पसमांदा आंदोलन का संक्षिप्त इतिहास

Written by फ़ैयाज़ अहमद फैज़ी | Published on: June 3, 2021
पसमांदा उर्दू भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है “जो पीछे रह गया है।” पसमांदा शब्द मुस्लिम धर्मावलंबी देशज आदिवासी, दलित और पिछड़े के लिए बोला जाता है। पसमांदा आंदोलन का इतिहास बाबा कबीर से शुरू होता है। बाबा कबीर वह पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने इस्लाम/मुसलमान में व्याप्त जातिवाद, ऊँच नीच पर मुखरता से आवाज़ उठाई, वो निडर होकर अशराफ उलेमा की आलोचना करते हैं फिर आगे बढ़कर पूरे भारतीय समाज में व्याप्त जातिवाद की बुराई पर चोट करते हैं इस प्रकार वो सिर्फ इस्लाम/मुसलमान समाज के ही नही वरन पूरे भारतीय समाज के लिए जाति उन्मूलन के कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हैं लेकिन बाबा कबीर की आवाज़ और आंदोलन को कुंद करने के लिए उनके धार्मिक हैसियत को खत्म करना ज़रूरी समझा गया, जिसके लिए अशराफ उलेमा ने उनको कुफ्र का फतवा दिया फिर कहा कि वो तो मुसलमान ही नहीं, ऐसा करके अशराफ उन्हें मुस्लिम समाज के घेरे से बाहर करने की कोशिश करता है ताकि पसमांदा मुसलमानो पर उनकी बात का असर ना हो और इस्लाम/मुसलमान में जाति व्यवस्था जस की तस बनी रहे और स्वघोषित विदेशी अशराफ के वर्चस्व पर कोई आँच ना आए।



बहुत सालों बाद बाबा कबीर की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए मौलाना अली हुसैन आसिम बिहारी (1890-1953) ने बाजाब्ता सांगठनिक रूप में एक अंतरराष्ट्रीय संगठन (जमीयतुल मोमिनीन/ मोमिन कांफ्रेंस) की स्थापना की जो भारत के अलावा नेपाल, श्रीलंका और वर्मा तक फैला हुआ था।

आसिम बिहारी से पहले बंगाल में हाजी शरीयतुल्लाह (1761-1840) के नेतृत्व में फरायज़ी आंदोलन उभर कर सामने आता है, फरायजी आंदोलन मुख्यतः कामगार जातियों  और किसानों का आंदोलन था इस आंदोलन में हिन्दू और मुस्लिम समाज के निचले तबके के लगभग सभी कामगार जातियों के लोग सम्मिलित थे। फरायज़ी आंदोलन हाजी शरीयतुल्लाह के बाद दादू मियां (1819-1862) और नोया मियां (1852-1884) के नेतृत्व में आगे बढ़ते हुए देश के विभाजन तक किसी न किसी रूप में सक्रिय रहा। हाजी शरीयतुल्लाह के जातीय उन्मूलन के इस आंदोलन में एक बड़ा वर्ग बुनकर समाज से था जिस कारण अशराफ लोगों ने उन्हें "जुलाहों का पीर" कह कर बदनाम किया।

पंजाब (अब पाकिस्तान) के इलाके में अगरा सहूतरा (1905-2006) ने भी मुस्लिम समाज से जातीय उन्मुलन की आवाज बुलंद की। उन्होंने एक संगठन "अंजुमन दीन दाराँ" के नाम से बनाया था, पाकिस्तान बनने के बाद इसका नाम "अंजुमन मुस्लिम शेखाँ" हो गया, इसी नाम से एक पत्रिका भी निकाला करते थे, फिर इसका नाम बदल कर "देहाती मज़दूर तंज़ीम" कर दिया गया। मज़दूर किसान पार्टी से वैचारिक समानता के आधार पर संयुक्त सम्मेलन कर मज़दूर और किसानों की आवाज़ भी उठाई। अगरा सहूतरा ने लगभग 80 के आस पास स्कूल भी खुलवाया था। मेजर इसहाक ने आपको आगा खान का नाम दिया था इसलिए आप आगा खान सहूतरा के नाम से भी जाने जाते हैं।

