'बुलंदशहर इज्तिमा: 2 गज नीचे और 7 आसमान से ऊपर के अलावा राजनैतिक समझाइश भी जरूरी'

Written by Mohd Zahid | Published on: December 3, 2018
बुलंदशहर का इज्तिमा:- हालाँकि मैं किसी फिरके को नहीं मानता, पर यह भी सच है कि किसी फिरके पर तनकीद करने की जगह अपने अंदर झाँक कर अपना इमान खुद से टटोलता हूँ जो कि मुकम्मल नहीं, लाखों खामियाँ है जो मुझे मुसल्लम इमान वाला इंसान बनने नहीं देतीं।

हर इंसान को दूसरे मज़हब या दूसरे आकीदे पर टिप्पणी करने के पहले खुद के अंदर झाँक कर देखना चाहिए कि उसमें क्या कमी है, और फिर वह कमी दूर करने की कोशिश करे। यही सभी समस्याओं का हल है।

बुलंदशहर के दरियापुर और अकबुर समेत कई गांवों की जमीन पर 1 से 3 दिसंबर 2018 तक तीन दिवसीय इज्तिमा आयोजित हो रहा है और ऐसा माना जा रहा है कि इसमें पूरे देश से 10 लाख मुसलमान शामिल हो रहे हैं। इसे दुनिया का सबसे बड़ा इज्तिमा बताया जा रहा है।

बुलंदशहर के गांव दरियापुर में 8 लाख स्क्वायर फुट जगह में पंडाल बनाया गया है। कोई मुसलमान असम, त्रिपुरा से आया है तो कोई केरल, तमिलनाडु से. बंगाल, महाराष्ट्र, एमपी, यूपी और हिमाचल से लेकर कश्मीर से लोग आए हुए हैं।

हालाँकि यूपी का बुलंदशहर बेशक छोटा शहर है, लेकिन जानकारों के अनुसार तीन दिन के लिए 10 लाख से अधिक मुसलमान इस शहर में पहुंच चुके हैं,और लगातार हर कोई तीन दिन के आलमी इज्तेमा (धार्मिक कार्यक्रम) में शामिल होने के लिए पहुंच रहा है।

इस आलमी "तबलीगी इज्तिमा" की तैयारियां पिछले 2 महीने से लगातार की जा रही थीं, लोग अपने खेतों को अपनी मर्जी से इस इज्तिमे के लिए दे रहे थे और वहाँ के लोग खुद इसके इंतज़ाम में लगे हुए थे।

इज्तिमा एक सामुहिक प्रयास से किया जाने वाला आयोजन है जिसमें लोग चंदे या श्रमदान करके सारा इंतज़ाम खुद अपने व्यक्तिगत खर्च से करते हैं, उसमें शामिल होने वाले अपनी यात्रा,अपने रहने और खाने का इंतज़ाम खुद करके जाते हैं और जो भी हो सकती है मदद करते हैं।

इस आयोजन की वित्तीय व्यवस्था केन्द्रीकृत नहीं होती, ना ही इसके कोई 2-4 फाइनेन्सर होते हैं कि उससे इज्तिमे में खर्च होने वाले एक मुश्त पैसे लेकर इज्तिमे की जगह मुसलमानों के लिए यूनिवर्सिटी या कालेज खोल दिए जाएँ।

और वैसे भी कोई और काम किसी दूसरे काम की कीमत पर नहीं हो सकता, हर काम की अपनी अहमियत होती है, काम दोनों ज़रूरी हैं, परन्तु यदि एक काम कामयाबी के साथ हो रहा है तो दूसरे काम के ना होने का कारण और जिम्मेदार पहला कामयाब काम या उसको करने वाले जिम्मेदारान नहीं है।

उसका कारण और ज़िम्मेदार वह लोग हैं जो कौम की ठेकेदारी करते रहे हैं, जिन पर कौम के लिए तमाम स्कूल कालेज यूनिवर्सिटी बनाने की ज़िम्मेदारी थी पर वह दलाली कर गये और इसी कारण से उनकी बातों में वह यकीं ही नहीं कि वह ओलेमाओं की तरह एक आह्वाहन पर कौम के 10 लाख लोगों को एक जगह इकट्ठा कर दें।

दीन सबका अपना होता है, जैसे हिन्दुस्तान में हर 50 किमी बाद भाषा और संस्कृत बदल जाती है वैसे ही इस्लाम के मानने वालों का भी इस्लाम को मानने के अंदाज़ में कुछ ना कुछ फर्क आ ही जाता है।

