हाल ही में एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने एक शिक्षक को दूसरी शादी से पहले बच्चे के लिए मातृत्व अवकाश देने का आदेश दिया, जबकि उसके पहले दो बच्चे पहली शादी से थे। इस फैसले में कोर्ट ने तमिलनाडु की जनसंख्या नियंत्रण नीति और महिलाओं के प्रजनन अधिकार जैसे मौलिक अधिकारों के बीच संतुलन स्थापित किया, जिन्हें अलग-थलग करके नहीं समझा जा सकता।

के. उमादेवी बनाम तमिलनाडु सरकार व अन्य [2025 INSC 781] के हालिया मामले में न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और उज्जल भुयान की सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने 23 मई 2025 को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया जो कामकाजी महिलाओं के प्रजनन अधिकारों को दोहराता है। मामला एक महिला सरकारी कर्मचारी से जुड़ा था, जिसे दूसरी शादी से हुए पहले बच्चे के लिए मातृत्व अवकाश (maternity leave) देने से मना कर दिया गया था, क्योंकि उसकी पहली शादी से दो बच्चे पहले से थे। हालांकि पहली शादी अब कानूनी रूप से समाप्त हो चुकी है। कोर्ट ने मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द करते हुए कहा कि जनसंख्या नियंत्रण से जुड़ी राज्य की नीतियां किसी महिला के गरिमा के अधिकार को—जो संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत संरक्षित है—समाप्त नहीं कर सकतीं। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि मातृत्व लाभ सामाजिक न्याय का हिस्सा हैं और इन्हें महिलाओं के अधिकारों और पारिवारिक जीवन के व्यापक संवैधानिक ढांचे के अनुरूप परिभाषित किया जाना चाहिए।
यह मामला तमिलनाडु के एक सरकारी स्कूल में अंग्रेज़ी पढ़ाने वाली के. उमादेवी से जुड़ा था, जिनकी व्यक्तिगत परिस्थितियों ने एक अहम सेवा नियम (service rule) को न्यायिक जांच के दायरे में ला खड़ा किया।
इस फैसले में विस्तार से समझाया गया कि जब किसी महिला के जीवन में तलाक या दोबारा शादी जैसे बदलाव आते हैं, तो उसका असर केवल निजी जीवन तक सीमित नहीं होता, बल्कि उसके नौकरी से जुड़े अधिकारों पर भी पड़ता है। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में कानून की व्याख्या करते समय केवल तकनीकी और सख्त रवैया अपनाने के बजाय मानवीय और उद्देश्यपरक दृष्टिकोण जरूरी है।
मामले के तथ्य
इस कानूनी लड़ाई की शुरुआत तब हुई जब याचिकाकर्ता ने साल 2006 में अपने पहले पति से शादी की और उनके दो बच्चे हुए (एक 2007 में और दूसरा 2011 में)। दिसंबर 2012 में उन्होंने तमिलनाडु सरकार में शिक्षक के रूप में नौकरी जॉइन की। 2017 में उनकी पहली शादी कानूनी रूप से खत्म हो गई और दोनों बच्चों की कस्टडी उनके पहले पति को मिली।
एक साल बाद, यानी 2018 में उमादेवी ने दोबारा शादी की। जब वह गर्भवती थीं, तो उन्होंने अगस्त 2021 से मई 2022 तक, कुल नौ महीनों के मातृत्व अवकाश के लिए आवेदन दिया।
उनका आवेदन खारिज कर दिया गया। 28 अगस्त 2021 को धर्मपुरी जिले के मुख्य शिक्षा अधिकारी ने उनका अवकाश अनुरोध ठुकरा दिया। कारण बताया गया कि तमिलनाडु की फंडामेंटल रूल्स के नियम 101(ए) के अनुसार मातृत्व अवकाश सिर्फ उन्हीं महिला कर्मचारियों को दिया जा सकता है जिनके दो से कम जीवित बच्चे हों। अधिकारियों ने यह पाया कि चूंकि उमादेवी की पहली शादी से दो बच्चे पहले से हैं, इसलिए वह तीसरे बच्चे के लिए मातृत्व अवकाश की हकदार नहीं हैं। आदेश में लिखा गया था कि पुनर्विवाह के बाद जन्मे तीसरे बच्चे के लिए छुट्टी देने का कोई प्रावधान नहीं है।
