अब्दुल शेख और मजीबुर रहमान मामलों में जमानत की शर्तों के पालन को हाई कोर्ट ने स्वीकार कर लिया। साथ ही कोर्ट ने बिना पुराने फैसले बदले फिर से हिरासत में रखने की सही वजह साफ बताने को कहा है।

कोविड-काल के जमानत दिशा-निर्देशों के तहत रिहा किए गए लोगों को अवैध रूप से फिर से हिरासत में लेने के आरोपों से जुड़ी दो याचिकाओं में गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने इस सप्ताह जमानत के पूर्ण अनुपालन के सरकार के बयान को दर्ज किया और सरकार को हलफनामे के माध्यम से अधिक विस्तार से आपत्तियां दर्ज करने का निर्देश दिया, जिसमें यह बताया जाए कि ऐसे लोगों को अब पहले से मौजूद न्यायिक जमानत आदेशों को वापस लिए बिना कैसे फिर से हिरासत में लिया जा सकता है।
ये याचिकाएं—सनिदुल शेख बनाम भारत संघ, जिसकी सुनवाई 25 जून को हुई, और रजिया खातून बनाम भारत संघ, जिसकी सुनवाई 26 जून को हुई—क्रमशः अब्दुल शेख और मजीबुर रहमान से जुड़ी हैं। दोनों को विदेशी ट्रिब्यूनलों (एफटी) ने विदेशी घोषित किया था। दोनों ने दो साल से ज्यादा वक्त हिरासत में बिताया और फिर सुप्रीम कोर्ट के 2020 के निर्देशों के तहत हाई कोर्ट द्वारा निगरानी में COVID काल के दौरान जारी जमानत आदेशों के जरिए रिहा किए गए थे। ये दोनों लगातार दो साल से अपने स्थानीय पुलिस थानों में साप्ताहिक रिपोर्ट दे रहे थे, लेकिन मई 2025 में बिना कोई नोटिस दिए या जमानत की शर्तों का उल्लंघन किए, फिर से उन्हें हिरासत में ले लिया गया। इस मामले में सीजेआई दोनों को कानूनी मदद पहुंचा रही है।
25 जून: सनिदुल बनाम भारत संघ
याचिकाकर्ता की तरफ से वकील मृन्मय दत्ता ने बताया कि याचिकाकर्ता सनिदुल के पिता अब्दुल शेख को सुप्रीम कोर्ट के 15 अप्रैल 2020 के आदेश के तहत 30 अप्रैल 2021 को जमानत पर रिहा किया गया था और वे लगातार हर हफ्ते काजोलगांव पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट करते रहे और कोई भी चूक दर्ज नहीं हुई है।
न्यायमूर्ति कल्याण राय सुराना और न्यायमूर्ति के. सेमा वाली बेंच ने सीधे राज्य से पूछा, "क्या वह कोर्ट की जमानत की शर्तों के मुताबिक हर हफ्ते हाजिर हो रहे हैं?"
