ग्राउंड रिपोर्टः उत्तर प्रदेश में किस हाल में हैं मदरसे, इन्हें क्यों बंद कराना चाहती है बीजेपी सरकार ?

Written by विजय विनीत | Published on: April 13, 2024
बनारस का सबसे पिछड़ा इलाका है बजरडीहा। कैंट रेलवे स्टेशन से करीब 11 किमी दूर। कारोबारी इसे बनारसी साड़ी का मरकज मानते हैं, तो सरकारी नुमाइंदे काला पानी। करीब ढाई लाख की आबादी वाले इस इस इलाके का प्रतिनिधित्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करते हैं। बारिश के दिनों में कोई यहां आने हिम्मत नहीं जुटा पाता, क्योंकि समूचा इलाका ताल-पोखरे में तब्दील हो जाता है। संकरी सड़कें और उससे जुड़ी तमाम सर्पीली गलियां। तंग गलियां, गाड़ी निकाल पाना आसान नहीं है।


बजरडीहा का मदरसा हनफिया गौसिया

बजरडीहा की पहचान सिर्फ इतनी सी है कि यहां गली-हर घर और हर गली में हर वक्त लूम के खटर-पटर आवाज सुनाई पड़ती है। चाहे वो आजादनगर, महफूज नगर, मकदूम नगर, लमही, अंबा, धरहरा हो अथवा अंबा, धरहरा, मुर्गिया टोला, फारूखीनगर, जक्खा, कोल्हुआ। बजरडीहा में घुसते ही सड़क के किनारे एक सीटिंग प्लाजा दिखता है, जहां बैठकर लोग सुबह-शाम गुफ्तगू करते नजर आते हैं। सीटिंग प्लाजा के पीछे की दीवार हरे रंग से रंगी है, जिस पर दो तरफ भारतीय झंडे लगे हैं और बीच में चांद तारा है। इसी दीवार पर एक हिदायत भी दर्ज की गई है, "यहां पोस्टर न चिपकाएं।"

बजरडीहा की तंग गलियों को लांघते हुए हम रजानगर पहुंचे, जहां मदरसा नूरिया रिज्विया का एक छोटा से बोर्ड लगा था। इस मदरसे में आठवीं तक की कक्षाएं चलती हैं। अचंभित करने वाली बात यह है कि बिना सरकारी अनुदान के चलने वाले इस मदरसे में अव्वल दर्जे की पढ़ाई होती है। यहां करीब चार सौ से ज्यादा स्टूडेंट्स हैं। इन्हें पढ़ाने के लिए करीब एक दर्जन शिक्षक नियुक्त हैं। फीस के रूप में स्टूडेंट्स से सिर्फ टोकेन मनी ली जाती है। गरीब बच्चों से  कोई फीस नहीं ली जाती। दरअसल, यह मदरसा कम संसाधनों में शिक्षा का एक बेहतर मॉडल पेश करता नज़र आता है।


मदरसा नूरिया रिज्विया

मदरसा नूरिया रिज्विया बजरडीहा का इकलौता मदरसा है जहां हिन्दू महिला टीचर गीता श्रीवास्तव एक आइकन की तरह हैं। मुस्लिम बच्चों के लिए गीता एक आदर्श हैं। बारिश के दिनों में जब गलियों में पानी भर जाता है तो उन्हें सड़क से मदरसे तक लाने और पहुंचाने की जिम्मेदारी स्कूली बच्चे ही उठाते हैं। गीता कहती हैं, " हमें यह कहने में कोई हिचक नहीं होती है कि हम मदरसे में पढ़ाते हैं। आखिर मदरसा है तो मदरसा कहने में शर्म क्यों आनी चाहिए। लोगों को मदरसे के प्रति अपनी नजरिया बदलने की ज़रूरत है। मदरसों के बारे में गलत भ्रांतियां फैलाई गई हैं कि यहां धर्मांधता और कट्टरता सिखाई जाती है। हम मदरसे में पढ़ाने आए तब पता चला कि यहां सिर्फ बच्चों की पढ़ाई पर फोकस किया जाता है। सुविधाएं भले ही नहीं है, लेकिन पढ़ाई की गुणवत्ता अव्वल दर्जे की है।"


