ओबीसी की जातियों की सूची को संशोधित करने का राज्यों को अधिकार था। मोदी सरकार ने ओबीसी जातियों के सूची संशोधन का अधिकार अनुसूचित जाति की भांति केंद्र सरकार (संसद) को सौंप दिया था, अब यह अधिकार पुनः राज्यों को देने के लिए संसद में बिल पेश किया गया। अधिकांश राजनीतिक पार्टियां इसका समर्थन कर रही है। यह अधिकार कभी ओबीसी के लोगों ने मांगा नही था और ना इसका विरोध किया। मराठा आरक्षण से शुरू हुई लड़ाई, मुंबई हाईकोर्ट होते हुए सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची जिसमें केंद्र व महाराष्ट्र सरकार हारी, केंद्र सरकार ने संविधान के विरुद्ध पैरोकारी की। फिर हारने के बाद यह बिल पास किया जा रहा है, इसके पीछे क्या राजनीति है उसे वही जानते है परंतु 52% पिछड़ों का आरक्षण 27% ही रहेगा। यह कहना है संविधान बचाओ समिति के अध्यक्ष एडवोकेट राजकुमार का। यही नहीं, राजकुमार कहते हैं कि इससे ओबीसी की सूची में जातियां बढ़ती जाएंगी और लाभ घटता जाएगा। दूसरी ओर, सामान्य जातियों की संख्या घटने से उन्हें अवैध रूप से और ज्यादा लाभ मिलने का ही काम होगा।
यही नहीं, राजकुमार इस पूरी कवायद के पीछे ओबीसी जातियों के साथ ''वोट'' का चुनावी खेला होने की संभावनाओं की ओर भी इशारा करते हैं। मसलन राजकुमार अपनी फेसबुक पोस्ट में कहते है कि ''लोकसभा चुनाव 2019 में ओबीसी (सूची) को केंद्रीय दर्जा देकर और अब 2022 में ओबीसी की सूची संशोधन का अधिकार राज्यों को देकर, ओबीसी से वोट मांगे जाएंगे। ओबीसी यानी पिछड़े भी खुश और राजनीतिक दल भी खुश, वाह मोदी जी वाह''। हालांकि, केंद्र सरकार ने यह कदम कोर्ट आदेशों के बाद उठाया है लेकिन इसके पीछे फकत चुनावी राजनीति ही ज्यादा है। राजकुमार कहते हैं कि उल्टा ओबीसी जातियों की फुटबाल राज्यों को थमा कर के, केंद्र ने अपना रिस्क भी कम कर लिया है। दूसरी ओर, इससे प्रभावित होने वाले ओबीसी के लोग उस समय भी चुप थे जब इन्हें यह अधिकार मिला था और आज भी चुप है।
साफ है कि आरक्षण की सीमा 50% से बढ़ाए बगैर राज्यों को अधिकार देने के पीछे कोरी राजनीति हैं जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से ''ओबीसी हकों पर गहरा कुठाराघात'' करती है। यही कारण है कि विपक्षी पार्टियां जातिगत आधार पर जनगणना कराने और आरक्षण की सीमा 50% (ओबीसी की 27%) से ज्यादा बढ़ाए जाने की मांग कर रहे हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि यदि केंद्र सरकार जाति आधारित जनगणना नहीं कराती है तो बिहार में राज्य स्तर पर जाति के आंकड़ों के लिए कवायद शुरू की जा सकती है। बता दें कि नीतीश कुमार ने जाति आधारित जनगणना के लिए पीएम मोदी को पत्र लिखा था, मिलने का समय भी मांगा है। मगर कोई जवाब न मिलने पर नीतीश कुमार का यह बयान सामने आया है। कहा कि जाति आधारित जनगणना की मांग को लेकर बिहार विधानसभा में 2019 और 2020 में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित हुआ था। नीतीश कुमार ने कहा कि फैसला केंद्र को लेना है। हमने अपनी मांग रखी है। कहा इसमें कुछ भी राजनीतिक नहीं है, यह विशुद्ध तौर से ''सामाजिक'' मामला है।
