नए कृषि कानूनों का असर मंडियों के कामकाज पर दिखना शुरू हो गया है। आलम यह है कि उत्तर प्रदेश खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की मंडियों में कृषि जिंसों (उत्पादों) की आवक का ग्राफ धराशायी हो चला है। सहारनपुर मंडल की ही बात करें तो मंडियों में आवक 70 से 75 प्रतिशत तक घट गई है। गत वर्ष नवंबर माह व इस साल के नवंबर माह में मंडी में आवक के डाटा के तुलनात्मक अध्ययन में इसका खुलासा हुआ है।
सहारनपुर शहर की अनाज मंडी में ही कृषि जिंसों की आवक 63% तक कम हो गई है। मसलन, गत वर्ष नवंबर माह में सहारनपुर मंडी में कृषि जिंसों की प्राथमिक आवक करीब 3 लाख 2 हजार कुंतल रही थी जो इस साल नवंबर माह में 1.12 लाख कुंतल ही हो सकी है।
ज़िले की दूसरी प्रमुख गंगोह मंडी में प्राथमिक आवक 32% गिरी है जबकि रामपुर मनिहारान में 60%, छुटमलपुर व देवबंद मंडी में 58% की गिरावट दर्ज की गई है। मुजफ्फरनगर मंडी में आवक 4.4 लाख कुंतल से गिरकर 52 हजार कुंतल पर आ गई है। यानि 88% तक कम हो गई हैं। शामली मंडी में यह आंकड़ा 68%, का है। कैराना में 43%, थानाभवन 13% व कांधला 12% की कमी दर्ज की गई हैं। कुल मिलाकर सहारनपुर मंडल में 74% की बड़ी कमी आई है।
खास यह है कि सहारनपुर मंडल की मंडियों में प्रमुख तौर से धान, गुड़, गेंहू, दलहन-तिलहन व फल सब्ज़ियों के साथ लकड़ी आदि पर मंडी शुल्क लगता है। मंडी के जानकारों और अधिकारियों का कहना है कि नए कृषि कानूनों से मंडी व्यापार क्षेत्र का दायरा सिमटकर परिसर तक सीमित हो गया है। पहले मंडी क्षेत्र में कहीं भी खरीद होती थी, तो उस पर मंडी को शुल्क भी मिलता था और वह मंडी की प्राथमिक आवक मानी जाती थी। अब मंडी का दायरा परिसर तक सीमित हो गया है।
यही नहीं, सहारनपुर ज़िले की तीन मंडियों में कारोबार गिरकर शून्य हो गया है। ज़िले की तीन मंडियों नानौता, नकुड़ व चिलकाना में आवक शून्य हो गई है। दरअसल, इन तीनों मंडियों के पास अपना अधिसूचित परिसर नहीं था। लिहाजा इनका सारा कारोबार परिसर से बाहर ही था जो नए कानूनों से खत्म हो गया है।
सबसे प्रमुख फसलों की बात करें तो धान व गुड़ के मुख्य उत्पादों की आवक में भी खासी कमी आई है। मसलन सहारनपुर मंडी की ही बात करें तो धान की गत वर्ष की नवंबर माह की प्राथमिक आवक 56,500 कुंतल थी जो इस साल नवंबर माह में करीब 27 हजार कुंतल ही रह गई है। इसी तरह गुड़ की प्रमुख मंडी मुजफ्फरनगर को देखें तो आवक 1.29 लाख कुंतल से गिरकर 22 हजार कुंतल पर आ गई है। कारण वही, नए कृषि कानूनों से मंडी व्यापार क्षेत्र सिमटकर, अब परिसर के अंदर तक ही सीमित हो गया है।
उधर, आवक गिरने से मंडी समितियों की आय भी धड़ाम हो चली है। मंडी अधिकारियों के अनुसार मंडियों की आय में भी आधे से ज्यादा की गिरावट दर्ज की जा रही है। दूसरा, उत्तर प्रदेश कैबिनेट के मंडी शुल्क दो प्रतिशत से घटाकर एक फीसद करने के फैसले से भी मंडियों की आय खत्म हो रही है। किसान उत्पाद, व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम 2020 के तहत अब मंडी परिसरों में एक प्रतिशत मंडी शुल्क तथा आधा प्रतिशत विकास शुल्क यानि कुल डेढ़ प्रतिशत शुल्क ही वसूल किया जा रहा है।
