दलित महिला ने न्याय मांगा तो UK सरकार की पोल खुली, उपजातियों के पर्यायवाची नामों पर चल रहा आरक्षण का खेल

Written by Navnish Kumar | Published on: March 31, 2023
भले उत्तर प्रदेश की 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति (एससी) में शामिल करने का मामला तीन-तीन सरकारों का कार्यकाल बीतने पर भी नहीं सुलट सका हो लेकिन छोटे भाई के दर्जे वाली उत्तराखंड सरकार ने ऐसी 48 जातियों को न सिर्फ SC आरक्षण देने का तोड़ ढूंढ निकाला है बल्कि 10 साल से इन्हें सीधे आरक्षण देने का काम भी किया जा रहा है। यह पूरा खेल उपजाति की कथित उपजातियों और पर्यायवाची नामों की आड़ में खेला जा रहा है। 



उत्तराखंड सरकार द्वारा, अनुसूचित जाति (SC) की एक उपजाति की कथित उपजातियां व मिलते जुलते (पर्यायवाची) नाम होने की आड़ में, प्रदेश में निवासरत 48 जातियों को खुद से ही अनुसूचित जाति सूची में शामिल कर लिया है। यही नहीं, पिछले 10 सालों से इन 48 जातियों को अनुसूचित जाति (SC) के प्रमाण पत्र जारी कर रही है और एससी आरक्षण का लाभ दे रही है। इससे जहां अनुसूचित जाति में शामिल असल जातियों के आरक्षण में सेंधमारी हो रही है तो वहीं, महामहिम राष्ट्रपति और संसद के अधिकारों में भी यह सीधा और बेजा हस्तक्षेप है और प्रदेश में बड़े संवैधानिक संकट की ओर इशारा करता है। 

यह सीधा सीधा संविधान के अनुच्छेद 341 का उल्लंघन है। वहीं, इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई विधि व्यवस्था को भी राज्य सरकार द्वारा ताक पर रख दिया गया है। 

संवैधानिक उल्लंघन का यह मामला, एक दलित महिला प्रधान प्रत्याशी की न्याय के लिए शुरू की गई लड़ाई से उजागर हुआ है। दलित महिला प्रधान प्रत्याशी ने न्याय मांगा तो उत्तराखंड सरकार की पोल खुली और अनुसूचित जाति की एक उपजाति की कथित उपजातियों और पर्यायवाची नामों की आड़ में खेला जा रहा आरक्षण देने का यह खेल उजागर हुआ।

मामला अनुसूचित जाति की एक उपजाति शिल्पकार का है। अनुसूचित जाति की इस उपजाति शिल्पकार के नाम पर उत्तराखंड की 48 जातियों को आरक्षण का लाभ दिया जा रहा है। इन सभी 48 जातियों को, शिल्पकार (अनुसूचित जाति की एक उपजाति) की उपजातियां/पर्यायवाची नाम बताकर, उत्तराखंड की अनुसूचित जाति सूची में शामिल किया गया है। यह गोरखधंधा पिछले 10 साल यानी 2013-14 से चल रहा है। 2013-14 में इन सभी 48 जातियों को शिल्पकार, जो अनुसूचित जाति की एक उपजाति है, की उपजातियां बताते हुए SC लिस्ट में जोड़ा गया था। हैरानी की बात यह है कि अनुसूचित जाति की असल जातियों के आरक्षण में सेंधमारी के इस खेल, महामहिम राष्ट्रपति और संसद के अधिकारों में हस्तक्षेप के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई विधि व्यवस्था को भी ताक पर रख दिया गया है। 

सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, अनुसूचित जाति की सूची में कोई भी जाति या उपजाति, बिना संसद और राष्ट्रपति के आदेशों के न जोड़ी जा सकती है और न ही हटाई जा सकती है। लेकिन यहां 48 जातियों को जोड़ दिया गया है वो भी सीधे बिना संसद और राष्ट्रपति की अनुमति के ही। जो संविधान की धारा 341 का उल्लंघन है और प्रदेश में बड़े संवैधानिक संकट की ओर इशारा करता है।