आरजेडी, सपा और बसपा के साथ कांग्रेस ने भी केंद्र सरकार से आरक्षण के लिए 50 प्रतिशत की सीमा को हटाने पर विचार करने की मांग की है। कांग्रेस पार्टी का कहना है कि यह सीमा हटने के बाद ही महाराष्ट्र में मराठा समुदाय और दूसरे कई राज्यों में लोगों को इसका लाभ मिल पाएगा। इसके साथ ही लगभग समूचा विपक्ष लंबे समय से जातिगत जनगणना की मांग कर रहा है। तो राज्यों को ओबीसी तय करने के अधिकार के इस विधेयक के जरिए केंद्र सरकार ने पिछड़ी जातियों को साधने की कोशिश शुरू कर दी है। बिल पास होने के बाद हरियाणा, गुजरात, कर्नाटक जैसे राज्यों की भाजपा सरकारें भी जाट, पटेल और लिंगायत जातियों को ओबीसी में शामिल कर चुनावी फायदा उठाने की जुगत में जुट गई है। वर्तमान स्वरूप में ओबीसी ''समाज'' को भी इससे लाभ के बजाय नुकसान ज्यादा होता दिख रहा है।
दरअसल मोदी सरकार की इस पूरी कवायद के पीछे वोट बैंक की चुनावी राजनीति ही छुपी है। 2014 और 2019 में केंद्र की सत्ता में काबिज हुई नरेंद्र मोदी सरकार को ओबीसी मतदाताओं का भरपूर साथ मिला था। 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में भाजपा को मिले अभूतपूर्व बहुमत से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है। इसी से ओबीसी समुदाय को अपने पाले में लाने के लिए मोदी सरकार के मंत्रिमंडल विस्तार से लेकर संगठन की नियुक्तियों तक ओबीसी समुदाय की हिस्सेदारी को तेजी से बढ़ाया गया है। जातीय जनगणना के मामले पर बैकफुट पर चल रही मोदी सरकार, अब ओबीसी बिल के सहारे एक बार फिर फ्रंटफुट पर आ गई है तो इसके पीछे 2022 का उत्तर प्रदेश का चुनाव है। कर्नाटक, राजस्थान व गुजरात में भी 2024 से पहले विधानसभा चुनाव होने हैं। जिसमें भाजपा ओबीसी बिल को भुनाने की भरपूर कोशिश करेगी।
वही हो भी रहा है। खास है कि 2018 में हुए 102वें संविधान संशोधन में ओबीसी की लिस्ट बनाने का अधिकार संसद को दे दिया गया था। इस संशोधन के बाद से विपक्षी दलों ने केंद्र सरकार पर राज्यों की शक्ति को छीनकर संघीय ढांचे पर हमला करने के आरोप लगाए थे। हालांकि जानकारों के अनुसार, तभी से ही इस बात की संभावना जताई जा रही थी कि मोदी सरकार 2022 में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से पहले ओबीसी बिल को संसद में लाएगी। यही हुआ भी। दरअसल, उत्तर प्रदेश में करीब 70 ऐसी जातियां हैं, जो खुद को ओबीसी में शामिल किए जाने की मांग कर रही हैं। ओबीसी बिल के पास होने के बाद भाजपा इसके सहारे राजनीतिक लाभ लेने की भरपूर कोशिश करेगी। वहीं जाट बहुल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन की वजह से भाजपा के खिलाफ माहौल बना हुआ है। इस बिल के पास होने के बाद भाजपा केवल पश्चिमी उत्तर प्रदेश ही नहीं हरियाणा व राजस्थान में भी जाटों को साधने की कोशिश करेगी। ओबीसी बिल के लिए संविधान में संशोधन के बाद राज्यों के पास ओबीसी में अन्य जातियों को शामिल करने का रास्ता खुल जाएगा। लेकिन, इस बिल से ओबीसी के लिए निर्धारित 27 फीसदी की आरक्षण सीमा को पार नहीं किया जा सकेगा। यानी अगर राज्य किसी जाति को ओबीसी वर्ग में जोड़ते हैं, तो इसका लाभ उन्हें 27 फीसदी आरक्षण के अंतर्गत ही मिल सकेगा। जो कुल मिलाकर ओबीसी की अपेक्षा, सामान्य वर्ग के लिए फायदे का सौदा ज्यादा नजर आ रहा है!
