दुनियां में मौजूद लगभग सभी विचारधाराओं को मानने वाले लोगों ने नारी की स्थितियों की अलग अलग ढंग से व्याख्या की है. मेरी राय में अगर नारी की व्याख्या की जाए तो कहा जा सकता है कि ‘नारी मानवता और समाज का वह अभिन्न हिस्सा है जिससे सभ्य समाज की संरचना पूर्ण होती है’.
नारी सिर्फ मादा जीव प्राणी नहीं है, बल्कि नारी मादा से भिन्न अर्थों में ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विशिष्टताओं को अपने आप में समेटे हुए है. जब हम नारी या महिला कहते हैं तो इससे केवल गर्भ धारण करने वाली ‘मादा जीवप्राणी’ का संबोधन नहीं होता बल्कि पुरुषों से कई मायने में अलग सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक अस्तित्व रखने वाली प्राणी का बोध होता है. यह अलग बात है कि पुरुष प्रधान अर्थव्यवस्था वाले समाज में स्त्री पुरुषों के साथ अन्य प्रक्रियाओं में हिस्सा लेती है लेकिन उसके सभी अधिकार पुरुषों के अधीन होते हैं. नारी का अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी पुरुष के अस्तित्व में समाहित हो जाता है हालाँकि वर्तमान समय में उत्पादन के बदलते साधनों ने समाज में नारी की भूमिका को बदल कर रख दिया है. वैज्ञानिक तकनीकि क्रांति ने विश्व भर में श्रम के तरीकों को शारीरिक कम बौद्धिक ज्यादा बना दिया है फलतः उत्पादन की प्रक्रिया में नारी की प्रत्यक्ष भूमिका बढ़ी है और इस आधार पर अन्य संबंधों में भी व्यापक बदलाव हुए हैं. आज की नारी समाज में केवल जननी या कुछ खास कार्यों के लिए अरक्षित नहीं रह गयी है. स्वाभाविक तौर पर इस बदलाव और समाज में नारी की बदलती भूमिका के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के प्रभाव उत्पन्न हुए हैं.
भारतीय समाज के परिपेक्ष्य में अगर बात किया जाए तो उत्पादन के बदलते साधनों के साथ ऐतिहासिक रूप से तकनीकि क्रांति तक के सफ़र में नारी की भूमिका को लेकर कई उतार चढाव आए हैं. ‘एंगल्स’ ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “परिवार निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति” में बताया है कि औरत का इतिहास तकनीक के इतिहास से जुड़ा होता है. आदिम समाज में पहला श्रम विभाजन स्त्री और पुरुष के बीच हुआ था. पुरुष मुख्यतः अधिक श्रम की आवश्यकता वाला काम करते थे और महिलाऐं अपनी विशिष्ट शारीरिक बनावट के चलते पुरुषों की तुलना में कम शारीरिक श्रम वाले कार्य करती थी. शारीरिक और आर्थिक चक्र में ये दोनों ही प्रकार के कार्य महत्वपूर्ण थे और इनके परस्पर सहयोग से ही समाज में कार्य पूर्ण रूप से फलीभूत होते थे. इस अवस्था में पुरुषों द्वारा नारी के शोषण जैसी कोई बात नहीं थी. इस आदिम समाज (सभ्यता की भ्रूण अवस्था)में स्त्री और पुरुष के बीच अंतर केवल जैविक था. तकनीकि विकास ने उत्पादन के बदलते साधनों के साथ स्त्री पुरुष के प्राकृतिक अंतर को और अधिक गहरा करते हुए अन्य भिन्नताओं को जन्म दिया और श्रम विभाजन को जटिल बना दिया.
योग्यतानुसार या जरुरत के लिए जिन कार्यों को स्त्री और पुरुष आपसी सहयोग से किया करते थे वे अब अनिवार्य बन गए. एक तरफ उत्पादन के साधनों पर से महिलाओं के अधिकार जाता रहा और दूसरी तरफ पुरुषों की एकाधिकारी सत्ता स्थापित होती चली गयी.