अब केंद्र सरकार व भाजपा नेता लाख दावे करें कि मंडी खत्म नहीं होगी लेकिन किसानों का डर अनायास नहीं है। सच सामने है कि कृषि जिंसों की आवक नहीं होगी तो मंडी में आढ़ती ही क्या करेंगे। वह भी छोड़ जाएंगे। बाहर खरीद पर उन्हें मंडी टैक्स भी नहीं देना पड़ेगा और अंततः धीरे-धीरे बिहार की तर्ज पर उत्तर प्रदेश में भी मंडियां समाप्ति की ओर बढ़ चलेंगी।
हालांकि सरकार मंडियों में सुविधाएं बढ़ाने और जैविक उत्पादों आदि से आय बढ़ाने की बात कर रही है लेकिन सवाल वही हैं जब मंडी में व्यापारी नहीं होंगे तो किसान भी मंडी में क्योंकर व क्या लेने आएगा।
उत्तर प्रदेश राज्य कृषि उत्पादन मंडी परिषद निदेशक जेपी सिंह यह स्वीकारते हुए कहते हैं कि शुल्क घटने से मंडी परिषद की वार्षिक आय कम होगी परंतु कहते हैं कि इसकी पूर्ति के लिए कई अन्य योजनाएं तैयार की जा रही हैं। बता दें कि मंडी शुल्क कम होने से पूर्व मंडी परिषद की वार्षिक आय करीब दो हजार करोड़ रुपये थी जो घटकर आधे पर आने का अनुमान है।
बात बिहार की, जहां पहले ही मंडियां खत्म की जा चुकी हैं। अब भाजपा व बिहार सरकार तर्क कुछ भी दें लेकिन मंडी खत्म होने के असर को, बिहार के किसानों की माली हालत को देख कर, आसानी से जाना समझा व पता लगाया जा सकता है। इसी सब से संयुक्त किसान मोर्चा नेता सरदार गुरनाम सिंह चढ़ूनी पटना पहुंचे और बिहार के किसानों से अपील की कि वे भी आंदोलन में कूदें क्योंकि मंडी खत्म होने के बाद एमएसपी की सच्चाई को बिहार के किसान से बेहतर शायद ही कोई जानता समझता हो।
वैसे भी जहां एक तरफ पूरी सरकार पूरी ताकत लगा कर बताने में लगी है कि मंडी खत्म नहीं होंगी। वहीं, बिहार बीजेपी के नेता व राज्यसभा सांसद सुशील मोदी एक तरह से ट्वीट करते हैं कि प्रधानमंत्री ने मंडी खत्म कर दी है। प्रख्यात पत्रकार रवीश कुमार, सुशील मोदी के ट्वीट का इसी आशय से अपने प्राइम टाइम शो में भी ज़िक्र करते हैं।
मसलन, अपने ट्वीट में सुशील मोदी लिखते हैं कि '2006 में बिहार की पहली एनडीए सरकार ने सालाना 70 करोड़ के राजस्व का नुकसान उठाकर बाजार समिति अधिनियम समाप्त किया और लाखों किसानों को 1% के बाजार समिति कर से मुक्ति दिलाई। कांग्रेस ने 2019 के घोषणापत्र में मंडी-बाजार समिति व्यवस्था खत्म करने का वादा किया था। जो मंडी व्यवस्था बिहार में 14 साल पहले खत्म हो गई और जिसे कांग्रेस 2019 में खत्म करना चाहती थी वह काम प्रधानमंत्री मोदी ने देशव्यापी कानून के जरिए कर दिया तो राहुल गांधी छाती क्यों पीट रहे हैं।
सुशील मोदी कहते हैं कि 2006 में बिहार की मंडियों की तरह इस बार प्रधानमंत्री ने देश भर में कर दिया है। यानी प्रधानमंत्री ने बिहार की तरह देश भर की मंडी खत्म कर दी है। जबकि प्रधानमंत्री समेत पूरी भाजपा कह रही है कि मंडी खत्म नहीं होंगी।