जिस पर विदेशी ट्रिब्यूनल के वकील ने सहमति जताई और कहा, "हां, यह सच है। वह निर्देशानुसार नियमित रूप से हाजिर होता रहा।"
हालांकि, विदेशी ट्रिब्यूनल के वकील ने यह तर्क दिया कि अब जमानत उस बंदी को फिर से गिरफ्तार करने या देश से निकालने से बचाने वाली सुरक्षा नहीं रही। उन्होंने कहा, "COVID के दौरान जो लोग देश से निकाले जाने का इंतजार कर रहे थे उन्हें जमानत दी गई थी। अब सरकार ऐसे लोगों के देश निकाले जाने की तैयारी कर रही है। हालात बदल गए हैं।"
लेकिन कोर्ट ने इस बात पर गंभीर चिंता जताई और कहा कि जमानत को औपचारिक रूप से वापस लेने या उसमें बदलाव करने की कोई कोशिश नहीं की गई है। आगे कहा कि, "आपने न तो इस कोर्ट में और न ही सुप्रीम कोर्ट में उन जमानत आदेशों को वापस लेने की कोई याचिका दी है। एक बार जमानत मिल जाने के बाद वह तब तक जारी रहती है जब तक उसे वापस न लिया जाए। आप किसी को सिर्फ इसलिए हिरासत में नहीं रख सकते कि सरकार की नीति बदल गई है।"
विदेशी ट्रिब्यूनल के वकील ने यह दलील दी कि जमानत एक "सामूहिक आदेश" (ब्लैंकेट ऑर्डर) का हिस्सा थी, किसी एक व्यक्ति के लिए विशेष रूप से नहीं दी गई थी और यह कि देश से बाहर करना (डिपोर्टेशन) तो पहले से ही कानूनन संभव था—बस महामारी के हालात के कारण उसमें देरी हुई थी।
हालांकि, पीठ ने कहा, "हां, लेकिन जब तक आप जमानत को औपचारिक रूप से वापस नहीं लेते, तब तक दोबारा हिरासत लेना कानूनन सही नहीं है। एक बार जमानत मिल जाने के बाद उसे यूं ही नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।"
जब याचिकाकर्ता के वकील ने यह कहा कि जमानत और उसकी शर्तों का पालन होने के बावजूद हिरासत में रखना गैरकानूनी है, तो पीठ ने कहा कि पूरी सुनवाई तभी होगी जब राज्य अपना पक्ष रखेगा। कोर्ट ने कहा, "पहले आप अपना हलफनामा दाखिल करें। कोर्ट तब देखेगा कि आप जो कानूनी आधार बता रहे हैं, वह कितना सही है।"
अपने औपचारिक आदेश में कोर्ट ने दर्ज किया कि:
● वर्ष 2021 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के तहत जमानत दी गई थी।
● कैदी ने जमानत की सभी शर्तों का पालन किया है।
● राज्य यह तर्क देने की तैयारी कर रहा था कि विदेशी ट्रिब्यूनल (FT) की अंतिम राय और देश निकाले की प्रक्रिया दोबारा शुरू होने के कारण हिरासत अब भी वैध है।
कोर्ट ने राज्य को निर्देश दिया कि वह अपनी कानूनी स्थिति स्पष्ट करने वाला विस्तृत हलफनामा दाखिल करे।
कोर्ट ने यह भी कहा कि यह हलफनामा अगली सुनवाई से कम से कम छह दिन पहले याचिकाकर्ता को सौंपा जाए ताकि उसे जवाब देने का समय मिल सके।
यह मामला अब अदालत की गर्मी की छुट्टी के बाद 16 जुलाई 2025 को सूचीबद्ध किया गया है।
पहली सुनवाइयों का विवरण यहां पढ़ा जा सकता है।
26 जून: रेजिया खातून बनाम भारत संघ
26 जून को पीठ ने इसी तरह के मामले की सुनवाई की जो मजीबुर रहमान से जुड़ा था—याचिकाकर्ता रेजिया खातून के पति—जिन्हें दो साल से ज्यादा हिरासत में रहने के बाद 15 नवंबर 2021 को रिहा किया गया था।
