पंजाबी पश्चिमी देशों के लोगों की तरह होते हैं। कहीं की कोई भी चीज़ उन्हें पसन्द आती है उसे वे बिना हील-हुज्जत अपना लेते हैं। उन्हें न संस्कार तंग करते हैं, न प्राचीन मान्यताएं गुहार लगाती हैं। उर्दू को उन्होंने इसीलिए इतनी सहजता से अपना लिया जैसे सचमुच उर्दू उनकी अपनी मादरी ज़ुबान हो।
सन 57 की गदर के बाद अंग्रेज़ों ने दो खास काम किये। एक, उन्होंने ऐसा इतिहास लिखे जाने की शुरुआत की जो हमेशा हिन्दू और मुसलमान को बाँट कर रक्खे। दो, उन्होंने उर्दू भाषा और साहित्य को भारत के उत्तरी हिस्से ( दिल्ली तथा वर्तमान उत्तर प्रदेश ) से दूर ले जाने की तरकीबें सोचीं। यह उन क्षेत्रीय मुसलमानों के लिए सज़ा थी जो उर्दू अदब और शायरी को अपनी संस्कृति का बेहद अहम हिस्सा मानते थे। नज़र दौड़ाई गई। नतीजा यह निकला कि पंजाब इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए सबसे सही जगह है। वहाँ इसे सरलता और सहजता से अपना लिया जाएगा।
देश के हर हिस्से की अपनी भाषाएं थीं। दक्षिण में मलयालम, तमिल, तेलगू, कन्नड़ ; गुजरात में गुजराती और बंगाल में बांग्ला, आदि। सारे भाषाई क्षेत्रों के लोग अपनी-अपनी भाषा के प्रति बेहद संवेदनशील थे। उसके समानांतर किसी नई और अपरिचित भाषा को जगह देना उन्हें स्वीकार नहीं हो सकता था। उत्तर प्रांत के अलावा एक हैदराबाद था जहां उर्दू थी। यह वहाँ के लोगों की अपनी तरह की उर्दू थी और एक सीमित दायरे में थी।
ऐसा नहीं कि पंजाब की अपनी कोई भाषा नहीं थी। बाबा शेख फरीद, वारिस शाह और बुल्ले शाह की पंजाबी किसी दूसरी भाषा से कम उन्नत और विकसित नहीं थी। पंजाब के अपने लोक साहित्य की व्यापक लोकप्रियता थी। फिर भी अंग्रेज़ी सत्ता ने नतीजा निकाला कि यही क्षेत्र ऐसा है जहां हर नई चीज़ की तरह नई भाषा को भी स्वीकारा जायगा।
यह सही है कि पंजाब में मुसलमान बड़ी संख्या में थे और संस्कृति से ले कर साहित्य तक मज़बूत स्थिति में भी थे। लोक साहित्य में उनका योगदान अच्छा-खासा था। मगर पंजाब से ज़्यादा मुसलमान बंगाल में थे, मालाबार में भी उनकी गिनती अच्छी-भली थी। अंतर वही था जो मैं कह चुका हूँ: नई चीजों को आत्मसात कर लेने की पंजाबियों की जन्मजात खूबी।
अंग्रेज़ों ने पंजाबियों को उर्दू सिखाने के लिए खास स्कूल खोले, दिल्ली और लखनऊ से उर्दू पढ़ाने के लिए मौलवी भेजे। पंजाब में उर्दू को लोकप्रिय करने में लंबा समय नहीं लगा। पंजाबियों को यह नई ज़ुबान पसन्द आ गई। ग़ालिब और मीर से उनका परिचय एक सुखद अनुभव था। उर्दू को पंजाब ले जाने के पीछे भले ही अंग्रेजों की मुसलमानों के खिलाफ़ कुत्सित भावना रही हो मगर इसे वहाँ स्वीकार करने वालों में सिर्फ मुसलमान नहीं बल्कि सिक्ख और हिन्दू भी थे। उर्दू वहाँ की मिली-जुली संस्कृति का अहम हिस्सा बनती चली गई। उनके एक हाथ में उर्दू थी तो दूसरे हाथ में उनकी अपनी भाषा और उस भाषा का साहित्य और लोक साहित्य। दोनों में एक सुखद संतुलन बनाए रक्खा गया। यह अनोखा काम पंजाब में ही हो सकता था।