बिहार में कभी बड़ी समृद्ध मंडियां हुआ करती थीं। मसलन 24 सितंबर के लाइव मिंट में छपे प्रो हिमांशु के लेख के अनुसार, 2006 में एपीएमसी के खत्म होने से पहले बिहार में 95 मार्केट यार्ड थे। वहीं राज्य कृषि बोर्ड को 2004-05 में 60 करोड़ टैक्स प्राप्त हुआ था। इसमें से काफी पैसा मंडी के बुनियादी ढांचे के विकास पर खर्च हुआ। अब वो टैक्स नहीं है तो सारा खत्म हो चुका है। विकास भी ठप हुआ। यही नहीं, बिहार में निजी निवेश भी खास नहीं हुआ है।
खास यह भी है कि बिल गेट्स फाउंडेशन के समर्थन से पेन्सिल्वेनिया यूनिवर्सिटी के सौमित्र चटर्जी, मेखला कृष्णमूर्ति, देवेश कपूर और मार्शल बाओटन के द्वारा किए एक अध्ययन से बिहार मंडी मॉडल समझा जा सकता है। रिपोर्ट के अनुसार, बिहार के नालंदा ज़िले की सोह सराय में व्यापारियों द्वारा बनाई मंडी को भारत की पहली आलू मंडी कहा जाता है। 1960 से 1980 तक इस मंडी में खूब बिज़नेस हुआ। इतना काम होता था कि रात की पाली भी चलती थी। यहां से आलू बर्मा तक जाता था। बाद में सरकार ने पास में नालंदा बाज़ार समिति बनाई तो यहां के व्यापारी वहां चले गए और कारोबार दोनों मंडियों में बंट गया। धीरे धीरे इस मंडी का कारोबार कम होने लगा। ट्रेन सेवाएं बंद हो गईं। आलू का उत्पादन भी कम हो गया। 2006 में जब एपीएमसी एक्ट खत्म कर दिया गया तो कारोबार 10 प्रतिशत से भी कम रह गया।
यही नहीं, जैसे जैसे मंडियों में आवक घट रही है त्यों त्यों बिचौलिए भी बढ़ने लगे हैं। गांव गांव नए बिचौलिए खड़े हो रहे हैं। वैसे भी अडानी, अंबानी या कोई और कॉरपोरेट हो, वह छोटे किसानों की 5-10 कुंतल फसल खरीदने तो आएगा नहीं। वह जिलों, ब्लॉकों आदि क्षेत्रवार बिचौलियों की श्रंखला ही खड़ी करेगा। भले उसे ओपन मंडियों या ओपन खरीद जैसा कोई नाम दे दिया जाए लेकिन ओपन खरीद मॉडल में बिचौलिए पहले से बढ़ेंगे, कम होते तो कतई नहीं दिखते हैं। यानि सरकार का बिचौलिए खत्म होने का दावा भी हवा हवाई ही है। कुल मिला कर बिहार मॉडल का लब्बोलुबाब तो यही है।
सहारनपुर शहर की अनाज मंडी में ही कृषि जिंसों की आवक 63% तक कम हो गई है। मसलन, गत वर्ष नवंबर माह में सहारनपुर मंडी में कृषि जिंसों की प्राथमिक आवक करीब 3 लाख 2 हजार कुंतल रही थी जो इस साल नवंबर माह में 1.12 लाख कुंतल ही हो सकी है।
ज़िले की दूसरी प्रमुख गंगोह मंडी में प्राथमिक आवक 32% गिरी है जबकि रामपुर मनिहारान में 60%, छुटमलपुर व देवबंद मंडी में 58% की गिरावट दर्ज की गई है। मुजफ्फरनगर मंडी में आवक 4.4 लाख कुंतल से गिरकर 52 हजार कुंतल पर आ गई है। यानि 88% तक कम हो गई हैं। शामली मंडी में यह आंकड़ा 68%, का है। कैराना में 43%, थानाभवन 13% व कांधला 12% की कमी दर्ज की गई हैं। कुल मिलाकर सहारनपुर मंडल में 74% की बड़ी कमी आई है।
खास यह है कि सहारनपुर मंडल की मंडियों में प्रमुख तौर से धान, गुड़, गेंहू, दलहन-तिलहन व फल सब्ज़ियों के साथ लकड़ी आदि पर मंडी शुल्क लगता है। मंडी के जानकारों और अधिकारियों का कहना है कि नए कृषि कानूनों से मंडी व्यापार क्षेत्र का दायरा सिमटकर परिसर तक सीमित हो गया है। पहले मंडी क्षेत्र में कहीं भी खरीद होती थी, तो उस पर मंडी को शुल्क भी मिलता था और वह मंडी की प्राथमिक आवक मानी जाती थी। अब मंडी का दायरा परिसर तक सीमित हो गया है।
