वैज्ञानिकों का कहना है कि कोरोना, प्रकृति के साथ मुठ्ठी भर इंसान के लालची और बुरे व्यवहार की वजह से फैला है। पूंजीवाद के बढ़ते प्रभाव में आज हम वन्यजीवों के आवास उजाड़ रहे हैं, जंगल काट रहे हैं, खनन कर रहे हैं और पूरी दुनिया में एक जैसी संस्कृति थोप रहे हैं। धरती को शहरों से पाट रहे हैं। बहुत ज़्यादा केमिकल इस्तेमाल कर रहे हैं। प्रकृति के बिगड़ते संतुलन से धरती पहले ही संकट में है। हाल के दो दशकों में कॉरपोरेट की भारी घुसपैठ बढ़ी हैं। नतीजा कोरोना जैसी महामारी सामने है।
अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन (एआईयूएफडब्लूपी) और सिटिजंस फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) की 'महामारी में सामुदायिक स्वास्थ्य सुरक्षा की वैज्ञानिक, राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक चुनौती व उपयुक्त रणनीति' विषयक साझी वेब परिचर्चा में ये तथ्य सामने आए हैं। मशहूर वैज्ञानिक हरजिंदर सिंह लालटू व सौम्य दत्ता ने कहा कि सार्स व इबोला की तरह कोविड-19 वायरस भी जानवरों से आया है। इसकी उत्पति के कुछ सबूत चमगादड़ों की ओर इशारा करते हैं। चीन में वुहान के पास भी पुराने जंगल हैं।
वैज्ञानिक सौम्य दत्ता कहते हैं कि हमारी तरह स्तनपायी जीवों (मैमल्स) के शरीर में भी प्राकृतिक रूप से बहुत से वायरस रहते हैं जो हजारों साल से है। जंगल कटने से कांट्रेक्ट में आने पर यह वायरस इंसानों में आ जाते हैं। कोविड-19 वायरस के पीछे भी यही कहानी है। हालांकि कोरोना की सही-सही उत्पत्ति अभी मालूम नहीं है लेकिन शोध बताते हैं कि जंगलों की कटाई और वन्यजीवों के व्यापार ने जानवरों से फैलने वाली बीमारियों के महामारी बनने का ख़तरा बढ़ा दिया है। वुहान में भी जंगलों से ही खदान मजदूरों में सबसे पहले इसका पता लगा था।
दत्ता कहते हैं कि इसलिए आज हमारा मुद्दा 'जंगल से छेड़छाड़ बंद हो' व ''जंगलों में रेड प्लस आदि कॉरपोरेट की घुसपैठ बंद करो'' का होना चाहिए। जंगल व जंगल में रहने वाले (आदिवासी) लोगों और उनकी संस्कृति को बचाना होगा। दरअसल, आदिवासी समुदाय वन एवं वन्य जीव आवासों की हिफाजत करने, पेड़ लगाने, मवेशियों को टिकाऊ तरीके से पालने और प्रकृति का सम्मान करने की बात कहते रहे हैं। अब वे फिर अपनी बात दोहरा रहे हैं। इससे न सिर्फ़ पर्यावरण परिवर्तनों और जैव विविधता को होने वाले नुकसान को रोका जा सकेगा बल्कि ये भविष्य में महामारियों का ख़तरा भी कम करेंगे।
यही नहीं, नेचर कम्युनिकेशंस जर्नल में 2017 में छपे रिसर्च के मुताबिक जानवरों से फैलने वाली बीमारियों का जोखिम उष्णकटिबंधीय वनों में सबसे ज़्यादा है जहां पेड़ कटाई, खनन, डैम निर्माण और सड़क बनाने के काम हो रहे हैं। इस तरह की गतिविधियों से बीमारियां फैलने का ख़तरा रहता है क्योंकि इनसे पारिस्थितिकी तंत्र में छेड़छाड़ होती है। इंसान और मवेशियों के साथ वन्यजीवों का संपर्क बढ़ता है। वन्यजीव व्यापार भी पेड़ों की कटाई से जुड़ा है। जंगल में अंदर तक सड़क बन जाने से शिकारी घने जंगलों तक पहुंचने लगते हैं और वन्यजीवों का व्यापार बढ़ता है।
