"आदिवासियों का आरोप है कि अगर जमीन का सौदा हुआ तो 57 गांवों के 60 हज़ार आदिवासी विस्थापित हो जाएंगे और बेरोजगार हो जाएंगे। इससे भी महत्वपूर्ण बात, उनकी पहचान छिन जाएगी। मामले को लेकर तंज कसा जा रहा है कि... जिस डालमिया को मोदी ने लाल किला दे दिया उसे आदिवासी 1 इंच जमीन नहीं दे रहे, फर्क तो है। आज जब केंद्र और राज्यों की सरकारें चला रहे लोग, डालमिया जैसे उद्योगपतियों के सामने घुटने के बल बैठ जा रहे हैं तब भी ग्रामीण किसान आदिवासी कह रहे हैं कि जल, जंगल और जमीन बिकने नहीं देंगे।"
मामला ओडिशा के सुंदरगढ़ ज़िले का है। आदिवासी समुदाय के करीब 5 हज़ार लोगों ने डालमिया सीमेंट कंपनी द्वारा, उनकी जमीन के अवैध अधिग्रहण का दावा करने, के विरोध में 21 अक्टूबर को कलक्टर कार्यालय का घेराव किया। जन संगठन फोरम फॉर ग्राम सभा के बैनर तले ज़िले की पांच पंचायतों, राजगांगपुर प्रखंड की कुकुड़ा, अलंदा, केसरमल और झागरपुर तथा कुटरा प्रखंड की केतंग पंचायत के सदस्यों ने एक साथ प्रदर्शन किया। इन करीब पांच हज़ार प्रदर्शनकारी आदिवासियों ने कथित तौर पर 18 अक्टूबर को रामभल से 100 किमी की पदयात्रा शुरू की और 21 अक्टूबर को कलक्टर कार्यालय पहुंचे। रात में भी प्रदर्शनकारी आदिवासियों ने कलक्टर के साथ बैठक की मांग करते हुए ठंड में ही रात बिताई।
समूह ने सोमवार 24 अक्टूबर को एक संयुक्त बयान भी जारी किया, जिसमें उनकी यात्रा और मांगों का विवरण था। बयान में कहा कि आदिवासी समुदाय के द्वारा अपनी जमीन देने के प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिए जाने के बावजूद उपरोक्त पंचायतों की 750 एकड़ भूमि “अवैध रूप से डालमिया सीमेंट कंपनी (पूर्व में ओडिशा सीमेंट लिमिटेड; ओसीएल) को आवंटित कर दी गई है।” बयान में आरोप लगाया गया है कि अगर इस जमीन का सौदा हुआ तो 57 गांवों के 60 हज़ार आदिवासी विस्थापित हो जाएंगे और बेरोजगार हो जाएंगे। इससे भी महत्वपूर्ण बात, उनकी पहचान छिन जाएगी।
ग्राम सभा अध्यक्ष बिबोल टोपे ने जन संगठन फोरम के हवाले से कहा, “हम आदिवासियों के लिए भूमि केवल आजीविका भर नहीं है, यह हमारे शरीर के एक हिस्से की तरह है। भूमि हमारे जीवन, पहचान, संस्कृति और भाषा से जुड़ी है। इसलिए 2017 में हमने अपनी जमीन बचाने के लिए यह आंदोलन शुरू किया था।” टोपे ने कहा, “हम डालमिया कंपनी को आधा इंच जमीन देने से पहले अपनी जान दे देंगे।”
'द वायर' में छपी खबर के अनुसार, डालमिया ओसीएल एक निजी कंपनी डालमिया भारत को अतिरिक्त 2,150 एकड़ भूमि प्रदान करके, क्षेत्र में अपने पत्थर खनन के कार्यों का विस्तार करना चाहता है। इस विस्तार के पहले चरण में दावा है कि कंपनी को 750 एकड़ जमीन की जरूरत है। 21 अक्टूबर को प्रदर्शनकारी आदिवासी कलक्टर कार्यालय पहुंचे और मांग की कि अधिकारी कार्यालय से बाहर आकर ज्ञापन लें और आश्वासन दें कि अवैध भूमि अधिग्रहण के आरोपों की जांच कराई जाएगी।
