उर्दू मुख्यतः अशराफ मुस्लिमों की भाषा रही है। जिसे वो अपने राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि के लिए पूरे मुसलमानो की भाषा बना कर प्रस्तुत करता है, जबकि पसमांदा की भाषा क्षेत्र विशेष की भाषाएं, अपभ्रंश भाषाएं एवं बोलियाँ रही हैं। अशराफ अपनी इस नीति में कामयाब भी रहा है और आज भी पसमांदा की एक बड़ी आबादी उर्दू से अनभिज्ञ होने के बाद भी उर्दू को ही अपनी भाषा बताती है, यहाँ तक कि कर्नाटक के कन्नड़ भाषी पसमांदा मुसलमान भी उर्दू को ही अपनी भाषा बताते हैं, बंगाल,पंजाब तक का यही हाल है। केरला और तमिलनाडु में स्थिति कुछ अलग है। अशराफ ने अपने पाकिस्तान आंदोलन के दौरान भी उर्दू को खूब यूज़ किया। उर्दू पाकिस्तान की सरकारी ज़ुबान होने के बावजूद भी लगभग 7% लोगो की मातृभाषा है और किसी भी क्षेत्र विशेष की भाषा नही है। भारत में भी लगभग यही वस्तु स्थिति है।
अशराफ ने कैसे पसमांदा के ज़ेहन (मन-मस्तिष्क) में उर्दू को पेवस्त किया इसकी बानगी इस उद्धरण से समझी जा सकती है
"एक बुजुर्ग ने सपने में अल्लाह ता'अला को उर्दू बोलते हुए देखा, उन्होंने पूछा," या अल्लाह आपने उर्दू कैसे सीखी? आप तो सुरयानी, इब्रानी और अरबी बोलते हैं। अल्लाह ने कहा, "मैंने यह भाषा शाह रफीउद्दीन, शाह अब्दुल क़ादिर, थानवी, देवबन्दी, मिर्ज़ा हैरत, डिप्टी नज़ीर से बात-चीत के दौरान सीखी।" (1. पेज 61, मबला-ई-वहाबियत को गुरेज़ 2. पेज 198, इस्लामिक रिवाइवल इन ब्रिटिश इंडिया: देवबन्द 1860-1900, बी०डी० मेटकाफ)
चूँकि उर्दू अशराफ की भाषा रही है इसलिए अशराफ के सभ्यता और संस्कृति की प्रतिनिधि भी रही है। इस लेख में अशराफ के जातिवादी नज़रिये की अक्कासी करती हुई उर्दू अदब (साहित्य) से सम्बंधित कुछ प्रसिद्ध साहित्यकारों और उनकी रचना पर विवेचना करने की कोशिश की गई है।
“नुक़्त-ए-पर्दाज़ी से इज़लफों को क्या
शेर से बज्जाजो, नद् दाफों को क्या”
मीर तक़ी मीर
नुक़्त-ए-पर्दाज़ी=किसी पॉइंट की आलोचना
इज़लाफ़ो=जिल्फ़ का बहुबचन, इज़लाफ का बहुबचन। अरबी में इसे जमा-उल-जमा (बहुबचन का बहुबचन) कहते हैं।
जिल्फ़= नीच, असभ्य। इस्लामी फिक़्ह (विधि) में अज़लाफ़ कुछ ख़ास जातियों को कहते हैं। भारत सरकार के ओबीसी और एसटी की लिस्ट में ज़्यादातर अज़लाफ जातियां हैं।
बज्जाज= कपड़ा बेचने वाले
नाद् दाफ़ = रूई धुन ने वाले, धुनिया मंसूरी
अर्थात:-
मीर तक़ी मीर कहते हैं कि साहित्य (अदब) की आलोचना करना सिर्फ अशराफ* लोगों का काम है। उसे नीच और असभ्य लोग क्या जानें, शेर को समझना बज्जाज और धुनिओ के बस का नहीं है।
* शरीफ{बड़ा} का बहुबचन, मुस्लिम उच्च वर्ग
"पानी पीना पड़ा है पाइप का
हर्फ़ पढ़ना पड़ा है टाइप का
पेट चलता है आँख आई है
शाह एडवर्ड की दुहाई है"
---अकबर इलाहाबादी
पृष्ठभूमि:
ज़मींदारों के यहाँ पानी भरने वाले हुआ करते थे जो पानी कुआँ से लाते थे। और उन्हें पानी की बहुतायत थी लेकिन सब के साथ ऐसा नहीं था। कुआँ भी आम तौर से पसमांदा (पिछड़े, दलित और आदिवासी) चाहे वो किसी धर्म के मानने वाले रहे हों, के पहुँच से बाहर हुआ करता था कुछ के लिए तो बिलकुल वर्जित था। और पसमांदा को पानी उनके ज़रूरत से बहुत कम प्राप्त था उस पर ताना ये कि "बहुत गंदे रहते हैं" लेकिन जब अंग्रेज़ों ने पानी को आम लोगों के लिए पाइप के ज़रिये पहुँचाने का इंतेज़ाम किया तो पसमांदा को थोड़ी बहुत सहूलत हो गयी जिसका विरोध अकबर इलाहाबादी ने अपने चिर परिचित व्यंगात्मक अंदाज़ में यूँ बयान किया। कुछ यही किस्सा छापे खाने और टाइप मशीन का भी था।
अर्थात:
पाइप के पानी पीने से पेट ख़राब हो रहा है और टाइप की लिखावट पढ़ने से आँख ख़राब हो रहा है ऐ राजा एडवर्ड आप की दुहाई देता हूँ कि आप इस से हमें छुटकारा दें।
“अब ना हिल मिल है ना वो पनिया का माहोल है
एक ननदिया थी सो वो भी अब दाखिले स्कूल है"
पश-ए-मंज़र(पृष्टभूमि)-:
उस ज़माने में एक बहुत ही मशहूर पुर्बी (भोजपुरी) के लोकगीत का मुखड़ा था-
"हिलमिल पनिया भरन को जाये रे ननदिया"
उस दौर में पसमांदा की औरतें खुद के लिए भी और स्वयंघोषित विदेशी अशराफ के घरों के लिए भी कुआँ और तालाबों से पानी भर के लाया करती थीं। पनघट के रास्ते में ये लोग (सैयद शैख़ मुग़ल तुर्क पठान आदि) पानी भरने जाने वाली पसमांदा औरतों का हिलमिल देख के लुत्फ़ अन्दोज़ (प्रसन्नचित) हुआ करते थे। ज़ाहिर सी बात है इनके ज़िम्मे कोई काम तो था नहीं, सारा मेहनत मशक़्क़त का काम तो रैय्यतों (सेवको/पसमांदा) के सुपुर्द हुआ करता था। बहरहाल जब सामाजिक बदलाव हुए और पसमांदा में भी शिक्षा और धन आने लगा और उन्होंने अपनी औरतों को भी तालीम के लिए स्कूल भेजने लगे तो पनघट सूना हो गया। इस बदलाव से दुखी अकबर इलाहाबादी ने अपनी व्यथा को कुछ यूँ वर्णन किया।
अर्थात-:
इस नए बदलाव की वजह से हमारे मनोरंजन का अब ये साधन भी खत्म होने लगा। अब पहले की तरह वो हिलमिल देखने को नहीं मिल रहा है और एक ननदिया भी थी तो वो भी अब स्कूल में चली गयी।
"बेपर्दा नज़र आयीं जो कल चन्द बीबियां
अकबर ज़मीं में ग़ैरत-ए-क़ौमी से गड़ गया
पूछा जो आप का पर्दा वह क्या हुआ
कहने लगीं के अक़्ल के मर्दों पे पड़ गया"
बीबी= उच्च वर्ग की मुस्लिम औरतों को ही बीबी कहा जाता है।
क़ौम = उच्च वर्ग के मुस्लिम समाज के लिए बोला जाने वाला शब्द, उस लफ्ज़ का इस्तेमाल कभी भी इस्लाम और आम मुस्लिमों के लिए नहीं होता था।
पश-ए-मन्ज़र(पृष्ठभूमि):-
जब सामाजिक सुधारों के फलस्वरूप अशराफ(मुस्लिम उच्च वर्ग) की बीबियाँ घरो से बाहर निकल के शिक्षा हासिल करने लगीं तब इस बात से अकबर इलाहाबादी को बहुत कष्ट हुआ और वो अपनी क़ौम को शर्म दिलाते हुए इसका विरोध अपने व्यंगात्मक अंदाज़ में कुछ यूँ किया।
अब आप के दिल में ये ख्याल आ रहा होगा कि अकबर इलाहाबादी को सारे मुस्लिमों की औरतों को बे-पर्दा होने का मलाल था। तो जनाब आप ये जान लें कि उस वक़्त पसमांदा (पिछड़े, दलित और आदिवासी) मुस्लिमों की औरतें तो पहले से ही बेपर्दा थीं और अपने रोज़ी रोटी के लिए अशराफ के घरों, गली मोहल्लों और बाज़ारों में आया जाया करती थीं। हज़रत को तो सिर्फ बीबियों के बेपर्दा होने की फ़िक़्र थी।
"यूँ क़त्ल पे, लड़कों के, वो बदनाम ना होता
अफ़सोस कि फ़िरऔन को कॉलेज की ना सूझी"
पश-ए-मन्ज़र (पृष्ठभूमि):-
फ़िरऔन को बताया गया था कि इसराईलियों (बनु इस्राईल जाति) के यहाँ एक मूसा नाम का बच्चा पैदा होगा जो बड़ा होकर तुम्हारी सत्ता और तुम्हे खत्म करेगा। इस बात से डर के फ़िरऔन ने ये आदेश दिया कि इसराईलियो के यहाँ जितने भी बच्चे पैदा हों उनको तुरन्त क़त्ल कर डालो।
अर्थात:-
अकबर इलाहाबादी जी कहते हैं कि अगर फ़िरऔन को स्कूल और कॉलेज के बारे में पहले पता चल गया होता तो वो बच्चों को क़त्ल करने के बजाय उन्हें कॉलेज में भेज देता, फलस्वरूप वो इस तरह बर्बाद हो जाते जो उनकी मौत ही तरह होता और इस तरह वो बच्चों के क़त्ल की बदनामी से भी बच जाता।
यहाँ यें बात गौर करने की हैं कि अकबर इलाहाबादी अपने इस मज़ाकिया शेर के ज़रिये से मॉडर्न एजुकेशन का विरोध कर रहे हैं।
नोट:- वो अलग बात है कि अकबर इलाहाबादी खुद भी मॉडर्न एजुकेटेड थे (जज हो के रिटायर्ड हुए थे) और हज़रत ने अपने बच्चों को कॉलेज क्या लन्दन तक पढ़ने भेजा था। असल ये था कि तालीम आम लोगों (पसमांदा) तक ना पहुंचे।
बुद्धू मियां भी हजरते गांधी के साथ हैं
गो मुश्त-ए-खाक* मगर आंधी के साथ हैं
अर्थात:-
ये मूर्ख आदमी भी देखो गांधी जी के साथ है जबकि इसकी हैसियत एक मुट्ठी मिट्टी से अधिक नहीं और गांधी जैसे व्यक्तित्व के हां में हां मिला रहा है
नोट: अकबर इलाहाबादी ने प्रथम पसमांदा आंदोलन के जनक और स्वतंत्रता सेनानी आसिम बिहारी और गांधी जी से उनके संबंध का मजाक उड़ाते हुए यह शेर कहा था
