एक स्थानीय नगर निगम अधिकारी ने बताया कि मणिकर्णिका घाट, हरिश्चंद्र घाट, और अन्य कई इलाके बाढ़ के पानी में डूब चुके हैं। इसके अलावा, रामनगर किला, सुजाबाद और डोमरी क्षेत्रों में भी बाढ़ का पानी घुस चुका है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी, उत्तर प्रदेश के उन शहरों में शुमार है जिसे "स्मार्ट सिटी" के रूप में जाना जाता है, लेकिन इस समय भीषण बाढ़ की चपेट में है। खेल-तमाशे के लिए गंगा के प्रवाह को रोकते हुए अंदर तक को तटों को पाटे जाने से अनगिनत दुश्वारियां खड़ी हुई हैं। नतीजा, गंगा का जलस्तर बढ़ने से यहां के कई घाट और मंदिर पानी में डूब चुके हैं। श्रद्धालुओं के लिए मंदिरों के द्वार बंद कर दिए गए हैं, और घाटों के पास रहने वाले लोगों को सुरक्षित स्थानों पर स्थानांतरित किया जा रहा है। स्मार्ट सिटी बनारस की हकीकत यह है कि मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट पर शवों का अंतिम संस्कार अब घाटों की छतों पर हो रहा है, क्योंकि घाटों का निचला हिस्सा पूरी तरह से डूब चुका है। शवों को नावों के जरिए लाकर अंतिम संस्कार किया जा रहा है।
एक स्थानीय नगर निगम अधिकारी ने बताया कि मणिकर्णिका घाट, हरिश्चंद्र घाट, और अन्य कई इलाके बाढ़ के पानी में डूब चुके हैं। इसके अलावा, रामनगर किला, सुजाबाद और डोमरी क्षेत्रों में भी बाढ़ का पानी घुस चुका है। महर्षि वेद व्यास मंदिर सहित कई अन्य धार्मिक स्थल बाढ़ के कारण बंद कर दिए गए हैं और वहां जाने वाले रास्तों को अवरुद्ध कर दिया गया है। अधिकारी ने कहा, "बाढ़ की समस्या यहां हमेशा से रही है, लेकिन गंगा के किनारे कंक्रीट के निर्माण कार्यों के कारण स्थिति और भी बदतर हो गई है।"
यह स्थिति इसलिए उत्पन्न हुई है, क्योंकि काशी विश्वनाथ कॉरिडोर निर्माण के दौरान गंगा के प्रवाह को लगभग सौ मीटर अंदर तक पटवा दिया गया था। यह वही स्थान है, जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कॉरिडोर का उद्घाटन करते समय गंगा में डुबकी लगाई थी। हालांकि, कॉरिडोर के आवागमन वाले हिस्से और भवनों को हाईफ्लड लेवल से ऊपर बनाया गया है, लेकिन बाढ़ ने जलासेन पथ को पूरी तरह डूबा दिया है।
वाराणसी के सौंदर्यीकरण परियोजना के तहत केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार ने गंगा के किनारे कई चबूतरे बनाए हैं, जिनमें नमो घाट भी शामिल है, जिसे पहले खिरकिया घाट के नाम से जाना जाता था। यह घाट पहले एक साधारण संरचना थी, लेकिन अब इसे कंकरीट से उभारा गया है। नमो घाट को भगवान शिव के सम्मान में 'नमो' कहकर संबोधित किया जाता है, लेकिन यह आम धारणा है कि इस नाम का संबंध प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से है। नमो घाट पर नमस्कार की मुद्रा वाली आकृति का सिर्फ हाथ डूबने के लिए बचा है।
बाढ़ के कारण लंका, साकेत नागर, बटुआपुर और काशीपुर क्षेत्रों में सीवर ओवरफ्लो की समस्या उत्पन्न हो गई है। वरुणा नदी का बाढ़ का पानी उचवा, धोबी घाट, मीरा घाट, चौका घाट, ढेलवरिया और शैलपुत्री तक पहुंच चुका है। इन क्षेत्रों में एक दर्जन से अधिक प्राचीन मंदिर बाढ़ की चपेट में आ चुके हैं, जिससे पूजा-अर्चना पर भी असर पड़ा है।
पॉश कॉलोनियों में भी बाढ़ का असर दिखने लगा है, और अस्सी घाट से नगवां की ओर जाने वाली सड़क को बंद कर दिया गया है। लोग अपने घर छोड़कर सुरक्षित स्थानों की तलाश कर रहे हैं। सामनेघाट के आसपास के क्षेत्रों जैसे मारुति नगर, गायत्री नगर, पटेल नगर, विश्वास नगर, हरिओम नगर, रत्नाकर विहार, और कृष्णापुरी कॉलोनी के निवासियों को भी बाढ़ के प्रभाव का सामना करना पड़ रहा है। गंगा का पानी बैकफ्लो के कारण वरुणा कॉरिडोर में घुस गया है, जिससे किनारे बने मकानों के निचले तल जलमग्न हो गए हैं। घाटों की सीढ़ियां भी गंगा के पानी में समा चुकी हैं। मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाटों पर अंतिम संस्कार करने वालों के लिए यह कठिन समय है, क्योंकि मणिकर्णिका घाट पर छतों पर अंतिम संस्कार हो रहा है, वहीं हरिश्चंद्र घाट पर शवों की कतारें लगनी शुरू हो गई हैं।
क्यों डूब रही मोदी की काशी?
मणिकर्णिका घाट पर बनाए जा रहे रैंप का एक बड़ा हिस्सा और सीवेज पंपिंग प्लांट भी बाढ़ के पानी में डूब चुके हैं। शवदाह के लिए यहां आने वाले लोगों को भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि गंगा का पानी कुछ गलियों तक पहुंच गया है। अंतिम संस्कार के लिए जगह की कमी के कारण शवों की कतारें लग रही हैं, और लकड़ी के लिए भी लोगों को घंटों इंतजार करना पड़ रहा है। हरिश्चंद्र घाट और अन्य शवदाह स्थलों पर भी यही स्थिति बनी हुई है, जहां जगह की कमी के चलते अंतिम संस्कार मुश्किल हो रहे हैं। शवदाह के लिए लोगों को घंटों इंतजार करना पड़ रहा है। सिर्फ दाह संस्कार के लिए ही नहीं, लकड़ियों के लिए भी लाइन लगानी पड़ रही है। कुछ ऐसी ही स्थिति हरिश्चद्र घाट पर भी है। यहां भी मुर्दों को जलाने के लिए गलियों में जगह छोटी पड़ने लगी है। यही स्थिति सामने घाट, रमना, डोमरी, रामनगर आदि शवदाह स्थलों की है।
बनारस में सबसे वीभत्स स्थिति मारुति नगर की है। यह वह इलाका है जहां वाराणसी विकास प्राधिकरण (वीडीए) के अफसरों और कारिंदों ने रिश्वत लेकर हजारों इमारतें खड़ा करा दी है। स्थिति भयावह मोड़ पर पहुंची है तो प्रशासन अब अवैध निर्माण वाले भवनों की सूची तैयार कराने की तैयारी कर रहा है। कलेक्टर एस.राजलिंगम ने कहा है कि वीडीए के अफसरों को निर्देश दिए गए हैं कि बेसिन क्षेत्र में साल भर के अंदर हुए अवैध निर्माण सील कराया जाएगा।
बनारस के कलेक्टर राजलिंगम दावा करते हैं, "बाढ़ से निपटने के लिए बनारस में चाक-चौबंद व्यवस्था है। प्रभावित लोगों को आश्रय देने के लिए बाढ़ राहत चौकियां खोल दी गई हैं। बाढ़ग्रस्त इलाकों में नावों के प्रबंध किए गए हैं। वाराणसी शहर में बाढ़ से करीब 4,461 लोग प्रभावित हुए हैं। डीएम ने कहा कि उन्होंने प्रभावित लोगों को बचाने के लिए 22 टीमें तैनात की हैं। जल पुलिस भी अपनी मोटरबोटों पर काम कर रही है। जिले में 14 राहत शिविर हैं, जहां 220 परिवार रह रहे हैं और प्रशासन उनकी देखभाल कर रहा है।"
