संसद के बजट सत्र के दौरान बुधवार को राज्यसभा में जनजातीय मंत्रालय के कामकाज पर चर्चा हुई। वन अधिकार क़ानून 2006 के बावजूद आदिवासियों को सामुदायिक हक नहीं मिलने आदि के सवालों के जवाब में केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा ने विपक्ष को आड़े हाथ लेते हुए कहा कि आदिवासियों के मामलों में संवेदना प्रकट करने से कुछ नहीं होगा बल्कि संवेदनशील होना होगा। यही नहीं, केंद्रीय कानून व न्याय मंत्री किरेन रिजिजू तो यहां तक कह गए कि आदिवासी कल्याण के लिए केंद्र की मोदी सरकार पूरी तरह प्रतिबद्ध है। इस बात का सबूत यह है कि पहली बार, आज केंद्र सरकार में जनजातीय समुदाय के 3 कैबिनेट व 5 राज्य मंत्री हैं और ‘‘वो (कानून मंत्री) खुद जनजातीय समुदाय से है जो अपने आप में बहुत बड़ा संदेश है।
प्रतीकातमक फोटो
वन अधिकार कानून-2006 की बात करें तो क़ानून लागू होने के बाद करीब 18 लाख लोगों को ज़मीन के पट्टे प्राप्त हुए हैं। इस लिहाज़ से देखें तो क़ानून बनने के बाद इस मोर्चे पर अच्छा काम हुआ है। लेकिन क़ानून में समुदायिक अधिकारों का भी महत्वपूर्ण प्रावधान किया गया था जिसे लेकर सरकारें सफल नहीं रही हैं। बुधवार, 16 मार्च को राज्यसभा में चर्चा के दौरान कांग्रेस के सांसद और पूर्व केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश ने इस मुद्दे को उठाया। बजट की अनुपूरक मांगों पर उन्होंने आदिवासी मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा से तीन सवाल किए। पहले सवाल में उन्होंने पूछा कि जहां व्यक्तिगत पट्टे देने का काम हुआ है वहां समुदाय के अधिकारों के मामले में क़ानून को लागू करने में सफलता क्यों नहीं मिली है। कहा- वन अधिकार क़ानून के दो मक़सद थे। पहला आदिवासियों और जंगल में रहने वाले दूसरे समुदायों के लोगों को व्यक्तिगत अधिकार मिले जिसके साथ ही जंगल पर समुदायिक अधिकारों को भी स्वीकार किया गया था।
यही नहीं, जयराम रमेश ने आदिवासी मंत्रालय से पूछा कि जनजातीय क्षेत्रों में भूमि अधिग्रहण और पर्यावरण से जुड़ी अनुमति देने से पहले क्या वन अधिकार क़ानूनों के प्रावधानों का ध्यान रखा जा रहा है। उन्होंने कहा कि भूमि अधिग्रहण क़ानून के तहत आदिवासी इलाक़ों में ज़मीन का अधिग्रहण तब तक नहीं हो सकता जब तक ग्राम सभा की मंज़ूरी नहीं मिल जाती है। उसी तरह से पर्यावरण संबंधी अनुमति देने से पहले यह देखा जाना ज़रूरी है कि वनाधिकार क़ानून 2006, आदिवासी इलाक़ों में समुदाय के अधिकार को मानता है।
इस पर बोलते हुए आदिवासी मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा ने कहा कि आदिवासियों के सामुदायिक अधिकारों की चिंता भारत सरकार को है। उन्होंने यह भी कहा कि इस मामले में सरकार पारदर्शिता से काम कर रही है। हालांकि उन्होंने इस बाबत कोई आंकड़ा संसद में पेश नहीं किया। दूसरा, अर्जुन मुंडा ने यह नहीं बताया कि आदिवासियों को अभी तक वन अधिकार के तहत कितने सामुदायिक पट्टे दिए गए हैं। अर्जुन मुंडा ने दावा किया कि केन्द्र सरकार के विभिन्न मंत्रालय एक दूसरे के साथ तालमेल बनाकर आदिवासी इलाक़ों के विकास के लिए काम कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि देश में आदिवासियों के साथ जो अन्याय इतिहास में हुआ है उसे दुरूस्त करने के लिए वर्तमान सरकार काम कर रही है।
