बिहार राज्य के कैमूर जिला के अधौरा प्रखंड़ में कैमूर मुक्ति मोर्चा के तत्वधान में भारी मात्रा में आदिवासीयों का वनविभाग एवं पुलिस उत्पीड़न के खिलाफ व्यापक प्रर्दशन आयोजित किया गया।
अखिल भारतीय वनजन श्रमजीवी यूनियन ने विज्ञप्ति जारी कर कहा कि अधौरा प्रखंड़ कैमूर पहाड़ियों में बसा वन बाहुल्य व आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र है जो कि मुख्य धारा की विकास से कोसों दूर है व यह ऐसा क्षेत्र है जो कि अभी भी सांमती युग में जी रहा है। इस क्षेत्र में बेहद ही ग़रीबी व पिछड़ापन है किसी प्रकार का रोज़गार नहीं है, यहां के मूल निवासी आदिवासी, दलित एवं अन्य ग़रीब तबका केवल वनों एवं खेती पर ही अपनी आजीविका के लिए निर्भर है।
पूरे कैमूर के पहाड़ों व जंगलों पर अंग्रेजों द्वारा बनाए गए वनविभाग का अवैध कब्ज़ा है व वनविभाग द्वारा आदिवासीयों की पुश्तैनी ज़मीनों पर आज़ादी के बाद से अतिक्रमण कर लगातार वनाश्रित समुदायों को बेदख़ल किया जाता रहा है। वनविभाग के साथ इस क्षेत्र में सांमतशाही के चलते भी दलित आदिवासीयों का जीवन बेहद ही कष्टदायक रहा है जहां इन सांमतवादी ताकतों द्वारा अच्छी खेती की भूमि व जंगलों पर अवैध रूप से कब्ज़ा कर यहां के असली निवासीयों आदिवासीयों को बेदखल किया जाता रहा है।
इस क्षेत्र में काफी भीष्ण जातीय संघर्ष होते रहे हैं जिसकी वजह से आदिवासीयों को हाशिये पर धकेला गया व अंततः 80 के दशक से उन्हें माओवादी बता कर तमाम जनवादी परिसर को समाप्त कर दिया गया। राजसत्ता द्वारा आदिवासीयों को दोहरी मार सहनी पड़ी, एक तरफ सांमतशाही उत्पीड़न दूसरी तरफ माओवादी के नाम पर उत्पीड़न।
80 के ही दशक से ऐसे बीहड़ इलाके में जहां जाने के साधन तक उपलब्ध नहीं थे और वहां पहुंच पाना ही असंभव था वहां जनमुक्ति आंदोलन के संस्थापक व हमारे यूनियन के संस्थापक डा0 विनयन द्वारा इस कैमूर पठार के 150 गांवों का पैदल भ्रमण कर जनवादी तरीके से जनसंगठन बनाने का कार्य शरू किया गया। बैठके छुप छुप कर की जाती थी ओर डा0 विनयन बहरूपिया बन कर इन जंगलों में घूमा करते थे और गांव गांव घूम कर उन्होंने ‘‘कैमर मुक्ति मोर्चा’’ की स्थापना की। इस मोर्चे में असंख्य गांव के दलित आदिवासी युवा व महिलाए जुड़ी व उन्होनें जनवादी तरीके से अपने संगठन को विपरित परिस्थतियों में चलाया लेकिन कभी भी हथियार बंद कार्यवाही को स्वीकार नहीं किया।
यही कारण है कि आज डा0 विनयन को कैमूर की पहाड़ियों में बच्चा बच्चा जानता है व उन्हें भगवान की तरह पूजा जाता है। डा0 विनयन एक बहुत बड़े विचारक थे जो जनता के संगठन बनाने में विश्वास रखते थे और उन्होंने हमेशा हथियार बंद कार्यवाही से जनता को सजक किया व उन्हें लोकतांत्रिक संघर्षों को लड़ने के लिए विचारों से लैस किया। आज उन्हीें की जन राजनैतिक शिक्षा का यह नतीजा है कि कैमूर के इतने पिछड़े इलाके में ऐसे बहुत से युवा है जो कि सामाजिक व राजनैतिक मुददों पर बेहद ही गहन विचार रखते हैं व संगठन को अपनी क्षमता से मजबूती से खड़ा किए हुए है।