बनारस जिला प्रशासन भले ही करीब करीब 4,461 लोगों को बाढ़ पीड़ित मान रहा है, जबकि स्थिति इससे कई गुना ज्यादा भयावह है। गंगा की बाढ़ के चलते वरुणा और असि नदियों के तटवर्ती इलाकों में रहने वाले लोगों की दुश्वारियां बढ़ गई हैं। ढेलवरिया, कोनिया, सामने घाट, सरैया, डोमरी, नगवा, रमना, बनपुरवा, शूलटंकेश्वर के कुछ गांव, फुलवरिया, सुअरबड़वा, नक्खीघाट, सरैया समेत कई इलाकों में बाढ़ ने अपना कहर बरपाना शुरू कर दिया है। इन इलाकों में कई लोगों के घरों में पानी घुस गया है। बड़ी संख्या में लोग घर छोड़ने के लिए मजबूर हो गए हैं। कुछ लोग अपने घरों का सामान लेकर रिश्तेदारों और परिचितों के यहां जा रहे हैं।
कोनिया, सरैया, पुल कोहना, सोना तालाब, बघवा नाला, सलारपुर से लगायत सराय मोहाना तक के इलाके में लोग दुश्वारियों के बीच बस किसी तरह से दिन काटने के लिए विवश हैं। जिन लोगों को राहत शिविरों में जगह नहीं मिल पाई है उन्होंने सामान दूसरों के यहां रखकर घर की छत पर अपना ठिकाना बना लिया है।
फिर डूब गई हज़ारों की गृहस्थी
बाढ़ प्रभावित इलाकों में के पानी में बहकर आए सांप-बिच्छू भी लोगों के घरों में घुस गए हैं। मरे हुए मवेशियों के दुर्गंध से बाढ़ पीड़ितों की मुश्किलें बढ़ गई हैं। गंगा, वरुणा और असि नदियों में पानी से जिन लोगों के मकान डूब गए हैं अथवा बाढ़ से घिर गए हैं उनके बच्चों के सामने मुश्किलें ज्यादा हैं। दीनदयालपुर, पुराना पुल, सरैया, जलाल बाबा, नजीरपुरा आदि मुहल्लों में रहने वाले लोगों की दुश्वारियां बढ़ गई हैं। कई बुनकरों के करघों में पानी भर गया है। नजीरपुरा में मुमताज और जुनैद का घर पानी में डूब गया है और बुनकरी का काम बंद है। जमील अहमद का करघा पानी में डूब गया है। यही स्थिति बुनकर शर्फुदीन की है।
नजीरपुरा मुहल्ले में कई लोगों घरों में पानी घुस गया है। यहां लूम चलाने वाले तालिब कहते हैं, "वरुणा के तटवर्ती इलाकों में रहने वाले रहने वाले लोगों के बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। दुश्वारियां बढ़ गई हैं।" इसी मुहल्ले में रहते हैं इकबाल। इनके तीन बेटे एकलाक, रेयाज, और जैनुल गंभीर रूप से बीमार हैं। इन्हें एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया है। बीते रविवार को इकबाल की बेटी शमा परवीन का निकाह था, लेकिन शादी की तैयारियां करने वाले परिवार के लोग अस्पताल में थे। इकबाल कहते हैं, "शादी में लगने वाला पैसा इलाज में खर्च हो गया। हमारे बेटे लूम चलाते थे। हम तानी जोड़ते थे, तब घर का खर्च चल पाता था। दुश्वारियां बढ़ गई हैं। इलाकाई पार्षद हाजी ओकास अंसारी को कई दिनों से फोन कर रहे हैं, लेकिन वो काट रहे हैं।"
बुनकर व्यवसायी हसीन अहमद कहते हैं, "हर तीन साल में ऐसी भीषण बाढ़ आती है। इससे पहले साल 2013, 2016 और 2019 में ऐसी ही भयानक बाढ़ आई थी। पिछली मर्तबा बाढ़ की वजह से करीब एक महीने तक कारख़ाना बंद रहा, जिसकी वजह से तमाम बुनकरों की बरसों की बनाई गृहस्थी उजड़ गई थी। लूम और करघों पर चढ़ीं साड़ियां काली पड़ गई थी। इस बार थोड़ी राहत है, लेकिन दुश्वारियां कम नहीं हुई हैं। बहुत से लोग दाने-दाने के लिए तरस रहे हैं।" बुनकर गुड़िया ने शिकायत करते हुए कहा, "पहले बाढ़ आती थी तो इलाके के स्कूल और मदरसों में सभी को अस्थायी आश्रय घर सभी को राहत पहुंचाई जाती थी। इस बार भी प्रशासन ने वादा किया था, लेकिन राहत शिविरों में सिर्फ उन्हीं लोगों को शरण दी जा रही है, जिनके इलाकाई पार्षदों अथवा नेताओं से ताल्लुकात हैं।"
खामोश हो गए लूम व करघे
गंगा और वरुणा नदी में आई बाढ़ की वजह से शहर के दर्जन भर मोहल्लों में लूम और करघों की धड़कन बंद हो गई हैं। हालत यह है कि बुनकरों को अब दो वक्त की रोटी जुटा पाना मुहाल हो गया है। वरुणा नदी के किनारे बसे वंचित समुदाय के लोगों के घरों में पानी घुसने से बिजली की सप्लाई के साथ-साथ करघे और लूम खामोश हो गए हैं। बाढ़ के चलते 158 लोगों ने सरैया स्थित प्राथमिक विद्यालय राहत शिविर में शरण ली है। इन्हीं में एक हैं जलाल बाबा मुहल्ले की नजरून और दीनदयालपुर की गुड़िया। इनके पति मजूरी करते हैं। नजरून कहती हैं, "हमारी गृहस्थी पानी में डूब गई है। प्रशासन ने हमें राहत शिविर में पहुंचा दिया है। यहां खाने-पीने की दिक्कत नहीं है। बाढ़ प्रभावित इलाकों में भीषण गंदगी है।"
पुराना पुल की चंदा बीबी, कैरुनिशा के घर पानी में डूब गए हैं। चंदा साड़ी पर मोती लगाने का काम करती हैं। वह कहती हैं, "हमें कोई भी काम नहीं मिल पा रहा है। जो पैसा कमाते हैं वो इलाज पर खर्च हो जाता है। पति मजूरी करते हैं तब किसी तरह से घर का खर्च चल पाता है।" लोगों के घरों में झाडू-चौका-बर्तन करने वाली नाजमीन कहती हैं, "हमारे दुखों का कोई अंत नहीं है। हर साल बाढ़ आती है और हमारी स्थिति लावारिश जैसी हो जाया करती है। काम-धंधा ठप हो जाता है, तब हमारी जिंदगी भी जाम हो जाती है।"
रोशन जहां के पिता शमीम टोटो चलाते हैं और अम्मी सिलाई करती हैं। बाढ़ के पानी से काम- धंधा बंद है। राहत शिविरों में शरण लेने वालों में शाहना, कैरूनिशा, नीलू, रोशनजहां, शबा, अंजुम निशा, मो.करीम, तसलीम, सायरा बानो, नसीर, खातून, रसीदा मो.असलम, शहाना कहती हैं, "बाढ़ के चलते सरैया स्थित राहत शिविर से हम लौट आए हैं। इस बार राहत शिविरों में स्थिति काफी बेहतर है।"