अब हरियाणा के जाट हों या गुजरात के पटेल, कर्नाटक के लिंगायत हों या महाराष्ट्र के मराठा या उत्तर प्रदेश की दर्जनों जातियां। ये सभी अपने-अपने राज्य में निर्णायक भूमिका में हैं। इसलिए राजनीतिक पार्टियां इन जातियों को साधने की तरह-तरह की कोशिश करती रहती हैं। आरक्षण पर राज्यों का अधिकार बहाली भी उसमें से ही एक है। संसद से बिल पास होने से राज्यों को नई जातियों को OBC में शामिल करने का आधिकार मिल जाएगा, लेकिन आरक्षण की सीमा अभी भी 50% ही है। इंदिरा साहनी केस के फैसले के मुताबिक अगर कोई 50% की सीमा के बाहर जाकर आरक्षण देता है तो सुप्रीम कोर्ट उस पर रोक लगा सकता है। इसी वजह से ज्यादातर राज्य इस सीमा को खत्म करने की मांग कर रहे हैं।
भाजपा के सहयोगी पार्टी अपना दल (एस) ने भी जातीय जनगणना किए जाने की मांग की है। कहा ओबीसी आबादी का कोई उचित अनुमान नहीं है। इसलिए सरकार को अगली जनगणना जाति के आधार पर करनी चाहिए। जेडीयू के बाद भाजपा के इस सहयोगी ''अपना दल (एस)'' ने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के कल्याण के लिए एक अलग केंद्रीय मंत्रालय और पूरे देश में जाति आधारित जनगणना की मांग की। ताकि समुदाय की सटीक आबादी का पता लगाया जा सकेगा।
बता दें कि केंद्र सरकार यह कदम सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उठा रही है। 5 मई को मराठा आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी की पहचान करने और सूची बनाने के राज्यों के अधिकार को अवैध बताया था। कोर्ट का कहना था कि 102वें संविधान संशोधन के बाद राज्यों को सामाजिक व आर्थिक आधार पर पिछड़ों की पहचान करने और अलग से सूची बनाने का कोई अधिकार नहीं है। ऐसे में सिर्फ केंद्र ही ऐसी सूची बना सकता है और वही सूची मान्य होगी। सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षा और नौकरी के क्षेत्र में मराठा आरक्षण को असंवैधानिक करार दिया था और साथ ही कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि मराठा समुदाय को आरक्षण के कोटा के लिए सामाजिक, शैक्षणिक रूप से पिछड़ा घोषित नहीं किया जा सकता है, यह साल 2018 के महाराष्ट्र राज्य कानून समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मराठा आरक्षण 50 फीसदी सीमा का उल्लंघन है।
सर्वोच्च अदालत के इस फैसले के बाद एक नया विवाद खड़ा हो गया था, क्योंकि मौजूदा समय में ओबीसी की केंद्र और राज्यों की सूची अलग-अलग है। राज्यों की ओबीसी सूची में कई ऐसी जातियों को रखा गया है, जो केंद्रीय ओबीसी सूची में शामिल नहीं हैं। बिहार में बनिया ओबीसी में है, लेकिन उत्तर प्रदेश में वो अपर कास्ट में आते हैं। ऐसे ही जाटों का हाल है। हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों पर भी ओबीसी लिस्ट अलग है।रोड़ जाति भी उप्र में पिछड़ी सूची में है लेकिन केंद्र व हरियाणा में सामान्य में है। केंद्र सरकार इसलिए भी सतर्क है, क्योंकि राज्य की सूची के आधार पर ही कई ऐसी पिछड़ी जातियां हैं, जो राज्य की सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षण संस्थानों के दाखिले में आरक्षण का लाभ पा रही हैं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला लागू होने से इन जातियों को नुकसान होने का खतरा है। महाराष्ट्र में ओबीसी आरक्षण की मांग को लेकर सियासत गरमा गई है। इसके अलावा देश के तमाम राज्यों में कई जातियां हैं, जिनकी ओबीसी में शामिल होने और आरक्षण की मांग लंबे समय से है।
