनी पड़ती है।" यह उनकी रोज़मर्रा की मेहनत है, जिसके लिए उन्हें कभी भी सराहना नहीं मिलती।


अपनी व्यथा को व्यक्त करते हुए शंकर कहते हैं, "दलितों की बस्तियां उजाड़ी जा रही हैं, लेकिन हमारा दर्द कोई नहीं समझता। शहर के कई नाले इतने गहरे हैं कि उनमें बड़ी गाड़ियां भी समा जाएं। सर्दियों में जब हम सफाई कर्मी अपना काम पूरा कर नालों से बाहर निकलते हैं, तो ठंड से कांपते हैं। नालों में उतरते वक्त अंदर घुप अंधेरा होता है और बाहरी दुनिया से संपर्क पूरी तरह टूट जाता है। जहरीली गैसों की चपेट में आने या फिसल जाने का खतरा हमेशा बना रहता है। कई बार तो हम बेहोश हो जाते हैं। जलकल विभाग ने गटर साफ करने के लिए कई साल पहले मशीनें मंगाई थीं, लेकिन अब वो शो-पीस बन चुकी हैं। हमने सुना है कि अमेरिका में गटर साफ करने वालों का वेतन बड़े अफसरों से भी ज्यादा होता है, और वहां मशीनों से सफाई होती है, लेकिन यहां हम आज भी गटर में उतरते हैं।"

इस सिलसिले में हमने एक्टिविस्ट प्रभात कुमार से मुलाकात की। उन्होंने कज्जाकपुरा बस्ती के लोगों की पीड़ा को लेकर कहा, “समाज हमें हेय नजरिए से देखता है। कई बार कड़ी धूप या बारिश में सफाई का काम करना पड़ता है। कूड़े के डंपिंग ग्राउंड के आसपास न तो कैंटीन है, न ही चेंजिंग रूम जैसी कोई सुविधा, ताकि सफाई कर्मी आराम कर सकें या अपने कपड़े बदल सकें। सभी कूड़ाघर बदबू और गंदगी से भरे रहते हैं। ये कूड़ाघर अपनी क्षमता से अधिक भरे होते हैं। हमें इतना वेतन या मानदेय नहीं मिलता कि हम अपने परिवार की ठीक से परवरिश कर सकें। नगर निगम के स्थायी सफाई कर्मचारियों की रोज़ी-रोटी तो चल जाती है, लेकिन संविदा कर्मियों की जिंदगी पहाड़ जैसी है।"

गरीब चुका रहे विकास की कीमत

दलित फाउंडेशन से जुड़े अनिल कुमार कहते हैं, "जिस तरह से मणिकर्णिका घाट, खिड़किया घाट, किला कोहना और करसड़ा में वंचित तबके के लोगों को विकास परियोजना की कीमत चुकानी पड़ी, वही हाल कज्जाकपुरा के दलितों का हुआ। बुनियादी ढांचों की बड़ी-बड़ी परियोजनाओं पर ही ध्यान देने की भाजपा की नीति ने गरीब तबके के एक बड़े हिस्से और उसकी रोजी-रोटी के मसले को पूरी तरह अनदेखा कर दिया है। मेहनत-मजदूरी कर कमाने-खाने वाले लोग, जिनकी आर्थिक स्थिति और बदतर हो गई है, वे अपने जनप्रतिनिधियों के उदासीन रवैये से बेहद दुखी और आहत हैं।"


अनिल के ये शब्द गहरी पीड़ा और असंतोष की गवाही देते हैं। जिन लोगों को अपने रोज़मर्रा के संघर्षों से जूझते हुए उम्मीदें रखनी चाहिए थीं, वे अब तंग हालात में रहने को मजबूर हैं। वे सड़कों पर भटक रहे हैं, उनका आक्रोश अब एक अनदेखे, अनकहे दर्द की तरह फैल चुका है। उन लोगों का जीवन अब विकास के नाम पर उजाड़ने की बलि चढ़ रहा है, और उन्हें यह महसूस हो रहा है कि उनकी कोई सुनवाई नहीं हो रही है।

अनिल यह भी कहते हैं, "जिन लोगों को खिड़किया घाट और किला कोहना से उजाड़ दिया गया था, उनमें कुछ लोग नाले अथवा रेल लाइनों के किनारे गुजर-बसर करने को मजबूर हैं। वादे के बावजूद इन्हें आज तक कोई स्थायी ठौर नहीं मिला। बनारस में ऐसी सैकड़ों बस्तियां हैं जहां लाखों जिंदगियां बेजार हैं। गरीबों के मन में दहशत और कई तरह की शंका हैं। इस समुदाय की सबसे बड़ी चिंता यह है कि विकास के नाम पर किसी भी दिन किसी को भी उजाड़ा जा सकता है।" यह दुखद हकीकत है कि गरीबों की आवाज़ें अब तक नहीं सुनी गईं और उनका जीवन रोज़ के संघर्ष में डूबा हुआ है।

कैसा होगा यूनिटी मॉल?