हमें सबका सम्मान करना चाहिए और खुद को ही सबसे अच्छा और सही तरह से इस्लाम मानने वाला समझ कर दूसरे पर तंकीद नहीं करनी चाहिए।

ऐसा करना गलत है, समझाने और बात करने का भी एक तरीका इस्लाम में हैं, हमारे नबी की सुन्नतें भी हैं जिसको दुनिया का हर मुसलमान मानता है, चाहे फिरका कोई भी उस तरीके और उस सुन्नत पर चल कर ही अपनी बात कहनी चाहिए।

पर ऐसा होता नहीं, खासकर के भारत में, और लोग वही तरीका अपनाते हैं जो आज के दौर में कौम पर भारी पड़ती है, दुश्मन यही चाहते हैं कि आपसी धार्मिक इख्तेलाफात हो और आपसी खाई चौड़ी हो, और हम वही कर रहे हैं।

अजीब अहमक हैं हम कि इतना सब देख सुन कर भी आखें नहीं खुली, तो मान लीजिए कि हम अंधे हो चुके हैं, और हमें भविष्य में भी कुछ नहीं दिखने वाला।

कुछ लोग सोशलमीडिया पर लगातार बुलंदशहर इज्तिमे को लेकर फिरकेवाराना पोस्ट कर रहे हैं वह समझ लें कि वह नफरत बढ़ा कर अपनी आने वाली नस्लों के लिए मुश्किल पैदा कर रहे हैं।

मुझे अच्छा लगेगा कि दिल्ली मरकज के मौलाना साद और देवबंद के तमाम ओलेमाओं की शिरकत में 10 लाख मुसलमान आज 3 दिसंबर 2018 को 11 बजे दुआ में शामिल होंगे और यह दुआ सारे मुल्क और सारी दुनिया को सुनना चाहिए। इस दुआ का पैगाम सारी दुनिया को बताना चाहिए, जो मुल्क और सारी दुनिया की बेहतरी के लिए होगा।

हालाँकि पहले मौलाना तारिक जमील के भी इसमें शामिल होने की खबरें थीं पर दिल्ली मरकज के मौलाना साद और देवबंद के उलेमा-ए-इकराम की मौजूदगी में होने वाली इस दुआ में शामिल होना एक फक्र की बात है।

मेरे लिए इस इज्तिमें से बस यह हासिल होना ही काफी होगा कि एक जगह अपने खर्च और मेहनत से इकट्ठा 10 लाख मुसलमान, शांति से अपने तरीके से अपना धार्मिक कार्य करके खामोशी से घर वापस आ जाएँ और कोई भी हिंसा ना हो तो यह उन लोगों के मुँह पर ऐसा ज़ोरदार थप्पड़ होगा जो मुसलमानों को हिंसक कहते हैं।

फिर भी, मेरा ओलेमाओं से यह अनुरोध है कि वह इस 10 लाख की भीड़ या इसके अतिरिक्त किसी और आयोजन को ज़मीन से 2 गज नीचे और सात आसमान से ऊपर के साथ साथ राजनैतिक और सामाजिक समझ पैदा करने को प्रेरित करें तो यह उनके द्वारा किया एक अतिरिक्त प्रयास होगा।

क्युँकि उनकी बातों का कौम पर असर होता है तो उनके थोड़े से प्रयास से बेहतर परिणाम मिल सकता है।

इज़्तेमा हो या उर्स, मेरे लिए उसमें माँगी गयी दुआ अहमियत रखती है, उस दुआ को पूरी दुनिया को सुनना चाहिए और कम से कम देश को तो बुलंदशहर की दुआ ज़रूर सुनना चाहिए।

बेहतर है कि इसे लेकर तनकीद ना करें और इसकी एवज में कोई और काम करने का उपदेश ना दें क्युँकि यह तो वही बात हो गयी कि

"एक आदमी ₹1000 का जूता खरीद कर लाया, दूसरा आदमी बोला कि बेकार का पैसा खराब किया इस ₹1000 में तो एक टाई आ जाती"

जूता का विकल्प टाई नहीं हो सकती, दोनों अपनी जगह ज़रूरी हैं, बेहतर है 11 बजे की दुआ में सब शामिल हों।
 

बाकी ख़बरें