नरेगा संघर्ष मोर्चा ने कहा कि महंगाई को ध्यान में रखें तो 2025-26 के बजट में योजना का आवंटन 2024-25 के बजट की तुलना में करीब 4,000 करोड़ रुपये कम है।
फोटो साभार : पीटीआई (फाइल फोटो)
श्रमिकों और कार्यकर्ताओं के एक प्रमुख संगठन नरेगा संघर्ष मोर्चा ने कहा है कि मनरेगा के लिए केंद्र सरकार का 86 हजार करोड़ रुपये का अपरिवर्तित बजटीय आवंटन अपर्याप्त है और इस तरह योजना को व्यवस्थित तरीके खत्म करना है।
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, एक बयान में नरेगा संघर्ष मोर्चा ने कहा कि महंगाई को ध्यान में रखने पर 2025-26 के बजट में योजना का आवंटन 2024-25 के बजट की तुलना में लगभग 4,000 करोड़ रुपये कम है।
बयान में यह भी कहा गया है कि 2024-25 में इस योजना के लिए आवंटन सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 0.26% था, जबकि शनिवार को पेश बजट में आवंटन सकल घरेलू उत्पाद के 0.24% के बराबर है.
मनरेगा अधिनियम के तहत ग्रामीण परिवारों को विशेष रूप से अधिसूचित मजदूरी पर प्रति वर्ष 100 दिन का रोजगार की गारंटी दी जाती है।
नरेगा संघर्ष मोर्चा के हवाले से द वायर ने लिखा कि 1 फरवरी तक के आंकड़ों के अनुसार, इस वित्तीय वर्ष में इस योजना के तहत परिवारों को औसतन 45 दिनों से भी कम काम मिला है, जबकि 2023-24 के लिए यह आंकड़ा लगभग 52 दिन है. यह वित्तीय वर्ष 31 मार्च को समाप्त होगा।
रिपोर्ट में कहा गया है कि 1 फरवरी तक योजना का घाटा 9,860 करोड़ रुपये और लंबित मजदूरी 6,949 करोड़ रुपये है. साथ ही यह भी लिखा है कि ‘(योजना के) बजट का औसतन 20% पिछले बकाये को चुकाने में खर्च किया जाता है।’
मोर्चा ने यह आरोप लगाया कि, ‘इस अपर्याप्त बजट के परिणामस्वरूप अनिवार्य रूप से मजदूरी वितरण में देरी होगी, जिससे ग्रामीण श्रमिकों की वित्तीय परेशानी बढ़ेगी; योजना के तहत काम की मांग दब जाएगी, जिसके परिणामस्वरूप लोगों को रोजगार के उनके अधिकार से वंचित किया जाएगा; और ग्रामीण बुनियादी ढांचे को कमजोर किया जाएगा।’
इसमें यह भी कहा गया कि सरकार द्वारा प्रारंभिक आवंटन में कमी की रणनीति मनरेगा कार्य की मांग को जानबूझकर कम करने का प्रयास है, और जब इसे योजना की कम मजदूरी दरों के साथ जोड़ा जाता है, तो यह श्रमिकों की भागीदारी को हतोत्साहित करता है।
मोर्चा ने कहा, ‘यह उपेक्षा नहीं है, यह लाखों लोगों की महत्वपूर्ण जीवनरेखा को व्यवस्थित रूप से खत्म करने का हिस्सा है।’
ग्रामीण विकास और पंचायती राज पर संसद की स्थायी समिति ने पिछले साल दिसंबर में कहा था कि शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में महंगाई और जीवन-यापन की लागत कई गुना बढ़ गई है।
समिति ने यह भी कहा, "इस समय भी मनरेगा की अधिसूचित मजदूरी दरों के अनुसार, कई राज्यों में प्रतिदिन लगभग 200 रुपये की मजदूरी दर किसी भी तर्क को चुनौती देती है, जबकि उसी राज्य में श्रम दरें कहीं अधिक हैं।"
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (कन्ज्यूमर प्राइस इंडेक्स) (सीपीआई-एएल) के कृषि श्रम आयाम में बदलाव के आधार पर मनरेगा के लिए मजदूरी हर साल संशोधित की जाती है।
पिछले साल फरवरी में ग्रामीण विकास और पंचायती राज पर संसद की स्थायी समिति ने कहा था कि 2010-11 के सीपीआई-एएल मूल्यों को मानकर मजदूरी में संशोधन करने की प्रथा ‘वर्तमान महंगाई और जीवन-यापन की लागत के अनुरूप नहीं है।’
एक विशेषज्ञ समिति के निष्कर्षों का हवाला देते हुए स्थायी समिति ने सिफारिश की कि मनरेगा मजदूरी को ‘उसके अनुसार संशोधित’ किया जाए। इस समिति ने 2019 में सिफारिश की थी कि भारत में आवश्यकता-आधारित न्यूनतम मजदूरी 375 रुपये प्रतिदिन तय की जाए।
पिछले साल मार्च महीने में मनरेगा मजदूरी दरों में अंतिम संशोधन के अनुसार भारत में कोई भी प्रशासनिक इकाई प्रति दिन 374 रुपये से ज्यादा का भुगतान नहीं करती है।
फोटो साभार : पीटीआई (फाइल फोटो)
श्रमिकों और कार्यकर्ताओं के एक प्रमुख संगठन नरेगा संघर्ष मोर्चा ने कहा है कि मनरेगा के लिए केंद्र सरकार का 86 हजार करोड़ रुपये का अपरिवर्तित बजटीय आवंटन अपर्याप्त है और इस तरह योजना को व्यवस्थित तरीके खत्म करना है।
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, एक बयान में नरेगा संघर्ष मोर्चा ने कहा कि महंगाई को ध्यान में रखने पर 2025-26 के बजट में योजना का आवंटन 2024-25 के बजट की तुलना में लगभग 4,000 करोड़ रुपये कम है।
बयान में यह भी कहा गया है कि 2024-25 में इस योजना के लिए आवंटन सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 0.26% था, जबकि शनिवार को पेश बजट में आवंटन सकल घरेलू उत्पाद के 0.24% के बराबर है.