खास यह भी कि अभी भी दुनिया के 30 प्रतिशत भूमि क्षेत्र पर जंगल हैं, लेकिन वे भयानक दर से गायब हो रहे हैं। 15 वर्षों में, 1990 और 2016 के बीच, दुनिया ने लगभग 1.3 मिलियन वर्ग किलोमीटर जंगलों को खो दिया, इसका सबसे बड़ा भाग उष्ण कटिबंधीय वर्षा वन ही है, जो दक्षिण अफ्रीका से बड़ा क्षेत्र है। इसलिए प्रकृति की रक्षा करना सिर्फ पारिस्थितिकी और जैव-विविधता के बारे में नहीं है। यह जीवन, इतिहास और संस्कृति संरक्षण के बारे में भी है। पीढ़ियों से जंगलों में रह रहे आदिवासी जंगलों को समुदाय का हिस्सा मानते हैं। वे मानते हैं कि उनके पुरखे जंगल का हिस्सा हैं।
इसी सब के चलते आज जंगलों के साथ-साथ, हम वन्यजीवों के लिए सबसे मूल्यवान और अपूरणीय निवास स्थान भी खोते जा रहे हैं। कई जंगली जानवर विलुप्त होने की चपेट में आ रहे हैं। दूसरा, एक अध्धयन के अनुसार पिछले बीस वर्षों में, अब तक के 19 सबसे गर्म साल रहे हैं। तापमान बढ़ने का एक बड़ा कारण भी मानव गतिविधियों जैसे कि वनों की कटाई, वाहनों के उत्सर्जन और ऊर्जा के लिए जीवाश्म ईंधन को जलाने के माध्यम से ग्रीन हाउस गैसों में वृद्धि है। वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर वर्तमान में 413 पीपीएम है, जो 1960 में 316 पीपीएम था। यही नहीं, आग और बाढ़ की बढ़ती आवृत्ति और तीव्रता भी हर किसी को चौंका रही है।
मशहूर वैज्ञानिक लालटू कहते हैं कि आदिवासी लोग, कॉरपोरेट की तरह जंगल को अमीर बनने का साधन नहीं मानते। लालच खासकर तुरंत फायदा चाहने वाला कॉरपोरेटीकरण ही इन सब बुराइयों की जड़ में है। इसलिए संसाधनों को नष्ट करके मुनाफे के विकास के मॉडल पर दोबारा सोचने की ज़रूरत है। यही नहीं, आदिवासियों की जानकारियों की कद्र करने और प्रकृति के साथ उनके रिश्ते का फिर से मूल्यांकन करना होगा। याद रहे जंगल बचेंगे तो महामारी कम होगी। यदि हम अन्य जीवों और उनके आवास के अधिकारों का सम्मान नहीं करते हैं तो कोविड-19 जैसे महामारी बहुत अधिक बार आएंगी। और जंगली जानवरों के नए रोगजनकों से हमारी प्राकृतिक प्रतिरक्षा सुरक्षा को चुनौती मिलती रहेगी। लालटू कहते हैं कि तुरंत फायदे की सोच के चलते लालची कॉरपोरेट का प्राकृतिक दुनिया के साथ बड़े पैमाने पर अनैतिक मानवीय व्यवहार (घुसपैठ), महामारी के जोखिम को बढ़ा रहा है। जब जंगल और प्रकृति की बात आती है तो यह व्यवहारिक दूरी बनाए रखने का समय है।
कोरोना महामारी की ही बात करें तो महामारी के विज्ञान से इतर, लालटू भारत में इसकी भयावहता के पीछे सरकार की खराब नीयत, अदूरदर्शिता और नफरत की राजनीति को कसूरवार मानते हैं। गत वर्ष चंद घंटों की कीमत पर लॉकडाउन, मजदूरों का ऐतिहासिक पलायन, सरकार के अपने फायदे के लिए नमस्ते ट्रंप का आयोजन, बंगाल में 8 चरणों का चुनाव व हुकूमत का बेलगाम प्रचार अभियान, कुंभ आदि ऐसे ही निर्णय हैं। रही सही कसर, स्वास्थ्य का इदारा बेहद खराब होने, ने पूरी कर दी है।