मदरसा की शिक्षिका गीता श्रीवास्तव

गीता यह भी कहती हैं, "ज्यादातर मदरसों में बच्चों को दोपहरिया भोजन नहीं मिलता, फिर भी स्टूडेंट्स बहुत ज्यादा हैं। एक टीचर के रूप में मैं यहां तनिक भी असहज महसूस नहीं करती। यहां आने के बाद हमें एहसास हुआ कि मदरसों को लेकर हम सभी की सोच बहुत छोटी है। हमें कभी लगा ही नहीं कि मदरसा नूरिया रिज्विया में बच्चों को कट्टरता सिखाई जाती है। अगर यह सब सिखाया जा रहा होता तो बच्चे पढ़ाकू नहीं, उदंड होते। यहां सिर्फ उर्दू ही नहीं, उन्हें हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, विज्ञान सब कुछ पढ़ाया जाता है। यहां तो हमें मजबह की कोई दीवार दिखती ही नहीं है।"

नूरिया रिज्विया के प्रिंसिपल हैं नासिर हुसैन। वह कहते हैं, " बजरडीहा के कुछ मदरसे तो आजादी के पहले से ही चल रहे हैं। हम तो उन्हें कंप्यूटर जैसी दुनियावी तालीम भी दे रहे हैं। हमारे यहां अंग्रेज़ी की पढ़ाई अनिवार्य है। हम संस्कृत पढ़ाते हैं और विज्ञान भी। हमें इस बात से नाराजगी जरूर है कि इस समय मदरसों को अगल नजरों से देखा जा रहा है। कोई हमारा गुनाह तो बताए?  बच्चों को तालीम कौन सा जुर्म है?अगर हम मदरसे नहीं चलाते तो आखिर यहां पढ़ने वाले चार सौ बच्चे आखिर कहां जाते? हम चाहते हैं कि योगी सरकार मुस्लिम समुदाय के बच्चों के भविष्य के बारे में अच्छा सोचे, क्योंकि मदरसों पर से मैं डरा हुआ हूं।"

करीब ढाई लाख की आबादी वाले बजरडीहा में सिर्फ एक सरकारी प्राइमरी स्कूल है, जहां गिने-चुने बच्चे ही पढ़ने आते हैं। जक्खा स्थिति सरकारी प्राइमरी स्कूल से इतर बजरडीहा में करीब 19 मदरसे हैं, जिनमें दो-तीन ही सरकारी मदद से चलते हैं। यूपी सरकार तो इस इलाके में स्कूल खोलना ही भूल गई है। फिर भी सरकार इन मदरसों के पीछे पड़ी है। यह स्थिति तब है जब मदरसों के आधुनिकीकरण और इंफ्रास्टक्चर के जुटाने के लिए यूपी सरकार फूटी कौड़ी नहीं देती है। मदरसों के आधुनिकीकरण और पाठ्यक्रम का सिलेबस आज तक बना ही नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने मदरसों के खिलाफ हाईकोर्ट के फैसले के मामले में भले ही स्टे दे दिया है, लेकिन सुप्रीम फैसला आना अभी बाकी है। मुस्लिम समुदाय में हर व्यक्ति के जेहन में बस एक ही सवाल खड़ा हुआ है कि अगर मदरसे बंद हो गए तो बच्चों के भविष्य का क्या होगा?


मदरसे में पढ़ाई करतीं छात्राएं
 
हाईकोर्ट के फैसले पर रोक
 
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 22 मार्च को मदरसा कानून 2004 को असंवैधानिक घोषित करते हुए उसे रद्द करने का फैसला सुनाया था। हाईकोर्ट का कहना था कि मदरसे की शिक्षा सेक्युलरिज्म के सिद्धांतों के विरुद्ध है और सरकार को इस पर विचार करना होगा कि मदरसों में मजहबी शिक्षा हासिल कर रहे स्टूडेंट्स को औपचारिक शिक्षा पद्धति में दाखिल करें। हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ मदरसों की संस्था मैनेजर्स एसोसिएशन मदरिस ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। वरिष्ठ अधिवक्ता मनु सिंघवी ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी कि मदरसे 120 साल से चल रहे हैं और अचानक रोक लगाने से 17 लाख छात्र और 10 हजार शिक्षक प्रभावित होंगे।

दोनों पक्षों को सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फैसले पर रोक लगा दी, जिसमें अदालत ने यूपी में मदरसा कानून को रद्द करने का आदेश दिया था। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ का कहना था कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कानून के कुछ प्रावधानों को समझने में गलती की है। फिलहाल हाईकोर्ट के फैसले पर रोक के बावजूद यूपी के मदरसे चलते रहेंगे।