उधर, जनजातीय कार्य मंत्रालय के कामकाज पर राज्यसभा में हो रही चर्चा में हस्तक्षेप करते हुए कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा ‘‘देश में आदिवासियों की आबादी करीब 8% है जिनके मुख्यधारा से नहीं जुड़ पाने के कारणों के बारे में, आदिवासियों के अपने विचारों के बारे में समझना बहुत जरूरी है।’’ उन्होंने कहा कि आदिवासी छोटे छोटे समूहों में रहते बसते हैं और उनकी बातें उनके मुद्दे उनके लिए बड़े होते हैं भले ही उनके समूह छोटे हों। उन्होंने कहा कि अपने मुद्दों को लेकर दिल्ली आने वाले आदिवासियों से मिलने के लिए पहले किसी के पास समय नहीं होता था। उन्होंने कहा ‘‘कभी तो धैर्य होता है अैर मुद्दों को सुलझा लिया जाता है लेकिन कभी नाराजगी बढ़ जाती है और वे हथियार उठा लेते हैं।’’
रिजिजू ने कहा ‘‘भारत विविधताओं से भरा देश है जिसमें छोटी छोटी बातों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। पहले पूर्वोत्तर राज्यों में आए दिन बंद इसीलिए होता था क्योंकि वहां के आदिवासियों की बात नहीं सुनी जाती थी। अब ऐसा नहीं है। इसका उदाहरण हाल ही में मणिपुर में संपन्न विधानसभा चुनाव हैं।’’ उन्होंने कहा ‘‘सबसे पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि पूर्वोत्तर क्षेत्र और जनजातीय समुदाय के लिए भी अलग अलग मंत्रालय बनने चाहिए। उस समय बोया हुआ यह बीज आज पेड़ बन चुका है।’’
दूसरी ओर, सत्ता पक्ष और विपक्ष के दावों से इतर देखें तो आदिवासियों के सामुदायिक वनाधिकार को सुनिश्चित करने की बजाय, वन विभाग और शासन प्रशासन उल्टे, इन आदिवासियों (वन निवासियों) औऱ वनों पर आश्रित अन्य परंपरागत समुदायों को येन केन प्रकारेण जल, जंगल जमीन से उजाड़ने में लगा है। कहीं विकास परियोजनाओं के नाम पर तो कहीं पर्यावरण (खनन) आदि की आड़ में बेदखली की जा रही है। और तो और, वन्य जीवों की सुरक्षा को अभ्यारण्य (टाइगर रिजर्व आदि) बनाने की आड़ में भी आदिवासियों को जंगल से उजाड़ने का ही कुचक्र छिपा है। ताजा मामला कैमूर पठार क्षेत्र का है जहां बन रहे टाइगर रिजर्व को लेकर लोगों को बेदखली का डर, सता रहा है। इसके विरोध में स्थानीय आदिवासी समुदायों ने 26-28 मार्च को कैमूर से भभुआ (कलेक्ट्रेट ज़िला मुख्यालय) तक 52 किमी लंबे पैदल मार्च और धरने प्रदर्शन का ऐलान किया है। कैमूर मुक्ति मोर्चे के बैनर तले आदिवासियों ने, सभी जनपक्षधर लोगों से सहयोग की अपील करते हुए जल-जंगल-जमीन से उजाड़ने के खिलाफ, आंदोलन का आह्वान किया। ग्रामीणों ने वाजिब सवाल उठाया है कि जिन्हें (वन विभाग आदि को) इंसानों की कोई चिंता नहीं है वो बाघों की भला क्या चिंता कर सकते हैं?
कैमूर मुक्ति मोर्चा के आदिवासी लीडरों का कहना है कि जिन्हें इंसानों की कोई चिंता नहीं है वो बाघों की चिंता भला कैसे कर सकते हैं? कहा असल मे बाघ अभ्यारण्य (टाइगर रिजर्व) के बहाने उन लाखों आदिवासियों को उजाड़ने की साज़िश है। कहा अब तक का इतिहास यही बताता है कि बाघ अभ्यारण्य के बहाने शहरी जनता व बुद्धिजीवियों की सहानुभूति हासिल कर पहले हजारों वर्ग किलोमीटर में फैले जंगलों की जमीन को कब्जा किया जाता है फिर उसे देशी विदेशी पूंजीपतियों को सौंप दिया जाता है। चूंकि यही काम डायरेक्ट करने पर गैर आदिवासी और शहरी जनता का भी विरोध झेलना पड़ता है, जबकि बाघ अभ्यारण्य के बहाने अपने घृणित मंसूबों को पूरा करना आसान होता है। जबकि कटु सच्चाई यह है कि हजारों साल से बाघ और आदिवासी सहजीवन में रहते आ रहे हैं।
खास है कि बाघ अभ्यारण्य के नाम पर जल, जंगल, जमीन की लूट के खिलाफ और अपनी अस्मिता के लिए पिछले डेढ़ साल से कैमूर पठार के हजारों आदिवासी आंदोलनरत हैं। आगामी 26, 27, 28 मार्च को कैमूर के आदिवासी और अन्य मेहनतकश किसान जनता 52 किलोमीटर लंबा पैदल मार्च कर रहे हैं। जो जिला मुख्यालय पर पहुंचकर जुलूस में बदल जायेगा। उन्होंने सभी जनपक्षधर लोगों/संस्थाओं से आंदोलन के सक्रिय समर्थन की अपील की है। ऐसे में अब संसद में सत्ताधारी (जनजाति समुदाय के) नेता, विपक्ष को संवेदना का लाख पाठ पढ़ाएं लेकिन असल में जंगल से बेदखली का जो डर समुदायों में, घर कर रहा है, को लेकर जरूरत आदिवासियों (वन निवासियों) में भरोसा जगाने की है, वन भूमि पर लोगों के व्यक्तिगत एवं सामुदायिक वनाधिकारों को त्वरित मान्यता प्रदान करने की है।