आईडीएच-कज्जाकपुरा की दलित बस्ती को उजाड़ने का कारण बताया जा रहा है कि वहां यूनिटी मॉल बनाने की योजना चल रही है। यह मॉल, जिसमें सब कुछ बिकेगा — बलिया की बिंदी से लेकर भदोही की कालीन और बनारस की साड़ियां तक — शायद इस विकास की एक कड़ी है, लेकिन इस कड़ी में उस इंसानियत का कोई स्थान नहीं है, जो गरीबों का जीवन बना दे।

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्र सरकार ने 12 सितंबर, 2023 को यूपी के बनारस, लखनऊ और आगरा में यूनिटी मॉल बनाने का ऐलान किया था। इस मॉल में आकर लोग खाने-पीने की सुविधाओं का आनंद ले सकेंगे, लेकिन क्या यह मॉल उन लोगों की ज़िंदगियों को सुरक्षित करेगा, जिन्हें उजाड़ दिया गया है? क्या इस मॉल के निर्माण से उनका दर्द और संघर्ष खत्म होगा? या फिर यह सिर्फ एक और खूबसूरत दृश्य होगा, जिसमें गरीबों की मेहनत और उनकी ज़िंदगियों की कीमत होगी?

भारत सरकार के केंद्रीय बजट 2023-24 में देश के विभिन्न राज्यों में यूनिटी मॉल की स्थापना का प्रावधान किया गया है। इसमें राज्यों द्वारा अपने ओडीओपी, जीआई और हस्तशिल्प उत्पादों की प्रदर्शनी और बिक्री की व्यवस्था की जाएगी। परंतु, यह सवाल भी उठता है कि क्या इस विकास के पीछे वे लोग हैं जो इस विकास के वास्तविक हकदार थे, और जो अब भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं?

बनारस के नगर आयुक्त अक्षत वर्मा कहते हैं, "बनारस में यूनिटी मॉल खोलने का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय एकीकरण, मेक इन इंडिया, ओडीओपी प्रयासों को बढ़ावा देना और स्थानीय हस्तशिल्प उत्पाद एवं स्थानीय रोजगार सृजन करना है।" यह शब्द सरकारी प्रयासों को तो दर्शाते हैं, लेकिन उन लोगों की पीड़ा को नहीं समझाते, जो अपनी जमीन और पहचान खो रहे हैं। क्या यह विकास उनकी हताशा और उम्मीदों को वापस ला पाएगा? क्या यह उन्हें उनके खोए हुए अधिकार वापस देगा?

"मॉल या मानवता?"

बस्ती के लोगों की एक ही मांग है—"हमें बेघर मत करो। स्थायी और सुरक्षित आवास दो।" गंगा किनारे विस्थापन की योजना पर पुनर्विचार किया जाए, ताकि उन्हें बार-बार उजाड़ने की तकलीफ न सहनी पड़े। इनकी बेबसी और गुस्सा उन नीतियों की ओर इशारा करता है, जो गरीबों को झूठे सपने देकर उनकी तकलीफें और बढ़ा देती हैं। कज्जाकपुरा की बस्ती का यह मामला सिर्फ एक स्थान पर हो रही कार्रवाई का उदाहरण नहीं है, यह उस तंत्र की कहानी है, जो गरीबों के हक को सुनने से पहले ही उनके घरों पर बुलडोज़र चला देता है।

“हमने अपने बच्चों को यह सोचकर पाला कि एक दिन हमारी हालत सुधरेगी। पर सरकार ने हमारा सबकुछ छीन लिया,” यह कहते हुए 60 वर्षीय रामप्रसाद फूट-फूटकर रो पड़े। इस बस्ती के लोगों की आंखों में आंसू और दिलों में असाह्य दर्द है। यह एक अपील है, एक पुकार, कि उन्हें इंसाफ मिले। जब तक नीतियां गरीबों के हक में नहीं बनतीं, तब तक ऐसे दिल दहला देने वाले दृश्य शायद यूं ही बार-बार सामने आते रहेंगे।