राज्य ने अपनी पहले वाली स्थिति दोहराई: यह रिहाई सुप्रीम कोर्ट के 2020 के निर्देशों के सामूहिक (ब्लैंकेट) लागू होने का हिस्सा थी, न कि गुवाहाटी हाई कोर्ट के किसी विशेष जमानत आदेश पर आधारित। राज्य ने फिर तर्क दिया कि जिन परिस्थितियों के चलते पहले देश से निकालने (डिपोर्टेशन) को रोका गया था, वे अब मौजूद नहीं हैं और अब वह विदेशी ट्रिब्यूनल (FT) की राय के आधार पर कार्रवाई की तैयारी कर रहा है। हालांकि, पिछले मामले की तरह ही, राज्य ने मजीबुर रहमान को हिरासत में लेने से पहले न तो जमानत रद्द करने और न ही उसमें बदलाव करने के लिए कोई अर्जी दाखिल की थी।
याचिकाकर्ता की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट मृन्मय दत्ता ने कोर्ट से अनुरोध किया कि अब्दुल शेख वाले मामले में जो आदेश दिया गया था, वही आदेश इस मामले में भी दिया जाए। पीठ ने इस पर सहमति जताई। कोर्ट ने वही तथ्य दर्ज किए और इसी तरह के निर्देश जारी किए: राज्य को एक हलफनामा दाखिल करना होगा, जिसमें यह बताया जाए कि जमानत और उसकी शर्तों के पालन के बावजूद दोबारा हिरासत में लेने का कानूनी आधार क्या है। इसके बाद याचिकाकर्ता को जवाब दाखिल करने की अनुमति होगी। यह मामला अब 16 जुलाई को सुनवाई के लिए तय किया गया है।
पिछली सुनवाइयों का डिटेल यहां पढ़ा जा सकता है।
हाई कोर्ट के सामने अहम कानूनी सवाल
हाई कोर्ट के सामने अब एक महत्वपूर्ण संवैधानिक सवाल है: क्या कोई ऐसा व्यक्ति जिसे संवैधानिक अदालत के निर्देशों के तहत जमानत पर रिहा किया गया है और जिसने कभी जमानत की शर्तों का उल्लंघन नहीं किया, उसे बिना उस जमानत आदेश को रद्द किए फिर से गिरफ्तार कर हिरासत में रखा जा सकता है?
दोनों सुनवाइयों में याचिकाकर्ताओं ने जोर देकर कहा कि जो लोग कोर्ट द्वारा लगाई गई शर्तों का पालन कर रहे हैं, उनकी लगातार हिरासत गैरकानूनी और मनमानी है, खासकर तब जब राज्य ने मूल जमानत आदेश को वापस लेने या उसमें बदलाव करने की कोई कोशिश नहीं की है। वहीं, राज्य का पक्ष यह लगता है कि जबकि उस वक्त जमानत कानूनी रूप से दी गई थी, अब जब उस पर रोकें हट गई हैं, तो यह देश से निकाले जाने (डिपोर्टेशन) को रोकती नहीं है।
हालांकि कोर्ट ने अब तक दोबारा हिरासत की वैधता पर फैसला नहीं किया है, उसने सभी महत्वपूर्ण तथ्यों को दर्ज किया है, खासकर जमानत की शर्तों के निर्विवाद पालन को, और राज्य को अपनी स्थिति कानूनी रूप से साबित करने के लिए आखिरी मौका हलफनामा दाखिल करने का दिया है। साथ ही, कोर्ट ने निर्देश दिया है कि याचिकाकर्ताओं को जवाब देने के लिए पर्याप्त समय भी दिया जाए।
ये याचिकाएं फिलहाल गुवाहाटी उच्च न्यायालय के समक्ष चल रही व्यापक कार्यवाही का हिस्सा हैं, जो असम के बंगाली भाषी मुस्लिम लोगों की मई 2025 में फिर से हिरासत में लिए जाने से संबंधित हैं, जिन्हें लंबे समय से जमानत पर रिहा किया गया था और जो अदालत की सभी शर्तों को पूरा कर रहे थे। ज्यादातर मामलों में, परिवारों को गिरफ्तारी ज्ञापन नहीं दिए गए, उन्हें एफआईआर दर्ज करने से मना कर दिया गया और उन्हें राहत के लिए उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ा।
25 और 26 जून को जो आदेश दिए गए, वे सिर्फ अब्दुल शेख और मजीबुर रहमान के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे असम में कोर्ट के आदेश पर रिहा हुए कई ऐसे लोगों के मामलों के लिए मिसाल बन सकते हैं। ये आदेश तय करेंगे कि राज्य को बिना अदालत के आदेश वापस लिए या बदले, इन लोगों को फिर से हिरासत में लेने या देश निकालने से पहले क्या-क्या कानूनी कदम उठाने होंगे। आखिरकार, कोर्ट का फैसला इस बात को साफ कर देगा कि COVID के दौरान मिली जमानतों को कैसे माना जाएगा, और क्या सरकार सिर्फ देश निकालने की तैयारी होने का हवाला देकर अदालत की सुरक्षा में मिली आज़ादी को खत्म कर सकती है।