यानि जो गुण महिलाओं को समाज निर्माण में विशिष्ट स्थान देता था वही उसकी गुलामी का कारण बन गया. आदिम साम्यवादी व्यवस्था के बाद प्रत्येक सामाजिक आर्थिक व्यवस्था के निर्माण में नारी को नींव बना कर उसकी ही गुलामी की ईमारत खड़ी की गयी. दास व्यवस्था और सामंतवाद को औरतों के इतिहास का काला युग कहा जा सकता है. पूंजीवादी व्यवस्था में नारियों की स्थिति में व्यापक बदलाव आया.
वैज्ञानिक-तकनीकि विकास और आधुनिक शिक्षा के प्रभाव में समाज में अर्थव्यवस्था के बदलते संबंधों के चलते आधुनिक समय में नारी की स्थिति तेजी से बदली. पूंजीवाद ने अपने विकास के लिए पूर्व स्थापित व्यवस्था की कई धारणाओं को बदल दिया. लोगों में स्वतंत्रता और समानता के विचार को फैलाया क्योंकि उसे अपने विकास के लिए बंधनमुक्त श्रम और लचीले बाजार व्यवस्था की जरुरत थी. इसी क्रम में नारियों को भी कई वंचित अधिकार प्राप्त हुए लेकिन नारी की स्वतंत्रता और पुरुषों के सामान अधिकार के लिए ये पर्याप्त नहीं रहे. पूंजीवाद के विकास क्रम में नारी को प्राप्त अधिकार के अलावे इसके कुछ नए खतरे भी उठाने पड़े. पुरातन समाज के आदर्शों में नारी को प्राप्त प्रतिष्ठा, जो की झूठी थी, पूरी तरह से धराशायी हो गयी. नारी के लिए वास्तविक जीवन में तो कुछ था नहीं आदर्शों में भी वो गौण हो गयी. इसका नुकसान यह हुआ कि नारी का शोषण परिवार की चारदीवारी से निकलकर बाजार में प्रत्यक्षतः होने लगा हालांकि इस व्यवस्था में नारी ने खुद को खुले आकाश में दूसरों की तुलना में पहचानना शुरू किया जो कि उसकी मुक्ति और समाज में उसकी प्रतिष्ठा की पुनर्स्थापना का रास्ता तैयार करने का आधार बना.
आज के नव उदारवादी समय में समाज में महिलाओं के बढ़ते प्रभाव व् उपयोग की वस्तु मानी जाने वाली नारियों के रस्साकसी का दौर है. आज भारत में मनुस्मृति को मानने और समाज में लागु करने की मंशा रखने वाले लोग सत्ता पर काबिज है जो समाज में धीरे धीरे नारी के भविष्य को अंधकार की तरफ ले जा सकते हैं. वर्तमान में देश में संघ समर्थित सरकार है जिसके शासन काल में महिलाओं के बलात्कार व् हत्याओं की घटनाएँ तेजी से बढ़ी है. परिवार से समाज तक नरभक्षियों का शिकार होती नारी और दोषियों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मिलता संघ का समर्थन हमें संघ की सोच की जड़ तक पहुचने के लिए विवश करता है जो मनुवाद पर आधारित है.
वर्तमान में राष्ट्रीय स्वंसेवक संध के प्रमुख मोहन भागवत ने अहमदावाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं की बैठक में सभी को यह कह कर चौका दिया कि देश में तलाक लगातार बढ़ रहे हैं जिसकी बड़ी वजह परिवारों में बढती आमदनी और शिक्षा दर है. विद्या और धन पाने से मन में अहंकार का उदय होता है, जिसकी वजह से वैवाहिक तालमेल टूटता है और परिवार बर्बाद हो जाते हैं.
उनका यह भी कहना था कि संघ के सभी स्वयंसेवकों को संघ की गतिविधियों और सोच से अपने परिवारों को भी परिचित कराना चाहिए, क्योंकि 2000 साल पहले जब महिलाएं खुद को घर तक सीमित रखती थीं, वह हम हिंदुओं का स्वर्ण युग था. मातृशक्ति से ही हम को हिंदुत्व पर गर्व के संस्कार मिले हैं। इसलिए उनका दाय अधिक कठिन और बड़ा बनता है.