दलित महिला प्रधान प्रत्याशी मीनू के अधिवक्ता और संविधान बचाओ मंच के संयोजक राजकुमार कहते हैं कि यह असंवैधानिक तो है ही, असल देशद्रोह भी यही है जिस पर हर वक्त हमारे नेतागण चिल्लाते रहते हैं। राजकुमार बताते हैं कि "विधि द्वारा स्थापित, संसद द्वारा पारित महामहिम राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित कानून का उल्लंघन ही असल देशद्रोह है।" इस केस में यही सब खेल हुआ है।

उत्तराखंड में संवैधानिक संकट की स्थिति के पैदा होने को लेकर दलित महिला प्रधान प्रत्याशी मीनू ने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री को पत्र लिखकर, उत्तराखंड सरकार को भंग किए जाने की मांग की है। केंद्र ने मामले में उत्तराखंड सरकार से जवाब मांगा है।

टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर के अनुसार, हरिद्वार की 23 वर्षीय दलित महिला ने राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री कार्यालय (पीएमओ) और केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय (एमएसजेई) को पत्र लिखकर आरोप लगाया कि उत्तराखंड सरकार ने संख्या में संशोधन करके "संविधान के अनुच्छेद 341 का उल्लंघन किया है।" संवैधानिक प्रावधान के बावजूद कि यह संसद और राष्ट्रपति का विशेषाधिकार है, अनुसूचित जाति (SC) की सूची में आने वाली जातियों के बारे में केंद्र ने राज्य से जवाब मांगा है।

हरिद्वार जिले की भगवानपुर तहसील के सिकरौडा गांव की रहने वाली मीनू के रूप में पहचानी जाने वाली महिला ने अपने वकील राजकुमार की मदद से 3 फरवरी को लिखे अपने पत्र में कहा, "अनुच्छेद 341 के तहत उल्लंघन के कारण, राष्ट्रपति को राज्य तंत्र की विफलता के कारण राज्य सरकार को भंग कर देना चाहिए और संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू करना चाहिए।"

"राज्य सरकार ने 16 दिसंबर, 2013 को एक अधिसूचना के माध्यम से, एससी सूची में 48 जातियों को शिल्पकार जाति की उप-जातियों के रूप में जोड़ा था, जिसमें संशोधन से पहले, कुल 66 जातियां थीं। 2000 में राज्य के गठन के बाद, मौजूदा सूची उत्तर प्रदेश से अपनाई गई थी।

राजकुमार ने बताया "यह संशोधन अनुच्छेद 341 का स्पष्ट उल्लंघन था, जिसमें कहा गया है कि यह (SC सूची में संशोधन) केवल राष्ट्रपति और संसद द्वारा किया जा सकता है।" 


एडवोकेट राजकुमार

मीनू, जो अनुसूचित जाति समुदाय से संबंधित हैं, ने यह भी आरोप लगाया कि सूची में "कई जातियां शामिल हैं जो अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीएस) सूची में थीं।" "ऐसी जातियों में 'लोहार' शामिल है जो ओबीसी सूची के अंतर्गत आती है। लेकिन अब, यह एससी सूची के साथ-साथ ओबीसी सूची के भी अंतर्गत आती है। नतीजतन, एससी सूची में शामिल इन 48 उप-जातियों के सदस्य, अब राज्य से एससी प्रमाण पत्र भी प्राप्त कर ले रहे हैं, जो अवैध है।"

जब उनसे पूछा गया कि उन्हें इस मामले पर राष्ट्रपति और केंद्र को पत्र लिखने के लिए किस बात ने प्रेरित किया, तो उन्होंने राज्य में पिछले साल हुए पंचायत चुनावों का हवाला दिया, जिसमें सिकरोडा की ग्राम पंचायत भी शामिल थी, जिसे "एससी-आरक्षित सीट" घोषित किया गया था। "उस चुनाव में, मैंने ग्राम प्रधान पद के लिए लड़ाई लड़ी थी और मेरे खिलाफ एक और उम्मीदवार थी, जो गांव की निवासी भी नहीं थी और उत्तरकाशी जिले से आई थी। साथ ही, 'लोहार' जाति की सदस्य होने के बावजूद, उसने 'चमार' जाति का एक अनुसूचित जाति प्रमाण पत्र बनवा लिया था, जिससे वह संबंधित भी नहीं थी।

