जनसुनवाई: दलित आदिवासियों ने सुनाईं कोरोना महामारी में पुलिसिया दमन और अत्याचारों की आपबीती

Written by Navnish Kumar | Published on: December 30, 2021
कोरोना महामारी के दौरान लोगों ने, खासकर वन क्षेत्रों में रहने वाले दलित आदिवासियों ने क्या क्या भुगता, कैसे कैसे पुलिसिया दमन और अत्याचारों को सहा, जनसुनवाई में आपबीती सुनाई तो ज्यूरी भी हैरान रह गई। इस सब के बावजूद सभी ने एक सुर में “जंगल छोडब नहीं, माई माटी छोडब नहीं, लडाई छोडब नहीं” के नारे के साथ जंगल पर हक को लेकर हुंकार भरी और अन्याय के खिलाफ अपना प्रतिरोध जारी रखने का ऐलान किया। साथ ही भारत सरकार से वनाधिकार कानून को उसकी पूरी भावना के साथ लागू करने की मांग की। 



अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन की राष्ट्रीय अध्यक्ष सुकालो गोंड ने कहा कि “जंगल छोडब नहीं, माई माटी छोडब नहीं, लडाई छोडब नहीं” हम खाली नहीं करेंगे, हम हमारा जंगल, अपनी मातृभूमि को खाली नहीं करेंगे, हम अन्याय के खिलाफ अपना प्रतिरोध जारी रखेंगे। "हम मांग करते हैं कि भारतीय सरकार वन अधिकार अधिनियम 2006 को उसकी पूरी भावना के साथ लागू करें।" 

अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन (AIUFWP), कैमूर क्षेत्र महिला मजदूर किसान संघर्ष समिति (KCMMKSS) व कैमूर मुक्ति मोर्चा (KMM) द्वारा गठित जनआयोग के माध्यम से 27 और 28 दिसंबर को क्रमशः दुद्धि और नौगढ़ में एकदिनी जनसुनवाई आयोजित की गई और कोविड-19 महामारी के दौरान पुलिस द्वारा आम नागरिकों के मानवाधिकारों के किए गए हनन, दमन, अत्याचार और लोगों की मूलभूत जरूरतों जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा और आजीविका को सरकार द्वारा पूरी तरह से नजरअंदाज़ किए जाने को लेकर लोगों ने खुलकर अपनी आपबीती सुनाई और अपनी समस्याओं को रखा। नौगढ़ में हुई जनसुनवाई में भरथरा कलां की चर्चित घटना की पीड़िता ने भी अपना केस रखा। ठाकुरों का दमन और धमकियां आज भी उन पर और उनके परिवार पर जारी है। यहां बारिश होने के बावजूद लोग डटे रहे और दबंगों, प्रशासन, सरकार और इनकी नीतियों के द्वारा उत्पीड़ित लोगों ने अपनी पीड़ा बयां की। 



बात दुद्धि से 27 दिसंबर को दुद्धी तहसील के 28 गांवों की दलित आदिवासी महिलाओं के नेतृत्व में आयोजित जनसुनवाई में हज़ारों आदिवासी महिला पुरुषों ने भाग लिया और वन विभाग, पुलिस और दुद्धि प्रशासन की कारगुजारियों को उजागर किया। साथ ही भारत सरकार द्वारा बिना परामर्श के थोपे गए लॉकडाउन के कारण दुद्धि के दलित आदिवासियों को हुए आजीविका के नुकसान और झेली गई आर्थिक चुनौतियों की जानकारी दी। लिलासी गांव की फुलबासी ने बताया कि किस तरह दलित और आदिवासी समुदाय के 15 लोगों पर हमला किया गया था जिसमें कई बुजुर्ग व नाबालिग लड़कियां भी शामिल थी। बताया कि “दिसम्बर 2020 को उनके गाँव में पुलिस वालों ने हमला कर दिया। उन सभी को लाठी डंडे और लात-घूसों से मारने पीटने लगे। बाद में सभी को जानवरों की तरह घसीट कर पुलिस की गाडी में डालकर थाने ले गयी और फिर थाने में बुरी तरह पीटा गया जिससे वह बेहोश हो गए। होश आया तो देखा कि उनके समूह की सदस्य फुल्जरिया के हाथ से खून बह रहा था। रात 8 बजे उन सहित 9 महिलाओं को रिहा कर दिया गया। बाकी 6 महिला जिसमें 2 नाबालिग लड़कियां थी, को घुरमा जेल भेज दिया गया। यहां तक कि जेल भेजने से पहले महिलाओं को मजिस्ट्रेट के सामने पेश भी नहीं किया गया।” 



