क्या मुसलमानों के शैक्षणिक स्तर पर बात करने की जिम्मेदारी आलिम वर्ग की नहीं है? 

Written by Wasim Akram Tyagi | Published on: December 3, 2018
तब्लीगी जमात का जो इज्तेमा बुलंदशहर में हो रहा है, यह न तो पहला इज़्तिमा है और न ही आख़िरी, लेकिन सवाल यह है कि इस इज़्तेमे से समाज का कितना फायदा है? इज़्तिमा हो, जितना बड़ा इस बार हुआ है उससे और भी अधिक बड़ा हो, लेकिन उसमें धार्मिक तक़रीरों के साथ साथ मौजूदा निज़ाम को कैसे दुरुस्त किया जाये, कैसे मुसलमानों के शैक्षणिक स्तर को ऊपर लाया जाऐ इस पर भी तो तक़रीरें हों, क्या मुसलमानों के आलिम वर्ग की यह ज़िम्मेदारी नही है? 

देश का चतुर वर्ग तो यही चाहता है कि मुसलमान धार्मिक तक़रीरो में ही उलझे रहें और उन समस्याओं के खिलाफ इस तरह की एकजुटता न दिखाऐं जो समस्याऐं सरकार द्वारा पैदा की गई हैं। सत्तर साल से तो यही तो होता आ रहा है, राजनीतिक दलों ने मुसलमानो को वोट बैंक रूप में इस्तेमाल किया तो धार्मिक नेताओ ने उन्हें धार्मिक मसलो में उलझा दिया। 'मौलवी' साहब ने कह दिया कि अंग्रेजी और हिन्दी पढ़ना 'हराम' तो फिर आम मुसलमान की क्या मजाल कि 'मौलवी' साहब से सवाल करता कि हिन्दी और अंग्रेजी हराम कैसे? 

धीरे-धीरे मुसलमानों का शैक्षणिक स्तर गिरता गया, नतीजा यह हुआ कि वह सच्चर कमेटी तक आ पहुंचा, मुसलमान सिर्फ उर्दू पढ़ता रहा उसे मालूम था कि उर्दू से भी वह अपनी रोज़ी रोटी चला सकता है, लेकिन जब एक पूरी पीढ़ी हिन्दी और अंग्रेजी पढ़े बगैर जवान हो गई तब सरकार ने चतुराई दिखाई और उर्दू को राष्ट्रभाषा से अलग कर दिया, और वह पीढ़ी जो उर्दू पढ़कर ग्रेजुएट हुई थी वह तो बेरोजगार ही रह गई। वह छात्र जिसने 'मौलवी' साहब द्वारा हिन्दी, अंग्रेजी को 'दूसरों' की भाषा मानकर पढ़ना बंद कर दिया था, वह हिन्दी में लिखे साईन बोर्ड के बारे में लोगों से पूछ रहा था कि इस पर क्या लिखा है। सोचकर बताईयेगा कि इसका कौन जिम्मेदार है? 

लोगों का कहना है कि इज़्तमे में ज़मीन के नीचे और आसमान के ऊपर की बातें नहीं होंगी तो फिर कहां होंगी? उनसे भी एक सवाल है कि ज़मीन के नीचे और आसमान के ऊपर क्या होना है, यह तो ज़मीन पर रहकर, कर्मों के आधार पर तय होगा या नहीं? 

मुझे तब्लीगी जमात और उनके आयोजन से शिकायत है, शिकायत भी इसलिये क्योंकि इस संगठन के पास जितना बड़ा नेटवर्क है, अगर वह दीन के साथ साथ इस नेटवर्क का इस्तेमाल शिक्षा के लिये भी कर लेती तो आज मुसलमान पिछड़ेपन का रोन ना रो रहे होते, यह काम अब भी हो सकता है, और इज्तमे के मंच से भी ऐलान किया जा सकता है, कि 'इल्म हासिल करो चाहे चीन जाना पड़े'। 

कुछ महीने पहले गाज़ियाबाद में मुसलमानों के एक शिक्षण संस्थान ने अपने एक प्रोग्राम में मुझे मुझे बतौर अतिथि बुलाया था। उस संस्थान का निज़ाम देखकर मैं हैरान रह गया, शहर की आबादी से दूर, घने जंगल में बन वह शिक्षण संस्थान जो पीढ़ी तैयार कर रहा है आने वाले दस साल में वह पीढ़ी एक नई क्रान्ति को जन्म देगी, उस संस्थान में मैंने देखा कि कक्षा, छह, सात, आठ में पढ़ने वाले छात्र साथ साथ कुरान भी हिफ्ज भी कह रहे हैं, मैं उन बच्चों से मिला और उनसे सवाल किये कि वे आगे क्या बनना चाहते हैं, किसी ने कहा कि वह साफ्टवेयर इंजनीयर बनेगा, किसी ने कहा कि वह मुफ्ती, तो किसी ने बताया कि वह डॉक्टर बनना चाहेगा। सोचियेगा और बताईयेगा कि मुसलमानों को इस तरह के शिक्षण संस्थानों की ज्यादा ज़रूरत है या फिर ग्राऊंड फुल कर देने वाले उन धार्मिक आयोजनों की ज्यादा आवश्यक्ता है जहां सिर्फ 'दीन' की बातें होती हैं दुनिया की नहीं?

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