हालांकि, बाद में हमें पता चला कि वह अनुसूचित जाति समुदाय की सदस्य भी नहीं हो सकती थी क्योंकि उसकी जाति, लोहार, संशोधित अनुसूचित जाति सूची में शामिल शिल्पकार जाति की 48 उप-जातियों में से एक थी। इस मुद्दे पर स्थानीय जिला अदालत में मामले की सुनवाई चल रही है और हम इस मामले को उच्च न्यायालय में भी ले जाने की योजना बना रहे हैं।"

टीओआई के अनुसार, कानूनी विशेषज्ञों ने कहा कि यह "राज्य द्वारा अनुच्छेद 341 का स्पष्ट उल्लंघन प्रतीत होता है।" उत्तराखंड उच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता, कार्तिकेय हरि गुप्ता, जिन्होंने 2016 में अनुच्छेद 356 को लागू करके हरीश रावत सरकार को भंग करने के मामले में तत्कालीन राज्य विधानसभा अध्यक्ष गोविंद सिंह कुंजवाल का प्रतिनिधित्व किया था, ने कहा, "उपरोक्त अनुच्छेद के अनुसार, कि संशोधन केवल राष्ट्रपति और संसद द्वारा किया जा सकता है न कि किसी राज्य सरकार, राज्य विधानसभा या उच्च न्यायालय द्वारा। यदि राष्ट्रपति को लगता है कि इस मामले में राज्य तंत्र की विफलता है, तो वह अनुच्छेद 356 को लागू कर सकती हैं।"

इस बीच, मीनू के पत्र पर प्रतिक्रिया देते हुए पीएमओ ने 13 फरवरी को राज्य के मुख्य सचिव को "मामले में उचित कार्रवाई" करने के लिए लिखा। इसी तरह, केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय (MSJE) ने 9 फरवरी को राज्य के समाज कल्याण विभाग (SWD) के प्रमुख सचिव को भी पत्र लिखकर इस मामले पर उनका जवाब मांगा है।

ताजा घटनाक्रम के तहत इस मुद्दे पर उत्तराखंड चुनाव आयोग (यूईसी) ने भी राज्य एसडब्ल्यूडी को पत्र लिखकर "आवश्यक कार्रवाई करने और उसके बाद एमएसजेई को अवगत कराने" के लिए कहा। इसकी पुष्टि करते हुए, यूईसी के उपायुक्त प्रभात कुमार सिंह, जिन्होंने एसडब्ल्यूडी को पत्र लिखा था, ने कहा, "हमें केंद्र से इस मामले पर पत्र मिला था। चूंकि यह एसडब्ल्यूडी की सीमा के अंतर्गत आता है, हमने इसे प्रक्रिया के अनुसार आगे बढ़ा दिया है। हमें अभी तक इस पर कोई जवाब नहीं मिला है। एसडब्ल्यूडी प्रमुख सचिव एलआर फनई के अनुसार, पत्र का अभी ठीक से विश्लेषण नहीं किया  जा सका है क्योंकि वर्तमान में हम राज्य विधानसभा सत्र में शामिल हैं। विश्लेषण के बाद उत्तर दिया जाएगा"

क्या कहता है आर्टिकल 341

एडवोकेट राजकुमार के अनुसार, संविधान के आर्टिकल 341 में निम्न व्यवस्था की गयी है।
341 (1) राष्ट्रपति, किसी राज्य या संघ राज्य क्षेत्र के सम्बन्ध में और जहां वह राज्य है, वहां उसके राज्यपाल से परामर्श करने के पश्चात लोक अधिसूचना द्वारा जनजातियों, मूलवंशों या जनजातियों अथवा जातियों, मूलवंशों या जनजातियों के भागों या उनमें के वर्गों को विनिर्दिश्ट कर सकेगा, जिन्हे इस संविधान के प्रायोजन के लिए अनुसूचित जातियां समझा जायेगा।