हालांकि, केंद्र की मोदी सरकार ने मराठा आरक्षण पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका भी दाखिल की थी जिसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था, जिसके बाद से ही केंद्र सरकार ओबीसी की सूची पर राज्यों की शक्ति बहाल करने को लेकर कानून बनाने पर विचार कर रही थी। या कहें कि इसके लिए उपयुक्त समय का इंतजार कर रही थी।
ओबीसी की केंद्रीय सूची में मौजूदा समय में करीब 2600 जातियां शामिल हैं। संसद में संविधान के अनुच्छेद 342-ए और 366(26) सी के संशोधन पर मुहर लग जाएगी तो इसके बाद राज्यों के पास फिर से ओबीसी सूची में जातियों को अधिसूचित करने का अधिकार होगा। उत्तर प्रदेश की बात करें तो प्रदेश में इस समय कुल 79 जातियां ओबीसी की सूची में शामिल हैं। लेकिन यूपी सरकार, राज्यों के अधिकार बहाल होते ही (2022 विधानसभा चुनाव से पहले) 39 और जातियों को ओबीसी में शामिल करने की तैयारी में हैं। दरअसल उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव नजदीक है जिससे ओबीसी आरक्षण के मुद्दे पर सियासत और गर्माने के आसार हैं। विपक्षी दल भी इस मुद्दे पर दबाव बनाने लगे हैं। वहीं राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग प्रदेश की 39 जातियों को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करने की तैयारी कर रहा है। इसके लिए आयोग, उप्र सरकार को संस्तुति भेजेगा।
प्रदेश में इस समय कुल 79 जातियां ओबीसी की सूची में शामिल हैं। इनकी आबादी प्रदेश की कुल जनसंख्या का 54 प्रतिशत मानी जाती है। उप्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के चेयरमैन यशवंत सैनी ने बताया कि अब तक उनके पास कुल 70 जातियों के प्रतिविदेन आए थे जिनमें से 39 प्रतिवेदनों को मानकों के आधार पर विचार करने के लिए चयनित किया गया है। इनमें से 24 जातियों की आबादी व अन्य विषयों पर सर्वे करवाया जा चुका है। सर्वे में आए तथ्यों पर विश्लेषण किया जा रहा है।
इसके अलावा 15 अन्य जातियों का अभी सर्वे करवाया जाना बाकी है। सर्वे पूरा होने के बाद इन जातियों को भी ओबीसी की सूची में अधिसूचित करने पर निर्णय लिया जाएगा। सामाजिक न्याय समिति ने 2019 में यूपी में ओबीसी जातियों की आबादी की रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी। यह रिपोर्ट हुकुम सिंह कमेटी पर आधारित बताई जा रही है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, उप्र में जिन जातियों को ओबीसी में शामिल किया जा सकता हैं उनमें भूर्तिया, अग्रहरि, दोसर वैश्य, जैसवार राजपूत, रूहेला, मुस्लिम शाह, मुस्लिम कायस्थ, हिन्दू कायस्थ, बर्नवाल, कमलापुरी वैश्य, कोर क्षत्रिय राजपूत, दोहर, अयोध्यावासी वैश्य, केसरवानी वैश्य, बागवान, ओमर बनिया, माहौर वैश्य, हिन्दू भाट, भट्ट, गोरिया, बोट, पंवरिया, उमरिया, नोवाना, मुस्लिम भाट शामिल हैं। वहीं विश्नोई, खार राजपूत, पोरवाल, पुरूवार, कुन्देर खरादी, बिनौधिया वैश्य, सनमाननीय वैश्य, गुलहरे वैश्य, गधईया, राधेड़ी, पिठबज जातियों के लिए सर्वे होगा। कुल मिलाकर अब देखना यही होगा कि राजनीतिक दल किस तरह ओबीसी जातियों को अपने चुनावी लाभ के लिए भुनाते हैं या फिर इस पूरी कवायद का कुछ लाभ ओबीसी जातियों (समाज) को भी मिल पाता है या नहीं?