फिर वह समय आया जब पंजाब ने अपने उर्दू साहित्यकार और शायर पैदा करने शुरू किये। बीसवीं सदी के भारत ने पंजाब से आए अहमद नदीम कासमी, बलवंत सिंह,राजेन्द्र सिंह बेदी, हफीज जालंधरी, अहमद फ़राज जैसी न जाने कितनी साहित्यिक हस्तियाँ देखी जिन्होंने पंजाबी में भी लिखा और उर्दू में भी। जो साहित्यकार उर्दू में नहीं लिखते थे वे भी उर्दू साहित्य के बड़े गहरे कद्र दान थे, जैसे खुशवंत सिंह और अमृता प्रियतम। खुशवंत सिंह ने मीर तकी मीर की आत्म कथा का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया
उर्दू की स्वीकार्यता यहीं तक नहीं रही। उर्दू इस तरह पंजाब के जन मानस के अंदर तक उतर गई कि हिन्दू और सिख धर्म की किताबें बेहद बड़े पैमाने पर उर्दू में छपने और पढ़ी जाने लगी। पंजाब के आम लोगों ने गीता, रामायण, महाभारत और उपनिषद उर्दू में पढ़ा। आर्य समाज ने अपने हिन्दुत्व का प्रचार उर्दू में किया। बंटवारे के बाद जो हिन्दू शरणार्थी भारत के अलग-अलग इलाकों में आए उनके लिए खास तौर से दिल्ली के अलावा भी कई शहरों में उर्दू के अखबार निकले। लेकिन वह पीढ़ी अब खत्म हो चुकी है उनके बच्चे उर्दू से उतना ही अनजान हैं जितना और लोग।
और इस लेख को मैं खत्म करता हूँ उन तीन हस्तियों के नाम से जो पंजाब की धरती से उभरे और उर्दू शायरी और साहित्य की दुनिया में बीसवीं सदी के हिंदुस्तान के सबसे चमकते सितारे बन गए : डॉ मोहम्मद इक़बाल, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और सआदत हसन मंटो। यह बात अलग है कि दिल्ली और उत्तर प्रदेश के अभिमानी उर्दू वालों ने उन्हें यह स्थान आसानी से मिलने नहीं दिया। इक़बाल का यह कह कर मज़ाक उड़ाया गया कि उन्हें यह नहीं पता कि इक़बाल में क नहीं, क़ होता है। मगर पंजाबी इसे कमी नहीं, “ वट्ट “ कहता है। यही “ वट्ट “ उसे दूसरों से अलग करता है।*
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सन 57 की गदर के बाद अंग्रेज़ों ने दो खास काम किये। एक, उन्होंने ऐसा इतिहास लिखे जाने की शुरुआत की जो हमेशा हिन्दू और मुसलमान को बाँट कर रक्खे। दो, उन्होंने उर्दू भाषा और साहित्य को भारत के उत्तरी हिस्से ( दिल्ली तथा वर्तमान उत्तर प्रदेश ) से दूर ले जाने की तरकीबें सोचीं। यह उन क्षेत्रीय मुसलमानों के लिए सज़ा थी जो उर्दू अदब और शायरी को अपनी संस्कृति का बेहद अहम हिस्सा मानते थे। नज़र दौड़ाई गई। नतीजा यह निकला कि पंजाब इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए सबसे सही जगह है। वहाँ इसे सरलता और सहजता से अपना लिया जाएगा।
देश के हर हिस्से की अपनी भाषाएं थीं। दक्षिण में मलयालम, तमिल, तेलगू, कन्नड़ ; गुजरात में गुजराती और बंगाल में बांग्ला, आदि। सारे भाषाई क्षेत्रों के लोग अपनी-अपनी भाषा के प्रति बेहद संवेदनशील थे। उसके समानांतर किसी नई और अपरिचित भाषा को जगह देना उन्हें स्वीकार नहीं हो सकता था। उत्तर प्रांत के अलावा एक हैदराबाद था जहां उर्दू थी। यह वहाँ के लोगों की अपनी तरह की उर्दू थी और एक सीमित दायरे में थी।
ऐसा नहीं कि पंजाब की अपनी कोई भाषा नहीं थी। बाबा शेख फरीद, वारिस शाह और बुल्ले शाह की पंजाबी किसी दूसरी भाषा से कम उन्नत और विकसित नहीं थी। पंजाब के अपने लोक साहित्य की व्यापक लोकप्रियता थी। फिर भी अंग्रेज़ी सत्ता ने नतीजा निकाला कि यही क्षेत्र ऐसा है जहां हर नई चीज़ की तरह नई भाषा को भी स्वीकारा जायगा।