341 (2) संसद, विधि द्वारा, किसी जाति, मूलवंश या जनजाति को अथवा जाति, मूलवंश या जनजाति के भाग या उसमें के यूथ को खंड 1 के अधीन निकाली गई अधिसूचना में विनिर्दिष्ट अनुसूचित जातियों की सूची में सम्मिलित कर सकेगी या उसमें से अपवर्जित कर सकेगी, किन्तु जैसा ऊपर कहा गया है उसके सिवाय उक्त खंड के अधीन निकाली गई अधिसूचना में किसी पश्चातवर्ती अधिसूचना द्वारा परिवर्तन नहीं किया जायेगा।

क्या कहता है सुप्रीम कोर्ट

संविधान के आर्टिकल 341 के संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निम्नलिखित विधि व्यवस्थाओं को प्रतिपादित किया

Case law Regarding entries of presidential orders under article 341 and 342 of the constitution   
 
(A) Constitution Bench of Supreme Court in the case of B. Basavalingappa v. D. Munichinnappa, [1965] 1 SCR 316 examined the provisions of Art. 341 of the Constitution and held as under:
 
Clause (1) provides that the President may with respect to any State, after consultation with the Governor thereof, by public notification, specify the castes, races or tribes or parts of or groups within castes, races or tribes which shall for the purposes of the Constitution be deemed to be Scheduled Castes in relation to that State. The object of this provision obviously is to avoid all disputes as to whether a particular caste is a Scheduled Caste or not and only those castes can be Scheduled Castes which are notified in the Order made by the President under Art. 341 after consultation with the Governor, where it relates to such castes in a State. Clause (2) then provides that Parliament may by law include in or exclude from the list of scheduled castes specified in a notification issued under cl. (1) any caste, race or tribe or part of or group within any caste, race or tribe. The power was thus given to Parliament to modify the notification made by the President under cl. (1). Further cl. (2) goes on to provide that a notification issued under cl. (1) shall not be varied by any subsequent notification, thus making the notification by the President final for all times except for modification by law as provided by cl. (2). Clearly therefore, Art. 341 provides for a notification and for its finality except when altered by Parliament by law. Therefore in view of this stringent provision of the Constitution with respect to a notification issued under cl. (1) it is not open to anyone to include any caste as coming within the notification on the basis of evidence-oral or documentary,- if the caste in question does not find specific mention in the terms of the notification. " "1

(B). Yet, again a three Judge Bench of Apex Court in Palghat Jilla Thandan Samudhaya Samrakshna Samithi & Anr. vs. State of Kerala & Anr.[( 1994)1 SCC 359] has held that neither the State Government nor the court can enquire into or let in evidence relating to any claim as belonging to Scheduled Castes in any Entry of the Scheduled Castes Order. Scheduled Castes Order has to be applied as it stands until the same is amended by appropriate legislation. Para 20 of the said judgment inter-alia, reads thus:

The entries in the Presidential Order have to be taken as final and the scope of enquiry and admissibility of evidence is confined within the limitations indicated. It is, however, not open to the court to make any addition or subtraction from the Presidential Order."

(C) In Nityanand Sharma & Another vs. State of Bihar and Others [(1996)3 SCC 576] the view expressed is that declaration under articles 341 and 342 is conclusive.

(D) The question again came up for consideration of Supreme Court in State of Maharashtra Vs. Milind and Ors. [(2001) 1 SCC 4] the Constitution Bench of the Court while reaffirming the ratio of two Constitution Bench Judgments held as under:

(i) "It is not at all permissible to hold any enquiry or let in any evidence to decide or declare that any tribe or tribal community or part of or group within any tribe or tribal community is included in the general name even though it is not specifically mentioned in the concerned Entry in the Constitution (Scheduled Tribes) Order, 1950.

(ii) The Scheduled Tribes Order must be read as it is. It is not even permissible to say that a tribe, sub-tribe, part of or group of any tribe or tribal community is synonymous to the one mentioned in the Scheduled Tribes Order if they are not so specifically mentioned in it.