यहां के स्थानीय संगठन द्वारा राष्ट्रीय संगठन के साथ जुड़ कर वनाधिकार कानून बनाने के संघर्ष में अपना योगदान दिया गया। और अंततः 2006 में हमारे देश के संसद ने ‘‘अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परम्परागत समुदाय वनाधिकारों को मान्यता काननू 2006’’ पारित किया गया। इस कानून के पारित होने के बाद से इस वनक्षेत्र में काफी परिवर्तन आने लगे व कैमूर मुक्ति मोर्चा के साथीयों के अथक प्रयासों से आखिर सन् 2010 तक बिहार सरकार ने यह घोषणा कि कैमूर क्षेत्र माओवादी से मुक्त हो गया है जिसमें बहुत बड़ा श्रेय वनाधिकार कानून को जाता है। वनाधिकार कानून के आने के बाद इस क्षेत्र में जनवादी परिसर भी बढ़ने लगा व लोग अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होने लगे व संघर्ष करने लगे। हांलाकि बिहार सरकार द्वारा इस कानून को लागू करने की कोई राजनैतिक इच्छा नहीं दिखाई गई लेकिन कैमूर क्षेत्र के लोगों ने स्वयं इस कानून में अपने आप को राजनैतिक रूप से जागरूक किया व प्रशासन को भी जागरूक करने का काम किया।
वनाधिकार कानून के प्रति बिहार सरकार की अनदेखी के कारण आज भी यहां के वनाश्रित समुदाय को आए दिन वनविभाग द्वारा बेदखल करने की कार्यवाही की जाती है और पुलिस बल का सहयोग लेकर उनपर असंख्य फर्जी मुकदमें, घरों को तोड़ना जलाना, फसलों को तबाह करना, खेती की भूमि पर गडडे खोदना, मारपीट करना, जेल भेजना आदि उत्पीड़न बादस्तूर ज़ारी है। जिसकी वजह से वनाश्रित समुदाय अपनी आम जीवन जीने के लिए काफी मुश्किीलों का सामना करते है।
इस वर्ष मार्च महीने से लॉकडाउन जब से शुरू हुआ तब से इस लॉकडाउन का फायदा उठाते हुए वनविभाग द्वारा अधौरा प्रखंड़ के कई गांवो जैसे गुल्लु, गुईयां, दीघार, बहाबार, डुमरावा, सरईनार आदि गांव में वनविभाग द्वारा आंतक किया जा रहा है। आदिवासीयों की खेती की भूमि पर वनविभाग द्वारा जबरी कब्ज़ा कर उनकी भूमि को हथियाने का काम किया जा रहा है व उन्हें बेदखल करने की कोशिश की जा रही है। जबकि माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा 28 फरवरी 2019 के वाईल्ड लाइफ फर्स्ट एवं यूनियन आफ इंडिया आईए न0 35782/2019 में कोर्ट द्वारा किसी भी तरह की बेदखली से रोक लगाई गई है।
इस केस में वनजन श्रमजीवी यूनियन द्वारा भी इन्टरवेंशन एप्लीकेशन न0 107284/2019 लगाई गई है जिसमें यूनियन की तरफ से आदिवासी समुदाय की महिलाए सोकालो गोंण और थारू आदिवासी निबादा राणा मुख्य वादी हैं।
कानून और इन सब आदेशों का हवाला देने के बावजूद भी वनविभाग द्वारा लोगों को बेदखल करने की कार्यवाही लगातार ज़ारी है। इससे लोगों में काफी आक्रोश है और इस मामले को लेकर दिनांक 15 जुलाई 2020 को दर्जनों गांव के हज़ारों वनाश्रित समाज के लोग अधौरा स्थित बी0डी0ओ आफिस पर प्रर्दशन करने के लिए उतर आए। इस बाबत उन्होनें एक पर्चा भी निकाला जो कि संलग्न है। जिसमें उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि किस तरह से लॉकडाउन का फायदा उठा कर वनविभाग लोगों के घरों को उजाड़ रहा है। सरईनार गांव में वनविभाग द्वारा अगरिया जनजाति के पचासों घरों को गिरा दिया गया। लॉकडाउन के तमाम नियमों का उल्लघंन खुद प्रशासन व वनविभाग कर रहा है। करौना त्रासदी के कारण एक तो क्षेत्र में लोग भुखमरी का शिकार है और दूसरी और वनविभाग आदिवासीयों की काश्त की भूमि हथिया कर उन्हें मौत के मुंह में धकेलने का कार्य कर रहा हैं। ऐसे में सरकार से राशन व रोजगार के पर्याप्त अवसर भी प्राप्त नहीं है ऐसे में बजाय इसके की लोगों को खेती के लिए प्रोत्साहित किया जाए उनकी आजीविका नष्ट करने की पूरी कोशिश की जा रही है।