सफाईकर्मियों का कहना है कि विकास के नाम पर उन्हें उजाड़ना अन्याय है। "हम इस मॉल का विरोध नहीं करते, लेकिन हमारी जगह कोई स्थायी व्यवस्था तो हो।" स्थानीय निवासियों ने इस बात पर भी सवाल उठाए कि गंगा नगर कॉलोनी जैसे बाढ़ प्रभावित इलाके में मॉल का निर्माण कितना उचित है। राजस्व विभाग और नगर निगम के अधिकारी इस मामले में चुप्पी साधे हुए हैं। मीडिया ने जब उनसे संपर्क किया तो कोई भी अधिकारी स्पष्ट जवाब देने को तैयार नहीं हुआ।

कज्जाकपुरा की इस बस्ती का मामला सिर्फ एक बस्ती का नहीं, बल्कि उन हजारों गरीब परिवारों की कहानी है, जिन्हें विकास की कीमत चुकानी पड़ती है। विकास के नाम पर इंसानियत को पीछे नहीं छोड़ा जा सकता। क्या मॉल निर्माण की यह प्रक्रिया इन गरीब परिवारों को बेघर करके ही पूरी होगी? यह सवाल केवल प्रशासन के लिए नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए है। क्या हम विकास और मानवीय मूल्यों के बीच संतुलन बना पाएंगे, या फिर ऐसे परिवार हमेशा इसी तरह बेघर होते रहेंगे?


"जस की तस हैं चुनौतियां"

कांग्रेस महानगर अध्यक्ष राघवेंद्र चौबे ने वाराणसी के कज्जाकपुरा में दलित सफाई कर्मचारियों को बेदखल किए जाने पर भाजपा सरकार को आड़े हाथों लिया। उन्होंने कहा कि 2005 में नगर निगम के तत्कालीन नगर आयुक्त ने स्पष्ट रूप से लिखा था कि यह कोई अतिक्रमण नहीं है, फिर भी वर्तमान महापौर और नगर आयुक्त द्वारा इन्हें उजाड़ने के नोटिस जारी किए जा रहे हैं।

उन्होंने आरोप लगाया कि भाजपा सरकार गरीब और दलित विरोधी है, जो सर्दी के मौसम में जरूरतमंदों को छत देने की बजाय उनसे छत छीनने का काम कर रही है। चौबे ने कहा, "विकास के नाम पर भाजपा सरकार विनाश की प्रतीक बन चुकी है और दलितों के साथ सिर्फ प्रचार के लिए दिखावटी समर्थन करती है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि कज्जाकपुरा में दलित सफाई कर्मचारियों का उत्पीड़न कांग्रेस बर्दाश्त नहीं करेगी और हर अन्याय के खिलाफ मजबूती से लड़ाई लड़ेगी।"

बनारस के एक्टिविस्ट सौरभ सिंह कहते हैं, "आईडीएच-कज्जाकपुरा में किसी तरह जीवनयापन करने वाले सभी लोग वाल्मीकि समुदाय के हैं। महर्षि वाल्मीकि के पूर्वजों की अनदेखी और उन्हें इस हाल में छोड़ देने की रवायत ठीक नहीं है।" ये शब्द दिल को छू जाते हैं, क्योंकि इसमें न केवल समाज की जड़ें और संस्कृति की अनदेखी की बात है, बल्कि उस पीढ़ी की सजा भी दी जा रही है, जो आज भी इस देश की सबसे बड़ी असमानताओं का शिकार है। ये लोग, जिनकी मेहनत और संघर्ष से समाज चलता है, उन्हीं के साथ एक अनदेखी का सुलूक हो रहा है।

सौरभ आगे कहते हैं, "बीजेपी और आरएसएस के लोग भले ही अपनी विचारधारा का प्रचार दलित बस्तियों में निरंतर कर रहे हैं, लेकिन इस समुदाय की चुनौतियां जहां की तहां हैं। दलितों के घर में भोजन करने का ढोंग बंद होना चाहिए। छुआछूत के खिलाफ इस समुदाय को अभी लंबी लड़ाई लड़नी होगी। बिना रुके, बिना थके यह काम लगातार करना होगा। हर व्यक्ति के हर परिवार को समाज में अपने हिस्से का काम करना होगा, तभी उन्हें छत मयस्सर होगी और छुआछूत से मुक्ति भी मिलेगी।" इन शब्दों में गहरी सच्चाई छिपी है। यह सच है कि दलित समुदाय को अपनी पहचान और सम्मान पाने के लिए एक लंबी लड़ाई लड़नी होगी, लेकिन क्या हम उनके संघर्ष को सही मायने में समझ रहे हैं? क्या हम उनकी आवाज़ सुन पा रहे हैं?