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यही नहीं, राजकुमार इस पूरी कवायद के पीछे ओबीसी जातियों के साथ ''वोट'' का चुनावी खेला होने की संभावनाओं की ओर भी इशारा करते हैं। मसलन राजकुमार अपनी फेसबुक पोस्ट में कहते है कि ''लोकसभा चुनाव 2019 में ओबीसी (सूची) को केंद्रीय दर्जा देकर और अब 2022 में ओबीसी की सूची संशोधन का अधिकार राज्यों को देकर, ओबीसी से वोट मांगे जाएंगे। ओबीसी यानी पिछड़े भी खुश और राजनीतिक दल भी खुश, वाह मोदी जी वाह''। हालांकि, केंद्र सरकार ने यह कदम कोर्ट आदेशों के बाद उठाया है लेकिन इसके पीछे फकत चुनावी राजनीति ही ज्यादा है। राजकुमार कहते हैं कि उल्टा ओबीसी जातियों की फुटबाल राज्यों को थमा कर के, केंद्र ने अपना रिस्क भी कम कर लिया है। दूसरी ओर, इससे प्रभावित होने वाले ओबीसी के लोग उस समय भी चुप थे जब इन्हें यह अधिकार मिला था और आज भी चुप है।
साफ है कि आरक्षण की सीमा 50% से बढ़ाए बगैर राज्यों को अधिकार देने के पीछे कोरी राजनीति हैं जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से ''ओबीसी हकों पर गहरा कुठाराघात'' करती है। यही कारण है कि विपक्षी पार्टियां जातिगत आधार पर जनगणना कराने और आरक्षण की सीमा 50% (ओबीसी की 27%) से ज्यादा बढ़ाए जाने की मांग कर रहे हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि यदि केंद्र सरकार जाति आधारित जनगणना नहीं कराती है तो बिहार में राज्य स्तर पर जाति के आंकड़ों के लिए कवायद शुरू की जा सकती है। बता दें कि नीतीश कुमार ने जाति आधारित जनगणना के लिए पीएम मोदी को पत्र लिखा था, मिलने का समय भी मांगा है। मगर कोई जवाब न मिलने पर नीतीश कुमार का यह बयान सामने आया है। कहा कि जाति आधारित जनगणना की मांग को लेकर बिहार विधानसभा में 2019 और 2020 में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित हुआ था। नीतीश कुमार ने कहा कि फैसला केंद्र को लेना है। हमने अपनी मांग रखी है। कहा इसमें कुछ भी राजनीतिक नहीं है, यह विशुद्ध तौर से ''सामाजिक'' मामला है।
आरजेडी, सपा और बसपा के साथ कांग्रेस ने भी केंद्र सरकार से आरक्षण के लिए 50 प्रतिशत की सीमा को हटाने पर विचार करने की मांग की है। कांग्रेस पार्टी का कहना है कि यह सीमा हटने के बाद ही महाराष्ट्र में मराठा समुदाय और दूसरे कई राज्यों में लोगों को इसका लाभ मिल पाएगा। इसके साथ ही लगभग समूचा विपक्ष लंबे समय से जातिगत जनगणना की मांग कर रहा है। तो राज्यों को ओबीसी तय करने के अधिकार के इस विधेयक के जरिए केंद्र सरकार ने पिछड़ी जातियों को साधने की कोशिश शुरू कर दी है। बिल पास होने के बाद हरियाणा, गुजरात, कर्नाटक जैसे राज्यों की भाजपा सरकारें भी जाट, पटेल और लिंगायत जातियों को ओबीसी में शामिल कर चुनावी फायदा उठाने की जुगत में जुट गई है। वर्तमान स्वरूप में ओबीसी ''समाज'' को भी इससे लाभ के बजाय नुकसान ज्यादा होता दिख रहा है।