आरोप है कि कोई अधिकारी कलक्टर कार्यालय से बाहर नहीं निकला। इसके बजाय आदिवासियों को उनके कार्यालय में कलेक्टर को ज्ञापन देने के लिए 4 प्रतिनिधियों का चयन करने को कहा गया। इसके बाद जैसे ही विरोध तेज हुआ, कलक्टर कार्यालय के साथ-साथ उनके आवास को “चारो तरफ से” बंद कर दिया गया। उसी दिन शाम सात बजे प्रदर्शनकारियों के दबाव में कलक्टर भीड़ को संबोधित करने के लिए निकले और अगले दिन 25 प्रतिनिधियों को उनसे मिलने के लिए बुलाया। इस बीच कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण सभी 5 हज़ार प्रदर्शनकारियों को खुले में रात बिताने के लिए मजबूर होना पड़ा।
अगले दिन, 22 अक्टूबर को कलक्टर समूह प्रतिनिधियों से मुलाकात की, ज्ञापन का संज्ञान लिया और लिखित आश्वासन दिया कि ज्ञापन ओडिशा के मुख्यमंत्री और राज्यपाल के साथ भारत के राष्ट्रपति को भेजा जाएगा और यह कि भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया को उत्तर प्राप्त होने तक रोक दिया जाएगा।
दरअसल प्रदर्शन कर रहे आदिवासियों ने मांग की थी कि जब तक अवैध भूमि अधिग्रहण बंद नहीं हो जाता, तब तक प्रदर्शनकारियों को कलक्टर कार्यालय के बाहर 100 से 200 सदस्यों के विरोध के लिए जगह दी जाए, साथ ही पानी और मोबाइल शौचालय की व्यवस्था भी की जाए। इस संबंध में भी कलक्टर ने 10 दिन के अंदर व्यवस्था करने का आश्वासन दिया।
कुकुड़ा पंचायत की सरपंच रीला सुशीला टोपे ने कहा, “26 जनवरी, 2020 को फोरम ने हमारी जमीन के अधिग्रहण प्रस्ताव को खारिज कर दिया था और एक इंच भी जमीन न देने का प्रस्ताव पारित किया था। इसके बाद भी राज्य सरकार, प्रशासन और कंपनी ने सामाजिक प्रभाव का मूल्यांकन किए बिना, बगैर किसी अधिसूचना और ग्राम सभा की अनुमति के ही भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू की है।” फोरम संयोजक विनय बारला ने कहा, “हम आदिवासी हैं, हम अपनी जमीन नहीं छोड़ेंगे, हम अपने गांव नहीं छोड़ेंगे और अपनी धरती के लिए कोई सौदा नहीं करेंगे। सरकार 25 लाख रुपये का भुगतान करने और उनकी सहमति दिखाने के लिए नकली हस्ताक्षर का उपयोग करने का वादा करके लोगों को लुभाने की कोशिश कर रही है। इसलिए हमने 4 दिवसीय पैदल मार्च किया। अगर सरकार ने हमारी मांग नहीं मानी और अवैध भूमि अधिग्रहण नहीं रोका तो विरोध तेज़ किया जाएगा।”
इस बीच, जन जागरण अभियान के अध्यक्ष मधुसन ने कहा, “2018 में ‘एडॉप्ट ए हेरिटेज’ कार्यक्रम के नाम पर मोदी सरकार ने दिल्ली और देश दोनों की विरासत, लाल किला को उसी डालमिया भारत समूह को गिरवी रख दिया। हालांकि, जब यह कंपनी ओडिशा के सुंदरगढ़ में आई तो उन्होंने इसका विरोध किया।” उन्होंने आगे कहा, ऐसा इसलिए है क्योंकि यह आंदोलन किसी (राजनीतिक) पार्टी या विशेष समूह से संबंधित नहीं है। यह महिलाओं, युवाओं, छात्रों और आदिवासी समुदाय के सदस्यों से संबंधित है। हम अपनी आधा इंच भी जमीन नहीं देंगे। डालमिया कंपनी को वापस जाना होगा। यह आदिवासी ताकत का आंदोलन है और डालमिया के चले जाने तक जारी रहेगा।”