सरैया के राहत शिविर में हमारी मुलाकात 25 वर्षीय जूही खातून से हुई। जूही बरियासनपुर स्थित एक डिग्री कालेज में समाजशास्त्र से पोस्टग्रेजुएट कर रही हैं। वह पुराना पुल स्थित मोहल्ला लाल भट्ठा इलाके में रहती हैं। परिवार में कुल नौ लोग हैं, जिनमें दो भाई और पांच बहनों के साथ-माता-पिता एक साथ रहते हैं। जूही कहती हैं, "बाढ़ से हमारी पढ़ाई प्रभावित हो रही है। हमने पुलिस में भर्ती के लिए परीक्षा दी है। पहले मैं नौकरी करूंगी, फिर शादी। हमारे दोनों भाई ड्राइविंग करते हैं और उसी से परिवार का खर्च चलता है। बड़ी बहन कायनात यूपीएससी की तैयारी कर रही हैं। बाढ़ के चलते हमारी आर्थिक स्थिति कमजोर हुई है।"
ये कराहती गंगा के आंसू हैं
वाराणसी के वरिष्ठ पत्रकार एवं चिंतक प्रदीप कुमार नौकरशाही की कोशिशों को सिर्फ दिखावा मानते हैं। वह कहते हैं, "बाढ़ पीड़ितों को सिर्फ राहत पहुंचा देना और राहत के नाम पर भोजन बांट देना ही काफी नहीं है। सबसे पहले हमें बाढ़ की वजहों पर सबसे पहले गौर करना होगा। हर दो साल बाद बाढ़ हमें परेशान करती है। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि नदी के स्वभाविक और प्राकृतिक चरित्र के साथ लगातार खिलवाड़ चल रहा है। यह काम बड़ी नदियों के साथ ज्यादा हुआ है। गंगा इसकी शिकार है। बिना प्राकृतिक पारिस्थिति का विश्लेषण किए उसकी धारा को रोकने का दुस्साहस करने की वजह से बाढ़ लोग बाढ़ के शिकार हो रहे हैं।"
"बनारस में पिछले आठ सालों से गंगा के साथ भद्दा मजाक किया गया। गंगा के तटवर्ती इलाकों और प्राचीन घाटों की पारिस्थितिकी को बदलने की कोशिश की है जिसका खामियाजा बनारस की जनता को भुगतना पड़ रहा है। दुनिया में विकास के ना पर अपनी प्रकृति के साथ इतना बड़ा खिलवाड़ कभी नहीं हुआ। दुनिया के उन देशों का अध्ययन किया जाए जो विकासशील से विकसित होने की श्रेणी में पहुंच गए हैं, उन्होंने अपने प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण व संवर्धन करते हुए विकास की योजनाओं को मूर्त रूप दिया है।"
प्रदीप यह भी कहते हैं, "भारत दुनिया का अकेला ऐसा मुल्क है जिसने न सिर्फ नदियों की जबर्दस्त उपेक्षा की, बल्कि खिलवाड़ भी किया। नदियों के साथ मनमानी का सबसे बड़ा उदाहरण पीएम नरेंद्र मोदी के बनारस में देखने को मिल रहा है। यहां कभी बालू में नहर बनाई जाती है तो कभी गंगा में जलपोत चलाने के लिए ड्रेजिंग पर मनमाना धन लुटा दिया जाता है। हाल ऐसा है कि यहां अंधेर नगरी चौपट राज की कहवात चरितार्थ होती नजर आती है।"
"बाढ़ प्रभावित इलाकों में आवासीय कालोनियों का विस्तार होता रहता है और प्रशासन आंख बंद किए रहता है। सीधी सी बात है कि हम अगर गंगा में घुसने की कोशिश करेंगे तो गंगा हमारे इलाके में घुसेंगी ही। गंगा का बाढ़ हमेशा सौम्य नहीं होता, उसका रौद्र रूप कई बार तबाही की पटकथा लिख जाता है। इस बार भी ऐसा ही हो रहा है। विश्वनाथ कॉरिडोर के नाम पर ललिता घाट पर हुई मनमानी और छेड़छाड़ का नतीजा है कि आज गंगा कॉरिडोर में घुसने को आतुर नजर आती हैं। बनारस के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ था।"
तबाही ज़्यादा, आकलन कम
बनारस शहर ही नहीं, ग्रामीण इलाकों में भी गंगा, वरुणा और गोमती नदियां तबाही मचा रही हैं। पिंडरा इलाके के कोइराजपुर, चमाव, भगतुपुर, दासेपुर, गोसाईपुर, करोमा के अलावा रामेश्वर, पसीपुर, पांडेयपुर, तेंदुई, सत्तनपुर समेत दर्जनों गांवों में सैकड़ों एकड़ फसल जलमग्न हो गई है। बनारस का इकलौता आईलैंड ढाब पूरी तरह टापू बन गया है। बाढ़ का पानी इस आईलैंड पर बसे 35 हजार लोगों से लिए मुसीबत का सबब है। बनारस के दर्जनों गांवों में बाढ़ का पानी निचले इलाकों में घुसकर तबाही मचा रहा है।
जिले में करीब 61 गांव बाढ़ की चपेट में हैं। ग्रामीण इलाकों में रमना, डाफी, चिरईगांव, चौबेपुर के अलावा बनारस का इकलौता आईलैंड ढाब भी बाढ़ से चौतरफा घिर गया है। बनारस का इकलौता आईलैंड ढाब पूरी तरह टापू बन गया है। बाढ़ का पानी इस आईलैंड पर बसे 35 हजार लोगों से लिए मुसीबत का सबब है। दर्जनों गांवों में बाढ़ का पानी निचले इलाकों में घुसकर तबाही मचा रहा है। जिले में करीब साठ गांव बाढ़ की चपेट में हैं। ढाब आईलैंड में गंगा नदी की कटान के चलते समस्या गंभीर होती जा रही है।
मुस्तफाबाद के प्रधान राजेंद्र सिंह ने कहा, "रमचंदीपुर, मोकलपुर, गोबरहां, रामपुर, मुस्तफाबाद में बाढ़ का पानी किसानों की जमीनें लीलती जा रही है। ढाब इलाके के सोता में बड़े पैमाने पर हो रहे कटान के चलते सैकड़ों एकड़ उपजाऊ खेत बाढ़ के पानी में डूब गए हैं। इस इलाके में नदी के किनारे बोई गई मक्का, धान, तिल, नेनुवा, लौकी, परवल आदि फसलें बाढ़ की भेंट चढ़ गई हैं। मोकलपुर स्थित अंबा सोता पर प्रशासन ने नावों का संचालन शुरू करा दिया है। रिंग रोड बनाने के लिए ढाब आईलैंड पर किए गए अवैध खनन के चलते इस टापू पर रहने वाले लोगों की जान सांसत में है।"
गोमती किनारे तक दर्जनों गांव-गांव के फसलें जलमग्न हो गई हैं। ढाब क्षेत्र में सोता पुल मार्ग पर गंगा का पानी चढ़ आया है। चिरईगांव, अराजीलाइन और चोलापुर प्रखंड के कई गांवों में खरीफ की फसलें और सब्जियों के खेत बाढ़ में डूब गए हैं। नदियों के किनारे फसलें पानी में डूब गई हैं। पिंडरा इलाके के कोइराजपुर, चमाव, भगतुपुर, दासेपुर, गोसाईपुर, करोमा के अलावा रामेश्वर, परसीपुर, पांडेयपुर, तेंदुई, सत्तनपुर समेत दर्जनों गांवों में सैकड़ों एकड़ खरीफ की फसलें जलमग्न हो गई हैं।
प्रयोगों की राजधानी बना बनारस
बनारस में जाने-माने पर्यावरणविद एवं संकटमोचन मंदिर के महंत प्रो.विशंभरनाथ मिश्र कहते हैं, "वक्त किसी के साथ कंप्रोमाइज नहीं करता। हाल के कुछ सालों में बनारस ने जो करवट बदला है उससे यह शहर प्रयोगों की राजधानी बन गया है। बाढ़ के चलते रिस्क और चुनौतियां बढ़ गई हैं। समूचे बनारस को गुजरात माडल को दिखा-दिखाकर तहस-नहस किया गया है। जो लोग बनारसियों को गुजरात माडल दिखाते हैं, वही गुजरात जाकर बनारस माडल का गुणगान करने लगते हैं। दरअसल इनके पाक कोई माडल है ही नहीं। विकास के नाम पर सरकार ने न जाने कितने पारंपरिक सिस्टम खत्म कर दिए गए जो बाढ़ की विभीषिका को रोका करते थे। चलते-फिरते और दौड़ते शहर को कुछ ही सालों में तहस-नहस कर दिया गया और बनारस के लोग प्रतिकार तक नहीं कर सके।"
