ईद मुबारक: हरिदास का महातीर्थ एवं परम बलिदान

Written by Amir Rizvi | Published on: July 21, 2021
हरिदास ने अपने परिवार और अपने घर की अधिकतर ज़िम्मेदारी पूरी कर ली थी.


zamzam well

उसकी माँ शान्ति-देवी की इच्छा थी कि वो एक दिन महातीर्थ करें.

इसलिए हरिदास निकल पड़ा अपनी माँ को लेकर.

उस पावन नगरी में प्रवेश से पूर्व, मन एवं तन की शुद्धि के लिए पवित्र कुएं के पानी से स्नान करना आवश्यक है.

उसके बाद बिना सिली हुई धोती और श्वेत सूती कपड़े का, बिना सिला हुआ अंगरखा/गमछा हरिदास ने पहना. और उसकी माँ शांति-देवी ने भी श्वेत साड़ी धारण कर ली.

अब जब तक हरि के द्वार की परिक्रमा और तीर्थ की प्रक्रिया समाप्त नहीं हो जाती है, तब तक माँ-बेटे को मन के शुद्धिकरण के लिए तीर्थ के निम्नांकित नियमों का पालन करना होगा:

किसी भी दिखाई देने वाले छोटे-बड़े जीव को किसी प्रकार की क्षति न पहुँचाना
किसी के प्रति बुरा न सोचना
दर्पण में अपना चेहरा न देखना (ताकि ध्यान स्वयं पर केंद्रित न हो)
किसी प्रकार का श्रृंगार न करना, सुगंध/सुगन्धित तेल न लगाना/नाखून/बाल न काटना
गुस्सा न करना, किसी की चुगली न करना, दुश्मनों की भी बुराई न करना, किसी को क्षति पहुँचाने का विचार मन में न लाना
मन में विवाह/दाम्पत्य/कामुकता वाले विचार न लाना
बिना मतलब पेड़-पौधों को भी क्षति न पहुँचाना... इत्यादि



इसके बाद केवल भगवान को ध्यान में रखते हुए, ईश्वर-के-घर की सात बार परिक्रमा सबसे कठिन कार्य था, क्योंकि लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ में बूढ़ी माँ के साथ ईश्वर के घर तक पहुंचना कठिन है. लगभग 2 मील दूर से ही परिक्रमा करना अत्यंत कठिन है. एक बार परिक्रमा में लगभग दो घंटे से अधिक लग रहा था. ईश्वर का घर भीड़ में दिखाई नहीं दे रहा था. इसलिए फ़र्श पर बने निशान से पता चला कि एक बार की परिक्रमा हो गई है. बूढी माँ केवल दो परिक्रमा के बाद थक गई थीं. इसलिए पहले दिन केवल दो परिक्रमा पूरी की जा सकीं. रात में एक तम्बू में शरण लिए हुए श्रद्धालु थे, हरिदास ने देखा कि माँ का पाँव सूज गया है. दूसरे दिन बाकी पांच परिक्रमा कैसे करेंगी? हरिदास ने एक जानकार से पूछा तो पता चला, कि हरिदास अपनी सात परिक्रमा करने के पश्चात, माँ के लिए भी पांच परिक्रमा कर सकता है.

दूसरी सुबह माँ को तम्बू में छोड़ कर हरिदास परिक्रमा करने निकल पड़ा. सात परिक्रमा करने के बाद, अपनी माँ के लिए भी परिक्रमा करते करते हरिदास थक चुका था.

अब बारी थी मंदिर के पास के पवित्र पानी से नहाने की और पवित्र पानी पीने की. प्राचीन परंपरा धीरे धीरे एक सांकेतिक विधि रह गई है, लाखों श्रद्धालु नहा तो नहीं सकते, इसलिए वे पवित्र पानी को अपने शरीर पर छिड़क लेते हैं. और एक घूँट पानी पी लेते हैं.

ये महातीर्थ बलिदान का तीर्थ कहलाता है, इसमें अनेक प्रकार की बलियाँ दी जाती हैं, कुविचार और अहंकार को त्यागना पड़ता है. अपने श्रृंगार की बलि दी जाती है, अपने केश की बलि सिर मुंडवा कर दी जाती है. पहले की तरह अब महिलाएं पूरे बाल नहीं, केवल सांकेतिक, बाल का एक टुकड़ा काट लेती हैं. माँ ने यही किया, मगर इन दिनों हरिदास की दाढ़ी बढ़ चुकी थी और सिर के बाल मुंडवाने के बाद वो बिलकुल बौद्ध भिक्षुक जैसा लग रहा था.

