प्रोफेसर अपूर्वानंद ने अमेरिका में एक सेमिनार में शामिल होने के लिए 35 दिन पहले छुट्टी का आवेदन दिया था, लेकिन 2 अप्रैल को विश्वविद्यालय से उन्हें यात्रा की अनुमति न देने का पत्र मिला।

दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिंदी डिपार्टमेंट में प्रोफेसर अपूर्वानंद को न्यूयॉर्क स्थित द न्यू स्कूल में एक अकादमिक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए विश्वविद्यालय से अनुमति नहीं मिली। यूनिवर्सिटी प्रशासन ने उनसे अपने भाषण की प्रति जमा करने को कहा लेकिन प्रोफेसर ने जमा करने से मना कर दिया तो उन्हें जाने की इजाजत नहीं दी गई।
द वायर की रिपोर्ट के अनुसार, प्रोफेसर अपूर्वानंद ने द न्यू स्कूल में इंडिया चाइना इंस्टिट्यूट की 20वीं वर्षगांठ के कार्यक्रम में भाग लेने के लिए छुट्टी का आवेदन किया था। प्रोफेसर के मुताबिक़, उन्होंने 35 दिन पहले छुट्टी का आवेदन दिया था, लेकिन 2 अप्रैल को विश्वविद्यालय से उन्हें यात्रा की अनुमति न देने का पत्र मिला।
ज्ञात हो कि इंडिया चाइना इंस्टिट्यूट की 20वीं वर्षगांठ 23 अप्रैल से 1 मई के बीच होने वाली है। प्रोफेसर को जिस सेमिनार में बोलना था, उसका विषय था– वैश्विक अधिनायकवाद के दौर में विश्वविद्यालय की स्थिति।
द वायर हिंदी से बातचीत में प्रोफेसर अपूर्वानंद ने विश्वविद्यालय प्रशासन के कदम को अकादमिक स्वतंत्रता के सिद्धांत का उल्लंघन और सेंसरशिप बताया है।
मामले को गृह मंत्रालय को भेजे जाने पर सवाल
प्रोफेसरों की छुट्टी पर फैसला यूनिवर्सिटी को ही लेना होता है। इसमें किसी मंत्रालय की कोई भूमिका नहीं होती है। प्रोफेसर ने यूनिवर्सिटी के कंपिटेंट अफसर को छुट्टी का एप्लिकेशन भेजा था, लेकिन विश्वविद्यालय ने इस मामले को केंद्रीय गृह मंत्रालय को भेज दिया।
‘विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने मुझे बताया कि मेरा अवकाश आवेदन मंत्रालय को भेज दिया गया है. फिर उन्होंने मुझे मंजूरी के लिए मेरे भाषण का पाठ प्रस्तुत करने के लिए कहा. ये दोनों ही बातें (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का) उल्लंघन हैं।’
प्रोफेसर अपूर्वानंद ने कहा, ‘छुट्टी की मंजूरी में मंत्रालय को हस्तक्षेप करने के लिए कहना संस्थागत स्वायत्तता का उल्लंघन है, जबकि मुझसे मेरे भाषण की प्रति मांगना अकादमिक स्वतंत्रता का उल्लंघन है। विश्वविद्यालय अपनी संस्थागत स्वायत्तता की रक्षा करने के लिए तैयार नहीं है। मेरे पास रजिस्ट्रार का भी फोन आया, जिसमें मुझे जल्द से जल्द भाषण की प्रति भेजने के लिए कहा गया, लेकिन मैंने यह कहते हुए मना कर दिया कि यह संभव नहीं है।’
दिल्ली यूनिर्सिटी के अफसर ने मीडिया से कहा कि मंत्रालय से सलाह लेने का फैसला ‘अंतरराष्ट्रीय संदर्भ को ध्यान में रखते हुए’ किया गया था, ‘हम आमतौर पर मंत्रालय से संपर्क नहीं करते, लेकिन इस मामले में हमें लगा कि उनकी सलाह लेना बेहतर होगा। हमने उनसे (अपूर्वानंद से) उनके भाषण की एक प्रति मांगी थी, लेकिन उन्होंने नहीं दी।’
द वायर हिंदी से बातचीत में प्रोफेसर अपूर्वानंद ने इस पर कहा कि, ‘ऐसा कोई नियम तो है नहीं। पहले भी तो लोग जाते रहे हैं। यह कोई कारण नहीं है। और अगर यह कारण भी है तो आप क्या चाहते हैं कि आपको पहले ही व्याख्यान का प्रारूप दे दिया जाए। फिर उससे आप संतुष्ट होंगे तो अनुमति देंगे, संतुष्ट नहीं होंगे तो अनुमति नहीं देंगे। यह तो सेंसरशिप हो गई और यह आज तक नहीं हुआ है।’
वह आगे कहते हैं, ‘विश्वविद्यालयों में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के जो विभाग हैं, उसके लोग ही ज्यादा विदेश जाते रहते हैं, तो उनसे तो कभी नहीं मांगा जाता। हमारे विश्वविद्यालय का जो रूल बुक हैं- पूरे रूल बुक में भी यह बात कहीं नहीं लिखी हुई है।’