ऐसे और भी कई मामले थे जिन्होंने कई आदिवासी परिवारों की दुर्दशा को उजागर किया। इन परिवारों से कई युवा प्रवासी मजदूर के रूप में काम कर रहे हैं। उनमें से कई युवा विवाहित पुरुष हैं। जनसुनवाई में कई युवा महिलाओं की भी समस्याएं सामने आयीं जिन्होंने लॉकडाउन के समय समस्याओं का सामना किया था। “जगदीश अगरिया जो एक छोटे किसान हैं, ने बताया कि सामुदायिक वन भूमि के अपने छोटे से भूखंड पर वह मौसमी खेती करते हैं। साथ ही दूसरों के खेतों में और कभी-कभी नाबार्ड के तहत एक दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करते हैं। कहा कि एक दशक से अधिक समय हो गया है, हमारे वनाधिकार के दावे लंबित पड़े है। क्योंकि हमारे पास वनाधिकार कानून के बारे में जागरूकता की कमी है। दूसरा कोविड महामारी के दौरान मेरा बेटा गुजरात के सूरत में एक पाइपलाइन में ठेकेदार के तहत काम कर रहा था। ठेकेदार ने उसे 10,000 रुपये प्रति माह देने का वादा किया था। उसने बड़ी मेहनत से काम किया और अपनी बचत से कुछ पैसे हमें भेजता था। जब भारत सरकार द्वारा लॉकडाउन लगाया गया तो मेरा बेटा सूरत में फंस गया। कई दिनों तक वह सूरत में फंसा रहा। अपने प्रवास के दौरान, वह कई अन्य मजदूरों के साथ एक छोटे से कमरे में फंस गया था। उनके पास खाने के लिए बहुत कम था, एक छोटे से कमरे और शौचालय में अपनी दैनिक क्रिया करनी पड़ती थी।”



कई महिलाओं ने अपने दुखों के बारे में बात की, जिनका सामना उन्होंने अपने घरेलू कार्य करते समय किया। तालाबंदी के कारण उनके बच्चों के स्कूल बंद थे। कई नवजात शिशुओं को उचित टीकाकरण नहीं मिला। संक्षेप में, जन सुनवाई के दौरान बोली जाने वाली खाद्य, राशन और पीने के पानी तक पहुंच से इनकार करने के उदाहरण भी थे। 

घुमा गांव की राजकुमारी ने बताया कि “जब बच्चों के स्कूल होते थे, तो उन्हें अपने स्कूलों में एक समय का भोजन मिलता था। अब कोविड महामारी की स्थिति के साथ सभी स्कूल बंद हैं। सामानों की कीमते बढ़ती जा रही हैं और उनके पास खेती के लिए जमीन भी नहीं है। ऐसे में वह अपने बच्चों को ठीक से कैसे व खिलाएं। हमें कई बार राशन से वंचित कर दिया गया, हमारा गांव के किसी भी राजस्व गांव का हिस्सा नहीं होने के कारण हमें उचित सड़कों, स्वास्थ्य, क्लिनिक और बाजार तक पहुंच से वंचित कर दिया गया। डीजल की कीमतें आसमान छू रही थीं तो वनाधिकारियों ने हमें हमारे जल स्रोतों तक पहुंच से वंचित किया।  हमें कई किलोमीटर तक अपनी पीठ पर गैलन पानी ले जाने के लिए मजबूर होना पड़ा। कई युवा लड़कियां अपनी किताबें खोलना बंद कर चुकी हैं।”



जनसुनवाई के लिए उपस्थित ज्यूरी में सिटीजन फ़ॉर जस्टिस एंड पीस की सदस्य डॉ. मुनिजा रफीक खान, स्वतंत्र शोधकर्ता प्रियदर्शिनी, अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक चौधरी और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता व सचिव, सिटीजन फ़ॉर जस्टिस एंड पीस तीस्ता सीतलवाड़ के साथ पूर्व एमएलए विजय सिंह गोंड भी शामिल हुए। इस दौरान सैल गांव के आदिवासी सांस्कृतिक दल ने लोकनृत्य करमा द्वारा लोगों का उत्साह बढ़ाया। जनसुनवाई का समापन एक निर्णायक नोट के साथ हुआ जिसमें ज्यूरी सदस्यों ने सरकार द्वारा कोविड महामारी से निपटने की गलत मंशा को व्यक्त किया गया था। जनसुनवाई ने महामारी के दौरान गरीबों के दुखों और पीड़ा पर प्रकाश डाला और उत्पीड़ित लोगों के बीच आपसी एकता की बात की और यह एकता तभी मनाई जा सकती है जब भारत की जनता अपने श्रम और नागरिक अधिकारों के लिए न्याय मांगे।