सौरभ सिंह की यह बात सच में चौंकाने वाली है: "बनारस शहर को चकाचक दिखाने के लिए जिस तरह से दलितों की बस्तियों पर बुलडोज़र चलाया जा रहा है उसे ‘गरीबों को उजाड़ो अभियान’ नाम दिया जा सकता है।" यह शब्द उस दर्द को व्यक्त करते हैं, जिसे हर दिन दलितों को झेलना पड़ता है। उन बस्तियों को उजाड़ने का काम सिर्फ घरों को ढहा देना नहीं है, बल्कि उन लोगों के सपनों, उनके अस्तित्व और उनके विश्वास को कुचल देना है। गरीबों को बेघर करने का यह अभियान दरअसल उनके जीवन के संघर्ष की एक और कड़ी साबित हो रहा है।

"किसी तरह जीवन गुजार कर रहे लोगों की कहीं कोई सुनवाई नहीं है। मोदी-योगी सरकार की नीतियां उन्हें अपनी बात कहने तक का अवसर नहीं दे रही हैं। नतीजा तमाम लोगों को अपनी रोजी-रोटी से हाथ धोना पड़ रहा है। दशकों से बनारस में रहने वाले मेहनकश गरीबों के पास अब कोई दूसरा ठिकाना नहीं है। इस समुदाय के लोग आखिर कहां जाएंगे?" यह सवाल बहुत गंभीर है। इन लोगों को उनके अधिकार से वंचित किया जा रहा है, और उन्हें जहां जाने की कोई जगह नहीं मिल रही। इन गरीबों के पास एक मात्र सहारा था – उनका घर, जो अब छीन लिया जा रहा है। अब वे कहां जाएंगे? क्या उनका जीवन सिर्फ विकास की शिकार हो जाएगा? क्या इस समाज को उनकी पीड़ा और संघर्ष का कोई अहसास होगा?

एक्टिविस्ट मनीष शर्मा कहते हैं, "सफाई कर्मचारियों के मन में दर्द, गुस्सा और बेबसी है। जोऔरतें  अपने खून-पसीने से बनारस की गलियों को चमकाती हैं, खुद एक अदद घर के लिए तरस रही हैं। उनके सपनों और हकीकत के बीच एक ऐसी दीवार खड़ी कर दी गई है, जिसे उनके आंसू भी गिराने में असमर्थ हैं। विकास के नाम पर इंसानियत की बलि चढ़ाई जा रही है। इस बस्ती के दर्द भरे हालात केवल एक बस्ती की कहानी नहीं हैं, बल्कि यह उन सभी दलित और वंचित तबकों की सच्चाई है, जिनकी ज़िंदगी की नींव बेदखली के बुलडोज़र से हिलाई जा रही है।"

"यह स्थिति न केवल सफाई कर्मियों के लिए बल्कि बस्ती के लोगों के लिए भी असहनीय हो चुकी है। उनके जीवन का हर दिन संघर्षों से भरा हुआ है, और वे सिर्फ और सिर्फ न्याय की उम्मीद लगाए बैठे हैं। इस बस्ती के लोग, जो सड़कों और गलियों को चमकाते हैं, आज खुद अंधेरे में हैं। उनका सवाल है—अब कहां जाएं? न सरकार कोई घर दे रही है और न ही कोई मकान मालिक उन्हें किरायेदार बनने दे रहा है। जो कभी बसाया गया था, उसे आज बेरहमी से उजाड़ दिया गया।"

मनीष कहते हैं, "विकास के नाम पर सिर्फ दलित बस्तियों को उजाड़े जाने यह सवाल एक ऐसा सवाल है, जिसे केवल सरकार नहीं, बल्कि समाज भी खुद से पूछे। गरीब और वंचित समुदाय के लोग जब तक अपनी ज़िंदगियों में स्थिरता नहीं महसूस करेंगे, तब तक किसी भी मॉल या परियोजना का विकास वास्तविक रूप से पूर्ण नहीं हो सकता यह सवाल हम सभी से है। क्या हम इस समाज के सबसे कमजोर और दबे-कुचले हिस्से की मदद करने के लिए तैयार हैं, या फिर हम उन्हें केवल एक और संघर्ष के लिए छोड़ देंगे? "

(विजय विनीत बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं। कज्जाकपुरा दलित बस्ती से उनकी ग्राउंड रिपोर्ट)

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