दरअसल मोदी सरकार की इस पूरी कवायद के पीछे वोट बैंक की चुनावी राजनीति ही छुपी है। 2014 और 2019 में केंद्र की सत्ता में काबिज हुई नरेंद्र मोदी सरकार को ओबीसी मतदाताओं का भरपूर साथ मिला था। 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में भाजपा को मिले अभूतपूर्व बहुमत से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है। इसी से ओबीसी समुदाय को अपने पाले में लाने के लिए मोदी सरकार के मंत्रिमंडल विस्तार से लेकर संगठन की नियुक्तियों तक ओबीसी समुदाय की हिस्सेदारी को तेजी से बढ़ाया गया है। जातीय जनगणना के मामले पर बैकफुट पर चल रही मोदी सरकार, अब ओबीसी बिल के सहारे एक बार फिर फ्रंटफुट पर आ गई है तो इसके पीछे 2022 का उत्तर प्रदेश का चुनाव है। कर्नाटक, राजस्थान व गुजरात में भी 2024 से पहले विधानसभा चुनाव होने हैं। जिसमें भाजपा ओबीसी बिल को भुनाने की भरपूर कोशिश करेगी।
वही हो भी रहा है। खास है कि 2018 में हुए 102वें संविधान संशोधन में ओबीसी की लिस्ट बनाने का अधिकार संसद को दे दिया गया था। इस संशोधन के बाद से विपक्षी दलों ने केंद्र सरकार पर राज्यों की शक्ति को छीनकर संघीय ढांचे पर हमला करने के आरोप लगाए थे। हालांकि जानकारों के अनुसार, तभी से ही इस बात की संभावना जताई जा रही थी कि मोदी सरकार 2022 में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से पहले ओबीसी बिल को संसद में लाएगी। यही हुआ भी। दरअसल, उत्तर प्रदेश में करीब 70 ऐसी जातियां हैं, जो खुद को ओबीसी में शामिल किए जाने की मांग कर रही हैं। ओबीसी बिल के पास होने के बाद भाजपा इसके सहारे राजनीतिक लाभ लेने की भरपूर कोशिश करेगी। वहीं जाट बहुल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन की वजह से भाजपा के खिलाफ माहौल बना हुआ है। इस बिल के पास होने के बाद भाजपा केवल पश्चिमी उत्तर प्रदेश ही नहीं हरियाणा व राजस्थान में भी जाटों को साधने की कोशिश करेगी। ओबीसी बिल के लिए संविधान में संशोधन के बाद राज्यों के पास ओबीसी में अन्य जातियों को शामिल करने का रास्ता खुल जाएगा। लेकिन, इस बिल से ओबीसी के लिए निर्धारित 27 फीसदी की आरक्षण सीमा को पार नहीं किया जा सकेगा। यानी अगर राज्य किसी जाति को ओबीसी वर्ग में जोड़ते हैं, तो इसका लाभ उन्हें 27 फीसदी आरक्षण के अंतर्गत ही मिल सकेगा। जो कुल मिलाकर ओबीसी की अपेक्षा, सामान्य वर्ग के लिए फायदे का सौदा ज्यादा नजर आ रहा है!