(iii) A notification issued under Clause (1) of Article 342, specifying Scheduled Tribes, can be amended only by law to be made by the Parliament. In other within words, any tribe or tribal community or part of or group tribe can any be included or excluded from the list of Scheduled Tribes issued under Clause (1) of Article 342 only by the Parliament by law and by no other authority.

(iv) It is not open to State Governments or courts or tribunals or any other authority to modify, amend or alter the list of Scheduled Tribes specified in the notification issued under Clause (1) of Article 342.

(E) Decisions of the Division Benches of this Court in Bhaiya Ram Munda vs. Anirudh Patar & others (1971 (1) SCR 804) and Dina vs. Narayan Singh (38 ELR 212), did not lay down law correctly in stating that the enquiry was permissible and the evidence was admissible within the limitations indicated for the purpose of showing what an entry in the Presidential Order was intended to be. As stated in position (1) above no enquiry at all is permissible and no evidence can be let in, in the matter."
The provisions of Articles 342 and 341 of the Constitution are pari materia, therefore, what is applicable to Scheduled Tribes is also applicable to Scheduled Castes.

(F) The Allahabad High Court in its orders dated 20.10.2008 and 05.02.2009 in civil misc. Writ Petitions No.16158 of 2002 and 6389 of 2009 held that" Any erroneous spelling mistake occurring in the order of the State Government cannot confer benefit on a different caste. We, accordingly, clarify that it is the Presidential Order which shall prevail and the certificate shall be issued to the members of only such castes as a Scheduled Caste who are described in the 1950 Presidential Order."
Thus, it is well settled by the Apex Court that the Scheduled Castes Order must be read as it is and the entries in the Presidential Order have to be taken as final. Further Allahabad High Court has clarified that any erroneous spelling mistake occurring in the order of the Government cannot confer Scheduled Caste benefit on a different caste and it is the Presidential Order which shall prevail

उत्तर प्रदेश वाली SC सूची में नहीं थी शिल्पकार की कोई उपजाति

महामहिम राष्ट्रपति द्वारा 11 अगस्त 1950 को राजाज्ञा संख्या 27 कानून मंत्रालय के द्वारा लोक अधिसूचना द्वारा उ0प्र0 राज्य के सम्बन्ध में 63 जातियों को अनुसूचित जाति की सूची में सूचीबद्ध किया, जिसमें शिल्पकार जाति को क्रमांक 62 पर अंकित कर अधिसूचित किया गया है।

महामहिम राष्ट्रपति द्वारा अनुसूचित जाति आदेश 1950 में संशोधन करके 29 अक्टूबर 1956 में पुनः गृह मंत्रालय भारत सरकार की अधिसूचना संख्या 316ए उ0प्र0 राज्य के संबंध में अनुसूचित जाति की 64 जाति की सूची को संशोधित करके राजाज्ञा जारी की, जिसमें शिल्पकार जाति को 63 नम्बर पर अधिसूचित किया है।

महामहिम राष्ट्रपति द्वारा अनुसूचित जाति आदेश 1950 में पुनः संशोधन किया गया और 1976 में पुनः संशोधन कर दिनांक 20 सितम्बर 1976 को राजाज्ञा जारी कर उ0प्र0 के सम्बन्ध में 66 जातियों को अनुसूचित जातियों के लिए अधिसूचित किया जिसमें शिल्पकार 65 नम्बर पर अधिसूचित की गई।

एडवोकेट राजकुमार के अनुसार, 1976 में महामहिम राष्ट्रपति द्वारा अनुसूचित जाति आदेश 1950 में संशोधन करके उ0प्र0 राज्य के लिए 66 जातियां अधिसूचित की गई थी, जो 2000 में उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद ज्यों की त्यों अनुसूचित जाति के लिए स्वीकार कर ली गई थी, जिसमें शिल्पकार की कोई उपजाति सम्मिलित नहीं थी, परन्तु महामहिम राष्ट्रपति द्वारा जारी राजाज्ञा, एवं संविधान के आर्टिकल 341 का उल्लंघन एवं सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस सम्बन्ध में दी गई विधि व्यवस्था की अवमानना करके 66 जातियों में 38 जातियां नई, शिल्पकार की उपजातियां बताकर 2013 में जोड दी जिसमें विभिन्न ओ0बी0सी0 की जातियां भी शामिल की गई हैं और वह जातियां अनुसूचित जाति और ओ0बी0सी0 दोनो सूचियों में शामिल हो गई। उसी आधार पर उत्तराखण्ड राज्य में शिल्पकार के नाम पर प्रदेश भर में 48 अवैध जातियों के जाति प्रमाण पत्र बनने शुरू हो गये और अनुसूचित जाति को मिलने वाला आरक्षण गैर अनुसूचित के लोगों को जानबूझकर देना शुरू कर दिया।
 