अदालतों में लंबी लड़ाई
इस फैसले से निराश होकर उमादेवी मद्रास हाई कोर्ट पहुंचीं। एक न्यायाधीश की पीठ ने 25 मार्च 2022 के फैसले में उनका पक्ष लिया। न्यायाधीश ने कानून की उदार व्याख्या की और कहा कि केंद्र का मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961, राज्य के नियम से ऊपर माना जाना चाहिए। कोर्ट ने तर्क दिया कि “जीवित बच्चे होने” का मतलब यह होना चाहिए कि बच्चे मां की कस्टडी में हों। चूंकि उमादेवी के पहले विवाह के बच्चे उनके साथ नहीं रह रहे थे, इसलिए उनके दूसरे विवाह से हुआ बच्चा उनके नए परिवार में उनके लिए व्यावहारिक रूप से पहला बच्चा माना जाना चाहिए। इसलिए एकल न्यायाधीश ने अवकाश खारिज करने का आदेश रद्द कर दिया और राज्य को आदेश दिया कि वे उनका अवकाश मंजूर करें।
हालांकि यह राहत ज्यादा दिन तक नहीं टिक पाई। तमिलनाडु सरकार ने उसी कोर्ट की डिवीजन बेंच में अपील दाखिल की। 14 सितंबर 2022 को डिवीजन बेंच ने एकल न्यायाधीश के आदेश को पलट दिया। उन्होंने कड़ा रुख अपनाते हुए कहा कि सरकार की नीति स्पष्ट है और मातृत्व लाभ केवल दो बच्चों तक ही सीमित हैं।
बेंच ने माना कि मातृत्व अवकाश कोई मौलिक अधिकार नहीं है, बल्कि यह सेवा नियमों से मिलने वाला एक लाभ है। डिवीजन बेंच ने सरकार की अपील को मंजूरी दे दी, जिससे उमादेवी को यह लाभ नहीं मिल सका।
यह फैसला सुप्रीम कोर्ट में अंतिम अपील का आधार बना।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने न्यायमूर्ति उज्जल भुयान द्वारा लिखे गए विस्तृत और सहानुभूतिपूर्ण निर्णय में मातृत्व अधिकारों से जुड़े संवैधानिक और अंतरराष्ट्रीय कानूनी ढांचे की गहराई से समीक्षा की।
राज्य सरकार ने दलील दी कि उसकी नीति वित्तीय जिम्मेदारी और जनसंख्या नियंत्रण के राष्ट्रीय लक्ष्य से जुड़ी हुई है। उमादेवी को मातृत्व अवकाश देना एक ऐसा उदाहरण बन जाएगा जिससे भविष्य में और मामलों में छुट्टी देनी पड़ सकती है, जिससे सरकारी खर्च बढ़ेगा और "छोटा परिवार" की नीति कमजोर पड़ेगी।
उमादेवी की ओर से पेश वकील ने तर्क दिया कि डिवीजन बेंच ने सुप्रीम कोर्ट के पहले के फैसले "दीपिका सिंह बनाम सेंट्रल एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल" की भावना का पालन नहीं किया, जबकि वह मामला भी ऐसी ही परिस्थितियों से जुड़ा था। उन्होंने यह भी ज़ोर देकर कहा कि मातृत्व अवकाश का अधिकार महिलाओं के प्रजनन अधिकार से जुड़ा है, जो अनुच्छेद 21 के तहत सुरक्षित है।
सुप्रीम कोर्ट की दलीलें कई स्तरों पर आधारित थीं:
1. संवैधानिक आधार: कोर्ट ने अनुच्छेद 21 को “सशक्त प्रावधान” बताया, जिसमें सम्मान के साथ जीने, स्वास्थ्य और प्रजनन से जुड़े फैसलों का अधिकार शामिल हैं। साथ ही अनुच्छेद 42 का भी हवाला दिया गया, जो राज्य को न्यायपूर्ण और मानवीय कार्य स्थितियां व मातृत्व राहत सुनिश्चित करने को कहता है।
2. विरोधी उद्देश्यों में संतुलन: कोर्ट ने माना कि जनसंख्या नियंत्रण राज्य का एक “सराहनीय” उद्देश्य है, लेकिन यह मातृत्व लाभ देने के उद्देश्य से टकराव में नहीं है। कोर्ट ने कहा कि दोनों को संतुलित और तर्कसंगत रूप से लागू किया जाना चाहिए। ऐसा कठोर नियम, जो महिला को नौकरी और परिवार के बीच चुनाव के लिए मजबूर करे, उल्टा असर डालता है।