उत्तर प्रदेश में 16 हज़ार से अधिक मदरसे हैं, जिनमें से 558 मदरसे ऐसे हैं जिनको सरकारी सहायता मिलती है और जिनका वेतन यूपी सरकार देती है। सात हज़ार मदरसे ऐसे हैं जिनमें तीन टीचर का वेतन भारत सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार मिल के मानदेय के रूप में देती है। शेष बचे मदरसे सिर्फ़ मान्यता प्राप्त हैं, उनको सीधे कोई धनराशि नहीं दी जाती है।

उत्तर प्रदेश मदरसा बोर्ड के रजिस्ट्रार जगमोहन सिंह के मुताबिक़ शिक्षा में मॉडर्नाइज़ेशन के लिए बोर्ड ने 2018 से एनसीआरटी का सिलेबस जोड़ा है जिसमें जनरल विषय जैसे हिंदी, इंग्लिश, गणित, साइंस और सोशल साइंस शामिल हैं। दीनियात यानी इस्लाम धर्म की शिक्षा का जो विषय है, उसको एक सब्जेक्ट के रूप में सीमित किया गया है। अब मदरसों में 80 फीसदी प्रशिक्षित शिक्षकों की भर्ती की जाएगी, जो जनरल सब्जेक्ट पढ़ाएंगे। इनकी योग्यता बीएससी बीएड, एमएसएसी बीएड, बीए बीएड, एमए, बीएड के साथ यूपी टेट और सीटेट क्वॉलिफ़ाइड होगी। दीनियात और अरबी-फ़ारसी के लिए सिर्फ बीस फीसदी शिक्षक रहेंगे। दो शिक्षक साइंस बैकग्राउंड के और दो अन्य आर्ट बैकग्राउंड के होंगे। एक टीचर अरबी फ़ारसी पढ़ाने के लिए रखे जाएंगे।
 
मदरसों का इतिहास 
 
मदरसा एक अरबी शब्द है, जिसका मतलब होता है पढ़ने का स्थान। यानी जहां पर शिक्षण का कार्य होता है। मूलरूप से ये हिब्रू भाषा से अरबी में आया है जिसे हिब्रू में ‘मिदरसा’ भी कहा जाता है। जैसे हिंदी का ‘पाठशाला’ और अग्रेजी का ‘स्कूल’। दुनिया का पहला मदरसा ग्यारहवीं शताब्दी में बगदाद में खोला गया था, जिसका नाम ‘निजामिया मदरसा’ था, जिसे सेल्जुक वजीर निजाम अल मुल्क ने बनवाया था। इसमें भोजन के साथ-साथ आवासीय व्यवस्था पूरी तरह से निःशुल्क था।


मदरसे में पढ़ाई करतीं छात्राएं

हिन्दुस्तान में मदरसों की बात करें तो सबसे पहला मदरसा के खोलने का प्रमाण गौरी शासन के दौरान देखने को मिलता है, जिसे साल 1191-92 के दौरान अजमेर में खोला गया था। यूनेस्को की माने, तो हिन्दुस्तान में मदरसे की शुरुआत 13वीं शताब्दी में हुई थी। यूनेस्को देश का पहला मदरसा ग्वालियर में बताता है। हिन्दुस्तान में अंग्रेजों ने भी मदरसे खोले। वारेन हेस्टिंग्स ने 1781 में कोलकाता में अंग्रेजी सरकार का पहला मदरसा खोला।

बनारस की एक्टिविस्ट मुनीजा खान कहती हैं, "मदरसों को कट्टरपंथियों का केंद्र बताने वाले इसके इतिहास से परिचित नहीं हैं। इनकी अहमियत समझने के लिए हमें इतिहास के पन्नों को पलटना होगा। मदरसों में ही देश के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद, समाज सुधारक राजाराम मोहन राय, कथा सम्राट मुंशी प्रेमंचद ने शुरुआती पढ़ाई की थी। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29-30 के मुताबिक, अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थान चलाने और उन संस्थानों का संरक्षण करने का पूरा अधिकार है। अनुच्छेद 29 कहता है कि हिन्दुस्तान के किसी भाग में रहने वाले नागरिकों को अपनी बोली, भाषा, लिपि, संस्कृति को सुरक्षित रखने का अधिकार है।"