अंत में झागरपुर के सरपंच ललित लाकड़ा, अलंदा के सरपंच अजीत लाकड़ा और समिति सदस्य महिमा टोपे और अन्य सदस्यों को आंदोलन का नेतृत्व करने वालों के रूप में नामित किया गया और तय किया गया कि दो सप्ताह बाद सुंदरगढ़ जिला कलक्टर कार्यालय के बाहर मोर्चा स्थापित कर आंदोलन की शुरुआत होगी।
सोशल मीडिया में कसे जा रहे तंज
उधर, मामले को लेकर मीडिया में तीखे तंज कसे जा रहे है कि... जिस डालमिया को मोदी ने लाल किला दे दिया उसे आदिवासी 1 इंच जमीन नहीं दे रहे, फर्क तो है। आज जब केंद्र और राज्यों की सरकारें चला रहे लोग, डालमिया जैसे उद्योगपतियों के सामने घुटने के बल बैठ जा रहे हैं तब भी ग्रामीण किसान आदिवासी कह रहे हैं कि जल, जंगल और जमीन बिकने नहीं देंगे।
कहा कि जब हिंदुत्ववादी, गांधीवादी और समाजवादी कहलाने वाले तमाम नीति निर्माता, पूंजी बाजार में सरेंडर हो जा रहे हैं तब ग्रामीण -किसान कह रहे हैं हम देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ को झुकने नहीं देंगे। विकास के इस गैरबराबरी मॉडल को लागू होने नहीं देंगे।
2020 में ग्राम सभा ने खारिज कर दिया था प्रस्ताव
हजारों की संख्या में सड़कों पर उतरे आदिवासी, कॉर्पोरेट और सरकार की साठगांठ के खिलाफ नारे लगा रहे हैं। डालमिया समूह का ओसीएल वहां पर जमीन की लूट कर रहा है- ये बात दोहरा रहे हैं। पैदल मार्च में शामिल एक महिला से जब छात्रा एवं सामाजिक कार्यकर्ता हेंगम ने बात की तो उन्होंने बताया “भूमि अधिग्रहण का जो प्रस्ताव हमें दिया गया था ग्रामसभा में हम लोगों ने मिलकर 2020 में ही उसे खारिज कर दिया है। इसके बावजूद अधिग्रहण का काम किया जा रहा है। इस पैदल मार्च के जरिए हम यह संदेश देना चाहते हैं कि जब तक हमारी सुनवाई नहीं होगी तब तक हम विरोध प्रदर्शन करते रहेंगे।”
चार दिवसीय पैदल मार्च में शामिल एक अन्य महिला से बात करने पर उन्होंने बोला- “ग्रामसभा में फैसला किया गया है कि OCL को हम लोग 1 इंच भी जमीन नहीं देंगे। इसके बावजूद OCL नहीं मान रहा है तो हमें विरोध प्रदर्शन करना पड़ रहा है। जब तक शासन-प्रशासन दखल नहीं देगा तब तक हम भी रुकेंगे नहीं।”
मुख्य धारा के मीडिया ने तानी चुप्पी
सोचिए-देश के किसी भी कोने में चार कश्मीरी पंडित बैठकर विस्थापन की व्यथा बताते हैं तो उनकी कवरेज पूरे देश का मीडिया करता है। करना भी चाहिए, पीड़ितों की आवाज सुनना और लोगों के साथ-साथ सरकार को सुनाना मीडिया का काम भी है। मगर उद्योगपतियों के खिलाफ हजारों हजार की संख्या में आदिवासी दिन रात विरोध प्रदर्शन करते हैं फिर भी मीडिया उनपर चुप्पी साध लेता है। क्योंकि मामला सिर्फ पोलिटिकल माई बाप यानी सरकार का नहीं, मालिक का हो जाता है। जिनकी कंपनियों के सहारे इनके चैनलों में करोड़ों का नहीं, अरबों का निवेश आता है।