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वन अधिकार कानून-2006 की बात करें तो क़ानून लागू होने के बाद करीब 18 लाख लोगों को ज़मीन के पट्टे प्राप्त हुए हैं। इस लिहाज़ से देखें तो क़ानून बनने के बाद इस मोर्चे पर अच्छा काम हुआ है। लेकिन क़ानून में समुदायिक अधिकारों का भी महत्वपूर्ण प्रावधान किया गया था जिसे लेकर सरकारें सफल नहीं रही हैं। बुधवार, 16 मार्च को राज्यसभा में चर्चा के दौरान कांग्रेस के सांसद और पूर्व केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश ने इस मुद्दे को उठाया। बजट की अनुपूरक मांगों पर उन्होंने आदिवासी मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा से तीन सवाल किए। पहले सवाल में उन्होंने पूछा कि जहां व्यक्तिगत पट्टे देने का काम हुआ है वहां समुदाय के अधिकारों के मामले में क़ानून को लागू करने में सफलता क्यों नहीं मिली है। कहा- वन अधिकार क़ानून के दो मक़सद थे। पहला आदिवासियों और जंगल में रहने वाले दूसरे समुदायों के लोगों को व्यक्तिगत अधिकार मिले जिसके साथ ही जंगल पर समुदायिक अधिकारों को भी स्वीकार किया गया था।
यही नहीं, जयराम रमेश ने आदिवासी मंत्रालय से पूछा कि जनजातीय क्षेत्रों में भूमि अधिग्रहण और पर्यावरण से जुड़ी अनुमति देने से पहले क्या वन अधिकार क़ानूनों के प्रावधानों का ध्यान रखा जा रहा है। उन्होंने कहा कि भूमि अधिग्रहण क़ानून के तहत आदिवासी इलाक़ों में ज़मीन का अधिग्रहण तब तक नहीं हो सकता जब तक ग्राम सभा की मंज़ूरी नहीं मिल जाती है। उसी तरह से पर्यावरण संबंधी अनुमति देने से पहले यह देखा जाना ज़रूरी है कि वनाधिकार क़ानून 2006, आदिवासी इलाक़ों में समुदाय के अधिकार को मानता है।
इस पर बोलते हुए आदिवासी मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा ने कहा कि आदिवासियों के सामुदायिक अधिकारों की चिंता भारत सरकार को है। उन्होंने यह भी कहा कि इस मामले में सरकार पारदर्शिता से काम कर रही है। हालांकि उन्होंने इस बाबत कोई आंकड़ा संसद में पेश नहीं किया। दूसरा, अर्जुन मुंडा ने यह नहीं बताया कि आदिवासियों को अभी तक वन अधिकार के तहत कितने सामुदायिक पट्टे दिए गए हैं। अर्जुन मुंडा ने दावा किया कि केन्द्र सरकार के विभिन्न मंत्रालय एक दूसरे के साथ तालमेल बनाकर आदिवासी इलाक़ों के विकास के लिए काम कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि देश में आदिवासियों के साथ जो अन्याय इतिहास में हुआ है उसे दुरूस्त करने के लिए वर्तमान सरकार काम कर रही है।
उधर, जनजातीय कार्य मंत्रालय के कामकाज पर राज्यसभा में हो रही चर्चा में हस्तक्षेप करते हुए कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा ‘‘देश में आदिवासियों की आबादी करीब 8% है जिनके मुख्यधारा से नहीं जुड़ पाने के कारणों के बारे में, आदिवासियों के अपने विचारों के बारे में समझना बहुत जरूरी है।’’ उन्होंने कहा कि आदिवासी छोटे छोटे समूहों में रहते बसते हैं और उनकी बातें उनके मुद्दे उनके लिए बड़े होते हैं भले ही उनके समूह छोटे हों। उन्होंने कहा कि अपने मुद्दों को लेकर दिल्ली आने वाले आदिवासियों से मिलने के लिए पहले किसी के पास समय नहीं होता था। उन्होंने कहा ‘‘कभी तो धैर्य होता है अैर मुद्दों को सुलझा लिया जाता है लेकिन कभी नाराजगी बढ़ जाती है और वे हथियार उठा लेते हैं।’’
