एक साल होने को आया, लेकिन झाबुआ में विस्फोट कांड में मारे गए सैकड़ों लोगों के परिजनों को न तो इन्साफ मिला है और न ही उनकी पीड़ा अब किसी के लिए चिंता का सबब है। मुंबई विस्फोटों के दोषी कसाब और झाबुआ विस्फोट के दोषी राजेंद्र कसावा के लिए अलग-अलग मानदंड मान लिए गए हैं।
12 सितंबर, 2015 को झाबुआ के पेटलावद कस्बे में आरएसएस के प्रभावशाली नेता राजेंद्र कसावा की बिल्डिंग में जोरदार विस्फोट हुआ था। करीब सौ लोग मारे गए थे, और करीब 200 लोग घायल हुए थे। शासन को जैसे ही पता लगा कि बिल्डिंग आरएसएस नेता की है, वह तुरंत हताहतों की संख्या कम से कम दिखाने में लग गई और रातोंरात राजेंद्र कसावा को फरार कर दिया गया था।
तलाशी में राजेंद्र कसावा और उसके भाइयों के घरों-गोदामों में बड़ी मात्रा में विस्फोटक मिले थे। पुलिस ने सहज मान लिया कि ये अवैध खनन के लिए जमा किए गए थे। कांग्रेस ने तभी कहा था कि ये विस्फोटक झाबुआ को गोधरा बनाने और सांप्रदायिक दंगे कराने के लिए लाए गए थे, लेकिन उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया गया।
घटना को लेकर भारी बवाल हुआ, लेकिन मीडिया में इसे बहुत नियंत्रित रूप में दिखाया गया, और यही कारण है कि कांड के एक साल पूरे होने के बाद अब ज्यादातर लोगों को इसके बारे में याद नहीं रहा।
घटना के बाद मुख्यमंत्री भी पेटलावद पहुँचे थे, और लोगों ने उन्हें घेर लिया था। मजबूर मुख्यमंत्री काफी देर तक वहीं जमीन पर बैठे रहे थे। पहले मृतकों के परिजनों के लिए मुआवजा राशि बढ़ाने का ऐलान करने के बाद ही शिवराज वहाँ से निकल पाए थे।
प्रशासनिक तंत्र राजेंद्र कसावा को बचाने में लगा रहा। पहले खबर उड़ाई गई कि विस्फोट में वह भी मारा गया है, लेकिन बाद में उसे महाराष्ट्र से पकड़ा गया। घटना की न्यायिक जाँच का भी ऐलान तत्कालीन गृहमंत्री बाबूलाल गौर ने किया था। अब मामला एकदम शांत है। एक ही घटना को दिन-दिन भर दिखाते रहने वाले चैनलों ने राजेंद्र कसावा की गिरफ्तारी के बाद से झाबुआ के पीड़ितों की सुध तक नहीं ली।
जाँच एनआईए ने भी शुरू की थी, और हाईकोर्ट के जज से भी जाँच कराने का ऐलान किया गया था। साल भर होने को आया, अब तक जाँच में हुई किसी भी प्रगति का किसी को कोई पता नहीं है।
क्या हताहत होने वाले इन सैकड़ों लोगों की अहमियत केवल इसलिए नहीं है कि वो एक भाजपा शासित राज्य के थे ?
12 सितंबर, 2015 को झाबुआ के पेटलावद कस्बे में आरएसएस के प्रभावशाली नेता राजेंद्र कसावा की बिल्डिंग में जोरदार विस्फोट हुआ था। करीब सौ लोग मारे गए थे, और करीब 200 लोग घायल हुए थे। शासन को जैसे ही पता लगा कि बिल्डिंग आरएसएस नेता की है, वह तुरंत हताहतों की संख्या कम से कम दिखाने में लग गई और रातोंरात राजेंद्र कसावा को फरार कर दिया गया था।
तलाशी में राजेंद्र कसावा और उसके भाइयों के घरों-गोदामों में बड़ी मात्रा में विस्फोटक मिले थे। पुलिस ने सहज मान लिया कि ये अवैध खनन के लिए जमा किए गए थे। कांग्रेस ने तभी कहा था कि ये विस्फोटक झाबुआ को गोधरा बनाने और सांप्रदायिक दंगे कराने के लिए लाए गए थे, लेकिन उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया गया।
घटना को लेकर भारी बवाल हुआ, लेकिन मीडिया में इसे बहुत नियंत्रित रूप में दिखाया गया, और यही कारण है कि कांड के एक साल पूरे होने के बाद अब ज्यादातर लोगों को इसके बारे में याद नहीं रहा।
घटना के बाद मुख्यमंत्री भी पेटलावद पहुँचे थे, और लोगों ने उन्हें घेर लिया था। मजबूर मुख्यमंत्री काफी देर तक वहीं जमीन पर बैठे रहे थे। पहले मृतकों के परिजनों के लिए मुआवजा राशि बढ़ाने का ऐलान करने के बाद ही शिवराज वहाँ से निकल पाए थे।
प्रशासनिक तंत्र राजेंद्र कसावा को बचाने में लगा रहा। पहले खबर उड़ाई गई कि विस्फोट में वह भी मारा गया है, लेकिन बाद में उसे महाराष्ट्र से पकड़ा गया। घटना की न्यायिक जाँच का भी ऐलान तत्कालीन गृहमंत्री बाबूलाल गौर ने किया था। अब मामला एकदम शांत है। एक ही घटना को दिन-दिन भर दिखाते रहने वाले चैनलों ने राजेंद्र कसावा की गिरफ्तारी के बाद से झाबुआ के पीड़ितों की सुध तक नहीं ली।
जाँच एनआईए ने भी शुरू की थी, और हाईकोर्ट के जज से भी जाँच कराने का ऐलान किया गया था। साल भर होने को आया, अब तक जाँच में हुई किसी भी प्रगति का किसी को कोई पता नहीं है।
क्या हताहत होने वाले इन सैकड़ों लोगों की अहमियत केवल इसलिए नहीं है कि वो एक भाजपा शासित राज्य के थे ?