प्रो.मिश्र कहते हैं, "पहले बनारस में बाढ़ आती थी तो शहर में नहीं घुसती थी। इस बार बाढ़ तो आई है, लेकिन वो गंगा का पानी नहीं, बजबजाता हुआ सीवर है। शायद यही बनारस का अनूठा माडल है जो इन दिनों बनारसियों को दिखाया जा रहा है। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर में बाढ़ का पानी इसलिए उथल-पुथल कर रहा क्योंकि एक तरफ नदी को पाट दिया गया तो दूसरी ओर, पक्के महाल का रास्ता ही बंद कर दिया गया। चिंता इस बात की है कि अब एक सनक की कीमत बनारस के हजारों-लाखों लोगों को भुगतनी पड़ रही है। काम तो ऐसा होना चाहिए जिससे हर किसी के चेहरे पर मुस्कान आए, बाढ़ की विभीषिका नहीं।"
वरुणा नदी और अस्सी नाले के किनारे बसे इलाकों में बाढ़ का इतिहास और हालिया विकास एक गंभीर चिंता का विषय बन गया है। 1978 में, जब वाराणसी ने अपनी सबसे भयंकर बाढ़ का सामना किया था, तब इन इलाकों में कोई बड़ा निर्माण नहीं हुआ था। वरुणा और अस्सी के दोनों ओर का क्षेत्र जलप्रलय से ग्रस्त था और रहने लायक नहीं रह गया था। लेकिन जैसे-जैसे समय बीता, स्थानीय विकास प्राधिकरण ने इन स्थानों पर नई कॉलोनियों का निर्माण शुरू कर दिया।
वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य के अनुसार, "1978 की बाढ़ के बाद भी इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर निर्माण हुआ। उस समय तो बाढ़ से बचने के लिए कोई प्रभावी योजना नहीं थी, लेकिन बाद में विकास प्राधिकरण ने यहां कॉलोनियां बसा दीं। अब, जब शहर में सौंदर्यीकरण और विकास के नाम पर अतिक्रमण और स्थायी निर्माण हुए हैं, तो जलस्तर में थोड़ी सी भी वृद्धि गंभीर संकट पैदा कर सकती है।"
विनय मौर्य ने आगे बताया कि शहर के कई हिस्सों में निर्माण कार्य अतिक्रमण के तहत आ गया है। इससे समस्या और जटिल हो गई है, क्योंकि अब बाढ़ आने पर शहर के आवासीय इलाकों में पानी का प्रवाह और भी बढ़ जाता है। वर्तमान सरकार के सौंदर्यीकरण योजनाओं के तहत कई क्षेत्रों में अतिरिक्त स्थायी निर्माण किए गए हैं, जिनमें से कुछ जल निकासी के प्राकृतिक मार्गों को अवरुद्ध कर रहे हैं। ऐसे में, जलस्तर में थोड़ी भी बढ़ोतरी विनाशकारी साबित हो सकती है।
क्या यही है क्योटो जैसा विकास दावा?
नदी वैज्ञानिक एवं एक्टिविस्ट सौरभ सिंह भी इस विषय पर चिंतित हैं। उन्होंने कहा, "नदी की धाराओं में हो रहे निर्माण कार्य, नदी में निर्माण सामग्री का डाला जाना, और पुरानी सीवर लाइनों की उपेक्षा करते हुए घाटों का नवीनीकरण करना बाढ़ के कुछ मुख्य कारण हैं। जब नदी के किनारे ऐसे भारी निर्माण होते हैं, तो नदी का प्राकृतिक प्रवाह बाधित हो जाता है। न केवल पानी का प्रवाह धीमा पड़ता है, बल्कि पानी को निकलने का रास्ता भी मिलना मुश्किल हो जाता है।"
सौरभ सिंह ने यह भी कहा कि हाल ही में लौटे मानसून ने स्थिति को और भी विकट बना दिया है। बाढ़ की संभावना पहले से ही अधिक थी, लेकिन मानसून के कारण यह और बढ़ गई है। "हमारे अनुमान के अनुसार, पिछले तीन वर्षों में सरकारी एजेंसियों और निजी बिल्डरों ने वाराणसी में गंगा में कई सौ टन मलबा फेंका है। यह मलबा नदी के जल प्रवाह को बाधित कर रहा है, जिससे नदी की जल धारण क्षमता कम हो गई है। इसका सीधा असर यह हो रहा है कि पानी अब रिहायशी इलाकों में घुसने लगा है।"
सौरभ सिंह की बात में गहरी चिंता झलकती है। उन्होंने कहा, "अतिक्रमण इतना बढ़ गया है कि हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर कुछ दशकों के बाद नदी का अस्तित्व ही समाप्त हो जाए। और मामूली बारिश भी शहर को जलमग्न कर सकती है। नदी किनारे के निर्माणों के कारण जल निकासी के प्राकृतिक मार्ग अवरुद्ध हो गए हैं, जिससे बाढ़ की समस्या और विकराल हो गई है। इन सबके बीच यह सवाल उठता है कि वाराणसी जैसे ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व वाले शहर में इस तरह के अनियंत्रित निर्माण कार्य किस तरह से शहर के भविष्य को प्रभावित करेंगे। अगर बाढ़ से निपटने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो आने वाले वर्षों में वाराणसी का अधिकांश हिस्सा जलप्रलय से घिरा रहेगा।"
बनारस में बाढ़ आई तबाही के लिए चंदौली के सांसद वीरेंद्र सिंह मोदी-योगी सरकार को जिम्मेदार ठहराते हैं। चंदौली के दो विधानसभा क्षेत्र बनारस के हिस्से हैं। वीरेंद्र कहते हैं, "बनारस ने गुजरात से आए जिस नरेंद्र मोदी को भारी मतों के साथ साल 2014, 2019 और में सांसद बनाकर संसद में भेजा, लेकिन पिछले एक दशक में लोगों ने सिर्फ सतही विकास देखा है। इस शहर की सड़कों पर करीब 850 करोड़ खर्च करने और शहर को स्मार्ट बनाने का दावा किया जा रहा है। इसके बावजूद बनारस के वोटरों का एक बड़ा तबका अब उन्हें रेटिंग के पैमाने पर अच्छी रैंकिंग नहीं दे रहा है। खासतौर पर गंगा की सफाई, खोदी गई और उबड़-खाबड़ सड़कें, उफनते सीवर, संकीर्ण और क्लॉस्ट्रोफोबिक गलियां, ट्रैफिक जाम, बेरोजगारी और खराब स्वास्थ्य सेवा जैसी उनकी गलतियों को गिनाता है। मोदी ने बनारस के लोगों को क्योटो जैसे विकास का वादा किया था, जो आज तक सपना बना हुआ है।"
बाढ़ और मोदी के विकास को छलावा करार देते हुए सांसद वीरेंद्र सिंह कहते हैं, "बनारस के लोगों ने पिछले एक दशक में सिर्फ तंगहाली देखी, बदहाली देखी, सीवर का बहता पानी देखा, सड़कों के गड्ढे और जलभराव देखा, टमाटर की महंगाई का विरोध करने वालों को जेल जाते देखा, वीआईपी के चलते शहर में डाइवर्जन और भीषण जाम देखा। महंगाई और बेरोजगारी से जूझ रहा बनारस जैसे पहले था, वैसे आज भी है। करप्शन और शिकायतों पर एक्शन नहीं होने से बनारसियों की मुश्किलें बढ़ी हैं। मोदी का सारा काम खेल-तमाशे जैसा दिखता है। जब बनारस शहर डूबता जा रहा है तो हम कैसे मान लें कि मोदी का बनारस शहर स्मार्ट हो गया है?"