इससे पहले (जनवरी, 2013) में भी भागवत ने कहा था कि महिलाओं का मूल उत्तरदायित्व घर- गृहस्थी चलाना है। अगर वे इससे विलग हो जाएं, तो उनका परित्याग किया जा सकता है. भागवत संघ के बड़े सम्मानित, बुजुर्ग नेता हैं और उनके कहे का असर दूर तक जाता है. देश में लगातार बढ़ते महिलाओं के साथ बलात्कार और हत्या की घटना पुरुषवादी मानसिकता और परोक्ष रूप से संघवाड़ी एजेंडे को साधती नजर आती है जिसमे महिलाओं को घर तक सीमित रखने की बात की गयी है.
आज कई मायनों में नारी समाज में अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम करने में कामयाब हो चुकी है लेकिन लगातार बढती महिला असुरक्षा के मायने से देखा जाए तो ये कामयाबी अधूरी सी मालूम पड़ती है. आज नव उदारवादी समाज में महिला अस्तित्व के संघर्ष के साथ महिला शोषण की दास्ताँ लिखी जा रही है. हर 15 मिनट में एक नारी के साथ बलात्कार और हत्या की घटना सभ्य समाज को कलंकित कर रहा है. आदिम साम्यवाद के बाद हर सामाजिक व्यवस्था में बदलाव तो हुए लेकिन शोषण ख़त्म नहीं हुआ और बिना शोषण के खात्मे के न ही सर्वहारा मुक्त हो सकता है और न ही नारी. तकनीकि विकास ने पूंजीवाद और नवउदारवाद के अंतर्विरोध को और अधिक गहरा किया है. बेबेल ने भी लिखा है कि “ नारी और सर्वहारा दोनों ही दलित हैं और दोनों के सामाजिक जागरण की सम्भावना यांत्रिक सभ्यता में अधिक पाई जाती है”. समाज में तकनीकि क्रांति के साथ ही पितृसत्तात्मक सोच से ग्रस्त नारी व् पुरुषों के सोच में सकारात्मक बदलाव ही नारी शोषण से मुक्त समाज का एक मात्र रास्ता है.
नारी सिर्फ मादा जीव प्राणी नहीं है, बल्कि नारी मादा से भिन्न अर्थों में ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विशिष्टताओं को अपने आप में समेटे हुए है. जब हम नारी या महिला कहते हैं तो इससे केवल गर्भ धारण करने वाली ‘मादा जीवप्राणी’ का संबोधन नहीं होता बल्कि पुरुषों से कई मायने में अलग सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक अस्तित्व रखने वाली प्राणी का बोध होता है. यह अलग बात है कि पुरुष प्रधान अर्थव्यवस्था वाले समाज में स्त्री पुरुषों के साथ अन्य प्रक्रियाओं में हिस्सा लेती है लेकिन उसके सभी अधिकार पुरुषों के अधीन होते हैं. नारी का अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी पुरुष के अस्तित्व में समाहित हो जाता है हालाँकि वर्तमान समय में उत्पादन के बदलते साधनों ने समाज में नारी की भूमिका को बदल कर रख दिया है. वैज्ञानिक तकनीकि क्रांति ने विश्व भर में श्रम के तरीकों को शारीरिक कम बौद्धिक ज्यादा बना दिया है फलतः उत्पादन की प्रक्रिया में नारी की प्रत्यक्ष भूमिका बढ़ी है और इस आधार पर अन्य संबंधों में भी व्यापक बदलाव हुए हैं. आज की नारी समाज में केवल जननी या कुछ खास कार्यों के लिए अरक्षित नहीं रह गयी है. स्वाभाविक तौर पर इस बदलाव और समाज में नारी की बदलती भूमिका के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के प्रभाव उत्पन्न हुए हैं.