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ये याचिकाएं—सनिदुल शेख बनाम भारत संघ, जिसकी सुनवाई 25 जून को हुई, और रजिया खातून बनाम भारत संघ, जिसकी सुनवाई 26 जून को हुई—क्रमशः अब्दुल शेख और मजीबुर रहमान से जुड़ी हैं। दोनों को विदेशी ट्रिब्यूनलों (एफटी) ने विदेशी घोषित किया था। दोनों ने दो साल से ज्यादा वक्त हिरासत में बिताया और फिर सुप्रीम कोर्ट के 2020 के निर्देशों के तहत हाई कोर्ट द्वारा निगरानी में COVID काल के दौरान जारी जमानत आदेशों के जरिए रिहा किए गए थे। ये दोनों लगातार दो साल से अपने स्थानीय पुलिस थानों में साप्ताहिक रिपोर्ट दे रहे थे, लेकिन मई 2025 में बिना कोई नोटिस दिए या जमानत की शर्तों का उल्लंघन किए, फिर से उन्हें हिरासत में ले लिया गया। इस मामले में सीजेआई दोनों को कानूनी मदद पहुंचा रही है।
25 जून: सनिदुल बनाम भारत संघ
याचिकाकर्ता की तरफ से वकील मृन्मय दत्ता ने बताया कि याचिकाकर्ता सनिदुल के पिता अब्दुल शेख को सुप्रीम कोर्ट के 15 अप्रैल 2020 के आदेश के तहत 30 अप्रैल 2021 को जमानत पर रिहा किया गया था और वे लगातार हर हफ्ते काजोलगांव पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट करते रहे और कोई भी चूक दर्ज नहीं हुई है।
न्यायमूर्ति कल्याण राय सुराना और न्यायमूर्ति के. सेमा वाली बेंच ने सीधे राज्य से पूछा, "क्या वह कोर्ट की जमानत की शर्तों के मुताबिक हर हफ्ते हाजिर हो रहे हैं?"
जिस पर विदेशी ट्रिब्यूनल के वकील ने सहमति जताई और कहा, "हां, यह सच है। वह निर्देशानुसार नियमित रूप से हाजिर होता रहा।"
हालांकि, विदेशी ट्रिब्यूनल के वकील ने यह तर्क दिया कि अब जमानत उस बंदी को फिर से गिरफ्तार करने या देश से निकालने से बचाने वाली सुरक्षा नहीं रही। उन्होंने कहा, "COVID के दौरान जो लोग देश से निकाले जाने का इंतजार कर रहे थे उन्हें जमानत दी गई थी। अब सरकार ऐसे लोगों के देश निकाले जाने की तैयारी कर रही है। हालात बदल गए हैं।"
लेकिन कोर्ट ने इस बात पर गंभीर चिंता जताई और कहा कि जमानत को औपचारिक रूप से वापस लेने या उसमें बदलाव करने की कोई कोशिश नहीं की गई है। आगे कहा कि, "आपने न तो इस कोर्ट में और न ही सुप्रीम कोर्ट में उन जमानत आदेशों को वापस लेने की कोई याचिका दी है। एक बार जमानत मिल जाने के बाद वह तब तक जारी रहती है जब तक उसे वापस न लिया जाए। आप किसी को सिर्फ इसलिए हिरासत में नहीं रख सकते कि सरकार की नीति बदल गई है।"
विदेशी ट्रिब्यूनल के वकील ने यह दलील दी कि जमानत एक "सामूहिक आदेश" (ब्लैंकेट ऑर्डर) का हिस्सा थी, किसी एक व्यक्ति के लिए विशेष रूप से नहीं दी गई थी और यह कि देश से बाहर करना (डिपोर्टेशन) तो पहले से ही कानूनन संभव था—बस महामारी के हालात के कारण उसमें देरी हुई थी।
हालांकि, पीठ ने कहा, "हां, लेकिन जब तक आप जमानत को औपचारिक रूप से वापस नहीं लेते, तब तक दोबारा हिरासत लेना कानूनन सही नहीं है। एक बार जमानत मिल जाने के बाद उसे यूं ही नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।"