लालटू शिक्षा-स्वास्थ्य के सापेक्ष फौज व पुलिस पर ज्यादा लगभग 3 गुणा खर्च किए जाने की जरूरत पर भी गम्भीर सवाल उठाते हैं। वो कहते हैं कि अमेरिका व चीन के बाद भारत पुलिस व फौज पर सर्वाधिक खर्च करता है। उन्होंने कहा कि सेहत-तालीम नहीं तो पुलिस-फौज का क्या? वर्तमान सरकार ने सेहत-तालीम में कटौती करके, श्रमिक व किसान हित के कानून हटाकर और बड़े पूंजीवादियों को कुछ भी करने की खुली छूट देकर, पूंजी के हमले को देश में और बढ़ा दिया है। इसलिए समय आ गया है कि तमाम मतभेदों के बावजूद नागरिकों को एकजुटता दिखानी होगी।
अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन (एआईयूएफडब्लूपी) के राष्ट्रीय महासचिव अशोक चौधरी, उप राष्ट्रीय महासचिव रोमा मलिक और सिटिजंस फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) की सचिव व मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ कोरोना (महामारी) के नाम पर लूटमारी, मौत के आंकड़े छुपाने, इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी, नफरत की राजनीति, बेरोजगारी व श्रमिक वर्गों में बिखराव आदि पर मंथन करने और रणनीतिक कदम उठाने की जरूरत बताते हैं। यही नहीं, महामारी के इस दौर में साथियों के बीच सामाजिक दूरी न बढ़ाने, बातचीत जारी रखने ओर सशक्त जनांदोलन को दायरा बढाने की वकालत करते हुए, उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड में अगले साल होने जा रहे चुनाव में, बंगाल की तर्ज पर ''नो वोट टू बीजेपी'' कैंपेन चलाने की जरूरत बताते हैं। कहा- कोरोना ही नहीं पूरा स्वास्थ्य सिस्टम फेल है। इसलिए स्वास्थ्य का मुद्दा चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा बने, इसके लिए इसे राजनीतिक शक्ल देने की भी जरूरत है।
अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन (एआईयूएफडब्लूपी) और सिटिजंस फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) की 'महामारी में सामुदायिक स्वास्थ्य सुरक्षा की वैज्ञानिक, राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक चुनौती व उपयुक्त रणनीति' विषयक साझी वेब परिचर्चा में ये तथ्य सामने आए हैं। मशहूर वैज्ञानिक हरजिंदर सिंह लालटू व सौम्य दत्ता ने कहा कि सार्स व इबोला की तरह कोविड-19 वायरस भी जानवरों से आया है। इसकी उत्पति के कुछ सबूत चमगादड़ों की ओर इशारा करते हैं। चीन में वुहान के पास भी पुराने जंगल हैं।
वैज्ञानिक सौम्य दत्ता कहते हैं कि हमारी तरह स्तनपायी जीवों (मैमल्स) के शरीर में भी प्राकृतिक रूप से बहुत से वायरस रहते हैं जो हजारों साल से है। जंगल कटने से कांट्रेक्ट में आने पर यह वायरस इंसानों में आ जाते हैं। कोविड-19 वायरस के पीछे भी यही कहानी है। हालांकि कोरोना की सही-सही उत्पत्ति अभी मालूम नहीं है लेकिन शोध बताते हैं कि जंगलों की कटाई और वन्यजीवों के व्यापार ने जानवरों से फैलने वाली बीमारियों के महामारी बनने का ख़तरा बढ़ा दिया है। वुहान में भी जंगलों से ही खदान मजदूरों में सबसे पहले इसका पता लगा था।