भारतीय समाज के परिपेक्ष्य में अगर बात किया जाए तो उत्पादन के बदलते साधनों के साथ ऐतिहासिक रूप से तकनीकि क्रांति तक के सफ़र में नारी की भूमिका को लेकर कई उतार चढाव आए हैं. ‘एंगल्स’ ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “परिवार निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति” में बताया है कि औरत का इतिहास तकनीक के इतिहास से जुड़ा होता है. आदिम समाज में पहला श्रम विभाजन स्त्री और पुरुष के बीच हुआ था. पुरुष मुख्यतः अधिक श्रम की आवश्यकता वाला काम करते थे और महिलाऐं अपनी विशिष्ट शारीरिक बनावट के चलते पुरुषों की तुलना में कम शारीरिक श्रम वाले कार्य करती थी. शारीरिक और आर्थिक चक्र में ये दोनों ही प्रकार के कार्य महत्वपूर्ण थे और इनके परस्पर सहयोग से ही समाज में कार्य पूर्ण रूप से फलीभूत होते थे. इस अवस्था में पुरुषों द्वारा नारी के शोषण जैसी कोई बात नहीं थी. इस आदिम समाज (सभ्यता की भ्रूण अवस्था)में स्त्री और पुरुष के बीच अंतर केवल जैविक था. तकनीकि विकास ने उत्पादन के बदलते साधनों के साथ स्त्री पुरुष के प्राकृतिक अंतर को और अधिक गहरा करते हुए अन्य भिन्नताओं को जन्म दिया और श्रम विभाजन को जटिल बना दिया.
योग्यतानुसार या जरुरत के लिए जिन कार्यों को स्त्री और पुरुष आपसी सहयोग से किया करते थे वे अब अनिवार्य बन गए. एक तरफ उत्पादन के साधनों पर से महिलाओं के अधिकार जाता रहा और दूसरी तरफ पुरुषों की एकाधिकारी सत्ता स्थापित होती चली गयी.
यानि जो गुण महिलाओं को समाज निर्माण में विशिष्ट स्थान देता था वही उसकी गुलामी का कारण बन गया. आदिम साम्यवादी व्यवस्था के बाद प्रत्येक सामाजिक आर्थिक व्यवस्था के निर्माण में नारी को नींव बना कर उसकी ही गुलामी की ईमारत खड़ी की गयी. दास व्यवस्था और सामंतवाद को औरतों के इतिहास का काला युग कहा जा सकता है. पूंजीवादी व्यवस्था में नारियों की स्थिति में व्यापक बदलाव आया.
वैज्ञानिक-तकनीकि विकास और आधुनिक शिक्षा के प्रभाव में समाज में अर्थव्यवस्था के बदलते संबंधों के चलते आधुनिक समय में नारी की स्थिति तेजी से बदली. पूंजीवाद ने अपने विकास के लिए पूर्व स्थापित व्यवस्था की कई धारणाओं को बदल दिया. लोगों में स्वतंत्रता और समानता के विचार को फैलाया क्योंकि उसे अपने विकास के लिए बंधनमुक्त श्रम और लचीले बाजार व्यवस्था की जरुरत थी. इसी क्रम में नारियों को भी कई वंचित अधिकार प्राप्त हुए लेकिन नारी की स्वतंत्रता और पुरुषों के सामान अधिकार के लिए ये पर्याप्त नहीं रहे. पूंजीवाद के विकास क्रम में नारी को प्राप्त अधिकार के अलावे इसके कुछ नए खतरे भी उठाने पड़े. पुरातन समाज के आदर्शों में नारी को प्राप्त प्रतिष्ठा, जो की झूठी थी, पूरी तरह से धराशायी हो गयी. नारी के लिए वास्तविक जीवन में तो कुछ था नहीं आदर्शों में भी वो गौण हो गयी. इसका नुकसान यह हुआ कि नारी का शोषण परिवार की चारदीवारी से निकलकर बाजार में प्रत्यक्षतः होने लगा हालांकि इस व्यवस्था में नारी ने खुद को खुले आकाश में दूसरों की तुलना में पहचानना शुरू किया जो कि उसकी मुक्ति और समाज में उसकी प्रतिष्ठा की पुनर्स्थापना का रास्ता तैयार करने का आधार बना.