अब हरियाणा के जाट हों या गुजरात के पटेल, कर्नाटक के लिंगायत हों या महाराष्ट्र के मराठा या उत्तर प्रदेश की दर्जनों जातियां। ये सभी अपने-अपने राज्य में निर्णायक भूमिका में हैं। इसलिए राजनीतिक पार्टियां इन जातियों को साधने की तरह-तरह की कोशिश करती रहती हैं। आरक्षण पर राज्यों का अधिकार बहाली भी उसमें से ही एक है। संसद से बिल पास होने से राज्यों को नई जातियों को OBC में शामिल करने का आधिकार मिल जाएगा, लेकिन आरक्षण की सीमा अभी भी 50% ही है। इंदिरा साहनी केस के फैसले के मुताबिक अगर कोई 50% की सीमा के बाहर जाकर आरक्षण देता है तो सुप्रीम कोर्ट उस पर रोक लगा सकता है। इसी वजह से ज्यादातर राज्य इस सीमा को खत्म करने की मांग कर रहे हैं।
भाजपा के सहयोगी पार्टी अपना दल (एस) ने भी जातीय जनगणना किए जाने की मांग की है। कहा ओबीसी आबादी का कोई उचित अनुमान नहीं है। इसलिए सरकार को अगली जनगणना जाति के आधार पर करनी चाहिए। जेडीयू के बाद भाजपा के इस सहयोगी ''अपना दल (एस)'' ने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के कल्याण के लिए एक अलग केंद्रीय मंत्रालय और पूरे देश में जाति आधारित जनगणना की मांग की। ताकि समुदाय की सटीक आबादी का पता लगाया जा सकेगा।
बता दें कि केंद्र सरकार यह कदम सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उठा रही है। 5 मई को मराठा आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी की पहचान करने और सूची बनाने के राज्यों के अधिकार को अवैध बताया था। कोर्ट का कहना था कि 102वें संविधान संशोधन के बाद राज्यों को सामाजिक व आर्थिक आधार पर पिछड़ों की पहचान करने और अलग से सूची बनाने का कोई अधिकार नहीं है। ऐसे में सिर्फ केंद्र ही ऐसी सूची बना सकता है और वही सूची मान्य होगी। सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षा और नौकरी के क्षेत्र में मराठा आरक्षण को असंवैधानिक करार दिया था और साथ ही कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि मराठा समुदाय को आरक्षण के कोटा के लिए सामाजिक, शैक्षणिक रूप से पिछड़ा घोषित नहीं किया जा सकता है, यह साल 2018 के महाराष्ट्र राज्य कानून समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मराठा आरक्षण 50 फीसदी सीमा का उल्लंघन है।
सर्वोच्च अदालत के इस फैसले के बाद एक नया विवाद खड़ा हो गया था, क्योंकि मौजूदा समय में ओबीसी की केंद्र और राज्यों की सूची अलग-अलग है। राज्यों की ओबीसी सूची में कई ऐसी जातियों को रखा गया है, जो केंद्रीय ओबीसी सूची में शामिल नहीं हैं। बिहार में बनिया ओबीसी में है, लेकिन उत्तर प्रदेश में वो अपर कास्ट में आते हैं। ऐसे ही जाटों का हाल है। हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों पर भी ओबीसी लिस्ट अलग है।रोड़ जाति भी उप्र में पिछड़ी सूची में है लेकिन केंद्र व हरियाणा में सामान्य में है। केंद्र सरकार इसलिए भी सतर्क है, क्योंकि राज्य की सूची के आधार पर ही कई ऐसी पिछड़ी जातियां हैं, जो राज्य की सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षण संस्थानों के दाखिले में आरक्षण का लाभ पा रही हैं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला लागू होने से इन जातियों को नुकसान होने का खतरा है। महाराष्ट्र में ओबीसी आरक्षण की मांग को लेकर सियासत गरमा गई है। इसके अलावा देश के तमाम राज्यों में कई जातियां हैं, जिनकी ओबीसी में शामिल होने और आरक्षण की मांग लंबे समय से है।