यही नहीं, सहारनपुर ज़िले की तीन मंडियों में कारोबार गिरकर शून्य हो गया है। ज़िले की तीन मंडियों नानौता, नकुड़ व चिलकाना में आवक शून्य हो गई है। दरअसल, इन तीनों मंडियों के पास अपना अधिसूचित परिसर नहीं था। लिहाजा इनका सारा कारोबार परिसर से बाहर ही था जो नए कानूनों से खत्म हो गया है।
सबसे प्रमुख फसलों की बात करें तो धान व गुड़ के मुख्य उत्पादों की आवक में भी खासी कमी आई है। मसलन सहारनपुर मंडी की ही बात करें तो धान की गत वर्ष की नवंबर माह की प्राथमिक आवक 56,500 कुंतल थी जो इस साल नवंबर माह में करीब 27 हजार कुंतल ही रह गई है। इसी तरह गुड़ की प्रमुख मंडी मुजफ्फरनगर को देखें तो आवक 1.29 लाख कुंतल से गिरकर 22 हजार कुंतल पर आ गई है। कारण वही, नए कृषि कानूनों से मंडी व्यापार क्षेत्र सिमटकर, अब परिसर के अंदर तक ही सीमित हो गया है।
उधर, आवक गिरने से मंडी समितियों की आय भी धड़ाम हो चली है। मंडी अधिकारियों के अनुसार मंडियों की आय में भी आधे से ज्यादा की गिरावट दर्ज की जा रही है। दूसरा, उत्तर प्रदेश कैबिनेट के मंडी शुल्क दो प्रतिशत से घटाकर एक फीसद करने के फैसले से भी मंडियों की आय खत्म हो रही है। किसान उत्पाद, व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम 2020 के तहत अब मंडी परिसरों में एक प्रतिशत मंडी शुल्क तथा आधा प्रतिशत विकास शुल्क यानि कुल डेढ़ प्रतिशत शुल्क ही वसूल किया जा रहा है।
अब केंद्र सरकार व भाजपा नेता लाख दावे करें कि मंडी खत्म नहीं होगी लेकिन किसानों का डर अनायास नहीं है। सच सामने है कि कृषि जिंसों की आवक नहीं होगी तो मंडी में आढ़ती ही क्या करेंगे। वह भी छोड़ जाएंगे। बाहर खरीद पर उन्हें मंडी टैक्स भी नहीं देना पड़ेगा और अंततः धीरे-धीरे बिहार की तर्ज पर उत्तर प्रदेश में भी मंडियां समाप्ति की ओर बढ़ चलेंगी।
हालांकि सरकार मंडियों में सुविधाएं बढ़ाने और जैविक उत्पादों आदि से आय बढ़ाने की बात कर रही है लेकिन सवाल वही हैं जब मंडी में व्यापारी नहीं होंगे तो किसान भी मंडी में क्योंकर व क्या लेने आएगा।
उत्तर प्रदेश राज्य कृषि उत्पादन मंडी परिषद निदेशक जेपी सिंह यह स्वीकारते हुए कहते हैं कि शुल्क घटने से मंडी परिषद की वार्षिक आय कम होगी परंतु कहते हैं कि इसकी पूर्ति के लिए कई अन्य योजनाएं तैयार की जा रही हैं। बता दें कि मंडी शुल्क कम होने से पूर्व मंडी परिषद की वार्षिक आय करीब दो हजार करोड़ रुपये थी जो घटकर आधे पर आने का अनुमान है।
बात बिहार की, जहां पहले ही मंडियां खत्म की जा चुकी हैं। अब भाजपा व बिहार सरकार तर्क कुछ भी दें लेकिन मंडी खत्म होने के असर को, बिहार के किसानों की माली हालत को देख कर, आसानी से जाना समझा व पता लगाया जा सकता है। इसी सब से संयुक्त किसान मोर्चा नेता सरदार गुरनाम सिंह चढ़ूनी पटना पहुंचे और बिहार के किसानों से अपील की कि वे भी आंदोलन में कूदें क्योंकि मंडी खत्म होने के बाद एमएसपी की सच्चाई को बिहार के किसान से बेहतर शायद ही कोई जानता समझता हो।