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी, उत्तर प्रदेश के उन शहरों में शुमार है जिसे "स्मार्ट सिटी" के रूप में जाना जाता है, लेकिन इस समय भीषण बाढ़ की चपेट में है। खेल-तमाशे के लिए गंगा के प्रवाह को रोकते हुए अंदर तक को तटों को पाटे जाने से अनगिनत दुश्वारियां खड़ी हुई हैं। नतीजा, गंगा का जलस्तर बढ़ने से यहां के कई घाट और मंदिर पानी में डूब चुके हैं। श्रद्धालुओं के लिए मंदिरों के द्वार बंद कर दिए गए हैं, और घाटों के पास रहने वाले लोगों को सुरक्षित स्थानों पर स्थानांतरित किया जा रहा है। स्मार्ट सिटी बनारस की हकीकत यह है कि मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट पर शवों का अंतिम संस्कार अब घाटों की छतों पर हो रहा है, क्योंकि घाटों का निचला हिस्सा पूरी तरह से डूब चुका है। शवों को नावों के जरिए लाकर अंतिम संस्कार किया जा रहा है।
एक स्थानीय नगर निगम अधिकारी ने बताया कि मणिकर्णिका घाट, हरिश्चंद्र घाट, और अन्य कई इलाके बाढ़ के पानी में डूब चुके हैं। इसके अलावा, रामनगर किला, सुजाबाद और डोमरी क्षेत्रों में भी बाढ़ का पानी घुस चुका है। महर्षि वेद व्यास मंदिर सहित कई अन्य धार्मिक स्थल बाढ़ के कारण बंद कर दिए गए हैं और वहां जाने वाले रास्तों को अवरुद्ध कर दिया गया है। अधिकारी ने कहा, "बाढ़ की समस्या यहां हमेशा से रही है, लेकिन गंगा के किनारे कंक्रीट के निर्माण कार्यों के कारण स्थिति और भी बदतर हो गई है।"
यह स्थिति इसलिए उत्पन्न हुई है, क्योंकि काशी विश्वनाथ कॉरिडोर निर्माण के दौरान गंगा के प्रवाह को लगभग सौ मीटर अंदर तक पटवा दिया गया था। यह वही स्थान है, जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कॉरिडोर का उद्घाटन करते समय गंगा में डुबकी लगाई थी। हालांकि, कॉरिडोर के आवागमन वाले हिस्से और भवनों को हाईफ्लड लेवल से ऊपर बनाया गया है, लेकिन बाढ़ ने जलासेन पथ को पूरी तरह डूबा दिया है।
वाराणसी के सौंदर्यीकरण परियोजना के तहत केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार ने गंगा के किनारे कई चबूतरे बनाए हैं, जिनमें नमो घाट भी शामिल है, जिसे पहले खिरकिया घाट के नाम से जाना जाता था। यह घाट पहले एक साधारण संरचना थी, लेकिन अब इसे कंकरीट से उभारा गया है। नमो घाट को भगवान शिव के सम्मान में 'नमो' कहकर संबोधित किया जाता है, लेकिन यह आम धारणा है कि इस नाम का संबंध प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से है। नमो घाट पर नमस्कार की मुद्रा वाली आकृति का सिर्फ हाथ डूबने के लिए बचा है।
बाढ़ के कारण लंका, साकेत नागर, बटुआपुर और काशीपुर क्षेत्रों में सीवर ओवरफ्लो की समस्या उत्पन्न हो गई है। वरुणा नदी का बाढ़ का पानी उचवा, धोबी घाट, मीरा घाट, चौका घाट, ढेलवरिया और शैलपुत्री तक पहुंच चुका है। इन क्षेत्रों में एक दर्जन से अधिक प्राचीन मंदिर बाढ़ की चपेट में आ चुके हैं, जिससे पूजा-अर्चना पर भी असर पड़ा है।
पॉश कॉलोनियों में भी बाढ़ का असर दिखने लगा है, और अस्सी घाट से नगवां की ओर जाने वाली सड़क को बंद कर दिया गया है। लोग अपने घर छोड़कर सुरक्षित स्थानों की तलाश कर रहे हैं। सामनेघाट के आसपास के क्षेत्रों जैसे मारुति नगर, गायत्री नगर, पटेल नगर, विश्वास नगर, हरिओम नगर, रत्नाकर विहार, और कृष्णापुरी कॉलोनी के निवासियों को भी बाढ़ के प्रभाव का सामना करना पड़ रहा है। गंगा का पानी बैकफ्लो के कारण वरुणा कॉरिडोर में घुस गया है, जिससे किनारे बने मकानों के निचले तल जलमग्न हो गए हैं। घाटों की सीढ़ियां भी गंगा के पानी में समा चुकी हैं। मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाटों पर अंतिम संस्कार करने वालों के लिए यह कठिन समय है, क्योंकि मणिकर्णिका घाट पर छतों पर अंतिम संस्कार हो रहा है, वहीं हरिश्चंद्र घाट पर शवों की कतारें लगनी शुरू हो गई हैं।
क्यों डूब रही मोदी की काशी?
मणिकर्णिका घाट पर बनाए जा रहे रैंप का एक बड़ा हिस्सा और सीवेज पंपिंग प्लांट भी बाढ़ के पानी में डूब चुके हैं। शवदाह के लिए यहां आने वाले लोगों को भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि गंगा का पानी कुछ गलियों तक पहुंच गया है। अंतिम संस्कार के लिए जगह की कमी के कारण शवों की कतारें लग रही हैं, और लकड़ी के लिए भी लोगों को घंटों इंतजार करना पड़ रहा है। हरिश्चंद्र घाट और अन्य शवदाह स्थलों पर भी यही स्थिति बनी हुई है, जहां जगह की कमी के चलते अंतिम संस्कार मुश्किल हो रहे हैं। शवदाह के लिए लोगों को घंटों इंतजार करना पड़ रहा है। सिर्फ दाह संस्कार के लिए ही नहीं, लकड़ियों के लिए भी लाइन लगानी पड़ रही है। कुछ ऐसी ही स्थिति हरिश्चद्र घाट पर भी है। यहां भी मुर्दों को जलाने के लिए गलियों में जगह छोटी पड़ने लगी है। यही स्थिति सामने घाट, रमना, डोमरी, रामनगर आदि शवदाह स्थलों की है।
बनारस में सबसे वीभत्स स्थिति मारुति नगर की है। यह वह इलाका है जहां वाराणसी विकास प्राधिकरण (वीडीए) के अफसरों और कारिंदों ने रिश्वत लेकर हजारों इमारतें खड़ा करा दी है। स्थिति भयावह मोड़ पर पहुंची है तो प्रशासन अब अवैध निर्माण वाले भवनों की सूची तैयार कराने की तैयारी कर रहा है। कलेक्टर एस.राजलिंगम ने कहा है कि वीडीए के अफसरों को निर्देश दिए गए हैं कि बेसिन क्षेत्र में साल भर के अंदर हुए अवैध निर्माण सील कराया जाएगा।
बनारस के कलेक्टर राजलिंगम दावा करते हैं, "बाढ़ से निपटने के लिए बनारस में चाक-चौबंद व्यवस्था है। प्रभावित लोगों को आश्रय देने के लिए बाढ़ राहत चौकियां खोल दी गई हैं। बाढ़ग्रस्त इलाकों में नावों के प्रबंध किए गए हैं। वाराणसी शहर में बाढ़ से करीब 4,461 लोग प्रभावित हुए हैं। डीएम ने कहा कि उन्होंने प्रभावित लोगों को बचाने के लिए 22 टीमें तैनात की हैं। जल पुलिस भी अपनी मोटरबोटों पर काम कर रही है। जिले में 14 राहत शिविर हैं, जहां 220 परिवार रह रहे हैं और प्रशासन उनकी देखभाल कर रहा है।"
