संख्या बढ़ने से नहीं पितृसतात्मक सोच को मिटाकर बढेंगी महिलाऐं

Written by Dr. Amrita Pathak | Published on: December 17, 2021
देश में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक हो गयी है ऐसा हाल ही में केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी किए गए राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े में बताया गया है.



सर्वेक्षण के अनुसार प्रति 1 हजार पुरुषों पर 1020 महिलाऐं हैं. बताया यह भी जा रहा है कि महिलाओं की संख्या को लेकर आजादी के बाद पहली बार इस तरह के सुखद आंकड़े देखे जा रहे हैं. हालांकि इस तरह के सरकारी आंकड़े सुकून देने वाले हैं लेकिन संख्या बढ़ने से महिलाओं को मिलने वाले सामानता, सुरक्षा के अधिकार पर कोई फर्क नहीं पड़ता है. महिलाओं की संख्या बढ़ जाने से यह बिलकुल भी नहीं माना जा सकता है कि देश के तमाम धर्म, जाति और समाज के महिलाओं की स्थिति बेहतर हो रही है. 

सर्वेक्षण के आंकड़ों में बताया गया है कि गाँव की स्थिति शहरों की तुलना में बेहतर है. शहरों में जहाँ प्रति एक हजार पुरुषों पर 985 महिलाऐं हैं वहीं गांवों में यह संख्या 1037 दर्ज की गयी है. सर्वेक्षण के इस आंकड़े के अनुसार जन्म के समय हो रहे कन्या हत्या में भी सुधार हुआ है. जन्म के समय 2015-16 में बालक की तुलना में बालिका की संख्या 919 थी जो 2019-20 में बढ़ कर 929 हो गया है. 

राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण का यह आंकड़ा इस बात को जरुर स्पष्ट कर रहा है कि 21वीं सदी के बदलते दौर के साथ लोगों की सोच भी बदल रही है. अब केवल बेटे को तरजीह देने वाली मानसिकता बदलने लगी है. वर्तमान में बेटियां भी माता पिता की उम्मीद और भविष्य का सहारा बन रही हैं. हर क्षेत्र में कामयाबी के परचम लहरा रही हैं यहाँ तक कि माता पिता की चिता को मुखाग्नि देने का काम भी बेटियां कर रही हैं. लेकिन सवाल यह है कि इस तरह से कामयाब महिलाओं की संख्या कितनी है? क्या वास्तव में देश के ग्रामीण क्षेत्र और दूर दराज के इलाकों में लड़कियों को लेकर सोच बदल रही है? हम इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ सकते हैं कि आज भी देश के अधिकांश क्षेत्र में लोग लड़के के जन्म पर उत्सव मनाते हैं और लड़की के जन्म पर शोक मनाते हैं.

संख्या में बढ़ोत्तरी होने से महिलाओं पर हर दिन बढ़ते अपराध कम नहीं हो रहे हैं. महिलाओं के साथ हो रहे अपराध में घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न, कन्यां भ्रूण हत्या, बलात्कार, हत्या, दहेज उत्पीड़न, बालविवाह, शादी की आजादी पर रोक, प्रेम और शादी का झांसा देकर यौन शोषण, जेल में महिला कैदियों का यौन शोषण, दफ़्तर में यौन उत्पीड़न,सार्वजानिक स्थानों पर महिलों से छेड़खानी, धर्म के नाम पर धर्म गुरुओं बाबाओं द्वारा किया जाने वाला शारीरिक शोषण शामिल है. कई क्षेत्र में कामयाब पढ़ी लिखी महिलाऐं भी पूंजीवादी बाजारवादी व्यवस्था में एक वस्तु के तौर पर उपयोग में लायी जा रही है. 

भारत में पुलिस रिकॉर्ड महिलाओं के ख़िलाफ़ हो रहे अपराधों की उच्च घटनाओं को दर्शाता है जिसमें यौन उत्पीड़न की आम घटना बन चुकी है. एनसीआरबी के अनुसार दर्ज किए गए अपराध में महिलाओं के ख़िलाफ़ अधिकांश अपराध उनके पति या नजदीकी रिश्तेदारों द्वारा की जाती है. 2017 में 57.9 की तुलना में 2018 में प्रति लाख महिला आबादी पर अपराध दर 58.8 थी. भारत में घरेलु हिंसा वर्षों से सामान्य बात रही है. पूर्व केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री रेणुका चौधरी के अनुसार भारत में लगभग 70 फीसदी महिलाऐं घरेलू हिंसा की शिकार हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो से पता चलता है कि हर तीन मिनट में एक महिला के ख़िलाफ़ एक अपराध होता है. हर 29 मिनट में एक महिला का बलात्कार होता है. हर 77 मिनट में एक दहेज़ हत्या का मामला होता है. यह सब इस सच के बावजूद होता है कि महिला संरक्षण अधिनियम के तहत भारत में महिलाओं को घरेलू शोषण से क़ानूनी रूप से संरक्षित किया गया है.  

लड़कियों की संख्या में वृद्धि यह तय नहीं करता है कि भारतीय समाज में समानता बढ़ रही है. लड़की के जन्म लेने के बाद बचपन में उसकी शिक्षा और उसकी परवरिश लड़के के समान करना हर जगह देखने को नहीं मिलता है. ग्रामीण क्षेत्रों में लड़की की आज भी कम उम्र में शादी कर दी जाती है. इन क्षेत्रों में शिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण माता-पिता की धारणा बन जाती है कि बेटियां पराया धन होती हैं और बुढ़ापे का सहारा केवल बेटे ही हो सकते हैं. पितृसत्तात्मक समाज में परिवार और समाज के संस्कार की पोटली भी लड़कियों के हाथों में होती है जो लड़कियों के क्रियाकलाप से जुडी होती है. संस्कार का बोझ इतना प्रबल होता है कि लड़कियां अपने तमाम अधिकारों की बलि तक चढ़ा देती हैं. 

कोविड- 19 के आज के इस दौर में लगभग सभी घरों में लड़कियों और उसकी पढाई व काम को नज़र अंदाज करने से लेकर उन पर यौन हिंसा और अपराध की धटनाओं में भी बढ़ोतरी हुई है. महामारी की इस हालात में ऑनलाइन पढाई का दौर शुरू हो चुका है. परिवार में लड़के को ऑनलाइन क्लास करने के लिए मोबाइल दिया जाता है जबकि लड़की की पढाई को महत्वपूर्ण नहीं माना जाता. यह छोटी सी बात है जो समाज के अधिकाँश परिवार का सच है. 

बहरहाल, देश में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या में वृद्धि होना अधूरी ख़ुशी देता है. यह ख़ुशी तब तक पूरी नहीं हो सकती जब तक महिलाओं, लड़कियों को शिक्षा, सुरक्षा और समानता के पूर्ण अधिकार न मिल जाए. समाज में उनके साथ हो रहे भेदभाव और उन पर वर्षों से चली आ रही पितृसतात्मक बंदिशों को ख़त्म नहीं कर दिया जाता. समाज की पूंजीवादी संरचना ने पितृसत्तात्मक मानसिकता को बढ़ावा दिया है. पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं को जिन्दगी जीने के संवैधानिक अधिकार तक नहीं देता. समाज में केवल संख्या बढ़ने से नहीं बल्कि बराबरी के अवसर प्रदान करने से महिलाएं आगे बढेंगी.

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