*मुश्ते खाक= एक मुट्ठी मिट्टी
अल्लामा इक़बाल
उठा के फेक दो बाहर गली में
नई तहज़ीब के अण्डे हैं गन्दे
इलेक्शन मेम्बरी कौंसिल सदारत
बनाये हैं खूब आज़ादी ने फन्दे
(पेज न० 276, बांग-ए-दारा)
पश-ए- मनज़र(पृष्ठभूमि):-
1857 के म्यूटिनी के बाद भारत सीधे तौर से ब्रिटेन सरकार के अधीन हो गया और ब्रिटिश सरकार ने भारत देश में सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनैतिक सुधार शुरू कर दिया, जिसके फलस्वरूप आम लोग खास तौर से पसमांदा(पिछड़े दलित और आदिवासी) लोगों के पास शिक्षा और धन पहुँचने लगा। ये नई स्थिति तथाकथित अशराफ मुस्लिमों को स्वीकार नहीं थी। दूसरी बात यह भी थी की लोकतंत्र से अशराफ के सामंतवाद को सीधा खतरा था इसलिए उसका विरोध करना जरूरी था।
अर्थात:-
इस नयी व्यवस्था के जितने भी सुधार वादी कार्यक्रम (अंडे) हैं वो सब गन्दे हैं उन्हें उठा कर बाहर गली में फेंक दो यानि अपने से दूर कर दो। और लोकतंत्र के जितने भी आयाम हैं सब फांसी के फंदे की तरह हैं जो आजादी के नाम पर बनाया जा रहा है।
एक और जगह लोकतंत्र का मजाक उड़ाते हुए लिखते हैं--
जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिसमें
बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते
स्पष्ट है कि जब गिनती होगी तो पसमांदा और अशराफ दोनों का वोट एक ही गिना जाएगा, जबकि अशराफ का तौल (वजन, सामाजिक असर रसूख) तो पसमांदा से कहीं अधिक है, इसलिए ये गिनती वाला सिस्टम खराब है।
नोट:- हालांकि इक़बाल ने खुद उच्च मॉडर्न एजुकेशन हासिल किया और अपने बेटो को भी कॉलेज की तालीम दिलाई। उनका एक बेटा जावेद इक़बाल पकिस्तान का चीफ जस्टिस भी रह चुका है।
मैं असल का ख़ास सोमनाथी
आबा मेरे लाती व मानाती
है फलसफा मेरे आब व गिल में
पोशीदा है रेशहा-ए-दिल में
तू सैयद-ए-हाशिमी की औलाद
मेरे कफ-ए-खाक ब्राह्मनज़ाद
(पेज न० 12 ज़र्ब-ए-कलीम)
शब्दार्थ/ पश-ए-मंज़र(पृष्ठभूमि)-:
सोमनाथी=सोमनाथ मंदिर का पुजारी
आबा=पूर्वज
लातिये मनाती= लात और मनात के पुजारी,
मक्का के ये दो बहुत मशहूर देवता थे। असल में अरबी में इन्हें ला और मना उच्चारण करते हैं दरअसल अरबी भाषा में वाक्य के आखिर में आने वाले शब्द का "ते" साइलेंट हो जाता है और जब उस शब्द को संज्ञा के रूप में प्रयोग करते हैं तब भी "ते" साइलेंट हो जाता है और उसे "हे" लिखते हैं, जो उच्चारण करते समय और हल्का होकर बिल्कुल गायब सा हो जाता है। जैसे सुरह जो सूरत है और सुन्नत जो सुन्नह है।
फलसफा= फिलोसॉफी, दर्शन
आब= पानी
गिल= मिट्टी
पोशीदा= छुपा हुआ है
रेशा= महीन धागा
रेशाहा-ए-दिल= दिल को बनाने वाले मांस के महीन धागे
सैयद= शाब्दिक अर्थ सरदार, पेशवा, और बड़ा के होते हैं। लेकिन अपने को सैयद कहने वाले का ये दावा है कि वो हज़रत मुहम्मद की बेटी फातिमा के वंशज हैं।
हाशिम=मुहम्मद(स०) के परदादा
कफ= हाथ की हथेली, पैर का तलवा
ख़ाक= मिट्टी(ऐसी मान्यता है कि मनुष्य मिट्टी से बना है)
कफ-ए ख़ाक= मानव शरीर
ज़ाद= बेटा, पुत्र
स्वघोषित विदेशी अशराफ मुस्लिमों द्वारा अपनी श्रेष्ठता (बड़प्पन) के बखान से आहत (ज़ख़्मी) होकर अल्लामा इक़बाल ने अपनी जाति श्रेष्ठता (बड़प्पन) को साबित करते हुए खुद को सनातनी ब्राह्मण बताया।
अर्थात:-
अल्लामा इक़बाल कहते हैं कि असल में, मैं तो सोमनाथ के मंदिर का पुजारी हूँ। मेरे बाप दादा(मेरे पूर्वज) तो ला और मना देवता के पुजारी थे।
मैं तो फ़लसफ़ा के मिट्टी और पानी से बना हूँ जो मेरे दिल की गहराईयो में छुपा हुआ है।
फिर आगे कहते हैं कि अगर तू सैयद है तो होगा हाशिम की नस्ल (जाति) का, जिसका तुझे दावा है, मुझे उस से क्या? मैं भी किसी से कम थोड़े ना हूँ, मेरे भी हाथ पैर की मिट्टी ब्राह्मणों की तरह सवर्ण(खुशरंग) है मैं भी ब्राह्मणपुत्र हूँ।
नोट- इक़बाल ने फ़ारसी में भी कुछ इसी तरह से अपने ब्राह्मण होने को बताया है….