वैसे भी जहां एक तरफ पूरी सरकार पूरी ताकत लगा कर बताने में लगी है कि मंडी खत्म नहीं होंगी। वहीं, बिहार बीजेपी के नेता व राज्यसभा सांसद सुशील मोदी एक तरह से ट्वीट करते हैं कि प्रधानमंत्री ने मंडी खत्म कर दी है। प्रख्यात पत्रकार रवीश कुमार, सुशील मोदी के ट्वीट का इसी आशय से अपने प्राइम टाइम शो में भी ज़िक्र करते हैं।
मसलन, अपने ट्वीट में सुशील मोदी लिखते हैं कि '2006 में बिहार की पहली एनडीए सरकार ने सालाना 70 करोड़ के राजस्व का नुकसान उठाकर बाजार समिति अधिनियम समाप्त किया और लाखों किसानों को 1% के बाजार समिति कर से मुक्ति दिलाई। कांग्रेस ने 2019 के घोषणापत्र में मंडी-बाजार समिति व्यवस्था खत्म करने का वादा किया था। जो मंडी व्यवस्था बिहार में 14 साल पहले खत्म हो गई और जिसे कांग्रेस 2019 में खत्म करना चाहती थी वह काम प्रधानमंत्री मोदी ने देशव्यापी कानून के जरिए कर दिया तो राहुल गांधी छाती क्यों पीट रहे हैं।
सुशील मोदी कहते हैं कि 2006 में बिहार की मंडियों की तरह इस बार प्रधानमंत्री ने देश भर में कर दिया है। यानी प्रधानमंत्री ने बिहार की तरह देश भर की मंडी खत्म कर दी है। जबकि प्रधानमंत्री समेत पूरी भाजपा कह रही है कि मंडी खत्म नहीं होंगी।
बिहार में कभी बड़ी समृद्ध मंडियां हुआ करती थीं। मसलन 24 सितंबर के लाइव मिंट में छपे प्रो हिमांशु के लेख के अनुसार, 2006 में एपीएमसी के खत्म होने से पहले बिहार में 95 मार्केट यार्ड थे। वहीं राज्य कृषि बोर्ड को 2004-05 में 60 करोड़ टैक्स प्राप्त हुआ था। इसमें से काफी पैसा मंडी के बुनियादी ढांचे के विकास पर खर्च हुआ। अब वो टैक्स नहीं है तो सारा खत्म हो चुका है। विकास भी ठप हुआ। यही नहीं, बिहार में निजी निवेश भी खास नहीं हुआ है।
खास यह भी है कि बिल गेट्स फाउंडेशन के समर्थन से पेन्सिल्वेनिया यूनिवर्सिटी के सौमित्र चटर्जी, मेखला कृष्णमूर्ति, देवेश कपूर और मार्शल बाओटन के द्वारा किए एक अध्ययन से बिहार मंडी मॉडल समझा जा सकता है। रिपोर्ट के अनुसार, बिहार के नालंदा ज़िले की सोह सराय में व्यापारियों द्वारा बनाई मंडी को भारत की पहली आलू मंडी कहा जाता है। 1960 से 1980 तक इस मंडी में खूब बिज़नेस हुआ। इतना काम होता था कि रात की पाली भी चलती थी। यहां से आलू बर्मा तक जाता था। बाद में सरकार ने पास में नालंदा बाज़ार समिति बनाई तो यहां के व्यापारी वहां चले गए और कारोबार दोनों मंडियों में बंट गया। धीरे धीरे इस मंडी का कारोबार कम होने लगा। ट्रेन सेवाएं बंद हो गईं। आलू का उत्पादन भी कम हो गया। 2006 में जब एपीएमसी एक्ट खत्म कर दिया गया तो कारोबार 10 प्रतिशत से भी कम रह गया।
यही नहीं, जैसे जैसे मंडियों में आवक घट रही है त्यों त्यों बिचौलिए भी बढ़ने लगे हैं। गांव गांव नए बिचौलिए खड़े हो रहे हैं। वैसे भी अडानी, अंबानी या कोई और कॉरपोरेट हो, वह छोटे किसानों की 5-10 कुंतल फसल खरीदने तो आएगा नहीं। वह जिलों, ब्लॉकों आदि क्षेत्रवार बिचौलियों की श्रंखला ही खड़ी करेगा। भले उसे ओपन मंडियों या ओपन खरीद जैसा कोई नाम दे दिया जाए लेकिन ओपन खरीद मॉडल में बिचौलिए पहले से बढ़ेंगे, कम होते तो कतई नहीं दिखते हैं। यानि सरकार का बिचौलिए खत्म होने का दावा भी हवा हवाई ही है। कुल मिला कर बिहार मॉडल का लब्बोलुबाब तो यही है।