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मामला ओडिशा के सुंदरगढ़ ज़िले का है। आदिवासी समुदाय के करीब 5 हज़ार लोगों ने डालमिया सीमेंट कंपनी द्वारा, उनकी जमीन के अवैध अधिग्रहण का दावा करने, के विरोध में 21 अक्टूबर को कलक्टर कार्यालय का घेराव किया। जन संगठन फोरम फॉर ग्राम सभा के बैनर तले ज़िले की पांच पंचायतों, राजगांगपुर प्रखंड की कुकुड़ा, अलंदा, केसरमल और झागरपुर तथा कुटरा प्रखंड की केतंग पंचायत के सदस्यों ने एक साथ प्रदर्शन किया। इन करीब पांच हज़ार प्रदर्शनकारी आदिवासियों ने कथित तौर पर 18 अक्टूबर को रामभल से 100 किमी की पदयात्रा शुरू की और 21 अक्टूबर को कलक्टर कार्यालय पहुंचे। रात में भी प्रदर्शनकारी आदिवासियों ने कलक्टर के साथ बैठक की मांग करते हुए ठंड में ही रात बिताई।
समूह ने सोमवार 24 अक्टूबर को एक संयुक्त बयान भी जारी किया, जिसमें उनकी यात्रा और मांगों का विवरण था। बयान में कहा कि आदिवासी समुदाय के द्वारा अपनी जमीन देने के प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिए जाने के बावजूद उपरोक्त पंचायतों की 750 एकड़ भूमि “अवैध रूप से डालमिया सीमेंट कंपनी (पूर्व में ओडिशा सीमेंट लिमिटेड; ओसीएल) को आवंटित कर दी गई है।” बयान में आरोप लगाया गया है कि अगर इस जमीन का सौदा हुआ तो 57 गांवों के 60 हज़ार आदिवासी विस्थापित हो जाएंगे और बेरोजगार हो जाएंगे। इससे भी महत्वपूर्ण बात, उनकी पहचान छिन जाएगी।
ग्राम सभा अध्यक्ष बिबोल टोपे ने जन संगठन फोरम के हवाले से कहा, “हम आदिवासियों के लिए भूमि केवल आजीविका भर नहीं है, यह हमारे शरीर के एक हिस्से की तरह है। भूमि हमारे जीवन, पहचान, संस्कृति और भाषा से जुड़ी है। इसलिए 2017 में हमने अपनी जमीन बचाने के लिए यह आंदोलन शुरू किया था।” टोपे ने कहा, “हम डालमिया कंपनी को आधा इंच जमीन देने से पहले अपनी जान दे देंगे।”
'द वायर' में छपी खबर के अनुसार, डालमिया ओसीएल एक निजी कंपनी डालमिया भारत को अतिरिक्त 2,150 एकड़ भूमि प्रदान करके, क्षेत्र में अपने पत्थर खनन के कार्यों का विस्तार करना चाहता है। इस विस्तार के पहले चरण में दावा है कि कंपनी को 750 एकड़ जमीन की जरूरत है। 21 अक्टूबर को प्रदर्शनकारी आदिवासी कलक्टर कार्यालय पहुंचे और मांग की कि अधिकारी कार्यालय से बाहर आकर ज्ञापन लें और आश्वासन दें कि अवैध भूमि अधिग्रहण के आरोपों की जांच कराई जाएगी।