"सत्ता के शिखर पर बैठे कुछ लोग देश की एक बड़ी आबादी को शिक्षा से दूर रखने के एजेंडे पर काम कर रहे हैं। ये वही लोग हैं जो मदरसों का अस्तित्व मिटाना चाहते हैं। आप सच्चर कमेटी की रिपोर्ट देखेंगे तो बेहद हैरानी होगी। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में मुसलमानों की स्थिति कई मामलों में देश के दलितों से भी बदतर है। मदरसे में पढ़ाई करने वाले अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों की तादाद सिर्फ चार फीसदी है। अगर मदरसे बंद हो गए तो इस समुदाय के ज्यादातर लोग अशिक्षित रह जाएंगे। सच्चर कमेटी ने मुसलमानों के अर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक स्थिति की पड़ताल करते हुए यह भी कहा है कि किसी भी सरकार ने आज तक इनकी सुधि नहीं ली। मुस्लिम बहुल इलाकों में उनकी आबादी के अनुरूप न तो स्कूल-कॉलेज हैं और न ही कोई विश्वविद्यालय। यूपी में पिछड़े और गरीब मुस्लिम बच्चों को शिक्षा देने की जिम्मेदारी अगर मदरसे निभा रहे हैं तो योगी सरकार उन्हें अपने निशाने पर ले रही है।"

मुनीजा यह भी कहती हैं, "देश की आजादी में मुसलमानों ने उतनी ही भूमिका निभाई है जितना योगदान हिन्दुओं का है। देशभक्ति को  लेकर न जाने कितने पन्नों पर इनकी बहादुरी दर्ज है। जिसके साक्ष्य अपने अंदर सरफरोश, कुर्बानी, सच्चाई और बेबाकी को समेटे हुए है। मदरसे से निकलने वाले उलेमाओं तक ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ इंकलाब पैदा किया। उर्दू के देहली अखबार के संपादक मौलवी मोहम्मद बाकर हिन्दुस्तानियों ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने का जज्बा पैदा किया था। अंग्रेज इतिहासकार एडवर्ड टामसन ने अपनी पुस्तक में इस बात का विस्तार से जिक्र किया है कि आजादी की रूह फूंकने वाले 80 हजार से ज्यादा उलेमाओं को 1857 से 1867 के बीच फांसी पर लटकाया गया। दिल्ली के चांदनी चौक से खैबर तक ऐसा कोई पेड़ नहीं था जिस पर किसी मौलाना की गर्दन लटकाई न गई हो। मदरसे को उंगली उठाने के बजाए उनके आधुनिकीकरण पर ध्यान देना चाहिए।"


मदरसे में पढ़ाई करतीं छात्राएं
 
क्यों रोकी जा रही पढ़ाई?
 
बजरडीहा में एक मुस्लिम युवक सरफराज से मुलाकात हुए तो वो योगी सरकार के भेदभावपूर्ण रवैये पर खासे व्यथित नजर आए। बोले, "हम इसे दुर्भाग्य कह सकते हैं कि आठवीं पास लड़कियों के लिए बजरडीहा इलाके में कोई स्कूल नहीं है। इससे आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें काफी दूर खोजवां अथवा सरायनंदन जाना पड़ता है। मदरसों को लेकर बेवजह वितंडा खड़ा किया जा रहा है और बहुसंख्यक समाज के बीच झूठी और मनगढ़ंत बातें फैलाई जा रही हैं। हमें ये बातें कितनी चुभती हैं जब मदरसों के बारे में कहा जाता है कि ये आतंक फैलाने वाली फैक्ट्री है। सच यह है कि यहां तालीम के अलावा कुछ भी नहीं सिखाया जाता।"

मदरसा अहयाउस सुन्ना के क्लर्क अब्दुल हकीम कहते हैं "हमारे मदरसे में 32 लोगों का स्टाफ है, जिनमें दस महिलाएं हैं। अंग्रेजी और मैथ पढ़ाने वाले आनंद प्रकाश श्रीवास्तव कुछ साल पहले ही रिटायर हुए हैं। अंग्रेजी की टीचर कल्पना बनर्जी भी दो बरस पहले रिटायर हुई हैं। हमारे मदरसे के तमाम बच्चे सरकारी नौकरियों में हैं। डाक्टर, इंजीनियर और टीचर ही नहीं, कई स्टूडेंट प्रशासनिक सेवाओं में भी चले गए हैं। इस समय भी यहां की कई लड़कियां नामी कालेजों में पीएचडी कर रही हैं। आप मुझे देखिए, मैं भी मदरसे से ही पढ़कर निकला हूं और अब मैं यहां आया हूं। हम सभी कि कोशिश होती है कि बच्चों को प्रोफ़ेशनल फ़ील्ड में ले जा सकें। बच्चों की दिलचस्पी भी दिखती है।"