जब याचिकाकर्ता के वकील ने यह कहा कि जमानत और उसकी शर्तों का पालन होने के बावजूद हिरासत में रखना गैरकानूनी है, तो पीठ ने कहा कि पूरी सुनवाई तभी होगी जब राज्य अपना पक्ष रखेगा। कोर्ट ने कहा, "पहले आप अपना हलफनामा दाखिल करें। कोर्ट तब देखेगा कि आप जो कानूनी आधार बता रहे हैं, वह कितना सही है।"
अपने औपचारिक आदेश में कोर्ट ने दर्ज किया कि:
● वर्ष 2021 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के तहत जमानत दी गई थी।
● कैदी ने जमानत की सभी शर्तों का पालन किया है।
● राज्य यह तर्क देने की तैयारी कर रहा था कि विदेशी ट्रिब्यूनल (FT) की अंतिम राय और देश निकाले की प्रक्रिया दोबारा शुरू होने के कारण हिरासत अब भी वैध है।
कोर्ट ने राज्य को निर्देश दिया कि वह अपनी कानूनी स्थिति स्पष्ट करने वाला विस्तृत हलफनामा दाखिल करे।
कोर्ट ने यह भी कहा कि यह हलफनामा अगली सुनवाई से कम से कम छह दिन पहले याचिकाकर्ता को सौंपा जाए ताकि उसे जवाब देने का समय मिल सके।
यह मामला अब अदालत की गर्मी की छुट्टी के बाद 16 जुलाई 2025 को सूचीबद्ध किया गया है।
पहली सुनवाइयों का विवरण यहां पढ़ा जा सकता है।
26 जून: रेजिया खातून बनाम भारत संघ
26 जून को पीठ ने इसी तरह के मामले की सुनवाई की जो मजीबुर रहमान से जुड़ा था—याचिकाकर्ता रेजिया खातून के पति—जिन्हें दो साल से ज्यादा हिरासत में रहने के बाद 15 नवंबर 2021 को रिहा किया गया था।
राज्य ने अपनी पहले वाली स्थिति दोहराई: यह रिहाई सुप्रीम कोर्ट के 2020 के निर्देशों के सामूहिक (ब्लैंकेट) लागू होने का हिस्सा थी, न कि गुवाहाटी हाई कोर्ट के किसी विशेष जमानत आदेश पर आधारित। राज्य ने फिर तर्क दिया कि जिन परिस्थितियों के चलते पहले देश से निकालने (डिपोर्टेशन) को रोका गया था, वे अब मौजूद नहीं हैं और अब वह विदेशी ट्रिब्यूनल (FT) की राय के आधार पर कार्रवाई की तैयारी कर रहा है। हालांकि, पिछले मामले की तरह ही, राज्य ने मजीबुर रहमान को हिरासत में लेने से पहले न तो जमानत रद्द करने और न ही उसमें बदलाव करने के लिए कोई अर्जी दाखिल की थी।
याचिकाकर्ता की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट मृन्मय दत्ता ने कोर्ट से अनुरोध किया कि अब्दुल शेख वाले मामले में जो आदेश दिया गया था, वही आदेश इस मामले में भी दिया जाए। पीठ ने इस पर सहमति जताई। कोर्ट ने वही तथ्य दर्ज किए और इसी तरह के निर्देश जारी किए: राज्य को एक हलफनामा दाखिल करना होगा, जिसमें यह बताया जाए कि जमानत और उसकी शर्तों के पालन के बावजूद दोबारा हिरासत में लेने का कानूनी आधार क्या है। इसके बाद याचिकाकर्ता को जवाब दाखिल करने की अनुमति होगी। यह मामला अब 16 जुलाई को सुनवाई के लिए तय किया गया है।
पिछली सुनवाइयों का डिटेल यहां पढ़ा जा सकता है।
हाई कोर्ट के सामने अहम कानूनी सवाल
हाई कोर्ट के सामने अब एक महत्वपूर्ण संवैधानिक सवाल है: क्या कोई ऐसा व्यक्ति जिसे संवैधानिक अदालत के निर्देशों के तहत जमानत पर रिहा किया गया है और जिसने कभी जमानत की शर्तों का उल्लंघन नहीं किया, उसे बिना उस जमानत आदेश को रद्द किए फिर से गिरफ्तार कर हिरासत में रखा जा सकता है?