यह सही है कि पंजाब में मुसलमान बड़ी संख्या में थे और संस्कृति से ले कर साहित्य तक मज़बूत स्थिति में भी थे। लोक साहित्य में उनका योगदान अच्छा-खासा था। मगर पंजाब से ज़्यादा मुसलमान बंगाल में थे, मालाबार में भी उनकी गिनती अच्छी-भली थी। अंतर वही था जो मैं कह चुका हूँ: नई चीजों को आत्मसात कर लेने की पंजाबियों की जन्मजात खूबी।
अंग्रेज़ों ने पंजाबियों को उर्दू सिखाने के लिए खास स्कूल खोले, दिल्ली और लखनऊ से उर्दू पढ़ाने के लिए मौलवी भेजे। पंजाब में उर्दू को लोकप्रिय करने में लंबा समय नहीं लगा। पंजाबियों को यह नई ज़ुबान पसन्द आ गई। ग़ालिब और मीर से उनका परिचय एक सुखद अनुभव था। उर्दू को पंजाब ले जाने के पीछे भले ही अंग्रेजों की मुसलमानों के खिलाफ़ कुत्सित भावना रही हो मगर इसे वहाँ स्वीकार करने वालों में सिर्फ मुसलमान नहीं बल्कि सिक्ख और हिन्दू भी थे। उर्दू वहाँ की मिली-जुली संस्कृति का अहम हिस्सा बनती चली गई। उनके एक हाथ में उर्दू थी तो दूसरे हाथ में उनकी अपनी भाषा और उस भाषा का साहित्य और लोक साहित्य। दोनों में एक सुखद संतुलन बनाए रक्खा गया। यह अनोखा काम पंजाब में ही हो सकता था।
फिर वह समय आया जब पंजाब ने अपने उर्दू साहित्यकार और शायर पैदा करने शुरू किये। बीसवीं सदी के भारत ने पंजाब से आए अहमद नदीम कासमी, बलवंत सिंह,राजेन्द्र सिंह बेदी, हफीज जालंधरी, अहमद फ़राज जैसी न जाने कितनी साहित्यिक हस्तियाँ देखी जिन्होंने पंजाबी में भी लिखा और उर्दू में भी। जो साहित्यकार उर्दू में नहीं लिखते थे वे भी उर्दू साहित्य के बड़े गहरे कद्र दान थे, जैसे खुशवंत सिंह और अमृता प्रियतम। खुशवंत सिंह ने मीर तकी मीर की आत्म कथा का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया
उर्दू की स्वीकार्यता यहीं तक नहीं रही। उर्दू इस तरह पंजाब के जन मानस के अंदर तक उतर गई कि हिन्दू और सिख धर्म की किताबें बेहद बड़े पैमाने पर उर्दू में छपने और पढ़ी जाने लगी। पंजाब के आम लोगों ने गीता, रामायण, महाभारत और उपनिषद उर्दू में पढ़ा। आर्य समाज ने अपने हिन्दुत्व का प्रचार उर्दू में किया। बंटवारे के बाद जो हिन्दू शरणार्थी भारत के अलग-अलग इलाकों में आए उनके लिए खास तौर से दिल्ली के अलावा भी कई शहरों में उर्दू के अखबार निकले। लेकिन वह पीढ़ी अब खत्म हो चुकी है उनके बच्चे उर्दू से उतना ही अनजान हैं जितना और लोग।
और इस लेख को मैं खत्म करता हूँ उन तीन हस्तियों के नाम से जो पंजाब की धरती से उभरे और उर्दू शायरी और साहित्य की दुनिया में बीसवीं सदी के हिंदुस्तान के सबसे चमकते सितारे बन गए : डॉ मोहम्मद इक़बाल, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और सआदत हसन मंटो। यह बात अलग है कि दिल्ली और उत्तर प्रदेश के अभिमानी उर्दू वालों ने उन्हें यह स्थान आसानी से मिलने नहीं दिया। इक़बाल का यह कह कर मज़ाक उड़ाया गया कि उन्हें यह नहीं पता कि इक़बाल में क नहीं, क़ होता है। मगर पंजाबी इसे कमी नहीं, “ वट्ट “ कहता है। यही “ वट्ट “ उसे दूसरों से अलग करता है।*
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