आसिम बिहारी भारत के वो पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने प्रौढ़ शिक्षा को बाकायदा एक पंचवर्षीय योजना बना कर क्रियान्वित किया, पसमांदा मुस्लिम महिलाओं के लिए स्कूल खुलवाए, जातिवाद पर व्यक्तिगत और सांगठनिक रूप में चोट किया, देश की आज़ादी में महती भूमिका निभाई, मुस्लिम साम्प्रदायिकता के विरुद्ध दीवार बनकर खड़े हुए और भारत विभाजन के सबसे पुरजोर विरोधी रहे। उस समय अन्य पसमांदा जातियों के संगठन भी सक्रिय थे जिनमें अब्दुस्समद और अब्दुल लतीफ के नेतृत्व वाली जमीयतुल राईन, भैय्या जी राशिदुद्दीन के नेतृत्व वाली जमीयतुल कुरैश आदि प्रमुख थे।

आसिम बिहारी ने व्यवहारिक रूप से सभी पसमांदा जातियों की एकता पर महती कार्य अंजाम देते हुए उस समय के सभी छोटे-बड़े पसमांदा जातियों के संगठनों के अस्तित्व को वैधता देते हुए “बोर्ड ऑफ मुस्लिम वोकेशनल एंड इंडस्ट्री क्लासेज” की स्थापना कर एक संयुक्त आंदोलन का रूप दिया।

आसिम बिहारी शुरू में संगठन को मुख्य धारा की राजनीति में प्रत्यक्ष हिस्सा लेने से दूर रखना चाहते थे और संगठन के सामाजिक स्वरूप को ही आगे बढ़ाना चाहते थे ताकि समाज के जागरूकता का कार्यक्रम बिना किसी अड़चन के सुचारू रूप से चलता रहे। लेकिन कार्यकर्ताओं के दबाव और परिस्तिथयों की विवशता के कारण उन्होंने पसमांदा जातियों का एक संयुक्त राजनैतिक दल “मुस्लिम लेबर फेडरेशन” का प्रस्ताव इस शर्त के साथ माना कि मूल संगठन का सामाजिक आंदोलन प्रभावित ना हो। देश की स्वतन्त्रा के पहले होने वाले दोनों चुनावो में हिस्सा लिया और अप्रत्याशित सफलता भी प्राप्त की। परन्तु इसके बावजूद भी संगठन के सामाजिक रूप को ही वरीयता देते रहे।
 
लेकिन आसिम बिहारी के मृत्यु के बाद उनके संगठन जमीयतुल मोमिनीन (मोमिन कांफ्रेंस) के दूसरे स्तर के नेताओ में वो दूरदृष्टि नहीं थी, और सत्ता में भागेदारी को ही प्रमुखता दी जिसकी वजह से संगठन के सामाजिक ढांचे को जबरदस्त चोट पहुँची। संगठन से जुड़े लोग तो सत्ताधारी कांग्रेस से गठबंधन बनाकर सत्ता में तो हिस्सेदार हो गए लेकिन प्रथम पसमांदा अन्दोलन का सामाजिक आधार सिकुड़ता चला गया और एक वैभवशाली अंतरराष्ट्रीय स्तर का पसमांदा आंदोलन अंसारियों (बुनकरों) का कमज़ोर राजनैतिक अन्दोलन बनकर दिल्ली और बिहार के एक कमरे तक सिमट गया। आज भी मोमिन कॉन्फ्रेंस नाम से अनेकों संगठन आप को मिल जाएंगे। इस प्रकार जिस पसमांदा आंदोलन को आसिम बिहारी ने अपने खून पसीने से सींचा था वो कुछ लोगो की गलत नीतियों, स्वार्थ का शिकार हुआ।

अशराफ द्वारा एक ओर पसमांदा समाज को मसलक/फ़िरक़ा के विभेद में बाँट कर उनकी एकता छिन्न भिन्न करना, और स्वयं के स्वार्थ पूर्ति के लिए पसमांदा समाज को “धर्म और धार्मिक एकता” के धोखे की नीति में उलझाये रखना था, आंदोलन के नेताओं के एक बड़े वर्ग को जाति विशेष (अंसारी) के महान नेता और फिर “पूरे मुस्लिम समाज का नेता होने के झांसे” में रखने के कारण प्रथम पसमांदा आंदोलन समय से पहले ही वीरगति को प्राप्त हुआ।