रिजिजू ने कहा ‘‘भारत विविधताओं से भरा देश है जिसमें छोटी छोटी बातों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। पहले पूर्वोत्तर राज्यों में आए दिन बंद इसीलिए होता था क्योंकि वहां के आदिवासियों की बात नहीं सुनी जाती थी। अब ऐसा नहीं है। इसका उदाहरण हाल ही में मणिपुर में संपन्न विधानसभा चुनाव हैं।’’ उन्होंने कहा ‘‘सबसे पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि पूर्वोत्तर क्षेत्र और जनजातीय समुदाय के लिए भी अलग अलग मंत्रालय बनने चाहिए। उस समय बोया हुआ यह बीज आज पेड़ बन चुका है।’’
दूसरी ओर, सत्ता पक्ष और विपक्ष के दावों से इतर देखें तो आदिवासियों के सामुदायिक वनाधिकार को सुनिश्चित करने की बजाय, वन विभाग और शासन प्रशासन उल्टे, इन आदिवासियों (वन निवासियों) औऱ वनों पर आश्रित अन्य परंपरागत समुदायों को येन केन प्रकारेण जल, जंगल जमीन से उजाड़ने में लगा है। कहीं विकास परियोजनाओं के नाम पर तो कहीं पर्यावरण (खनन) आदि की आड़ में बेदखली की जा रही है। और तो और, वन्य जीवों की सुरक्षा को अभ्यारण्य (टाइगर रिजर्व आदि) बनाने की आड़ में भी आदिवासियों को जंगल से उजाड़ने का ही कुचक्र छिपा है। ताजा मामला कैमूर पठार क्षेत्र का है जहां बन रहे टाइगर रिजर्व को लेकर लोगों को बेदखली का डर, सता रहा है। इसके विरोध में स्थानीय आदिवासी समुदायों ने 26-28 मार्च को कैमूर से भभुआ (कलेक्ट्रेट ज़िला मुख्यालय) तक 52 किमी लंबे पैदल मार्च और धरने प्रदर्शन का ऐलान किया है। कैमूर मुक्ति मोर्चे के बैनर तले आदिवासियों ने, सभी जनपक्षधर लोगों से सहयोग की अपील करते हुए जल-जंगल-जमीन से उजाड़ने के खिलाफ, आंदोलन का आह्वान किया। ग्रामीणों ने वाजिब सवाल उठाया है कि जिन्हें (वन विभाग आदि को) इंसानों की कोई चिंता नहीं है वो बाघों की भला क्या चिंता कर सकते हैं?
कैमूर मुक्ति मोर्चा के आदिवासी लीडरों का कहना है कि जिन्हें इंसानों की कोई चिंता नहीं है वो बाघों की चिंता भला कैसे कर सकते हैं? कहा असल मे बाघ अभ्यारण्य (टाइगर रिजर्व) के बहाने उन लाखों आदिवासियों को उजाड़ने की साज़िश है। कहा अब तक का इतिहास यही बताता है कि बाघ अभ्यारण्य के बहाने शहरी जनता व बुद्धिजीवियों की सहानुभूति हासिल कर पहले हजारों वर्ग किलोमीटर में फैले जंगलों की जमीन को कब्जा किया जाता है फिर उसे देशी विदेशी पूंजीपतियों को सौंप दिया जाता है। चूंकि यही काम डायरेक्ट करने पर गैर आदिवासी और शहरी जनता का भी विरोध झेलना पड़ता है, जबकि बाघ अभ्यारण्य के बहाने अपने घृणित मंसूबों को पूरा करना आसान होता है। जबकि कटु सच्चाई यह है कि हजारों साल से बाघ और आदिवासी सहजीवन में रहते आ रहे हैं।
खास है कि बाघ अभ्यारण्य के नाम पर जल, जंगल, जमीन की लूट के खिलाफ और अपनी अस्मिता के लिए पिछले डेढ़ साल से कैमूर पठार के हजारों आदिवासी आंदोलनरत हैं। आगामी 26, 27, 28 मार्च को कैमूर के आदिवासी और अन्य मेहनतकश किसान जनता 52 किलोमीटर लंबा पैदल मार्च कर रहे हैं। जो जिला मुख्यालय पर पहुंचकर जुलूस में बदल जायेगा। उन्होंने सभी जनपक्षधर लोगों/संस्थाओं से आंदोलन के सक्रिय समर्थन की अपील की है। ऐसे में अब संसद में सत्ताधारी (जनजाति समुदाय के) नेता, विपक्ष को संवेदना का लाख पाठ पढ़ाएं लेकिन असल में जंगल से बेदखली का जो डर समुदायों में, घर कर रहा है, को लेकर जरूरत आदिवासियों (वन निवासियों) में भरोसा जगाने की है, वन भूमि पर लोगों के व्यक्तिगत एवं सामुदायिक वनाधिकारों को त्वरित मान्यता प्रदान करने की है।
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