3. उद्देश्यपरक व्याख्या: कोर्ट ने स्पष्ट किया कि कल्याणकारी कानूनों की व्याख्या उद्देश्य के अनुरूप होनी चाहिए—मां बनने की गरिमा की रक्षा और बच्चे की देखभाल की सुविधा, बिना नौकरी खोने के डर के।
4. अंतरराष्ट्रीय दायित्व: फैसले में यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स और CEDAW जैसी संधियों का हवाला दिया गया, जो मातृत्व के अधिकार को विशेष सहायता और संरक्षण प्रदान करती हैं।
5. मातृत्व लाभ अधिनियम से मार्गदर्शन: कोर्ट ने मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 के संशोधित प्रावधानों का हवाला दिया, जिसमें तीसरे बच्चे के लिए छुट्टियां पूरी तरह खत्म नहीं की गई हैं, बल्कि सीमित की गई हैं—इससे महिला विरोधी मंशा नहीं झलकती।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाई कोर्ट की डिवीजन बेंच का फैसला रद्द कर दिया। कोर्ट ने कहा, “इन हालात में, हम डिवीजन बेंच के फैसले से सहमत नहीं हो सकते।”
कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार को निर्देश दिया कि वे दो महीने के भीतर उमादेवी को मातृत्व लाभ प्रदान करें।
यह फैसला सेवा कानून और मानवाधिकारों के क्षेत्र में एक मील का पत्थर है। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रशासनिक नियमों की व्याख्या संवैधानिक मूल्यों और मानवीय दृष्टिकोण के साथ की जानी चाहिए।
राज्य को एक आदर्श नियोक्ता की भूमिका में सिर्फ नीति निर्माता नहीं, बल्कि उसे ऐसा कार्यान्वयनकर्ता होना चाहिए जो न्याय, मानवता और गरिमा का सम्मान करता हो।
(लेखक इस संगठन की कानूनी शोध टीम के सदस्य हैं)
Related

के. उमादेवी बनाम तमिलनाडु सरकार व अन्य [2025 INSC 781] के हालिया मामले में न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और उज्जल भुयान की सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने 23 मई 2025 को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया जो कामकाजी महिलाओं के प्रजनन अधिकारों को दोहराता है। मामला एक महिला सरकारी कर्मचारी से जुड़ा था, जिसे दूसरी शादी से हुए पहले बच्चे के लिए मातृत्व अवकाश (maternity leave) देने से मना कर दिया गया था, क्योंकि उसकी पहली शादी से दो बच्चे पहले से थे। हालांकि पहली शादी अब कानूनी रूप से समाप्त हो चुकी है। कोर्ट ने मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द करते हुए कहा कि जनसंख्या नियंत्रण से जुड़ी राज्य की नीतियां किसी महिला के गरिमा के अधिकार को—जो संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत संरक्षित है—समाप्त नहीं कर सकतीं। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि मातृत्व लाभ सामाजिक न्याय का हिस्सा हैं और इन्हें महिलाओं के अधिकारों और पारिवारिक जीवन के व्यापक संवैधानिक ढांचे के अनुरूप परिभाषित किया जाना चाहिए।
यह मामला तमिलनाडु के एक सरकारी स्कूल में अंग्रेज़ी पढ़ाने वाली के. उमादेवी से जुड़ा था, जिनकी व्यक्तिगत परिस्थितियों ने एक अहम सेवा नियम (service rule) को न्यायिक जांच के दायरे में ला खड़ा किया।