मेरा बीनी कि दर हिन्दोस्तां दीगर नमी बीनी
बरहमन ज़ादये रम्ज़ आशना-ए-रूम व तबरेज़ अस्त
(मुझे देखो कि भारत में मुझ जैसा दूसरा नहीं देखोगे
ब्राह्मणजनित मैं मौलाना रूमी और शम्स तब्रेज़ के रहस्य से परिचित हूँ)
मौलाना रूम और शम्स तबरेज़ तसव्वफ सिलसिले के सूफी थे। और सूफियों का एक अपना रहस्यवाद होता है। जिसकी तरफ इक़बाल ने इशारा किया है कि मैं ब्राह्मण का बेटा होने के बाद भी रूम और शम्स के रहस्यवाद से परिचित हूँ कुल मिला कर अपने को ब्राह्मण और इस्लामी विद्धवान दोनों होने का घमंड प्रकट कर रहे हैं।
यूँ तो सैयद भी हो मिर्ज़ा भी हो अफ़ग़ान भी हो
तुम सभी कुछ हो, बताओ मुसलमान भी हो
पश-ए-मंज़र:-
मिर्ज़ा= मुग़ल अपने नाम के पहले मिर्ज़ा और नाम के बाद में बेग लिखते हैं।
अफ़ग़ान= अफगानिस्तान का रहने वाला
अशराफ द्वारा अपनी श्रेष्ठता (बड़प्पन) के बखान से खिन्न होकर अल्लामा इक़बाल उनको इस्लाम के मसावात की याद दिला कर शर्म दिलाते हुए कहते हैं।
अर्थात:-
अल्लामा कहते हैं कि चलो मैं मान भी लूँ कि तुम सैयद भी हो मुग़ल भी हो और ऊँची जाति के अफ़ग़ान भी हो, लेकिन इस्लाम में तो इस बड़प्पन की कोई हैसियत नहीं और तुम फिर कैसे मुसलमान हो कि अपनी नस्ली (जातिगत) बड़प्पन का बखान दिन रात करते रहते हो। और बड़े शान से अपने नाम के आगे पीछे सैयद मिर्ज़ा जैसे जातिसूचक शब्द (नस्ली बड़प्पन की रौब डालने वाले अलक़ाब) का इस्तेमाल करते हो क्या तुम्हें शर्म नहीं आती?
नोट:- यहाँ इक़बाल ने भी सिर्फ अशराफ की जातियों का ही ज़िक्र किया है, मालूम होता है कि उनके नज़दीक भी पसमांदा मुस्लिम नहीं लगते वर्ना क्या दिक्कत थी कि एक दो पसमांदा जातियों का भी वर्णन करते। वो अलग बात है कि इस्लाम में "कुफु" के नाम पर सारा ऊँच नीच शामिल किया गया है। इस्लाम फिक़्ह (विधि) में नसब व नस्ल (जातिगत) के बड़प्पन को आधार मान कर शादी बियाह करने का हुक्म दिया गया है। देखें इस्लामी फिक़्ह (विधि) में वर्णित अध्याय "निकाह" का पाठ "कुफु"।
ज़रा सा क़तरा कहीं आज जो उभरता है
समन्दरों के ही लहजे में बात करता है
---वसीम बरेलवी
सामाजिक न्याय के संघर्ष के फलस्वरूप जब कुछ तथाकथित निचले तबके के लोग शासन प्रशासन में भागीदार हुए और नए नए निर्णय लेने लगे तो पहले से मुख्यधारा में मौजूद लोगों को भारी पड़ने लगा, ऐसा प्रतीत होता है कि यह शे'र उस ओर इशारा कर रहा है, वैसे भी शायरी को इशारे की जुबान कहते हैं।
1932 में लखनऊ से प्रकाशित होने वाली किताब "अंगारे" में चार ऐसे लोगों की कहानी थी जो अब तक उर्दू अदब में करैक्टर नहीं बन पाये थे यानि हाशिये पर पड़े पसमांदा लोग।
इस किताब का अशराफ वर्ग ने बहुत विरोध किया। फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने इस किताब पर पाबन्दी लगवा दी। 1936 में प्रोग्रेसिव राइटर यूनियन बनने के बाद उर्दू अदब के एक बहुत बड़े हिस्से ने उस वक़्त हो रहे सामाजिक बदलाव का साथ दिया। लेकिन फिर भी अशराफ ने हमेशा ये कोशिश किया की उर्दू को इस्लाम और मुसलमान से जोड़कर इसका धर्मनिरपेक्ष चरित्र (secular character) खत्म करके अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहें। इस प्रकार अपने इसी सोच के तहत पंजाबी और भक्ति के बहुत से अदब (साहित्य,literature) को उर्दू का हिस्सा नहीं बनने दिया हालांकि उनमें से बहुत सी रचनाओं की मूल प्रति नस्तालिक़ (उर्दू की लिपि जिसमे फ़ारसी भी लिखी जाती है) में लिखी गयी थी।
आज भी ये पूरी कोशिश है की उर्दू मुस्लिमों से जुडी रहे और मुस्लिमों की भाषा बनी रहे।
आभार:
(मैं अजमल कमाल, साहित्यकार एवं प्रकाशक, वक़ार अहमद हवारी, राष्ट्रीय महासचिव, आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ का आभार प्रकट करता हूँ जिनके उत्साह वर्धन और दिशा निर्देश के बिना यह लेख नही लिखा जा सकता था।)
फ़ैयाज़ अहमद फैज़ी
(लेखक, अनुवादक, स्तंभकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवम् पेशे से चिकित्सक हैं)
अशराफ ने कैसे पसमांदा के ज़ेहन (मन-मस्तिष्क) में उर्दू को पेवस्त किया इसकी बानगी इस उद्धरण से समझी जा सकती है
"एक बुजुर्ग ने सपने में अल्लाह ता'अला को उर्दू बोलते हुए देखा, उन्होंने पूछा," या अल्लाह आपने उर्दू कैसे सीखी? आप तो सुरयानी, इब्रानी और अरबी बोलते हैं। अल्लाह ने कहा, "मैंने यह भाषा शाह रफीउद्दीन, शाह अब्दुल क़ादिर, थानवी, देवबन्दी, मिर्ज़ा हैरत, डिप्टी नज़ीर से बात-चीत के दौरान सीखी।" (1. पेज 61, मबला-ई-वहाबियत को गुरेज़ 2. पेज 198, इस्लामिक रिवाइवल इन ब्रिटिश इंडिया: देवबन्द 1860-1900, बी०डी० मेटकाफ)
चूँकि उर्दू अशराफ की भाषा रही है इसलिए अशराफ के सभ्यता और संस्कृति की प्रतिनिधि भी रही है। इस लेख में अशराफ के जातिवादी नज़रिये की अक्कासी करती हुई उर्दू अदब (साहित्य) से सम्बंधित कुछ प्रसिद्ध साहित्यकारों और उनकी रचना पर विवेचना करने की कोशिश की गई है।
“नुक़्त-ए-पर्दाज़ी से इज़लफों को क्या
शेर से बज्जाजो, नद् दाफों को क्या”
मीर तक़ी मीर
नुक़्त-ए-पर्दाज़ी=किसी पॉइंट की आलोचना
इज़लाफ़ो=जिल्फ़ का बहुबचन, इज़लाफ का बहुबचन। अरबी में इसे जमा-उल-जमा (बहुबचन का बहुबचन) कहते हैं।
जिल्फ़= नीच, असभ्य। इस्लामी फिक़्ह (विधि) में अज़लाफ़ कुछ ख़ास जातियों को कहते हैं। भारत सरकार के ओबीसी और एसटी की लिस्ट में ज़्यादातर अज़लाफ जातियां हैं।
बज्जाज= कपड़ा बेचने वाले
नाद् दाफ़ = रूई धुन ने वाले, धुनिया मंसूरी
अर्थात:-
मीर तक़ी मीर कहते हैं कि साहित्य (अदब) की आलोचना करना सिर्फ अशराफ* लोगों का काम है। उसे नीच और असभ्य लोग क्या जानें, शेर को समझना बज्जाज और धुनिओ के बस का नहीं है।
* शरीफ{बड़ा} का बहुबचन, मुस्लिम उच्च वर्ग
"पानी पीना पड़ा है पाइप का
हर्फ़ पढ़ना पड़ा है टाइप का
पेट चलता है आँख आई है
शाह एडवर्ड की दुहाई है"
---अकबर इलाहाबादी
पृष्ठभूमि:
ज़मींदारों के यहाँ पानी भरने वाले हुआ करते थे जो पानी कुआँ से लाते थे। और उन्हें पानी की बहुतायत थी लेकिन सब के साथ ऐसा नहीं था। कुआँ भी आम तौर से पसमांदा (पिछड़े, दलित और आदिवासी) चाहे वो किसी धर्म के मानने वाले रहे हों, के पहुँच से बाहर हुआ करता था कुछ के लिए तो बिलकुल वर्जित था। और पसमांदा को पानी उनके ज़रूरत से बहुत कम प्राप्त था उस पर ताना ये कि "बहुत गंदे रहते हैं" लेकिन जब अंग्रेज़ों ने पानी को आम लोगों के लिए पाइप के ज़रिये पहुँचाने का इंतेज़ाम किया तो पसमांदा को थोड़ी बहुत सहूलत हो गयी जिसका विरोध अकबर इलाहाबादी ने अपने चिर परिचित व्यंगात्मक अंदाज़ में यूँ बयान किया। कुछ यही किस्सा छापे खाने और टाइप मशीन का भी था।
अर्थात:
पाइप के पानी पीने से पेट ख़राब हो रहा है और टाइप की लिखावट पढ़ने से आँख ख़राब हो रहा है ऐ राजा एडवर्ड आप की दुहाई देता हूँ कि आप इस से हमें छुटकारा दें।
“अब ना हिल मिल है ना वो पनिया का माहोल है
एक ननदिया थी सो वो भी अब दाखिले स्कूल है"
पश-ए-मंज़र(पृष्टभूमि)-:
उस ज़माने में एक बहुत ही मशहूर पुर्बी (भोजपुरी) के लोकगीत का मुखड़ा था-
"हिलमिल पनिया भरन को जाये रे ननदिया"