आरोप है कि कोई अधिकारी कलक्टर कार्यालय से बाहर नहीं निकला। इसके बजाय आदिवासियों को उनके कार्यालय में कलेक्टर को ज्ञापन देने के लिए 4 प्रतिनिधियों का चयन करने को कहा गया। इसके बाद जैसे ही विरोध तेज हुआ, कलक्टर कार्यालय के साथ-साथ उनके आवास को “चारो तरफ से” बंद कर दिया गया। उसी दिन शाम सात बजे प्रदर्शनकारियों के दबाव में कलक्टर भीड़ को संबोधित करने के लिए निकले और अगले दिन 25 प्रतिनिधियों को उनसे मिलने के लिए बुलाया। इस बीच कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण सभी 5 हज़ार प्रदर्शनकारियों को खुले में रात बिताने के लिए मजबूर होना पड़ा।
अगले दिन, 22 अक्टूबर को कलक्टर समूह प्रतिनिधियों से मुलाकात की, ज्ञापन का संज्ञान लिया और लिखित आश्वासन दिया कि ज्ञापन ओडिशा के मुख्यमंत्री और राज्यपाल के साथ भारत के राष्ट्रपति को भेजा जाएगा और यह कि भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया को उत्तर प्राप्त होने तक रोक दिया जाएगा।
दरअसल प्रदर्शन कर रहे आदिवासियों ने मांग की थी कि जब तक अवैध भूमि अधिग्रहण बंद नहीं हो जाता, तब तक प्रदर्शनकारियों को कलक्टर कार्यालय के बाहर 100 से 200 सदस्यों के विरोध के लिए जगह दी जाए, साथ ही पानी और मोबाइल शौचालय की व्यवस्था भी की जाए। इस संबंध में भी कलक्टर ने 10 दिन के अंदर व्यवस्था करने का आश्वासन दिया।
कुकुड़ा पंचायत की सरपंच रीला सुशीला टोपे ने कहा, “26 जनवरी, 2020 को फोरम ने हमारी जमीन के अधिग्रहण प्रस्ताव को खारिज कर दिया था और एक इंच भी जमीन न देने का प्रस्ताव पारित किया था। इसके बाद भी राज्य सरकार, प्रशासन और कंपनी ने सामाजिक प्रभाव का मूल्यांकन किए बिना, बगैर किसी अधिसूचना और ग्राम सभा की अनुमति के ही भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू की है।” फोरम संयोजक विनय बारला ने कहा, “हम आदिवासी हैं, हम अपनी जमीन नहीं छोड़ेंगे, हम अपने गांव नहीं छोड़ेंगे और अपनी धरती के लिए कोई सौदा नहीं करेंगे। सरकार 25 लाख रुपये का भुगतान करने और उनकी सहमति दिखाने के लिए नकली हस्ताक्षर का उपयोग करने का वादा करके लोगों को लुभाने की कोशिश कर रही है। इसलिए हमने 4 दिवसीय पैदल मार्च किया। अगर सरकार ने हमारी मांग नहीं मानी और अवैध भूमि अधिग्रहण नहीं रोका तो विरोध तेज़ किया जाएगा।”
इस बीच, जन जागरण अभियान के अध्यक्ष मधुसन ने कहा, “2018 में ‘एडॉप्ट ए हेरिटेज’ कार्यक्रम के नाम पर मोदी सरकार ने दिल्ली और देश दोनों की विरासत, लाल किला को उसी डालमिया भारत समूह को गिरवी रख दिया। हालांकि, जब यह कंपनी ओडिशा के सुंदरगढ़ में आई तो उन्होंने इसका विरोध किया।” उन्होंने आगे कहा, ऐसा इसलिए है क्योंकि यह आंदोलन किसी (राजनीतिक) पार्टी या विशेष समूह से संबंधित नहीं है। यह महिलाओं, युवाओं, छात्रों और आदिवासी समुदाय के सदस्यों से संबंधित है। हम अपनी आधा इंच भी जमीन नहीं देंगे। डालमिया कंपनी को वापस जाना होगा। यह आदिवासी ताकत का आंदोलन है और डालमिया के चले जाने तक जारी रहेगा।”