जब प्रथम पसमांदा आंदोलन जमीयतुल मोमिनीन (मोमिन कॉन्फ्रेंस) अपने मरणासन्न स्तिथि में था ठीक उसी समय महाराष्ट्र से पसमांदा अन्दोलन को एक नया नेतृत्व शब्बीर अन्सारी के रूप में मिलता है जो महाराष्ट्र राज्य मुस्लिम ओबीसी आर्गेनाइजेशन (बाद में आल इंडिया मुस्लिम ओबीसी आर्गेनाइजेशन) नामक संगठन बनाकर पसमांदा समाज की उम्मीद को आगे बढ़ाते हुए मण्डल कमीशन को लागू करवाने की मुहिम में पसमांदा समाज का प्रतिनिधित्व बनकर उभरता है। मण्डल कमीशन लागू होने के बाद भी महाराष्ट्र में ओबीसी की लिस्ट में अधिकतर पसमांदा जातियों को शामिल नही किया गया था, अन्सारी जी ने इसके लिए जी-तोड़ मेहनत की, पूरे देश में जगह-जगह सम्मेलन, धरना प्रदर्शन आयोजित किए। इस कार्य में उनके दो बड़े सहयोगी रहे एक विलास सोनवाने और दूजे फ़िल्म स्टार दिलीप कुमार, आखिरकार कामयाबी मिलती है और महाराष्ट्र सरकार पसमांदा की लगभग सभी जातियों को ओबीसी की लिस्ट में शामिल कर लेती है।

महाराष्ट्र के बीड जिले के रहने वाले इकबाल पेंटर (आयु लगभग 90 वर्ष) अपने संगठन "मुस्लिम भटके विमुक्त जाति जमाती" द्वारा मराठवाड़ा क्षेत्र में लंबे समय से सक्रिय रहे हैं, पसमांदा आदिवासी जनजातियों के उत्थान में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, उनके द्वारा लिखित किताब "न्याय प्रतीक्षित मुस्लिम अनुसूचित जाति जमाती भटके विमुक्त समाज" जो 2015 में प्रकाशित हुई उस क्षेत्र के पसमांदा जातियों पर एक मजबूत दस्तावेज है जिसमें लगभग 70 से 80 पसमांदा (ओबीसी, एससी एसटी) जातियों की चर्चा है।

असम के बराक घाटी के फैय्याजुद्दीन अहमद (1929-1991) क्षेत्र विशेष के पसमांदा जातियों को संगठित कर 1960 ई० में "निखिल कछार मुस्लिम फिशरमैन फेडरेशन" नामक संगठन की स्थापना किया और उनके उत्थान की लड़ाई लड़ी, जिस कारण अशराफ उलेमा ने उन पर फतवा लगा कर उनको उनके परिवार के साथ समाज से पूरे 2 वर्षो के लिए बहिष्कृत कर दिया। उन्हें और उनके परिवार को नाव पर चढ़ने की मनाही थी और किसी भी मछुवारे से मछली खरीदने पर प्रतिबंध था। लगातार दो वर्षो तक सुदूर ग्रामीण क्षेत्र में गरीबी लाचारी से लड़ते हुए अपने परिवार के लालन पालन के साथ साथ पसमांदा समाज की लड़ाई लड़ते रहे। वो एक गरीब किसान परिवार में पैदा हुए थे, शिक्षा मात्र 8 वी तक प्राप्त की थी, लेकिन वो जानते थे कि शिक्षा ही एकमात्र साधन है जिससे वो समाज को आगे बढ़ा सकते हैं जिसके लिए उन्होंने गांव में एक स्कूल खोला था और स्वयं अध्यापक का काम अंजाम देते थे। बाढ़ का प्रकोप इसमें बड़ी बाधा पहुंचाता था।

उन्होंने अपने संघर्ष पर एक किताब "आमी अमार समाजे जन्नो की कोरियाछी" (मैंने अपने समाज के लिए क्या किया है)  भी लिखी है।

इसके बाद पिछली सदी की आखिरी दहाई में पसमांदा की एक अन्य जाति राईन (कुंजड़ा/कबाड़ी) से पसमांदा आंदोलन का नेतृत्व डॉ० एजाज़ अली (सर्जन) के रूप में उभरता है, जिन्होंने बैकवर्ड मुस्लिम मोर्चा (बाद में यूनाइटेड मुस्लिम मोर्चा) की स्थापना की, जो बिहार सहित देश के अन्य भाग को प्रभावित करता है। इसी क्रम में पत्रकार अली अनवर की किताब “मसावात की जंग” प्रकाशित होती है जो आसिम बिहारी के दिवारी मोमिन, अल इकराम, अलमोमिन, मोमिन गैज़ेट के बाद एक मज़बूत दस्तावेज साबित होती है। अली अनवर “पसमांदा आवाज़” नामक पत्रिका का भी बहुत समय तक लगातार प्रकाशन करते रहे। उसी समय पसमांदा आंदोलन से जुड़े लोगों ने अली अनवर के नेतृत्व में पसमांदा शब्द का प्रतिपादन करते हुए पसमांदा मुस्लिम महाज़ की स्थापना किया जो बाद में चल कर आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ कहलाया।

