सुप्रीम कोर्ट का यह हाल सरकार ने बनाया है या खुद?

Written by Sanjay Kumar Singh | Published on: November 17, 2020
संविधान के अनुसार सरकार से लेकर सत्ता और पुलिस तक का सताया सुप्रीम कोर्ट से राहत पा सकता है। अर्नब गोस्वामी के मामले में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने भले ही यही साबित करने की कोशिश की हो पर पहले के मामलों से यह आरोप दमदार लगा कि मामला व्यक्ति का नहीं केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी या उसके समर्थक का है। आम आदमी की हालत वही है। उसे सुप्रीम कोर्ट से कोई राहत नहीं मिलती है। उसे भी नहीं, जिसकी वकालत हरीश साल्वे की जगह कपिल सिब्बल करते हैं और कुछ खास मामलों का उल्लेख करते हैं तब भी।



ऐसे में कॉमेडियन कुणाल कामरा ने सुप्रीम कोर्ट की बिल्डिंग को भगवा रंग कर पोस्ट किया और उसपर राष्ट्रीय झंडे की जगह भाजपा का झंडा लगा दिया तो अवमानना का मामला निराधार नहीं है। कानून के छात्रों को यह अदालत की अवमानना का मामला लगा - यह भी असामान्य नहीं है। पर अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल को क्यों लगा कि अदालत को प्रशांत भूषण के मामले में अपनी छीछालेदर करवाने के बाद फिर कुणाल कामरा का मामला सुनना चाहिए - यह मैं समझ नहीं पाया। संभव है, उन्हें अर्नब का मामला वैसा ही लगा हो जैसा न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ को लगा होगा और उन्होंने सिर्फ उस मामले पर फैसला दिया होगा। इस बात का ख्याल किए बगैर कि आगे-पीछे क्या, कैसे होता रहा है।

केके वेणुगोपाल के साथ ऐसी स्थिति नहीं थी। वे अर्नब मामले में तमाम दलीलों के बावजूद उसपर एक नागरिक की प्रतिक्रिया देख रहे थे और अवमानना का मामला चलाने की अनुमति देने से पहले बहुत सारी चीजों पर विचार कर सकते थे, किया ही होगा। उसके बावजूद उन्हें कुणाल कामरा की प्रतिक्रिया सामान्य या वाजिब नहीं लगी? पता नहीं उन्होंने इस तरह की प्रतिक्रिया को रोकने की जरूरत समझी या नहीं और समझी तो उसके किसी उपाय पर विचार किया या नहीं। आमतौर पर और अभी तक हमलोग यही मानते थे कि अदालत के फैसलों को अवमानना कानून का कवच है। उसकी आलोचना नहीं हो सकती है। अभी तक अवमानना कानून का डर और अदालत का सम्मान बना हुआ था।

प्रशांत भूषण मामले में जो कुछ हुआ उससे अवमानना कानून का डर तो कम हुआ ही होगा। लोगों को लगा कि जुर्माने का विकल्प भी है। पहले अवमानना मामले में जेल की सजा का डर सामान्य नहीं था। लेकिन जुर्माने के विकल्प की उपलब्धता ने सजा का डर काफी कम कर दिया होगा और फिर एक रुपए की सजा का तो कोई मतलब ही नहीं था। हालांकि, प्रचारकों ने इसका वास्तविक महत्व और उसे प्रशांत भूषण की हैसियत आदि से जोड़कर सजा को गंभीरता देने की कोशिश की पर (मुझे) नहीं लगता कि बात बनी। उसके तुरंत बाद अर्नब का मामला और फिर कुणाल कामरा का एक तरह से बगावत कर देना और कहना कि हमें भी अपनी बात कहने का मौका मिलेगा - एक अजीब स्थिति है। इसके बावजूद आज (सोमवार को) केरल के पत्रकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट में जो हुआ उससे अर्नब गोस्वामी की विशिष्टता बनी रही। कुणाल कामरा ने इसका भी मजाक उड़ाया। देश, सरकार और न्यायपालिका के लिए यह अच्छी स्थिति नहीं है। पर विकल्प क्या है?

अभी जो हालात हैं उसके अनुसार लगता है कि सरकार ने दबाव डालकर या अन्य तरीकों से भी सुप्रीम कोर्ट को बिल्कुल नियंत्रण में ले लिया है और सरकार के पक्ष में फैसले हो रहे हैं या लटका दिए जा रहे हैं। भले ही यह सच न हो पर जो हो रहा है उसमें सच लग रहा है और उसका विरोध करने के मामले बढ़ रहे हैं। पुरानी स्थिति में सरकार के सही गलत का फैसला अदालत करती थी अब अदालत के सही गलत पर जनता फैसला सुना रही है। इस तरह जनता की अदालत से चुनाव जीतने वाले अपने काम और प्रदर्शन की आलोचना से मुक्त हो गए हैं। दूसरी तरफ जिसके काम की आलोचना नहीं हो सकती वह रोज आलोचना का शिकार हो रही है। 

क्या सुप्रीम कोर्ट तमाम महत्वपूर्ण मामले इसलिए सुनेगी कि अर्नब को जमानत देने से आसमान नहीं गिर पड़ेगा। पर सच यह भी है कि जरूरी मामलों पर सुनवाई से आसमान नहीं गिर पड़ेगा। ऐसे में अगर कामरा को जेल हो ही जाए तो अदालत के फैसलों पर टिप्पणी क्या रुक जाएगी और नहीं रुकेगी तो अदालत का क्या होगा? आलोचना का यह सिलसिला सजा देने से तो नहीं रुकने वाला। आलोचना सुनकर या पाकर भी अदालत का रुख वही रहेगा तो यह किसी के लिए भी ठीक नहीं है। सरकार और सुप्रीम कोर्ट अपना काम ढंग से नहीं करेगी और सरकार के लिए आलोचना झेलेगी? और ढंग से करेगी तो क्या होगा? क्या पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई का मामला आपका सामान्य लगता है? क्या उसपर भी चर्चा होगी और होगी तो कहां तक? और नहीं होगी तो कैसे क्या उपाय है? देखा जाए।

बाकी ख़बरें