हालांकि, केंद्र की मोदी सरकार ने मराठा आरक्षण पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका भी दाखिल की थी जिसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था, जिसके बाद से ही केंद्र सरकार ओबीसी की सूची पर राज्यों की शक्ति बहाल करने को लेकर कानून बनाने पर विचार कर रही थी। या कहें कि इसके लिए उपयुक्त समय का इंतजार कर रही थी।
ओबीसी की केंद्रीय सूची में मौजूदा समय में करीब 2600 जातियां शामिल हैं। संसद में संविधान के अनुच्छेद 342-ए और 366(26) सी के संशोधन पर मुहर लग जाएगी तो इसके बाद राज्यों के पास फिर से ओबीसी सूची में जातियों को अधिसूचित करने का अधिकार होगा। उत्तर प्रदेश की बात करें तो प्रदेश में इस समय कुल 79 जातियां ओबीसी की सूची में शामिल हैं। लेकिन यूपी सरकार, राज्यों के अधिकार बहाल होते ही (2022 विधानसभा चुनाव से पहले) 39 और जातियों को ओबीसी में शामिल करने की तैयारी में हैं। दरअसल उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव नजदीक है जिससे ओबीसी आरक्षण के मुद्दे पर सियासत और गर्माने के आसार हैं। विपक्षी दल भी इस मुद्दे पर दबाव बनाने लगे हैं। वहीं राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग प्रदेश की 39 जातियों को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करने की तैयारी कर रहा है। इसके लिए आयोग, उप्र सरकार को संस्तुति भेजेगा।
प्रदेश में इस समय कुल 79 जातियां ओबीसी की सूची में शामिल हैं। इनकी आबादी प्रदेश की कुल जनसंख्या का 54 प्रतिशत मानी जाती है। उप्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के चेयरमैन यशवंत सैनी ने बताया कि अब तक उनके पास कुल 70 जातियों के प्रतिविदेन आए थे जिनमें से 39 प्रतिवेदनों को मानकों के आधार पर विचार करने के लिए चयनित किया गया है। इनमें से 24 जातियों की आबादी व अन्य विषयों पर सर्वे करवाया जा चुका है। सर्वे में आए तथ्यों पर विश्लेषण किया जा रहा है।
इसके अलावा 15 अन्य जातियों का अभी सर्वे करवाया जाना बाकी है। सर्वे पूरा होने के बाद इन जातियों को भी ओबीसी की सूची में अधिसूचित करने पर निर्णय लिया जाएगा। सामाजिक न्याय समिति ने 2019 में यूपी में ओबीसी जातियों की आबादी की रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी। यह रिपोर्ट हुकुम सिंह कमेटी पर आधारित बताई जा रही है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, उप्र में जिन जातियों को ओबीसी में शामिल किया जा सकता हैं उनमें भूर्तिया, अग्रहरि, दोसर वैश्य, जैसवार राजपूत, रूहेला, मुस्लिम शाह, मुस्लिम कायस्थ, हिन्दू कायस्थ, बर्नवाल, कमलापुरी वैश्य, कोर क्षत्रिय राजपूत, दोहर, अयोध्यावासी वैश्य, केसरवानी वैश्य, बागवान, ओमर बनिया, माहौर वैश्य, हिन्दू भाट, भट्ट, गोरिया, बोट, पंवरिया, उमरिया, नोवाना, मुस्लिम भाट शामिल हैं। वहीं विश्नोई, खार राजपूत, पोरवाल, पुरूवार, कुन्देर खरादी, बिनौधिया वैश्य, सनमाननीय वैश्य, गुलहरे वैश्य, गधईया, राधेड़ी, पिठबज जातियों के लिए सर्वे होगा। कुल मिलाकर अब देखना यही होगा कि राजनीतिक दल किस तरह ओबीसी जातियों को अपने चुनावी लाभ के लिए भुनाते हैं या फिर इस पूरी कवायद का कुछ लाभ ओबीसी जातियों (समाज) को भी मिल पाता है या नहीं?
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