पूंजीवादी व्यवस्था की विफलता की कहानी बयां करती कोरोना महामारी

Written by Dr. Amrita Pathak | Published on: November 30, 2020
इतिहास गवाह है दुनिया में महामारी तत्कालीन व्यवस्था के बदलाव का आगाज करती है वो अलग बात है कि दुनिया भर में गहरी जड़ जमा चुकी पूंजीवादी व्यवस्था बदलते परिवेश के साथ सत्ता पर काबिज होने में सफ़लता हासिल कर लेती है. सामाजिक बदलाव के साथ पूंजीवाद का स्वरुप भी बदल जाता है. दुनिया के हर देश में पूंजीवाद का स्वरुप जरुर अलग है लेकिन उसका चरित्र एक ही है जिसे कोरोना महामारी के प्रभाव ने धराशायी कर दिया है. 100 साल पहले फैली महामारी स्पेनिश फ्लू ने दुनिया भर की स्वास्थ्य व्यवस्था के नाकाफी इंतजाम को जगजाहिर किया और आज 100 साल बाद 21वीं सदी के डिजिटल इंडिया सहित तकनीकि क्रांति के दौर में भी महामारी के सामने पूरा विश्व नतमस्तक ही है. 



वैश्वीकरण की तेज रफ़्तार पर दुनिया भर में कोरोना महामारी ने लगाम लगा दिया है और लगातार सत्ता को चुनौती दे रही है. कई देशों में राष्ट्रवाद का दंभ धराशायी होता नजर आ रहा है तो कहीं पूंजीवादी सत्ता की नींव हिल रही है. आलम यह है कि विकसित और विकासशील देश के विकास में आपसी सहयोग के लिए बनाए गए  G5, G8, ब्रिक्स, आसियान, सार्क, विश्व बैंक, विश्व स्वास्थ्य संगठन, सहित कोई भी समूह बहुत कारगर साबित नहीं हो पा रहा है. मसलन अमेरिका ने चीन से भारत भेजे जाने वाले 5 लाख कोरोना किट चीनी कंपनी को ज्यादा पैसे दे कर अपने यहाँ मंगा लिया तो महामारी से उपजी अस्थिरता ने विश्व भर के सभी देशों को आत्मकेंद्रित होने को मजबूर कर दिया है जबकि छोटे देशों की निर्भरता बड़े पूंजीपति देशों के ऊपर जगजाहिर है. अब भारत घरेलू स्तर पर PPE किट बनाए जाने पर जोर दे रही है. तात्पर्य यह है कि वैश्वीकरण के नाम पे दुसरे देशों पर निर्भरता राष्ट्र की राजनीतिक व्यवस्था और महामारी से उबरने के उसकी तैयारी की पोल खोलती नजर आ रही है.

प्रचंड बहुमत की भारतीय सरकार द्वारा महामारी की आड़ में लगातार तुगलकी फरमान जारी कर जनता पर पाबंदियां लगायी गयी हैं और पाबंदियों को लाचारी में भी उलंघन कर दिए जाने पर व्यवस्था का क्रूरतम चेहरा सामने आ रहा है जो स्थापित व्यवस्था के निरंकुश चरित्र को सामने ला रहा है. महामारी की मार झेलती देश की आम जनता को सत्ता का अत्याचार भी साथ-साथ भुगतना पड़ रहा है. 30 नवम्बर 2020 को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वाराणसी जा रहे हैं वहां आम जनता को काले कपड़े पहन कर न निकलने की हिदायत दी गयी है साथ ही प्रतिदिन काम कर अपने घर की रोजी रोटी चलाने वाले लोगों को गंगा नदी में नहीं जाने की कवायद की गयी है जो गरीब जनता के प्रति सरकारी असंवेदनशीलता को दिखाता है. महामारियों ने कई पुरानी मान्यताओं को तोड़ा व नई मान्यताओं को स्थापित करने में अग्रणी भूमिका निभाई. महामारियां धर्मसत्ता के प्रभाव को कुछ हद तक ख़त्म कर जनता के सामने रख चुकी  हैं और जनता कुछ धारणाओं को छोड़कर नई धारणाएं स्थापित करती है। जहां महामारियों के तुरंत बाद वैज्ञानिक सोच व तर्क की व्यापकता पैदा हुई उन सभ्यताओं ने आगे चलकर दुनिया का नेतृत्व किया। धार्मिक विविधता वाले देश भारत में घर्म को मोहरा बना कर राजनीति कर रहे हुक्मरानों की नाकामियां और दूरदृष्टि के अभावों को कोरोना महामारी ने उजागर कर दिया है.

महामारी के इस दौर में देश में पूंजीपति-मजदूर, अमीर-गरीब, सरकारी-निजी संस्थान, का फर्क स्पष्ट दिखाई दे रहा है और आज यह समझना भी बहुत मुश्किल नहीं है कि सरकार किस वर्ग के साथ खड़ी है. कोरोना के गंभीर समय में भिखारी बने पूंजीपतियों की झोली भरना, विदेशों से भारतीयों को वापस लाने की प्राथमिकता, निजी अस्पताल में मरीजों के इलाज को रोकना, अमीरों के लिए न्यायालय में केस की सुनवाई करना, अमीर लोगों की सुरक्षा को विशेष तवज्जो देना व दूसरी तरफ गरीबों को खाने की लाइन में खड़े करना, पटरियों पे सोने के लिए मजबूर होना, हजारों की संख्या में सड़कों पे उतरना, भूख की वजह से आत्महत्या के लिए मजबूर होना और जब कि देश की अर्थव्यवस्था शराब व्यवसायी के हाथों में डाल दिया गया तो शराब की बेतहासा बिक्री से घरेलु हिंसा सहित औरतों की आत्महत्या की दास्ताँ तेज हो गयी. ये हालात देश में महिलाओं व गरीबों की बदहाली को दर्शाता है. 

एक तरफ बेरोजगार की बढती तादाद है तो दूसरी तरफ ध्वस्त होती भारतीय अर्थवयवस्था है जिसका एक मात्र कारण कोरोना महामारी नहीं हो सकता. आज अर्थव्यवस्था में सुधार के साथ-साथ व्यवस्था में समुचित बदलाव की भी जरुरत है जिस पर गभीरता से सोचने का समय है. शोषक और शोषित वर्ग की पटरी पे चल रहे पूंजीवाद में बदलाव जरुरी है जिसे दिशा देने का काम देश की जनता को करना पड़ेगा. बदलते समाज विकास के क्रम में व्यवस्था का बदलाव अवश्यंभावी है जिसका आधार निश्चित रूप से वैचारिक होगा.

बाकी ख़बरें