उधर, 28 दिसंबर को चंदौली जिले के नौगढ़ में आयोजित जनसुनवाई में भरथरा कलां गांव की बैजंती ने बताया कि उनका गांव राजपूत बाहुल्य है, जिसमें लगभग 40 दलित परिवारों की एक बस्ती है। पास में करीब 250 राजपूत परिवारों की बस्ती है। दलित बस्ती के सामने ही राजपूत काश्तकारों की जमीन है। 8 जून 2021 इन्दरदेव का लड़का, एकादशी राजपूत के खेत में चला गया। जिस पर राजपूतों ने उसे बहुत मारा-पीटा था। विरोध करने पर उनके घरों में आग लगा दिया। यह घटना राष्ट्रीय मीडिया में उस समय आई थी और कई राष्ट्रीय नेताओं ने भी विरोध दर्ज किया था लेकिन पुलिस ने मुकदमा दर्ज करने की खानापूरी की। लेकिन बाद में दबंगों के दबाव में पुलिस प्रशासन ने पीड़ित परिवार पर ही चोरी और इसके साथ दलित बस्ती के 17 परिवार के ऊपर अन्य फर्जी मुकदमा दर्ज कर लिया। इतना ही नहीं पांच दलित परिवारों के निर्माणाधीन सरकारी आवास पर रोक लगा दी और भुगतान की गई किश्त की रिकवरी का नोटिस दिया गया। उच्चाधिकारियों को शिकायत करने गए तो कोई भी अधिकारी उनका प्रार्थनापत्र लेने तक को तैयार नहीं होता है। उन पर सुलह का दबाव दिया जाता है।



यही नहीं, कोरोनाकाल के दौरान लोगों को स्वास्थ्य की समस्या का सामान का सामना करना पड़ा है। सामान्य बीमारियों का भी इलाज न होने के चलते लोगों को भटकना पड़ा। निजी अस्पतालों ने जमकर आम जनता की मज़बूरियों का फायदा उठाया और  मनमाने तरीके से धन उगाही की है। लक्ष्मणपुर की श्यामदेई ने बताया कि उनकी बहू को पेट दर्द की शिकायत थी। किसी भी सरकारी अस्पताल ने कोई इलाज नही किया। मज़बूरी में उन्हें वाराणसी के निजी अस्पताल में आपरेशन कराना पड़ा जिसमें उनका 1.5 लाख रुपये खर्च हुआ। इतने पैसे के इंतजाम के लिए उन्हें साहूकारों व माइक्रो फाइनेंस कंपनियों से कर्ज लेना पड़ा। जिसकी वसूली कंपनियां मनमाने तरीके से कर रही है। सरकार द्वारा बनाए आयुष्मान कार्ड का भी लाभ उन्हें नही मिला। कोई भी निजी अस्पताल इस कार्ड के तहत उनका इलाज नही किया। 

जनकपुर गांव के रामनाथ ने बताया कि कोरोना काल में उनके भाई को सांस लेने में समस्या हो रही थी, तो सोनभद्र के जिला अस्पताल में लेकर गए जहां पर उन्हें ऑक्सीजन की ज़रूरत पड़ी। लेकिन अस्पताल उन्हें ऑक्सीजन मुहैया नही करा पाया और  उनकी मृत्यु हो गयी। उस दौरान ठेकेदार द्वारा लोगों की मज़दूरी का भी भुगतान नही किया गया तो वनविभाग द्वारा भी लोगों का दमन किया गया।सुखदेवपुर गांव में 60 परिवारों ने वनाधिकार के तहत दावा दाखिल किया है जिसका अभी तक निस्तारण नही हुआ है। वन विभाग बिना किसी पूर्व सूचना के लोगों को उनकी जमीन से बेदखल कर रहा है। विरोध करने पर 10 महिलाओं पर फर्जी मुकदमा दर्ज कराने की धमकी दे रहा है। जब कि वनविभाग का यह कृत्य वनाधिकार कानून और सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले की भी अवहेलना है जिस में सुप्रीम कोर्ट ने बिना दावे के निस्तारण के लोगों के बेदखली पर रोक लगाई हुई है।