बनारस जिला प्रशासन भले ही करीब करीब 4,461 लोगों को बाढ़ पीड़ित मान रहा है, जबकि स्थिति इससे कई गुना ज्यादा भयावह है। गंगा की बाढ़ के चलते वरुणा और असि नदियों के तटवर्ती इलाकों में रहने वाले लोगों की दुश्वारियां बढ़ गई हैं। ढेलवरिया, कोनिया, सामने घाट, सरैया, डोमरी, नगवा, रमना, बनपुरवा, शूलटंकेश्वर के कुछ गांव, फुलवरिया, सुअरबड़वा, नक्खीघाट, सरैया समेत कई इलाकों में बाढ़ ने अपना कहर बरपाना शुरू कर दिया है। इन इलाकों में कई लोगों के घरों में पानी घुस गया है। बड़ी संख्या में लोग घर छोड़ने के लिए मजबूर हो गए हैं। कुछ लोग अपने घरों का सामान लेकर रिश्तेदारों और परिचितों के यहां जा रहे हैं।
कोनिया, सरैया, पुल कोहना, सोना तालाब, बघवा नाला, सलारपुर से लगायत सराय मोहाना तक के इलाके में लोग दुश्वारियों के बीच बस किसी तरह से दिन काटने के लिए विवश हैं। जिन लोगों को राहत शिविरों में जगह नहीं मिल पाई है उन्होंने सामान दूसरों के यहां रखकर घर की छत पर अपना ठिकाना बना लिया है।
फिर डूब गई हज़ारों की गृहस्थी
बाढ़ प्रभावित इलाकों में के पानी में बहकर आए सांप-बिच्छू भी लोगों के घरों में घुस गए हैं। मरे हुए मवेशियों के दुर्गंध से बाढ़ पीड़ितों की मुश्किलें बढ़ गई हैं। गंगा, वरुणा और असि नदियों में पानी से जिन लोगों के मकान डूब गए हैं अथवा बाढ़ से घिर गए हैं उनके बच्चों के सामने मुश्किलें ज्यादा हैं। दीनदयालपुर, पुराना पुल, सरैया, जलाल बाबा, नजीरपुरा आदि मुहल्लों में रहने वाले लोगों की दुश्वारियां बढ़ गई हैं। कई बुनकरों के करघों में पानी भर गया है। नजीरपुरा में मुमताज और जुनैद का घर पानी में डूब गया है और बुनकरी का काम बंद है। जमील अहमद का करघा पानी में डूब गया है। यही स्थिति बुनकर शर्फुदीन की है।
नजीरपुरा मुहल्ले में कई लोगों घरों में पानी घुस गया है। यहां लूम चलाने वाले तालिब कहते हैं, "वरुणा के तटवर्ती इलाकों में रहने वाले रहने वाले लोगों के बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। दुश्वारियां बढ़ गई हैं।" इसी मुहल्ले में रहते हैं इकबाल। इनके तीन बेटे एकलाक, रेयाज, और जैनुल गंभीर रूप से बीमार हैं। इन्हें एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया है। बीते रविवार को इकबाल की बेटी शमा परवीन का निकाह था, लेकिन शादी की तैयारियां करने वाले परिवार के लोग अस्पताल में थे। इकबाल कहते हैं, "शादी में लगने वाला पैसा इलाज में खर्च हो गया। हमारे बेटे लूम चलाते थे। हम तानी जोड़ते थे, तब घर का खर्च चल पाता था। दुश्वारियां बढ़ गई हैं। इलाकाई पार्षद हाजी ओकास अंसारी को कई दिनों से फोन कर रहे हैं, लेकिन वो काट रहे हैं।"
बुनकर व्यवसायी हसीन अहमद कहते हैं, "हर तीन साल में ऐसी भीषण बाढ़ आती है। इससे पहले साल 2013, 2016 और 2019 में ऐसी ही भयानक बाढ़ आई थी। पिछली मर्तबा बाढ़ की वजह से करीब एक महीने तक कारख़ाना बंद रहा, जिसकी वजह से तमाम बुनकरों की बरसों की बनाई गृहस्थी उजड़ गई थी। लूम और करघों पर चढ़ीं साड़ियां काली पड़ गई थी। इस बार थोड़ी राहत है, लेकिन दुश्वारियां कम नहीं हुई हैं। बहुत से लोग दाने-दाने के लिए तरस रहे हैं।" बुनकर गुड़िया ने शिकायत करते हुए कहा, "पहले बाढ़ आती थी तो इलाके के स्कूल और मदरसों में सभी को अस्थायी आश्रय घर सभी को राहत पहुंचाई जाती थी। इस बार भी प्रशासन ने वादा किया था, लेकिन राहत शिविरों में सिर्फ उन्हीं लोगों को शरण दी जा रही है, जिनके इलाकाई पार्षदों अथवा नेताओं से ताल्लुकात हैं।"
खामोश हो गए लूम व करघे
गंगा और वरुणा नदी में आई बाढ़ की वजह से शहर के दर्जन भर मोहल्लों में लूम और करघों की धड़कन बंद हो गई हैं। हालत यह है कि बुनकरों को अब दो वक्त की रोटी जुटा पाना मुहाल हो गया है। वरुणा नदी के किनारे बसे वंचित समुदाय के लोगों के घरों में पानी घुसने से बिजली की सप्लाई के साथ-साथ करघे और लूम खामोश हो गए हैं। बाढ़ के चलते 158 लोगों ने सरैया स्थित प्राथमिक विद्यालय राहत शिविर में शरण ली है। इन्हीं में एक हैं जलाल बाबा मुहल्ले की नजरून और दीनदयालपुर की गुड़िया। इनके पति मजूरी करते हैं। नजरून कहती हैं, "हमारी गृहस्थी पानी में डूब गई है। प्रशासन ने हमें राहत शिविर में पहुंचा दिया है। यहां खाने-पीने की दिक्कत नहीं है। बाढ़ प्रभावित इलाकों में भीषण गंदगी है।"
पुराना पुल की चंदा बीबी, कैरुनिशा के घर पानी में डूब गए हैं। चंदा साड़ी पर मोती लगाने का काम करती हैं। वह कहती हैं, "हमें कोई भी काम नहीं मिल पा रहा है। जो पैसा कमाते हैं वो इलाज पर खर्च हो जाता है। पति मजूरी करते हैं तब किसी तरह से घर का खर्च चल पाता है।" लोगों के घरों में झाडू-चौका-बर्तन करने वाली नाजमीन कहती हैं, "हमारे दुखों का कोई अंत नहीं है। हर साल बाढ़ आती है और हमारी स्थिति लावारिश जैसी हो जाया करती है। काम-धंधा ठप हो जाता है, तब हमारी जिंदगी भी जाम हो जाती है।"
रोशन जहां के पिता शमीम टोटो चलाते हैं और अम्मी सिलाई करती हैं। बाढ़ के पानी से काम- धंधा बंद है। राहत शिविरों में शरण लेने वालों में शाहना, कैरूनिशा, नीलू, रोशनजहां, शबा, अंजुम निशा, मो.करीम, तसलीम, सायरा बानो, नसीर, खातून, रसीदा मो.असलम, शहाना कहती हैं, "बाढ़ के चलते सरैया स्थित राहत शिविर से हम लौट आए हैं। इस बार राहत शिविरों में स्थिति काफी बेहतर है।"
सरैया के राहत शिविर में हमारी मुलाकात 25 वर्षीय जूही खातून से हुई। जूही बरियासनपुर स्थित एक डिग्री कालेज में समाजशास्त्र से पोस्टग्रेजुएट कर रही हैं। वह पुराना पुल स्थित मोहल्ला लाल भट्ठा इलाके में रहती हैं। परिवार में कुल नौ लोग हैं, जिनमें दो भाई और पांच बहनों के साथ-माता-पिता एक साथ रहते हैं। जूही कहती हैं, "बाढ़ से हमारी पढ़ाई प्रभावित हो रही है। हमने पुलिस में भर्ती के लिए परीक्षा दी है। पहले मैं नौकरी करूंगी, फिर शादी। हमारे दोनों भाई ड्राइविंग करते हैं और उसी से परिवार का खर्च चलता है। बड़ी बहन कायनात यूपीएससी की तैयारी कर रही हैं। बाढ़ के चलते हमारी आर्थिक स्थिति कमजोर हुई है।"