उस दौर में पसमांदा की औरतें खुद के लिए भी और स्वयंघोषित विदेशी अशराफ के घरों के लिए भी कुआँ और तालाबों से पानी भर के लाया करती थीं। पनघट के रास्ते में ये लोग (सैयद शैख़ मुग़ल तुर्क पठान आदि) पानी भरने जाने वाली पसमांदा औरतों का हिलमिल देख के लुत्फ़ अन्दोज़ (प्रसन्नचित) हुआ करते थे। ज़ाहिर सी बात है इनके ज़िम्मे कोई काम तो था नहीं, सारा मेहनत मशक़्क़त का काम तो रैय्यतों (सेवको/पसमांदा) के सुपुर्द हुआ करता था। बहरहाल जब सामाजिक बदलाव हुए और पसमांदा में भी शिक्षा और धन आने लगा और उन्होंने अपनी औरतों को भी तालीम के लिए स्कूल भेजने लगे तो पनघट सूना हो गया। इस बदलाव से दुखी अकबर इलाहाबादी ने अपनी व्यथा को कुछ यूँ वर्णन किया।
अर्थात-:
इस नए बदलाव की वजह से हमारे मनोरंजन का अब ये साधन भी खत्म होने लगा। अब पहले की तरह वो हिलमिल देखने को नहीं मिल रहा है और एक ननदिया भी थी तो वो भी अब स्कूल में चली गयी।
"बेपर्दा नज़र आयीं जो कल चन्द बीबियां
अकबर ज़मीं में ग़ैरत-ए-क़ौमी से गड़ गया
पूछा जो आप का पर्दा वह क्या हुआ
कहने लगीं के अक़्ल के मर्दों पे पड़ गया"
बीबी= उच्च वर्ग की मुस्लिम औरतों को ही बीबी कहा जाता है।
क़ौम = उच्च वर्ग के मुस्लिम समाज के लिए बोला जाने वाला शब्द, उस लफ्ज़ का इस्तेमाल कभी भी इस्लाम और आम मुस्लिमों के लिए नहीं होता था।
पश-ए-मन्ज़र(पृष्ठभूमि):-
जब सामाजिक सुधारों के फलस्वरूप अशराफ(मुस्लिम उच्च वर्ग) की बीबियाँ घरो से बाहर निकल के शिक्षा हासिल करने लगीं तब इस बात से अकबर इलाहाबादी को बहुत कष्ट हुआ और वो अपनी क़ौम को शर्म दिलाते हुए इसका विरोध अपने व्यंगात्मक अंदाज़ में कुछ यूँ किया।
अब आप के दिल में ये ख्याल आ रहा होगा कि अकबर इलाहाबादी को सारे मुस्लिमों की औरतों को बे-पर्दा होने का मलाल था। तो जनाब आप ये जान लें कि उस वक़्त पसमांदा (पिछड़े, दलित और आदिवासी) मुस्लिमों की औरतें तो पहले से ही बेपर्दा थीं और अपने रोज़ी रोटी के लिए अशराफ के घरों, गली मोहल्लों और बाज़ारों में आया जाया करती थीं। हज़रत को तो सिर्फ बीबियों के बेपर्दा होने की फ़िक़्र थी।
"यूँ क़त्ल पे, लड़कों के, वो बदनाम ना होता
अफ़सोस कि फ़िरऔन को कॉलेज की ना सूझी"
पश-ए-मन्ज़र (पृष्ठभूमि):-
फ़िरऔन को बताया गया था कि इसराईलियों (बनु इस्राईल जाति) के यहाँ एक मूसा नाम का बच्चा पैदा होगा जो बड़ा होकर तुम्हारी सत्ता और तुम्हे खत्म करेगा। इस बात से डर के फ़िरऔन ने ये आदेश दिया कि इसराईलियो के यहाँ जितने भी बच्चे पैदा हों उनको तुरन्त क़त्ल कर डालो।
अर्थात:-
अकबर इलाहाबादी जी कहते हैं कि अगर फ़िरऔन को स्कूल और कॉलेज के बारे में पहले पता चल गया होता तो वो बच्चों को क़त्ल करने के बजाय उन्हें कॉलेज में भेज देता, फलस्वरूप वो इस तरह बर्बाद हो जाते जो उनकी मौत ही तरह होता और इस तरह वो बच्चों के क़त्ल की बदनामी से भी बच जाता।
यहाँ यें बात गौर करने की हैं कि अकबर इलाहाबादी अपने इस मज़ाकिया शेर के ज़रिये से मॉडर्न एजुकेशन का विरोध कर रहे हैं।
नोट:- वो अलग बात है कि अकबर इलाहाबादी खुद भी मॉडर्न एजुकेटेड थे (जज हो के रिटायर्ड हुए थे) और हज़रत ने अपने बच्चों को कॉलेज क्या लन्दन तक पढ़ने भेजा था। असल ये था कि तालीम आम लोगों (पसमांदा) तक ना पहुंचे।
बुद्धू मियां भी हजरते गांधी के साथ हैं
गो मुश्त-ए-खाक* मगर आंधी के साथ हैं
अर्थात:-
ये मूर्ख आदमी भी देखो गांधी जी के साथ है जबकि इसकी हैसियत एक मुट्ठी मिट्टी से अधिक नहीं और गांधी जैसे व्यक्तित्व के हां में हां मिला रहा है
नोट: अकबर इलाहाबादी ने प्रथम पसमांदा आंदोलन के जनक और स्वतंत्रता सेनानी आसिम बिहारी और गांधी जी से उनके संबंध का मजाक उड़ाते हुए यह शेर कहा था
*मुश्ते खाक= एक मुट्ठी मिट्टी
अल्लामा इक़बाल
उठा के फेक दो बाहर गली में
नई तहज़ीब के अण्डे हैं गन्दे
इलेक्शन मेम्बरी कौंसिल सदारत
बनाये हैं खूब आज़ादी ने फन्दे