अकादमिक जगत में इस सेंसरशिप की आलोचना हो रही है। विश्वविद्यालय में बोलने और लिखने की स्वतंत्रता सीमित होने पर अपूर्वानंद ने कहा, ‘यह स्वतंत्रता सीमित हो रही है। पिछले 10 वर्ष से जो हमने देखा है, विश्वविद्यालय में अध्यापक स्वतंत्र नहीं हैं और छात्र भी स्वतंत्र नहीं हैं। दोनों स्वतंत्र नहीं हैं- अपनी-अपनी बात कहने के लिए। एक प्रकार के विद्यार्थी और अध्यापक जरूर स्वतंत्र हैं, जो सत्ताधारी दल या उसके विचार से जुड़े हैं. बाकी कोई स्वतंत्र नहीं है।’
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द वायर की रिपोर्ट के अनुसार, प्रोफेसर अपूर्वानंद ने द न्यू स्कूल में इंडिया चाइना इंस्टिट्यूट की 20वीं वर्षगांठ के कार्यक्रम में भाग लेने के लिए छुट्टी का आवेदन किया था। प्रोफेसर के मुताबिक़, उन्होंने 35 दिन पहले छुट्टी का आवेदन दिया था, लेकिन 2 अप्रैल को विश्वविद्यालय से उन्हें यात्रा की अनुमति न देने का पत्र मिला।
ज्ञात हो कि इंडिया चाइना इंस्टिट्यूट की 20वीं वर्षगांठ 23 अप्रैल से 1 मई के बीच होने वाली है। प्रोफेसर को जिस सेमिनार में बोलना था, उसका विषय था– वैश्विक अधिनायकवाद के दौर में विश्वविद्यालय की स्थिति।
द वायर हिंदी से बातचीत में प्रोफेसर अपूर्वानंद ने विश्वविद्यालय प्रशासन के कदम को अकादमिक स्वतंत्रता के सिद्धांत का उल्लंघन और सेंसरशिप बताया है।
मामले को गृह मंत्रालय को भेजे जाने पर सवाल
प्रोफेसरों की छुट्टी पर फैसला यूनिवर्सिटी को ही लेना होता है। इसमें किसी मंत्रालय की कोई भूमिका नहीं होती है। प्रोफेसर ने यूनिवर्सिटी के कंपिटेंट अफसर को छुट्टी का एप्लिकेशन भेजा था, लेकिन विश्वविद्यालय ने इस मामले को केंद्रीय गृह मंत्रालय को भेज दिया।
‘विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने मुझे बताया कि मेरा अवकाश आवेदन मंत्रालय को भेज दिया गया है. फिर उन्होंने मुझे मंजूरी के लिए मेरे भाषण का पाठ प्रस्तुत करने के लिए कहा. ये दोनों ही बातें (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का) उल्लंघन हैं।’
प्रोफेसर अपूर्वानंद ने कहा, ‘छुट्टी की मंजूरी में मंत्रालय को हस्तक्षेप करने के लिए कहना संस्थागत स्वायत्तता का उल्लंघन है, जबकि मुझसे मेरे भाषण की प्रति मांगना अकादमिक स्वतंत्रता का उल्लंघन है। विश्वविद्यालय अपनी संस्थागत स्वायत्तता की रक्षा करने के लिए तैयार नहीं है। मेरे पास रजिस्ट्रार का भी फोन आया, जिसमें मुझे जल्द से जल्द भाषण की प्रति भेजने के लिए कहा गया, लेकिन मैंने यह कहते हुए मना कर दिया कि यह संभव नहीं है।’
दिल्ली यूनिर्सिटी के अफसर ने मीडिया से कहा कि मंत्रालय से सलाह लेने का फैसला ‘अंतरराष्ट्रीय संदर्भ को ध्यान में रखते हुए’ किया गया था, ‘हम आमतौर पर मंत्रालय से संपर्क नहीं करते, लेकिन इस मामले में हमें लगा कि उनकी सलाह लेना बेहतर होगा। हमने उनसे (अपूर्वानंद से) उनके भाषण की एक प्रति मांगी थी, लेकिन उन्होंने नहीं दी।’
द वायर हिंदी से बातचीत में प्रोफेसर अपूर्वानंद ने इस पर कहा कि, ‘ऐसा कोई नियम तो है नहीं। पहले भी तो लोग जाते रहे हैं। यह कोई कारण नहीं है। और अगर यह कारण भी है तो आप क्या चाहते हैं कि आपको पहले ही व्याख्यान का प्रारूप दे दिया जाए। फिर उससे आप संतुष्ट होंगे तो अनुमति देंगे, संतुष्ट नहीं होंगे तो अनुमति नहीं देंगे। यह तो सेंसरशिप हो गई और यह आज तक नहीं हुआ है।’
वह आगे कहते हैं, ‘विश्वविद्यालयों में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के जो विभाग हैं, उसके लोग ही ज्यादा विदेश जाते रहते हैं, तो उनसे तो कभी नहीं मांगा जाता। हमारे विश्वविद्यालय का जो रूल बुक हैं- पूरे रूल बुक में भी यह बात कहीं नहीं लिखी हुई है।’
अकादमिक जगत में इस सेंसरशिप की आलोचना हो रही है। विश्वविद्यालय में बोलने और लिखने की स्वतंत्रता सीमित होने पर अपूर्वानंद ने कहा, ‘यह स्वतंत्रता सीमित हो रही है। पिछले 10 वर्ष से जो हमने देखा है, विश्वविद्यालय में अध्यापक स्वतंत्र नहीं हैं और छात्र भी स्वतंत्र नहीं हैं। दोनों स्वतंत्र नहीं हैं- अपनी-अपनी बात कहने के लिए। एक प्रकार के विद्यार्थी और अध्यापक जरूर स्वतंत्र हैं, जो सत्ताधारी दल या उसके विचार से जुड़े हैं. बाकी कोई स्वतंत्र नहीं है।’
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