सन् 2007 में मौलाना मसूद आलम फलाही द्वारा लिखित किताब “हिंदुस्तान में जात-पात और मुसलमान” प्रकाशित हुई जो पहली बार इस्लाम में पेवस्त जातिवाद के धार्मिक पृष्टभूमि को पूरी तरह बेनकाब कर दिया हालांकि किताब उर्दू में थी फिर भी बड़ी तेजी से पसमांदा के बीच लोकप्रिय हुई और पहली बार जातिवाद के इस्लामी आधार पर सवाल उठाने के लिए लोगों को ज़ुबान मिली।

इस समय देश में पसमांदा के कई एक सामाजिक संगठन सक्रिय है जिनमें कुछ पसमांदा जातियों के अलग-अलग संगठन है तो कुछ पूरे पसमांदा समाज को लेकर चल रहे हैं। इस क्रम में एक नाम ग़ाज़ीपुर, उ०प्र० से डॉ. एम० इक़बाल का जुड़ता है। अपनी तमाम गुरबत, शारीरिक कमज़ोरियों और परेशानियों के बाद भी डॉ. इक़बाल पिछले 30 वर्षों से कम्युनिस्ट, बहुजन और पसमांदा आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाते रहे हैं। उन्होंने ‘मेरी आवाज सुनो’ नामक पुस्तिका का लेखन किया, पसमांदा मुस्लिम मोर्चा के संस्थापक अध्यक्ष रहे हैं और ‘पसमांदा पहल’ पत्रिका के मुख्य सम्पादक हैं। इसी कड़ी में एक और नाम क्रांति-भूमि बिहार के दरभंगा निवासी डॉ० अय्यूब राईन का नाम जुड़ता है जो 2009 ई० से "जर्नल ऑफ सोशल रियलिटी" नामक अन्तर्राष्ट्रीय द्विभाषी रिसर्च पत्रिका की संस्थापक सम्पादक के रूप में पसमांदा विमर्श को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठा रहे हैं, पसमांदा दलित जातियों पर अब तक का सबसे गहन शोध पर आधारित उनकी पुस्तक "दलित मुसलमान" भाग-1 (2013) और भाग-2 (2018), पसमांदा दलित जाति पमारिया पर आधारित शोध पुस्तक "पमारिया" (2015) प्रकशित हो चुकी है, "अंसारी नगिना" नामक शोध पुस्तक भी प्रकशित होने वाली है। राईन जी पसमांदा दलितों के उत्थान के लिए साल 2012 ई० में गठित "दलित मुस्लिम समाज" के संयोजक भी हैं, यही नहीं विगत दो वर्षों से उनका एक अनूठा प्रयोग "दलित मुसलमानों का मेला" भी लगातार आयोजित हो रहा है जिसके माध्यम से पसमांदा दलित जातियों के विमर्श को मुख्यधारा में स्थान दिलवाने की महत्वपूर्ण कोशिश जारी है। डॉ० एजाज़ अली की यूनाइटेड मुस्लिम मोर्चा, शब्बीर अंसारी की ऑल इंडिया मुस्लिम ओबीसी आर्गेनाइजेशन और अली अनवर की आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ भी तमाम उतार चढ़ाव के बाद अभी भी अपनी सक्रियता बनाये हुए हैं। साथ ही साथ मरीन (समुद्री) इंजीनियरिंग के विद्यार्थी फ़ज़ल सिद्दीकी, और अब्दुल्लाह मंसूर जैसे नौजवान "द पसमांदा" एवं "पसमांदा डेमोक्रेसी" नामक ऑनलाइन वेब पोर्टल एवम् यू ट्यूब चैनल के माध्यम से पसमांदा विमर्श को लगातार मुख्य धारा के मीडिया के केंद्र में ला रहे हैं।

आभार: आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ के राष्ट्रीय महासचिव वकार अहमद हवारी साहब का धन्यवाद जिनके वैचारिक निर्देशन का लेख को लिखने में महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

(लेखक- अनुवादक, सामाजिक कार्यकर्ता और पेशे से चिकित्सक हैं।)

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