देश की गुलामी के दिनों में दो बहुत होनहार छात्र हुआ करते थे। एक था नाम था, मोहनदास करमंचद गांधी और दूसरे का भीमराव आंबेडकर। गांधी का मेन सब्जेक्ट नॉन वॉयलेंस था जबकि आंडबेकर का विषय सोशल जस्टिस। देश की आज़ादी के बाद इन दोनो होनहार विद्यार्थियों का रिजल्ट एनाउंस हुआ। गांधी टॉपर घोषित किये गये। सत्य-अहिंसा ही नहीं बल्कि सामाजिक न्याय में भी उन्हे शत-प्रतिशत अंक मिले, ये अलग बात है कि सामाजिक न्याय गांधी का मेन सब्जेक्ट नहीं बल्कि ऑप्शनल पेपर था। दूसरी तरफ आंबेडकर की कॉपी कहीं गुम हो गई। कांग्रेसी गुरुजनों ने ढूंढने की बहुत कोशिश की, लेकिन कॉपी मिली ही नहीं। इसके बावजूद न्यायप्रिय सरकार ने आंबेडकर की योग्यता का सम्मान करते हुए उन्हे पास कर दिया लेकिन नंबर गांधी से बहुत कम दिये। आंबेडकर की गुम हुई कॉपी बरसो तक पहेली बनी रही। वक्त गुजरता चला गया। अब इम्तिहान लेने और कॉपी चेक करने की बारी बहुजन मास्टरों की आई। उन्होने आंबेडकर की गुम हुई कॉपी ढूंढ ली। उम्मीद के मुताबिक आंबेडकर की कॉपी सेंट-परसेंट नंबर लायक निकली। बहुजन गुरुजनों का कहना है कि चूंकि सामाजिक न्याय ही सबसे बड़ा विषय है, इसलिए आंबेडकर सही मायने में टॉपर हैं। जहां तक गांधी का सवाल है तो उनका परचा ही अवैध है, क्योंकि उन्होने 1932 में हुए पूना के एग्जाम में चीटिंग की थी। बहुजन गुरुजन यह भी मानते हैं कि सत्य-अहिंसा पर गांधी काम ऑरिजनल नहीं बल्कि गौतम बुद्ध की नकल था, इसलिए गांधी फेल किया जाना ही उचित है। नया रिजल्ट सुनते ही अहिंसावादियों के चेहरे उतर गये। आखिरकार राष्ट्रवादी प्रधान सेवक जी को मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा, उन्होने देश को अपने मन की बात बताई— आंबेडकर बहुत अच्छे छात्र थे। अगर वे थोड़ी मेहनत और करते तो नेशनल टॉपर वीर सावरकर से भी आगे निकल जाते। जहां तक गांधी का सवाल है, फेल वे भी नहीं हैं क्योंकि उन्होने सफाई का परचा बहुत साफ-सफाई के साथ लिखा था। इतना ही नहीं आनेवाली पीढ़ियां उन्हे बकरी के दूध को लोकप्रिय बनाने वाले महात्मा के रूप में भी जानेगी। इन तथ्यों को ध्यान में रखकर गांधी को भी पास किया जाता है.. जाओ ऐश करो।
शिक्षा—महान भारत निरंतर परिवर्तनशील है। जब मटन बीफ और बीफ मटन बन सकते हैं तो फिर रिजल्ट क्या चीज़ है? यह देश जब भी देता है, बहुत कम या बहुत ज्यादा देता है। उतना कभी नहीं देता, जितना पानेवाले का वाजिब हक़ है।