अब्दुल यह भी कहते हैं, "तालीम कोई भी हो, उससे पीछे नहीं हटा जा सकता है। सरकार कंप्यूटर और अंग्रेजी सिखाने की बात कर रही है तो अच्छी बात है। नए दौर में इसी की जरूरत है और इसी से कामयाबी भी हासिल की जा सकती है। सरकार को चाहिए कि वो मदरसों को और भी ज्यादा सुविधाएं दे। मदरसों का आधुनिकीकरण बेहद जरूरी है। दुर्भाग्य यह है कि जो सुविधाएं मिलनी चाहिए वो नहीं मिल पा रही हैं। इस्लाम में मदीना कांस्ट्यूशन है। आज धर्मांधता पर नहीं, सामजिक सरोकारों व मूल्यों पर बहस होनी चाहिए। मदरसे बंद कर देंगे तो जो भी पढ़ रहे हैं वो भी नहीं पढ़ पाएंगे। धर्म और मजहब की समझदारी न होने पर किसी को भी बरगलाया जा सकता है। लोग निरक्षर रहेंगे तो वहां कट्टरवाद पनपेगा।"
 
हिन्दू-मुसलमानों को मत लड़ाइए
 
बुनकर दस्तकार अधिकार मंच के मुखिया इदरीश अहमद कहते हैं, "सब वोट की राजनीति है। लोकसभा चुनाव जीतने के लिए इन्हें हिन्दुओं-मुसलमानों को लड़ाए रखना है। अगर मुस्लिम बीजेपी के नजदीक चले जाएंगे तो वो इतनी मनमानी नहीं कर पाएंगे। स्वार्थी नेताओं की चिंता इस बात को लेकर है कि मदरसों से भी आईएए-आईपीएस, इंजीनियर-डाक्टर निकल रहे हैं। अब मदरसों में पढ़ने वाले बच्चे भी स्मार्टफोन चलाते हैं। वहां कंप्यूटर आ गए हैं और कई जगह पर अंग्रेजी भी पढ़ाई जा रही है।" मदरसा रिजिविया रशीदुल उलूम के मोहम्मद गुलफाम कहते हैं, " अब हर मुस्लिम परिवार चाहता हैं कि उसके बच्चे आधुनिक शिक्षा लें जो रोजगारपरक हो और वे अपनी जिंदगी में कुछ कमी कर सके। आम मुसलमान धार्मिक शिक्षा के खिलाफ नहीं हैं लेकिन उसकी प्राथमिकता अब मौजूदा वक्त में बदल गई है। उसे समझ आ गया है कि नौकरी आधुनिक शिक्षा से ही मिलेगी।"

एआईएमआईएम प्रमुख असद्दुदीन ओवैसी ने मदरसों को लेकर योगी सरकार की सोच पर तीखा प्रहार किया है। वह कहते हैं, "योगी सरकार का यह फैसला मिनी एनआरसी की तरह है और इसे सिर्फ मुसलमानों को तंग करने के लिए लाया जा रहा है। संविधान के आर्टिकल 30 में यह साफतौर पर कहा गया है कि प्राइवेट मदरसे खोलने के लिए किसी से परमिशन लेने की ज़रूरत नहीं है। जो मदरसे सरकारी पैसे पर चल रहे हैं उनके ऊपर ही सरकार अपनी शर्तें थोप सकती है। अगर सरकार का मकसद सिर्फ मुसलमानों को सिर्फ परेशान करना है तो खुलेआम ऐलान कर दे, कि हमारे बच्चे कुरआन नहीं पढ़ें, नमाज़ नहीं पढ़ें, ख़ुद को मुसलमान भी न कहें। दरअसल, उनका सामाजिक न्याय मकैनिकल है। यहां से तोड़ो और वहां जोड़ दो। मुसलमान इस लिए दिक्कत में हैं क्योंकि उनके भीतर भरोसे की कमी है।

बनारस के व्यापारी नेता बदरुद्दीन अहमद कहते हैं, "हिन्दुस्तानी मदरसों पर ये आरोप सरासर झूठे और बेबुनियाद हैं कि वहां ‘आतंकवाद’ के ककहरे सिखाए जाते हैं। मदरसों ने हर दौर में मोहब्बत और अमन का पैगाम दिया है। वक़्त के हिसाब से मदरसों ने अपने पाठ्यक्रम में बहुत सारा बदलाव किया है। अरबी, उर्दू के अलावा हिन्दी, अंग्रेजी, विज्ञान, राजनीतिक विज्ञान, इतिहास के साथ अब कंप्यूटर की तालीम दी जाती है। चंद स्वार्थी लोग मदरसों को बंद करने की मांग उठा रहे हैं, जो देश के संविधान और एकता के खिलाफ है। देश की एक बड़ी आबादी को शिक्षा से दूर रखने की कोशिश की जा रही है। जिन मदरसों ने देश को आज़ादी दिलाने में मदद की, और अब उन्हें शक की नज़र से क्यों देखा जा रहा है? "
 