मनरेगा अधिनियम के तहत ग्रामीण परिवारों को विशेष रूप से अधिसूचित मजदूरी पर प्रति वर्ष 100 दिन का रोजगार की गारंटी दी जाती है।
नरेगा संघर्ष मोर्चा के हवाले से द वायर ने लिखा कि 1 फरवरी तक के आंकड़ों के अनुसार, इस वित्तीय वर्ष में इस योजना के तहत परिवारों को औसतन 45 दिनों से भी कम काम मिला है, जबकि 2023-24 के लिए यह आंकड़ा लगभग 52 दिन है. यह वित्तीय वर्ष 31 मार्च को समाप्त होगा।
रिपोर्ट में कहा गया है कि 1 फरवरी तक योजना का घाटा 9,860 करोड़ रुपये और लंबित मजदूरी 6,949 करोड़ रुपये है. साथ ही यह भी लिखा है कि ‘(योजना के) बजट का औसतन 20% पिछले बकाये को चुकाने में खर्च किया जाता है।’
मोर्चा ने यह आरोप लगाया कि, ‘इस अपर्याप्त बजट के परिणामस्वरूप अनिवार्य रूप से मजदूरी वितरण में देरी होगी, जिससे ग्रामीण श्रमिकों की वित्तीय परेशानी बढ़ेगी; योजना के तहत काम की मांग दब जाएगी, जिसके परिणामस्वरूप लोगों को रोजगार के उनके अधिकार से वंचित किया जाएगा; और ग्रामीण बुनियादी ढांचे को कमजोर किया जाएगा।’
इसमें यह भी कहा गया कि सरकार द्वारा प्रारंभिक आवंटन में कमी की रणनीति मनरेगा कार्य की मांग को जानबूझकर कम करने का प्रयास है, और जब इसे योजना की कम मजदूरी दरों के साथ जोड़ा जाता है, तो यह श्रमिकों की भागीदारी को हतोत्साहित करता है।
मोर्चा ने कहा, ‘यह उपेक्षा नहीं है, यह लाखों लोगों की महत्वपूर्ण जीवनरेखा को व्यवस्थित रूप से खत्म करने का हिस्सा है।’
ग्रामीण विकास और पंचायती राज पर संसद की स्थायी समिति ने पिछले साल दिसंबर में कहा था कि शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में महंगाई और जीवन-यापन की लागत कई गुना बढ़ गई है।
समिति ने यह भी कहा, "इस समय भी मनरेगा की अधिसूचित मजदूरी दरों के अनुसार, कई राज्यों में प्रतिदिन लगभग 200 रुपये की मजदूरी दर किसी भी तर्क को चुनौती देती है, जबकि उसी राज्य में श्रम दरें कहीं अधिक हैं।"
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (कन्ज्यूमर प्राइस इंडेक्स) (सीपीआई-एएल) के कृषि श्रम आयाम में बदलाव के आधार पर मनरेगा के लिए मजदूरी हर साल संशोधित की जाती है।
पिछले साल फरवरी में ग्रामीण विकास और पंचायती राज पर संसद की स्थायी समिति ने कहा था कि 2010-11 के सीपीआई-एएल मूल्यों को मानकर मजदूरी में संशोधन करने की प्रथा ‘वर्तमान महंगाई और जीवन-यापन की लागत के अनुरूप नहीं है।’
एक विशेषज्ञ समिति के निष्कर्षों का हवाला देते हुए स्थायी समिति ने सिफारिश की कि मनरेगा मजदूरी को ‘उसके अनुसार संशोधित’ किया जाए। इस समिति ने 2019 में सिफारिश की थी कि भारत में आवश्यकता-आधारित न्यूनतम मजदूरी 375 रुपये प्रतिदिन तय की जाए।
पिछले साल मार्च महीने में मनरेगा मजदूरी दरों में अंतिम संशोधन के अनुसार भारत में कोई भी प्रशासनिक इकाई प्रति दिन 374 रुपये से ज्यादा का भुगतान नहीं करती है।