ये कराहती गंगा के आंसू हैं
वाराणसी के वरिष्ठ पत्रकार एवं चिंतक प्रदीप कुमार नौकरशाही की कोशिशों को सिर्फ दिखावा मानते हैं। वह कहते हैं, "बाढ़ पीड़ितों को सिर्फ राहत पहुंचा देना और राहत के नाम पर भोजन बांट देना ही काफी नहीं है। सबसे पहले हमें बाढ़ की वजहों पर सबसे पहले गौर करना होगा। हर दो साल बाद बाढ़ हमें परेशान करती है। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि नदी के स्वभाविक और प्राकृतिक चरित्र के साथ लगातार खिलवाड़ चल रहा है। यह काम बड़ी नदियों के साथ ज्यादा हुआ है। गंगा इसकी शिकार है। बिना प्राकृतिक पारिस्थिति का विश्लेषण किए उसकी धारा को रोकने का दुस्साहस करने की वजह से बाढ़ लोग बाढ़ के शिकार हो रहे हैं।"
"बनारस में पिछले आठ सालों से गंगा के साथ भद्दा मजाक किया गया। गंगा के तटवर्ती इलाकों और प्राचीन घाटों की पारिस्थितिकी को बदलने की कोशिश की है जिसका खामियाजा बनारस की जनता को भुगतना पड़ रहा है। दुनिया में विकास के ना पर अपनी प्रकृति के साथ इतना बड़ा खिलवाड़ कभी नहीं हुआ। दुनिया के उन देशों का अध्ययन किया जाए जो विकासशील से विकसित होने की श्रेणी में पहुंच गए हैं, उन्होंने अपने प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण व संवर्धन करते हुए विकास की योजनाओं को मूर्त रूप दिया है।"
प्रदीप यह भी कहते हैं, "भारत दुनिया का अकेला ऐसा मुल्क है जिसने न सिर्फ नदियों की जबर्दस्त उपेक्षा की, बल्कि खिलवाड़ भी किया। नदियों के साथ मनमानी का सबसे बड़ा उदाहरण पीएम नरेंद्र मोदी के बनारस में देखने को मिल रहा है। यहां कभी बालू में नहर बनाई जाती है तो कभी गंगा में जलपोत चलाने के लिए ड्रेजिंग पर मनमाना धन लुटा दिया जाता है। हाल ऐसा है कि यहां अंधेर नगरी चौपट राज की कहवात चरितार्थ होती नजर आती है।"
"बाढ़ प्रभावित इलाकों में आवासीय कालोनियों का विस्तार होता रहता है और प्रशासन आंख बंद किए रहता है। सीधी सी बात है कि हम अगर गंगा में घुसने की कोशिश करेंगे तो गंगा हमारे इलाके में घुसेंगी ही। गंगा का बाढ़ हमेशा सौम्य नहीं होता, उसका रौद्र रूप कई बार तबाही की पटकथा लिख जाता है। इस बार भी ऐसा ही हो रहा है। विश्वनाथ कॉरिडोर के नाम पर ललिता घाट पर हुई मनमानी और छेड़छाड़ का नतीजा है कि आज गंगा कॉरिडोर में घुसने को आतुर नजर आती हैं। बनारस के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ था।"
तबाही ज़्यादा, आकलन कम
बनारस शहर ही नहीं, ग्रामीण इलाकों में भी गंगा, वरुणा और गोमती नदियां तबाही मचा रही हैं। पिंडरा इलाके के कोइराजपुर, चमाव, भगतुपुर, दासेपुर, गोसाईपुर, करोमा के अलावा रामेश्वर, पसीपुर, पांडेयपुर, तेंदुई, सत्तनपुर समेत दर्जनों गांवों में सैकड़ों एकड़ फसल जलमग्न हो गई है। बनारस का इकलौता आईलैंड ढाब पूरी तरह टापू बन गया है। बाढ़ का पानी इस आईलैंड पर बसे 35 हजार लोगों से लिए मुसीबत का सबब है। बनारस के दर्जनों गांवों में बाढ़ का पानी निचले इलाकों में घुसकर तबाही मचा रहा है।
जिले में करीब 61 गांव बाढ़ की चपेट में हैं। ग्रामीण इलाकों में रमना, डाफी, चिरईगांव, चौबेपुर के अलावा बनारस का इकलौता आईलैंड ढाब भी बाढ़ से चौतरफा घिर गया है। बनारस का इकलौता आईलैंड ढाब पूरी तरह टापू बन गया है। बाढ़ का पानी इस आईलैंड पर बसे 35 हजार लोगों से लिए मुसीबत का सबब है। दर्जनों गांवों में बाढ़ का पानी निचले इलाकों में घुसकर तबाही मचा रहा है। जिले में करीब साठ गांव बाढ़ की चपेट में हैं। ढाब आईलैंड में गंगा नदी की कटान के चलते समस्या गंभीर होती जा रही है।
मुस्तफाबाद के प्रधान राजेंद्र सिंह ने कहा, "रमचंदीपुर, मोकलपुर, गोबरहां, रामपुर, मुस्तफाबाद में बाढ़ का पानी किसानों की जमीनें लीलती जा रही है। ढाब इलाके के सोता में बड़े पैमाने पर हो रहे कटान के चलते सैकड़ों एकड़ उपजाऊ खेत बाढ़ के पानी में डूब गए हैं। इस इलाके में नदी के किनारे बोई गई मक्का, धान, तिल, नेनुवा, लौकी, परवल आदि फसलें बाढ़ की भेंट चढ़ गई हैं। मोकलपुर स्थित अंबा सोता पर प्रशासन ने नावों का संचालन शुरू करा दिया है। रिंग रोड बनाने के लिए ढाब आईलैंड पर किए गए अवैध खनन के चलते इस टापू पर रहने वाले लोगों की जान सांसत में है।"
गोमती किनारे तक दर्जनों गांव-गांव के फसलें जलमग्न हो गई हैं। ढाब क्षेत्र में सोता पुल मार्ग पर गंगा का पानी चढ़ आया है। चिरईगांव, अराजीलाइन और चोलापुर प्रखंड के कई गांवों में खरीफ की फसलें और सब्जियों के खेत बाढ़ में डूब गए हैं। नदियों के किनारे फसलें पानी में डूब गई हैं। पिंडरा इलाके के कोइराजपुर, चमाव, भगतुपुर, दासेपुर, गोसाईपुर, करोमा के अलावा रामेश्वर, परसीपुर, पांडेयपुर, तेंदुई, सत्तनपुर समेत दर्जनों गांवों में सैकड़ों एकड़ खरीफ की फसलें जलमग्न हो गई हैं।
प्रयोगों की राजधानी बना बनारस
बनारस में जाने-माने पर्यावरणविद एवं संकटमोचन मंदिर के महंत प्रो.विशंभरनाथ मिश्र कहते हैं, "वक्त किसी के साथ कंप्रोमाइज नहीं करता। हाल के कुछ सालों में बनारस ने जो करवट बदला है उससे यह शहर प्रयोगों की राजधानी बन गया है। बाढ़ के चलते रिस्क और चुनौतियां बढ़ गई हैं। समूचे बनारस को गुजरात माडल को दिखा-दिखाकर तहस-नहस किया गया है। जो लोग बनारसियों को गुजरात माडल दिखाते हैं, वही गुजरात जाकर बनारस माडल का गुणगान करने लगते हैं। दरअसल इनके पाक कोई माडल है ही नहीं। विकास के नाम पर सरकार ने न जाने कितने पारंपरिक सिस्टम खत्म कर दिए गए जो बाढ़ की विभीषिका को रोका करते थे। चलते-फिरते और दौड़ते शहर को कुछ ही सालों में तहस-नहस कर दिया गया और बनारस के लोग प्रतिकार तक नहीं कर सके।"