दत्ता कहते हैं कि इसलिए आज हमारा मुद्दा 'जंगल से छेड़छाड़ बंद हो' व ''जंगलों में रेड प्लस आदि कॉरपोरेट की घुसपैठ बंद करो'' का होना चाहिए। जंगल व जंगल में रहने वाले (आदिवासी) लोगों और उनकी संस्कृति को बचाना होगा। दरअसल, आदिवासी समुदाय वन एवं वन्य जीव आवासों की हिफाजत करने, पेड़ लगाने, मवेशियों को टिकाऊ तरीके से पालने और प्रकृति का सम्मान करने की बात कहते रहे हैं। अब वे फिर अपनी बात दोहरा रहे हैं। इससे न सिर्फ़ पर्यावरण परिवर्तनों और जैव विविधता को होने वाले नुकसान को रोका जा सकेगा बल्कि ये भविष्य में महामारियों का ख़तरा भी कम करेंगे।
यही नहीं, नेचर कम्युनिकेशंस जर्नल में 2017 में छपे रिसर्च के मुताबिक जानवरों से फैलने वाली बीमारियों का जोखिम उष्णकटिबंधीय वनों में सबसे ज़्यादा है जहां पेड़ कटाई, खनन, डैम निर्माण और सड़क बनाने के काम हो रहे हैं। इस तरह की गतिविधियों से बीमारियां फैलने का ख़तरा रहता है क्योंकि इनसे पारिस्थितिकी तंत्र में छेड़छाड़ होती है। इंसान और मवेशियों के साथ वन्यजीवों का संपर्क बढ़ता है। वन्यजीव व्यापार भी पेड़ों की कटाई से जुड़ा है। जंगल में अंदर तक सड़क बन जाने से शिकारी घने जंगलों तक पहुंचने लगते हैं और वन्यजीवों का व्यापार बढ़ता है।
खास यह भी कि अभी भी दुनिया के 30 प्रतिशत भूमि क्षेत्र पर जंगल हैं, लेकिन वे भयानक दर से गायब हो रहे हैं। 15 वर्षों में, 1990 और 2016 के बीच, दुनिया ने लगभग 1.3 मिलियन वर्ग किलोमीटर जंगलों को खो दिया, इसका सबसे बड़ा भाग उष्ण कटिबंधीय वर्षा वन ही है, जो दक्षिण अफ्रीका से बड़ा क्षेत्र है। इसलिए प्रकृति की रक्षा करना सिर्फ पारिस्थितिकी और जैव-विविधता के बारे में नहीं है। यह जीवन, इतिहास और संस्कृति संरक्षण के बारे में भी है। पीढ़ियों से जंगलों में रह रहे आदिवासी जंगलों को समुदाय का हिस्सा मानते हैं। वे मानते हैं कि उनके पुरखे जंगल का हिस्सा हैं।
इसी सब के चलते आज जंगलों के साथ-साथ, हम वन्यजीवों के लिए सबसे मूल्यवान और अपूरणीय निवास स्थान भी खोते जा रहे हैं। कई जंगली जानवर विलुप्त होने की चपेट में आ रहे हैं। दूसरा, एक अध्धयन के अनुसार पिछले बीस वर्षों में, अब तक के 19 सबसे गर्म साल रहे हैं। तापमान बढ़ने का एक बड़ा कारण भी मानव गतिविधियों जैसे कि वनों की कटाई, वाहनों के उत्सर्जन और ऊर्जा के लिए जीवाश्म ईंधन को जलाने के माध्यम से ग्रीन हाउस गैसों में वृद्धि है। वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर वर्तमान में 413 पीपीएम है, जो 1960 में 316 पीपीएम था। यही नहीं, आग और बाढ़ की बढ़ती आवृत्ति और तीव्रता भी हर किसी को चौंका रही है।