(पेज न० 276, बांग-ए-दारा)
पश-ए- मनज़र(पृष्ठभूमि):-
1857 के म्यूटिनी के बाद भारत सीधे तौर से ब्रिटेन सरकार के अधीन हो गया और ब्रिटिश सरकार ने भारत देश में सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनैतिक सुधार शुरू कर दिया, जिसके फलस्वरूप आम लोग खास तौर से पसमांदा(पिछड़े दलित और आदिवासी) लोगों के पास शिक्षा और धन पहुँचने लगा। ये नई स्थिति तथाकथित अशराफ मुस्लिमों को स्वीकार नहीं थी। दूसरी बात यह भी थी की लोकतंत्र से अशराफ के सामंतवाद को सीधा खतरा था इसलिए उसका विरोध करना जरूरी था।
अर्थात:-
इस नयी व्यवस्था के जितने भी सुधार वादी कार्यक्रम (अंडे) हैं वो सब गन्दे हैं उन्हें उठा कर बाहर गली में फेंक दो यानि अपने से दूर कर दो। और लोकतंत्र के जितने भी आयाम हैं सब फांसी के फंदे की तरह हैं जो आजादी के नाम पर बनाया जा रहा है।
एक और जगह लोकतंत्र का मजाक उड़ाते हुए लिखते हैं--
जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिसमें
बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते
स्पष्ट है कि जब गिनती होगी तो पसमांदा और अशराफ दोनों का वोट एक ही गिना जाएगा, जबकि अशराफ का तौल (वजन, सामाजिक असर रसूख) तो पसमांदा से कहीं अधिक है, इसलिए ये गिनती वाला सिस्टम खराब है।
नोट:- हालांकि इक़बाल ने खुद उच्च मॉडर्न एजुकेशन हासिल किया और अपने बेटो को भी कॉलेज की तालीम दिलाई। उनका एक बेटा जावेद इक़बाल पकिस्तान का चीफ जस्टिस भी रह चुका है।
मैं असल का ख़ास सोमनाथी
आबा मेरे लाती व मानाती
है फलसफा मेरे आब व गिल में
पोशीदा है रेशहा-ए-दिल में
तू सैयद-ए-हाशिमी की औलाद
मेरे कफ-ए-खाक ब्राह्मनज़ाद
(पेज न० 12 ज़र्ब-ए-कलीम)
शब्दार्थ/ पश-ए-मंज़र(पृष्ठभूमि)-:
सोमनाथी=सोमनाथ मंदिर का पुजारी
आबा=पूर्वज
लातिये मनाती= लात और मनात के पुजारी,
मक्का के ये दो बहुत मशहूर देवता थे। असल में अरबी में इन्हें ला और मना उच्चारण करते हैं दरअसल अरबी भाषा में वाक्य के आखिर में आने वाले शब्द का "ते" साइलेंट हो जाता है और जब उस शब्द को संज्ञा के रूप में प्रयोग करते हैं तब भी "ते" साइलेंट हो जाता है और उसे "हे" लिखते हैं, जो उच्चारण करते समय और हल्का होकर बिल्कुल गायब सा हो जाता है। जैसे सुरह जो सूरत है और सुन्नत जो सुन्नह है।
फलसफा= फिलोसॉफी, दर्शन
आब= पानी
गिल= मिट्टी
पोशीदा= छुपा हुआ है
रेशा= महीन धागा
रेशाहा-ए-दिल= दिल को बनाने वाले मांस के महीन धागे
सैयद= शाब्दिक अर्थ सरदार, पेशवा, और बड़ा के होते हैं। लेकिन अपने को सैयद कहने वाले का ये दावा है कि वो हज़रत मुहम्मद की बेटी फातिमा के वंशज हैं।
हाशिम=मुहम्मद(स०) के परदादा
कफ= हाथ की हथेली, पैर का तलवा
ख़ाक= मिट्टी(ऐसी मान्यता है कि मनुष्य मिट्टी से बना है)
कफ-ए ख़ाक= मानव शरीर
ज़ाद= बेटा, पुत्र
स्वघोषित विदेशी अशराफ मुस्लिमों द्वारा अपनी श्रेष्ठता (बड़प्पन) के बखान से आहत (ज़ख़्मी) होकर अल्लामा इक़बाल ने अपनी जाति श्रेष्ठता (बड़प्पन) को साबित करते हुए खुद को सनातनी ब्राह्मण बताया।
अर्थात:-
अल्लामा इक़बाल कहते हैं कि असल में, मैं तो सोमनाथ के मंदिर का पुजारी हूँ। मेरे बाप दादा(मेरे पूर्वज) तो ला और मना देवता के पुजारी थे।
मैं तो फ़लसफ़ा के मिट्टी और पानी से बना हूँ जो मेरे दिल की गहराईयो में छुपा हुआ है।
फिर आगे कहते हैं कि अगर तू सैयद है तो होगा हाशिम की नस्ल (जाति) का, जिसका तुझे दावा है, मुझे उस से क्या? मैं भी किसी से कम थोड़े ना हूँ, मेरे भी हाथ पैर की मिट्टी ब्राह्मणों की तरह सवर्ण(खुशरंग) है मैं भी ब्राह्मणपुत्र हूँ।
नोट- इक़बाल ने फ़ारसी में भी कुछ इसी तरह से अपने ब्राह्मण होने को बताया है….