मदरसे बीजेपी की टारगेटेड मुहिम
 
बनारस के वरिष्ठ पत्रकार एवं चिंतक प्रदीप कुमार को लगता है कि बीजेपी सरकार को मदरसों से काफी चिढ़ है। सुप्रीम कोर्ट ने संविधान का हवाला देते हुए हाईकोर्ट के आदेश को रोक दिया है। वह कहते हैं, "मेरा सवाल यह है कि संस्कृत विश्वविद्यालयों और पाठशालाओं पर आप सवाल खड़ा नहीं करते। मुस्लिम समुदाय के बच्चे जब मदरसों में पढ़ने जाते हैं तो इन्हें खटकता है। संस्कृत की शिक्षण संस्थाओं में रामनामी पहनकर कर बच्चे पढ़ते हैं तो वो गर्व महसूस करते हैं। बनारस के संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति धोती-कुर्ता पहनकर चलते हैं तो क्या दूसरे समुदाय के लोगों यह सब बुरा नहीं लगता होगा। संस्कृत पाठशालाओं और संस्कृत विद्यालयों पर भी सवाल उठाया जाना चाहिए। संस्कृत विश्वविद्यालय में आखिर आधुनिक शिक्षा की आखिर कौन सी तालीम दी जा रही है? वहां कौन सा विज्ञान पढ़ाया जा रहा है? खास चश्मे से देखते हुए मदरसों पर कार्रवाई करना, उनका फंड रोकना एक तरह से टारगेटेड मुहिम है। आप धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकते। बड़ा सवाल यह है कि आखिर ये मदरसे ही सरकार के निशाने पर क्यों हैं?

"मदरसे हमेशा से हिन्दूवादी सोच के निशाने पर रहे हैं। भाजपा का मानना है कि इन मदरसों के जरिये मुस्लिम धर्म और संस्कृति का संरक्षण व संवर्धन हो रहा है, लिहाजा इन्हें इस हद तक कमजोर किया जाए कि इनका वजूद ही खत्म हो जाएं। फासिस्टवादी सोच की यही सबसे बड़ी कमजोरी है। वे खुद को श्रेष्ठ मानते है और चाहते हैं कि बाकी लोगों का अस्तित्व मिटा दिया जाए। मदरसों पर रोक अल्पसंख्यक समुदाय में भय, दहशत पैदा करने का हथियार है। बीजेपी सरकार लगातार यह यह साबित करने की कोशिश कर रही है कि वहां आतंक की तालीम दी जा रही है, जबकि सचाई इसके ठीक उलट है।"

वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कहते हैं, "नौकरियों के आंकड़े जुटाए जाएं तो पता चलेगा कि प्रशासनिक नौकरियों और कठिन परीक्षाओं में उन स्टूडेंट्स की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है जिन्होंने बुनियादी शिक्षा मदरसों में ही हासिल की है। उच्च पदों की तमाम सरकारी नौकरियों में मुस्लिम बच्चे मेरिट में आ रहे हैं। इनकी असली परेशानी की असली वजह यही है। वो नहीं चाहते कि कोई और संस्कृति को फलने-फूलने की आजादी रहे। पढ़ाकू संस्कृति के लोग देश की मुख्य धारा में अपनी कामयाबी की झंडे गाड़ सकें। मदरसों के खिलाफ मुहिम चलाने वाले वो लोग हैं जिनके निशाने पर पहले ईसाई मिशनरियां और उनके स्कूल हुआ करते थे। वहां इनकी दाल गली नहीं। अमेरिका जैसे ताकतवर देशों ने पटखनी देनी शुरू की तो इनकी घिग्धी बंध गई। यह सरकार अनपढ़ और जाहिल लोगों की एक बड़ी जमात खड़ा करना चाहती है, ताकि इनकी सियासत चमकती रहे। इन्हें दिक्कत दीनी तालीम से नहीं, बल्कि उन मदरसों से है जो आधुनिक शिक्षा से के बड़े केंद्र बनते जा रहे हैं।"
 
(लेखक विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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