एडवोकेट राजकुमार के अनुसार, 16 दिसम्बर 2013 को अधिसूचना जारी कर शिल्पकार जाति की उपजाति/पर्यायवाची नाम से 38 जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल कर दिया, जो संविधान की स्पष्ट अवमानना है। 

यह जातियां निम्न प्रकार है-

क्रमांक            शिल्पकार जाति की उपजाति/पर्यायवाची नाम
1.                आगरी या अगरी
2                औजी या बाजगी, टोली, दर्जी   (जो अनुसूचित जाति के हैं।)
3.                अटपहरिया
4.                बादी या बेडा
5.                बेरी बैरी
6.                बखरिया
7.                बढ़ई ( जो अनुसूचित जाति के हैं)
8.                बोरा ( जो अनुसूचित जाति के हैं)
9.                भाट 
10.               भूल, तेली, ( जो अनुसूचित जाति के हैं)
11.               चनेला, चन्याल
12.               चुनेरा, चुनियारा
13.               डालिया
14.               धलौटी
15.               धनिक
16.               धोनी
17.               धुनिया
18.               ढौडी या ढोंडिया
19.               कोल्टा
20.               होबियारा
21.               हुडकिया, मिरासी ( जो अनुसूचित जाति के हैं)
22.               जागरी या जगरिया
23.               जमारिया
24.               कोली
25.               कुम्हार ( जो अनुसूचित जाति के हैं)
26.               लौहार, ल्वार ( जो अनुसूचित जाति के हैं)
27.    राज, ओड, मिस्त्री ( जो अनुसूचित जाति के हैं)
28.                नाई ( जो अनुसूचित जाति के हैं)
29.                नाथ या जोगी ( जो अनुसूचित जाति के हैं)
30.                पहरी या प्रहरी
31.                पातर
32.                रौन्सल
33.                रूडिया या रिंगालिया
34.                सिरडालिया
35.                सुनार या सोनार ( यदि अनुसूचित जाति के हैं)
36.                टम्टा, तमोटा, ताम्रकार, ( जो अनुसूचित जाति के हैं)
37.                तिरूवा
38.                तूरी

नोट: उत्तराखंड शासन के समाज कल्याण अनुभाग 01 द्वारा 30 जनवरी 2014 की एक संशोधित अधिसूचना के द्वारा 9 जातियों आर्य, पार्की, सांगड़ी, धुनार, केवट, डोम, मौर्य, पोरी पम्मी व दमाई को, शिल्पकार की उपजाति के तौर पर अनुसूचित जाति सूची में जोड़ा गया है। यही नहीं, बाद में 21 फरवरी 2014 को जारी एक अन्य अधिसूचना में एक और जाति लापड़ को, बतौर उपजाति शिल्पकार, अनुसूचित जाति सूची में शामिल किया गया। 

संविधान बचाओ समिति के संयोजक और एडवोकेट राजकुमार के अनुसार, अनुसूचित जाति की सूची में कोई भी जाति या उपजाति, बिना संसद और राष्ट्रपति के आदेशों के न जोड़ी जा सकती है और न ही हटाई जा सकती है। लेकिन यहां 48 जातियों को जोड़ दिया गया है वो भी सीधे बिना संसद और राष्ट्रपति की अनुमति के। यह संविधान की धारा 341 का उल्लंघन है और प्रदेश में संवैधानिक संकट की स्थिति की ओर इशारा करता है।

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