मेरा बीनी कि दर हिन्दोस्तां दीगर नमी बीनी
बरहमन ज़ादये रम्ज़ आशना-ए-रूम व तबरेज़ अस्त
(मुझे देखो कि भारत में मुझ जैसा दूसरा नहीं देखोगे
ब्राह्मणजनित मैं मौलाना रूमी और शम्स तब्रेज़ के रहस्य से परिचित हूँ)
मौलाना रूम और शम्स तबरेज़ तसव्वफ सिलसिले के सूफी थे। और सूफियों का एक अपना रहस्यवाद होता है। जिसकी तरफ इक़बाल ने इशारा किया है कि मैं ब्राह्मण का बेटा होने के बाद भी रूम और शम्स के रहस्यवाद से परिचित हूँ कुल मिला कर अपने को ब्राह्मण और इस्लामी विद्धवान दोनों होने का घमंड प्रकट कर रहे हैं।
यूँ तो सैयद भी हो मिर्ज़ा भी हो अफ़ग़ान भी हो
तुम सभी कुछ हो, बताओ मुसलमान भी हो
पश-ए-मंज़र:-
मिर्ज़ा= मुग़ल अपने नाम के पहले मिर्ज़ा और नाम के बाद में बेग लिखते हैं।
अफ़ग़ान= अफगानिस्तान का रहने वाला
अशराफ द्वारा अपनी श्रेष्ठता (बड़प्पन) के बखान से खिन्न होकर अल्लामा इक़बाल उनको इस्लाम के मसावात की याद दिला कर शर्म दिलाते हुए कहते हैं।
अर्थात:-
अल्लामा कहते हैं कि चलो मैं मान भी लूँ कि तुम सैयद भी हो मुग़ल भी हो और ऊँची जाति के अफ़ग़ान भी हो, लेकिन इस्लाम में तो इस बड़प्पन की कोई हैसियत नहीं और तुम फिर कैसे मुसलमान हो कि अपनी नस्ली (जातिगत) बड़प्पन का बखान दिन रात करते रहते हो। और बड़े शान से अपने नाम के आगे पीछे सैयद मिर्ज़ा जैसे जातिसूचक शब्द (नस्ली बड़प्पन की रौब डालने वाले अलक़ाब) का इस्तेमाल करते हो क्या तुम्हें शर्म नहीं आती?
नोट:- यहाँ इक़बाल ने भी सिर्फ अशराफ की जातियों का ही ज़िक्र किया है, मालूम होता है कि उनके नज़दीक भी पसमांदा मुस्लिम नहीं लगते वर्ना क्या दिक्कत थी कि एक दो पसमांदा जातियों का भी वर्णन करते। वो अलग बात है कि इस्लाम में "कुफु" के नाम पर सारा ऊँच नीच शामिल किया गया है। इस्लाम फिक़्ह (विधि) में नसब व नस्ल (जातिगत) के बड़प्पन को आधार मान कर शादी बियाह करने का हुक्म दिया गया है। देखें इस्लामी फिक़्ह (विधि) में वर्णित अध्याय "निकाह" का पाठ "कुफु"।
ज़रा सा क़तरा कहीं आज जो उभरता है
समन्दरों के ही लहजे में बात करता है
---वसीम बरेलवी
सामाजिक न्याय के संघर्ष के फलस्वरूप जब कुछ तथाकथित निचले तबके के लोग शासन प्रशासन में भागीदार हुए और नए नए निर्णय लेने लगे तो पहले से मुख्यधारा में मौजूद लोगों को भारी पड़ने लगा, ऐसा प्रतीत होता है कि यह शे'र उस ओर इशारा कर रहा है, वैसे भी शायरी को इशारे की जुबान कहते हैं।
1932 में लखनऊ से प्रकाशित होने वाली किताब "अंगारे" में चार ऐसे लोगों की कहानी थी जो अब तक उर्दू अदब में करैक्टर नहीं बन पाये थे यानि हाशिये पर पड़े पसमांदा लोग।
इस किताब का अशराफ वर्ग ने बहुत विरोध किया। फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने इस किताब पर पाबन्दी लगवा दी। 1936 में प्रोग्रेसिव राइटर यूनियन बनने के बाद उर्दू अदब के एक बहुत बड़े हिस्से ने उस वक़्त हो रहे सामाजिक बदलाव का साथ दिया। लेकिन फिर भी अशराफ ने हमेशा ये कोशिश किया की उर्दू को इस्लाम और मुसलमान से जोड़कर इसका धर्मनिरपेक्ष चरित्र (secular character) खत्म करके अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहें। इस प्रकार अपने इसी सोच के तहत पंजाबी और भक्ति के बहुत से अदब (साहित्य,literature) को उर्दू का हिस्सा नहीं बनने दिया हालांकि उनमें से बहुत सी रचनाओं की मूल प्रति नस्तालिक़ (उर्दू की लिपि जिसमे फ़ारसी भी लिखी जाती है) में लिखी गयी थी।
आज भी ये पूरी कोशिश है की उर्दू मुस्लिमों से जुडी रहे और मुस्लिमों की भाषा बनी रहे।
आभार:
(मैं अजमल कमाल, साहित्यकार एवं प्रकाशक, वक़ार अहमद हवारी, राष्ट्रीय महासचिव, आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ का आभार प्रकट करता हूँ जिनके उत्साह वर्धन और दिशा निर्देश के बिना यह लेख नही लिखा जा सकता था।)
फ़ैयाज़ अहमद फैज़ी
(लेखक, अनुवादक, स्तंभकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवम् पेशे से चिकित्सक हैं)