मशहूर वैज्ञानिक लालटू कहते हैं कि आदिवासी लोग, कॉरपोरेट की तरह जंगल को अमीर बनने का साधन नहीं मानते। लालच खासकर तुरंत फायदा चाहने वाला कॉरपोरेटीकरण ही इन सब बुराइयों की जड़ में है। इसलिए संसाधनों को नष्ट करके मुनाफे के विकास के मॉडल पर दोबारा सोचने की ज़रूरत है। यही नहीं, आदिवासियों की जानकारियों की कद्र करने और प्रकृति के साथ उनके रिश्ते का फिर से मूल्यांकन करना होगा। याद रहे जंगल बचेंगे तो महामारी कम होगी। यदि हम अन्य जीवों और उनके आवास के अधिकारों का सम्मान नहीं करते हैं तो कोविड-19 जैसे महामारी बहुत अधिक बार आएंगी। और जंगली जानवरों के नए रोगजनकों से हमारी प्राकृतिक प्रतिरक्षा सुरक्षा को चुनौती मिलती रहेगी। लालटू कहते हैं कि तुरंत फायदे की सोच के चलते लालची कॉरपोरेट का प्राकृतिक दुनिया के साथ बड़े पैमाने पर अनैतिक मानवीय व्यवहार (घुसपैठ), महामारी के जोखिम को बढ़ा रहा है। जब जंगल और प्रकृति की बात आती है तो यह व्यवहारिक दूरी बनाए रखने का समय है।
कोरोना महामारी की ही बात करें तो महामारी के विज्ञान से इतर, लालटू भारत में इसकी भयावहता के पीछे सरकार की खराब नीयत, अदूरदर्शिता और नफरत की राजनीति को कसूरवार मानते हैं। गत वर्ष चंद घंटों की कीमत पर लॉकडाउन, मजदूरों का ऐतिहासिक पलायन, सरकार के अपने फायदे के लिए नमस्ते ट्रंप का आयोजन, बंगाल में 8 चरणों का चुनाव व हुकूमत का बेलगाम प्रचार अभियान, कुंभ आदि ऐसे ही निर्णय हैं। रही सही कसर, स्वास्थ्य का इदारा बेहद खराब होने, ने पूरी कर दी है।
लालटू शिक्षा-स्वास्थ्य के सापेक्ष फौज व पुलिस पर ज्यादा लगभग 3 गुणा खर्च किए जाने की जरूरत पर भी गम्भीर सवाल उठाते हैं। वो कहते हैं कि अमेरिका व चीन के बाद भारत पुलिस व फौज पर सर्वाधिक खर्च करता है। उन्होंने कहा कि सेहत-तालीम नहीं तो पुलिस-फौज का क्या? वर्तमान सरकार ने सेहत-तालीम में कटौती करके, श्रमिक व किसान हित के कानून हटाकर और बड़े पूंजीवादियों को कुछ भी करने की खुली छूट देकर, पूंजी के हमले को देश में और बढ़ा दिया है। इसलिए समय आ गया है कि तमाम मतभेदों के बावजूद नागरिकों को एकजुटता दिखानी होगी।
अखिल भारतीय वन-जन श्रमजीवी यूनियन (एआईयूएफडब्लूपी) के राष्ट्रीय महासचिव अशोक चौधरी, उप राष्ट्रीय महासचिव रोमा मलिक और सिटिजंस फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) की सचिव व मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ कोरोना (महामारी) के नाम पर लूटमारी, मौत के आंकड़े छुपाने, इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी, नफरत की राजनीति, बेरोजगारी व श्रमिक वर्गों में बिखराव आदि पर मंथन करने और रणनीतिक कदम उठाने की जरूरत बताते हैं। यही नहीं, महामारी के इस दौर में साथियों के बीच सामाजिक दूरी न बढ़ाने, बातचीत जारी रखने ओर सशक्त जनांदोलन को दायरा बढाने की वकालत करते हुए, उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड में अगले साल होने जा रहे चुनाव में, बंगाल की तर्ज पर ''नो वोट टू बीजेपी'' कैंपेन चलाने की जरूरत बताते हैं। कहा- कोरोना ही नहीं पूरा स्वास्थ्य सिस्टम फेल है। इसलिए स्वास्थ्य का मुद्दा चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा बने, इसके लिए इसे राजनीतिक शक्ल देने की भी जरूरत है।