जनसुनवाई में चिकनी से राजकुमार, लक्ष्मणपुर से मकबूल, जनकपुर श्यामलाल ने भी अपनी आपबीती रखी जिसमे वनविभाग द्वारा अवैध धन उगाही, फर्जी मुक़दमें दर्ज कर जेल भेजने जैसी घटनाएं है। बताया कि इस प्रकार की घटनाएं क्षेत्र में आम हैं जिसका सामना वंचित वनाश्रित समुदाय के लोग कर रहे हैं। कानून की जानकारी के अभाव में वनविभाग द्वारा लोगों का शोषण किया जा रहा है। जनसुनवाई में ज्यूरी के सदस्यों ने लोगों की समस्याओं को लेकर कानूनी सलाह भी दी। ज्यूरी सदस्यो में वाराणसी से सामाजिक कार्यकर्ता व सिटीजन फ़ॉर जस्टिस एंड पीस के डॉ. मुनिजा रफीक खान, स्वतंत्र शोधकर्ता प्रियदर्शिनी, जन आयोग दिल्ली से उमेश बाबू, एडवोकेट रामजतन बागी और अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन की अध्यक्ष सुकालो गोंड शामिल रहीं।

जनसुनवाई के उद्देश्यों की बाबत अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन की राष्ट्रीय महासचिव रोमा कहती हैं कि कोविड-19 महामारी के दौरान पुलिस द्वारा आम नागरिकों के मानवाधिकारों के किए गए दमन अत्याचार और लोगों की मूलभूत जरूरतों जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका को सरकार द्वारा पूरी तरह से नजरअंदाज़ किए जाने को लेकर लोगों की पीड़ा को उजागर करना था।  

उन्होंने कहा कि 2020 के शुरूआती दौर में ही कोविड-19 वैश्विक महामारी आई जिससे निपटने के लिए 24 मार्च 2020 को हमारे देश की केंद्र सरकार द्वारा अचानक नागरिकों को बिना किसी पूर्व सूचना और बिना किसी पूर्व तैयारी से अनियोजित ढंग से पूरे देश में तालाबंदी कर दी गयी, जिसके कारण देश के करोडों गरीब प्रवासी मजदूरों की आजीविका पर संकट छा गया। प्रवासी मजदूरों में बड़े पैमाने पर लोग दलित आदिवासी समुदाय से आते है जो आजीविका की तलाश में शहरों में पलायन कर जाते है। इन तबकों की बुनियादी शिक्षा और स्वास्थ्य तक पहुंच न होने के कारण और आजीविका का कोई अन्य साधन ना होने के कारण भारी आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा है। अचानक हुए लॉकडाउन ने, क्षेत्र के प्रवासी मजदूरों को जो रोजगार के लिए शहरों में पलायन कर चुके थे, को बिना मजदूरी घर वापिस लौटने पर मजबूर होना पड़ा है। उन्हें अपने घरों तक पहुंचने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। अपने घरों की ओर हजारों किलोमीटर पैदल चलते हुए उन्हें पुलिस की लाठियों, गालियों, भूख और कोविड-19 महामारी का सामना करना पड़ा। इस परिस्थिति से निपटने के स्थान पर भारत सरकार ने अपनी आंखें मूंद लीं। जब यह मजदूर बिना किसी सरकारी मदद से गर्मियों के माह में जलती हुई सड़क पर नंगे पैर अपने घरों के लिए निकले। सारी दिक्कतों और परेशानियों के बाद जैसे तैसे जब ये अपने घर पहुंचे तो उनके घरों पर वन विभाग, पुलिस विभाग और अन्य विभाग के अधिकारियों द्वारा गैर कानूनी रूप से छापा मारा गया और उन्हें प्रताड़ित किया गया।



इसके साथ ही क्षेत्र के वनाश्रित समुदाय जिनकी मुख्य आजीविका प्राक्रतिक वनसंसाधनों पर ही निर्भर है उस पर भी संकट आ गया। इस क्षेत्र के वनाश्रित समुदायों के 4500 लोगों ने वनाधिकार कानून 2006 के तहत 2010 में व्यक्तिगत दावे प्रपत्र जमा किए गए थे। इसके बाद 23 मार्च 2018 को कई गांवों से सामुदायिक दावे भी जमा किए गए हैं। जिसका भी निस्तारण उपखंड स्तरीय समिति और जिला स्तर समिति द्वारा नहीं किया किया गया है लेकिन कोरोना काल में भी वनविभाग द्वारा समुदायों पर हमले किये गए है। लोगों के घरों व खेती को उजाड़ा गया है। हजारों आदिवासी वनाश्रित समुदाय को उनके मौलिक और संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर, उनके मूल भूमि अधिकार को नकारकर उनके सम्मान से जीने के अधिकार का उल्लंघन किया जा रहा है। भूमि अधिकार से वंचित किए जाने की वजह से वन गांवों को राजस्व गांवों के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता है जिसके परिणामस्वरूप वह अपने बुनियादी अधिकारों जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा और भोजन के अधिकार से भी वंचित हैं।

Related:

बाकी ख़बरें