अंत में झागरपुर के सरपंच ललित लाकड़ा, अलंदा के सरपंच अजीत लाकड़ा और समिति सदस्य महिमा टोपे और अन्य सदस्यों को आंदोलन का नेतृत्व करने वालों के रूप में नामित किया गया और तय किया गया कि दो सप्ताह बाद सुंदरगढ़ जिला कलक्टर कार्यालय के बाहर मोर्चा स्थापित कर आंदोलन की शुरुआत होगी।
सोशल मीडिया में कसे जा रहे तंज
उधर, मामले को लेकर मीडिया में तीखे तंज कसे जा रहे है कि... जिस डालमिया को मोदी ने लाल किला दे दिया उसे आदिवासी 1 इंच जमीन नहीं दे रहे, फर्क तो है। आज जब केंद्र और राज्यों की सरकारें चला रहे लोग, डालमिया जैसे उद्योगपतियों के सामने घुटने के बल बैठ जा रहे हैं तब भी ग्रामीण किसान आदिवासी कह रहे हैं कि जल, जंगल और जमीन बिकने नहीं देंगे।
कहा कि जब हिंदुत्ववादी, गांधीवादी और समाजवादी कहलाने वाले तमाम नीति निर्माता, पूंजी बाजार में सरेंडर हो जा रहे हैं तब ग्रामीण -किसान कह रहे हैं हम देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ को झुकने नहीं देंगे। विकास के इस गैरबराबरी मॉडल को लागू होने नहीं देंगे।
2020 में ग्राम सभा ने खारिज कर दिया था प्रस्ताव
हजारों की संख्या में सड़कों पर उतरे आदिवासी, कॉर्पोरेट और सरकार की साठगांठ के खिलाफ नारे लगा रहे हैं। डालमिया समूह का ओसीएल वहां पर जमीन की लूट कर रहा है- ये बात दोहरा रहे हैं। पैदल मार्च में शामिल एक महिला से जब छात्रा एवं सामाजिक कार्यकर्ता हेंगम ने बात की तो उन्होंने बताया “भूमि अधिग्रहण का जो प्रस्ताव हमें दिया गया था ग्रामसभा में हम लोगों ने मिलकर 2020 में ही उसे खारिज कर दिया है। इसके बावजूद अधिग्रहण का काम किया जा रहा है। इस पैदल मार्च के जरिए हम यह संदेश देना चाहते हैं कि जब तक हमारी सुनवाई नहीं होगी तब तक हम विरोध प्रदर्शन करते रहेंगे।”
चार दिवसीय पैदल मार्च में शामिल एक अन्य महिला से बात करने पर उन्होंने बोला- “ग्रामसभा में फैसला किया गया है कि OCL को हम लोग 1 इंच भी जमीन नहीं देंगे। इसके बावजूद OCL नहीं मान रहा है तो हमें विरोध प्रदर्शन करना पड़ रहा है। जब तक शासन-प्रशासन दखल नहीं देगा तब तक हम भी रुकेंगे नहीं।”
मुख्य धारा के मीडिया ने तानी चुप्पी
सोचिए-देश के किसी भी कोने में चार कश्मीरी पंडित बैठकर विस्थापन की व्यथा बताते हैं तो उनकी कवरेज पूरे देश का मीडिया करता है। करना भी चाहिए, पीड़ितों की आवाज सुनना और लोगों के साथ-साथ सरकार को सुनाना मीडिया का काम भी है। मगर उद्योगपतियों के खिलाफ हजारों हजार की संख्या में आदिवासी दिन रात विरोध प्रदर्शन करते हैं फिर भी मीडिया उनपर चुप्पी साध लेता है। क्योंकि मामला सिर्फ पोलिटिकल माई बाप यानी सरकार का नहीं, मालिक का हो जाता है। जिनकी कंपनियों के सहारे इनके चैनलों में करोड़ों का नहीं, अरबों का निवेश आता है।
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