दोनों सुनवाइयों में याचिकाकर्ताओं ने जोर देकर कहा कि जो लोग कोर्ट द्वारा लगाई गई शर्तों का पालन कर रहे हैं, उनकी लगातार हिरासत गैरकानूनी और मनमानी है, खासकर तब जब राज्य ने मूल जमानत आदेश को वापस लेने या उसमें बदलाव करने की कोई कोशिश नहीं की है। वहीं, राज्य का पक्ष यह लगता है कि जबकि उस वक्त जमानत कानूनी रूप से दी गई थी, अब जब उस पर रोकें हट गई हैं, तो यह देश से निकाले जाने (डिपोर्टेशन) को रोकती नहीं है।
हालांकि कोर्ट ने अब तक दोबारा हिरासत की वैधता पर फैसला नहीं किया है, उसने सभी महत्वपूर्ण तथ्यों को दर्ज किया है, खासकर जमानत की शर्तों के निर्विवाद पालन को, और राज्य को अपनी स्थिति कानूनी रूप से साबित करने के लिए आखिरी मौका हलफनामा दाखिल करने का दिया है। साथ ही, कोर्ट ने निर्देश दिया है कि याचिकाकर्ताओं को जवाब देने के लिए पर्याप्त समय भी दिया जाए।
ये याचिकाएं फिलहाल गुवाहाटी उच्च न्यायालय के समक्ष चल रही व्यापक कार्यवाही का हिस्सा हैं, जो असम के बंगाली भाषी मुस्लिम लोगों की मई 2025 में फिर से हिरासत में लिए जाने से संबंधित हैं, जिन्हें लंबे समय से जमानत पर रिहा किया गया था और जो अदालत की सभी शर्तों को पूरा कर रहे थे। ज्यादातर मामलों में, परिवारों को गिरफ्तारी ज्ञापन नहीं दिए गए, उन्हें एफआईआर दर्ज करने से मना कर दिया गया और उन्हें राहत के लिए उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ा।
25 और 26 जून को जो आदेश दिए गए, वे सिर्फ अब्दुल शेख और मजीबुर रहमान के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे असम में कोर्ट के आदेश पर रिहा हुए कई ऐसे लोगों के मामलों के लिए मिसाल बन सकते हैं। ये आदेश तय करेंगे कि राज्य को बिना अदालत के आदेश वापस लिए या बदले, इन लोगों को फिर से हिरासत में लेने या देश निकालने से पहले क्या-क्या कानूनी कदम उठाने होंगे। आखिरकार, कोर्ट का फैसला इस बात को साफ कर देगा कि COVID के दौरान मिली जमानतों को कैसे माना जाएगा, और क्या सरकार सिर्फ देश निकालने की तैयारी होने का हवाला देकर अदालत की सुरक्षा में मिली आज़ादी को खत्म कर सकती है।
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