प्रो.मिश्र कहते हैं, "पहले बनारस में बाढ़ आती थी तो शहर में नहीं घुसती थी। इस बार बाढ़ तो आई है, लेकिन वो गंगा का पानी नहीं, बजबजाता हुआ सीवर है। शायद यही बनारस का अनूठा माडल है जो इन दिनों बनारसियों को दिखाया जा रहा है। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर में बाढ़ का पानी इसलिए उथल-पुथल कर रहा क्योंकि एक तरफ नदी को पाट दिया गया तो दूसरी ओर, पक्के महाल का रास्ता ही बंद कर दिया गया। चिंता इस बात की है कि अब एक सनक की कीमत बनारस के हजारों-लाखों लोगों को भुगतनी पड़ रही है। काम तो ऐसा होना चाहिए जिससे हर किसी के चेहरे पर मुस्कान आए, बाढ़ की विभीषिका नहीं।"
वरुणा नदी और अस्सी नाले के किनारे बसे इलाकों में बाढ़ का इतिहास और हालिया विकास एक गंभीर चिंता का विषय बन गया है। 1978 में, जब वाराणसी ने अपनी सबसे भयंकर बाढ़ का सामना किया था, तब इन इलाकों में कोई बड़ा निर्माण नहीं हुआ था। वरुणा और अस्सी के दोनों ओर का क्षेत्र जलप्रलय से ग्रस्त था और रहने लायक नहीं रह गया था। लेकिन जैसे-जैसे समय बीता, स्थानीय विकास प्राधिकरण ने इन स्थानों पर नई कॉलोनियों का निर्माण शुरू कर दिया।
वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य के अनुसार, "1978 की बाढ़ के बाद भी इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर निर्माण हुआ। उस समय तो बाढ़ से बचने के लिए कोई प्रभावी योजना नहीं थी, लेकिन बाद में विकास प्राधिकरण ने यहां कॉलोनियां बसा दीं। अब, जब शहर में सौंदर्यीकरण और विकास के नाम पर अतिक्रमण और स्थायी निर्माण हुए हैं, तो जलस्तर में थोड़ी सी भी वृद्धि गंभीर संकट पैदा कर सकती है।"
विनय मौर्य ने आगे बताया कि शहर के कई हिस्सों में निर्माण कार्य अतिक्रमण के तहत आ गया है। इससे समस्या और जटिल हो गई है, क्योंकि अब बाढ़ आने पर शहर के आवासीय इलाकों में पानी का प्रवाह और भी बढ़ जाता है। वर्तमान सरकार के सौंदर्यीकरण योजनाओं के तहत कई क्षेत्रों में अतिरिक्त स्थायी निर्माण किए गए हैं, जिनमें से कुछ जल निकासी के प्राकृतिक मार्गों को अवरुद्ध कर रहे हैं। ऐसे में, जलस्तर में थोड़ी भी बढ़ोतरी विनाशकारी साबित हो सकती है।
क्या यही है क्योटो जैसा विकास दावा?
नदी वैज्ञानिक एवं एक्टिविस्ट सौरभ सिंह भी इस विषय पर चिंतित हैं। उन्होंने कहा, "नदी की धाराओं में हो रहे निर्माण कार्य, नदी में निर्माण सामग्री का डाला जाना, और पुरानी सीवर लाइनों की उपेक्षा करते हुए घाटों का नवीनीकरण करना बाढ़ के कुछ मुख्य कारण हैं। जब नदी के किनारे ऐसे भारी निर्माण होते हैं, तो नदी का प्राकृतिक प्रवाह बाधित हो जाता है। न केवल पानी का प्रवाह धीमा पड़ता है, बल्कि पानी को निकलने का रास्ता भी मिलना मुश्किल हो जाता है।"
सौरभ सिंह ने यह भी कहा कि हाल ही में लौटे मानसून ने स्थिति को और भी विकट बना दिया है। बाढ़ की संभावना पहले से ही अधिक थी, लेकिन मानसून के कारण यह और बढ़ गई है। "हमारे अनुमान के अनुसार, पिछले तीन वर्षों में सरकारी एजेंसियों और निजी बिल्डरों ने वाराणसी में गंगा में कई सौ टन मलबा फेंका है। यह मलबा नदी के जल प्रवाह को बाधित कर रहा है, जिससे नदी की जल धारण क्षमता कम हो गई है। इसका सीधा असर यह हो रहा है कि पानी अब रिहायशी इलाकों में घुसने लगा है।"
सौरभ सिंह की बात में गहरी चिंता झलकती है। उन्होंने कहा, "अतिक्रमण इतना बढ़ गया है कि हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर कुछ दशकों के बाद नदी का अस्तित्व ही समाप्त हो जाए। और मामूली बारिश भी शहर को जलमग्न कर सकती है। नदी किनारे के निर्माणों के कारण जल निकासी के प्राकृतिक मार्ग अवरुद्ध हो गए हैं, जिससे बाढ़ की समस्या और विकराल हो गई है। इन सबके बीच यह सवाल उठता है कि वाराणसी जैसे ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व वाले शहर में इस तरह के अनियंत्रित निर्माण कार्य किस तरह से शहर के भविष्य को प्रभावित करेंगे। अगर बाढ़ से निपटने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो आने वाले वर्षों में वाराणसी का अधिकांश हिस्सा जलप्रलय से घिरा रहेगा।"
बनारस में बाढ़ आई तबाही के लिए चंदौली के सांसद वीरेंद्र सिंह मोदी-योगी सरकार को जिम्मेदार ठहराते हैं। चंदौली के दो विधानसभा क्षेत्र बनारस के हिस्से हैं। वीरेंद्र कहते हैं, "बनारस ने गुजरात से आए जिस नरेंद्र मोदी को भारी मतों के साथ साल 2014, 2019 और में सांसद बनाकर संसद में भेजा, लेकिन पिछले एक दशक में लोगों ने सिर्फ सतही विकास देखा है। इस शहर की सड़कों पर करीब 850 करोड़ खर्च करने और शहर को स्मार्ट बनाने का दावा किया जा रहा है। इसके बावजूद बनारस के वोटरों का एक बड़ा तबका अब उन्हें रेटिंग के पैमाने पर अच्छी रैंकिंग नहीं दे रहा है। खासतौर पर गंगा की सफाई, खोदी गई और उबड़-खाबड़ सड़कें, उफनते सीवर, संकीर्ण और क्लॉस्ट्रोफोबिक गलियां, ट्रैफिक जाम, बेरोजगारी और खराब स्वास्थ्य सेवा जैसी उनकी गलतियों को गिनाता है। मोदी ने बनारस के लोगों को क्योटो जैसे विकास का वादा किया था, जो आज तक सपना बना हुआ है।"
बाढ़ और मोदी के विकास को छलावा करार देते हुए सांसद वीरेंद्र सिंह कहते हैं, "बनारस के लोगों ने पिछले एक दशक में सिर्फ तंगहाली देखी, बदहाली देखी, सीवर का बहता पानी देखा, सड़कों के गड्ढे और जलभराव देखा, टमाटर की महंगाई का विरोध करने वालों को जेल जाते देखा, वीआईपी के चलते शहर में डाइवर्जन और भीषण जाम देखा। महंगाई और बेरोजगारी से जूझ रहा बनारस जैसे पहले था, वैसे आज भी है। करप्शन और शिकायतों पर एक्शन नहीं होने से बनारसियों की मुश्किलें बढ़ी हैं। मोदी का सारा काम खेल-तमाशे जैसा दिखता है। जब बनारस शहर डूबता जा रहा है तो हम कैसे मान लें कि मोदी का बनारस शहर स्मार्ट हो गया है?"
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)