इस फैसले में विस्तार से समझाया गया कि जब किसी महिला के जीवन में तलाक या दोबारा शादी जैसे बदलाव आते हैं, तो उसका असर केवल निजी जीवन तक सीमित नहीं होता, बल्कि उसके नौकरी से जुड़े अधिकारों पर भी पड़ता है। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में कानून की व्याख्या करते समय केवल तकनीकी और सख्त रवैया अपनाने के बजाय मानवीय और उद्देश्यपरक दृष्टिकोण जरूरी है।
मामले के तथ्य
इस कानूनी लड़ाई की शुरुआत तब हुई जब याचिकाकर्ता ने साल 2006 में अपने पहले पति से शादी की और उनके दो बच्चे हुए (एक 2007 में और दूसरा 2011 में)। दिसंबर 2012 में उन्होंने तमिलनाडु सरकार में शिक्षक के रूप में नौकरी जॉइन की। 2017 में उनकी पहली शादी कानूनी रूप से खत्म हो गई और दोनों बच्चों की कस्टडी उनके पहले पति को मिली।
एक साल बाद, यानी 2018 में उमादेवी ने दोबारा शादी की। जब वह गर्भवती थीं, तो उन्होंने अगस्त 2021 से मई 2022 तक, कुल नौ महीनों के मातृत्व अवकाश के लिए आवेदन दिया।
उनका आवेदन खारिज कर दिया गया। 28 अगस्त 2021 को धर्मपुरी जिले के मुख्य शिक्षा अधिकारी ने उनका अवकाश अनुरोध ठुकरा दिया। कारण बताया गया कि तमिलनाडु की फंडामेंटल रूल्स के नियम 101(ए) के अनुसार मातृत्व अवकाश सिर्फ उन्हीं महिला कर्मचारियों को दिया जा सकता है जिनके दो से कम जीवित बच्चे हों। अधिकारियों ने यह पाया कि चूंकि उमादेवी की पहली शादी से दो बच्चे पहले से हैं, इसलिए वह तीसरे बच्चे के लिए मातृत्व अवकाश की हकदार नहीं हैं। आदेश में लिखा गया था कि पुनर्विवाह के बाद जन्मे तीसरे बच्चे के लिए छुट्टी देने का कोई प्रावधान नहीं है।
अदालतों में लंबी लड़ाई
इस फैसले से निराश होकर उमादेवी मद्रास हाई कोर्ट पहुंचीं। एक न्यायाधीश की पीठ ने 25 मार्च 2022 के फैसले में उनका पक्ष लिया। न्यायाधीश ने कानून की उदार व्याख्या की और कहा कि केंद्र का मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961, राज्य के नियम से ऊपर माना जाना चाहिए। कोर्ट ने तर्क दिया कि “जीवित बच्चे होने” का मतलब यह होना चाहिए कि बच्चे मां की कस्टडी में हों। चूंकि उमादेवी के पहले विवाह के बच्चे उनके साथ नहीं रह रहे थे, इसलिए उनके दूसरे विवाह से हुआ बच्चा उनके नए परिवार में उनके लिए व्यावहारिक रूप से पहला बच्चा माना जाना चाहिए। इसलिए एकल न्यायाधीश ने अवकाश खारिज करने का आदेश रद्द कर दिया और राज्य को आदेश दिया कि वे उनका अवकाश मंजूर करें।
हालांकि यह राहत ज्यादा दिन तक नहीं टिक पाई। तमिलनाडु सरकार ने उसी कोर्ट की डिवीजन बेंच में अपील दाखिल की। 14 सितंबर 2022 को डिवीजन बेंच ने एकल न्यायाधीश के आदेश को पलट दिया। उन्होंने कड़ा रुख अपनाते हुए कहा कि सरकार की नीति स्पष्ट है और मातृत्व लाभ केवल दो बच्चों तक ही सीमित हैं।
बेंच ने माना कि मातृत्व अवकाश कोई मौलिक अधिकार नहीं है, बल्कि यह सेवा नियमों से मिलने वाला एक लाभ है। डिवीजन बेंच ने सरकार की अपील को मंजूरी दे दी, जिससे उमादेवी को यह लाभ नहीं मिल सका।
यह फैसला सुप्रीम कोर्ट में अंतिम अपील का आधार बना।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने न्यायमूर्ति उज्जल भुयान द्वारा लिखे गए विस्तृत और सहानुभूतिपूर्ण निर्णय में मातृत्व अधिकारों से जुड़े संवैधानिक और अंतरराष्ट्रीय कानूनी ढांचे की गहराई से समीक्षा की।
राज्य सरकार ने दलील दी कि उसकी नीति वित्तीय जिम्मेदारी और जनसंख्या नियंत्रण के राष्ट्रीय लक्ष्य से जुड़ी हुई है। उमादेवी को मातृत्व अवकाश देना एक ऐसा उदाहरण बन जाएगा जिससे भविष्य में और मामलों में छुट्टी देनी पड़ सकती है, जिससे सरकारी खर्च बढ़ेगा और "छोटा परिवार" की नीति कमजोर पड़ेगी।