पशुबलि की प्रक्रिया बाकी थी, रास्ते में तपस्या में विघ्न डालने वाले राक्षस/पिशाच को सांकेतिक रूप से कंकर मारा गया.

बलि स्थान पर कई श्रद्धालुओं ने मिलकर एक पशु (बकरे/भेड़) की बलि दी. एक पशु को अनेक श्रद्धालु मिलकर बलि दे सकते हैं, हर किसी को एक एक पशु की बलि देना अनिवार्य नहीं है. क्योंकि ये तीर्थ केवल एक सांकेतिक विधि है. परम त्याग और परमात्मा से जुड़ने की विधि.

अब महातीर्थ पूर्ण हो चुका था. गाँव वालों के लिए एक प्लास्टिक के डब्बे में पवित्र कुएं का जल लेकर शांति-देवी और पुत्र हरिदास वापस आ रहे थे.

भगवान के घर का दर्शन एक अद्भुत और अभूतपूर्व अनुभव था... न जाने कैसे मन भावुक हो जाता है, अश्रु थामे नहीं थमते, मन प्रार्थना और विनती करते नहीं थकता, हर किसी के लिए प्रार्थना, शांति के लिए विनती, मंगल और कुशलता के लिए दुआएं, दोस्तों, सम्बन्धी, देश, विश्व, प्रकृति, उद्भिज, प्राणी, प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष, जीवन, पुनर्जन्म, भविष्य, आत्मा सबके लिए प्रार्थना, सब की शांति के लिए दुआएं करने वाले मंत्रोचारण करते करते भी ऐसा व्यतीत होता है जैसे प्रार्थना पूर्ण नहीं हो पाई है.

वापसी में शांति-देवी ने अपने सुपुत्र हरिदास से कहा, आज तेरे पिता होते तो उन्हें बहुत प्रसन्नता होती... और यदि इतनी भीड़ नहीं होती तो मैं भी उस श्याम-शिला को छू सकती, उसे चूम सकती जिसे भगवान के दूतों ने चूमा है.

और एक कमी खल रही थी उस स्थान के दर्शन की, जहाँ पर हजारों वर्ष पूर्व भगवान के प्रतिनिधि "बहुराज्य-बहुजातीय के पिता" के पांव का चिन्ह आज भी सुरक्षित है.



जब हरिदास और शान्ति-देवी अपने गाँव पहुंचे तो गाँव वालों का तांता लग गया, हर कोई माँ-बेटे के हाथ चूम रहा था... चूमते भी क्यों नहीं, इन हाथों ने हरि के द्वार को स्पर्श किया है!

हरिदास= अब्दुल्लाह

शांति-देवी= सलीमा-ख़ातून

बहुराज्य-बहुजाती के पिता= इब्राहीम

तपस्या में विघ्न डालने वाले राक्षस/पिशाच= शैतान

भगवान का घर= काबा

श्याम-शिला= संग-ए-असवद

बिना सिला हुआ तीर्थ की धोती एवं गमछा= एहराम

पवित्र कुआँ और उसका जल= ज़मज़म का पानी (आब-ए-ज़मज़म)

सिर्फ नाम बदल देने से (हिंदी में अनुवाद कर देने से), पूरी कथा किसी भी धाम के तीर्थ की हो सकती है.
कितनी समानता है, हिन्दू बौद्ध जैन एवं मुस्लिम तीर्थ की विधि में.
पवित्र पानी, सात बार परिक्रमा, केश का बलिदान, धोती/साड़ी जैसा पहनावा, जीव हत्या न करना, (अंत में पशु बलि देना)
कहीं न कहीं सारे धर्मों के तार जुड़े हुए हैं, बस यही दर्शाना चाहता था.


(नोट: कृपया इस लेख को किसी हरि दास नामक व्यक्ति या किसी हरि के द्वार नामक स्थान से जोड़कर न देखें. ईश्वर के घर को अरबी भाषा में काबा कहते हैं, लेखक ने वहां के द्वार को ईश्वर का द्वार या हरिद्वार लिखा है. जिस प्रकार से हरि के दास को अरबी में अब्द उल्लाह = अब्दुल्लाह कहते हैं. )


~अमीर रिज़वी 

Related:
पसमांदा आंदोलन का संक्षिप्त इतिहास
उर्दू अदब का जातिवादी चरित्र

बाकी ख़बरें