आज के नव उदारवादी समय में समाज में महिलाओं के बढ़ते प्रभाव व् उपयोग की वस्तु मानी जाने वाली नारियों के रस्साकसी का दौर है. आज भारत में मनुस्मृति को मानने और समाज में लागु करने की मंशा रखने वाले लोग सत्ता पर काबिज है जो समाज में धीरे धीरे नारी के भविष्य को अंधकार की तरफ ले जा सकते हैं. वर्तमान में देश में संघ समर्थित सरकार है जिसके शासन काल में महिलाओं के बलात्कार व् हत्याओं की घटनाएँ तेजी से बढ़ी है. परिवार से समाज तक नरभक्षियों का शिकार होती नारी और दोषियों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मिलता संघ का समर्थन हमें संघ की सोच की जड़ तक पहुचने के लिए विवश करता है जो मनुवाद पर आधारित है.
वर्तमान में राष्ट्रीय स्वंसेवक संध के प्रमुख मोहन भागवत ने अहमदावाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं की बैठक में सभी को यह कह कर चौका दिया कि देश में तलाक लगातार बढ़ रहे हैं जिसकी बड़ी वजह परिवारों में बढती आमदनी और शिक्षा दर है. विद्या और धन पाने से मन में अहंकार का उदय होता है, जिसकी वजह से वैवाहिक तालमेल टूटता है और परिवार बर्बाद हो जाते हैं.
उनका यह भी कहना था कि संघ के सभी स्वयंसेवकों को संघ की गतिविधियों और सोच से अपने परिवारों को भी परिचित कराना चाहिए, क्योंकि 2000 साल पहले जब महिलाएं खुद को घर तक सीमित रखती थीं, वह हम हिंदुओं का स्वर्ण युग था. मातृशक्ति से ही हम को हिंदुत्व पर गर्व के संस्कार मिले हैं। इसलिए उनका दाय अधिक कठिन और बड़ा बनता है.
इससे पहले (जनवरी, 2013) में भी भागवत ने कहा था कि महिलाओं का मूल उत्तरदायित्व घर- गृहस्थी चलाना है। अगर वे इससे विलग हो जाएं, तो उनका परित्याग किया जा सकता है. भागवत संघ के बड़े सम्मानित, बुजुर्ग नेता हैं और उनके कहे का असर दूर तक जाता है. देश में लगातार बढ़ते महिलाओं के साथ बलात्कार और हत्या की घटना पुरुषवादी मानसिकता और परोक्ष रूप से संघवाड़ी एजेंडे को साधती नजर आती है जिसमे महिलाओं को घर तक सीमित रखने की बात की गयी है.
आज कई मायनों में नारी समाज में अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम करने में कामयाब हो चुकी है लेकिन लगातार बढती महिला असुरक्षा के मायने से देखा जाए तो ये कामयाबी अधूरी सी मालूम पड़ती है. आज नव उदारवादी समाज में महिला अस्तित्व के संघर्ष के साथ महिला शोषण की दास्ताँ लिखी जा रही है. हर 15 मिनट में एक नारी के साथ बलात्कार और हत्या की घटना सभ्य समाज को कलंकित कर रहा है. आदिम साम्यवाद के बाद हर सामाजिक व्यवस्था में बदलाव तो हुए लेकिन शोषण ख़त्म नहीं हुआ और बिना शोषण के खात्मे के न ही सर्वहारा मुक्त हो सकता है और न ही नारी. तकनीकि विकास ने पूंजीवाद और नवउदारवाद के अंतर्विरोध को और अधिक गहरा किया है. बेबेल ने भी लिखा है कि “ नारी और सर्वहारा दोनों ही दलित हैं और दोनों के सामाजिक जागरण की सम्भावना यांत्रिक सभ्यता में अधिक पाई जाती है”. समाज में तकनीकि क्रांति के साथ ही पितृसत्तात्मक सोच से ग्रस्त नारी व् पुरुषों के सोच में सकारात्मक बदलाव ही नारी शोषण से मुक्त समाज का एक मात्र रास्ता है.