उमादेवी की ओर से पेश वकील ने तर्क दिया कि डिवीजन बेंच ने सुप्रीम कोर्ट के पहले के फैसले "दीपिका सिंह बनाम सेंट्रल एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल" की भावना का पालन नहीं किया, जबकि वह मामला भी ऐसी ही परिस्थितियों से जुड़ा था। उन्होंने यह भी ज़ोर देकर कहा कि मातृत्व अवकाश का अधिकार महिलाओं के प्रजनन अधिकार से जुड़ा है, जो अनुच्छेद 21 के तहत सुरक्षित है।
सुप्रीम कोर्ट की दलीलें कई स्तरों पर आधारित थीं:
1. संवैधानिक आधार: कोर्ट ने अनुच्छेद 21 को “सशक्त प्रावधान” बताया, जिसमें सम्मान के साथ जीने, स्वास्थ्य और प्रजनन से जुड़े फैसलों का अधिकार शामिल हैं। साथ ही अनुच्छेद 42 का भी हवाला दिया गया, जो राज्य को न्यायपूर्ण और मानवीय कार्य स्थितियां व मातृत्व राहत सुनिश्चित करने को कहता है।
2. विरोधी उद्देश्यों में संतुलन: कोर्ट ने माना कि जनसंख्या नियंत्रण राज्य का एक “सराहनीय” उद्देश्य है, लेकिन यह मातृत्व लाभ देने के उद्देश्य से टकराव में नहीं है। कोर्ट ने कहा कि दोनों को संतुलित और तर्कसंगत रूप से लागू किया जाना चाहिए। ऐसा कठोर नियम, जो महिला को नौकरी और परिवार के बीच चुनाव के लिए मजबूर करे, उल्टा असर डालता है।
3. उद्देश्यपरक व्याख्या: कोर्ट ने स्पष्ट किया कि कल्याणकारी कानूनों की व्याख्या उद्देश्य के अनुरूप होनी चाहिए—मां बनने की गरिमा की रक्षा और बच्चे की देखभाल की सुविधा, बिना नौकरी खोने के डर के।
4. अंतरराष्ट्रीय दायित्व: फैसले में यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स और CEDAW जैसी संधियों का हवाला दिया गया, जो मातृत्व के अधिकार को विशेष सहायता और संरक्षण प्रदान करती हैं।
5. मातृत्व लाभ अधिनियम से मार्गदर्शन: कोर्ट ने मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 के संशोधित प्रावधानों का हवाला दिया, जिसमें तीसरे बच्चे के लिए छुट्टियां पूरी तरह खत्म नहीं की गई हैं, बल्कि सीमित की गई हैं—इससे महिला विरोधी मंशा नहीं झलकती।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाई कोर्ट की डिवीजन बेंच का फैसला रद्द कर दिया। कोर्ट ने कहा, “इन हालात में, हम डिवीजन बेंच के फैसले से सहमत नहीं हो सकते।”
कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार को निर्देश दिया कि वे दो महीने के भीतर उमादेवी को मातृत्व लाभ प्रदान करें।
यह फैसला सेवा कानून और मानवाधिकारों के क्षेत्र में एक मील का पत्थर है। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रशासनिक नियमों की व्याख्या संवैधानिक मूल्यों और मानवीय दृष्टिकोण के साथ की जानी चाहिए।
राज्य को एक आदर्श नियोक्ता की भूमिका में सिर्फ नीति निर्माता नहीं, बल्कि उसे ऐसा कार्यान्वयनकर्ता होना चाहिए जो न्याय, मानवता और गरिमा का सम्मान करता हो।
(लेखक इस संगठन की कानूनी शोध टीम के सदस्य हैं)
Related
मुस्लिम शिक्षक को आतंकवादी बताने के आरोप में अदालत ने जी न्यूज, न्यूज18 इंडिया के खिलाफ एफआईआर का आदेश दिया
न कोई उल्लंघन, न आदेश वापसी, फिर भी दोबारा हिरासत: कोविड काल में रिहा किए गए बंदियों की पुनः हिरासत पर गुवाहाटी हाई कोर्ट ने राज्य से हलफनामा मांगा