आदिवासीयों के इस उत्पीड़न को लेकर अखिल भारतीय वनजन श्रमजीवी यूनियन बेहद ही गंभीर है चूंकि बिहार राज्य में वनाधिकार कानून को लेकर पूर्ण रूप से चुप्पी छाई हुई है। और शिकायत करने पर भी अधिकारीयों द्वारा ध्यान नहीं दिया जाता और न ही कोई जवाब दिया जाता है। इस मामले में जैसे तैसे आदिवासीयों द्वारा संपर्क कर खबरों को भेजा जाता है और अपने बलबूते इस उत्पीड़न का जवाब दिया जा रहा है। इस मामले में जल्द ही हमारा यूनियन बिहार सरकार को इन सब तथ्यों के बारे में जानकारी देते हुए पत्र लिखेगा और मांग करेगा कि कैमूर बिहार के वन बाहुल्य इलाके में जल्द ही वनाधिकार की बहाली कर लोगों को उनके अधिकार दिए जाए, उनका उत्पीड़न समाप्त हो और उन्हे सम्मान जनक नागरिक का दर्जा दिया जाए।
अखिल भारतीय वनजन श्रमजीवी यूनियन ने विज्ञप्ति जारी कर कहा कि अधौरा प्रखंड़ कैमूर पहाड़ियों में बसा वन बाहुल्य व आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र है जो कि मुख्य धारा की विकास से कोसों दूर है व यह ऐसा क्षेत्र है जो कि अभी भी सांमती युग में जी रहा है। इस क्षेत्र में बेहद ही ग़रीबी व पिछड़ापन है किसी प्रकार का रोज़गार नहीं है, यहां के मूल निवासी आदिवासी, दलित एवं अन्य ग़रीब तबका केवल वनों एवं खेती पर ही अपनी आजीविका के लिए निर्भर है।
पूरे कैमूर के पहाड़ों व जंगलों पर अंग्रेजों द्वारा बनाए गए वनविभाग का अवैध कब्ज़ा है व वनविभाग द्वारा आदिवासीयों की पुश्तैनी ज़मीनों पर आज़ादी के बाद से अतिक्रमण कर लगातार वनाश्रित समुदायों को बेदख़ल किया जाता रहा है। वनविभाग के साथ इस क्षेत्र में सांमतशाही के चलते भी दलित आदिवासीयों का जीवन बेहद ही कष्टदायक रहा है जहां इन सांमतवादी ताकतों द्वारा अच्छी खेती की भूमि व जंगलों पर अवैध रूप से कब्ज़ा कर यहां के असली निवासीयों आदिवासीयों को बेदखल किया जाता रहा है।
इस क्षेत्र में काफी भीष्ण जातीय संघर्ष होते रहे हैं जिसकी वजह से आदिवासीयों को हाशिये पर धकेला गया व अंततः 80 के दशक से उन्हें माओवादी बता कर तमाम जनवादी परिसर को समाप्त कर दिया गया। राजसत्ता द्वारा आदिवासीयों को दोहरी मार सहनी पड़ी, एक तरफ सांमतशाही उत्पीड़न दूसरी तरफ माओवादी के नाम पर उत्पीड़न।
80 के ही दशक से ऐसे बीहड़ इलाके में जहां जाने के साधन तक उपलब्ध नहीं थे और वहां पहुंच पाना ही असंभव था वहां जनमुक्ति आंदोलन के संस्थापक व हमारे यूनियन के संस्थापक डा0 विनयन द्वारा इस कैमूर पठार के 150 गांवों का पैदल भ्रमण कर जनवादी तरीके से जनसंगठन बनाने का कार्य शरू किया गया। बैठके छुप छुप कर की जाती थी ओर डा0 विनयन बहरूपिया बन कर इन जंगलों में घूमा करते थे और गांव गांव घूम कर उन्होंने ‘‘कैमर मुक्ति मोर्चा’’ की स्थापना की। इस मोर्चे में असंख्य गांव के दलित आदिवासी युवा व महिलाए जुड़ी व उन्होनें जनवादी तरीके से अपने संगठन को विपरित परिस्थतियों में चलाया लेकिन कभी भी हथियार बंद कार्यवाही को स्वीकार नहीं किया।
यही कारण है कि आज डा0 विनयन को कैमूर की पहाड़ियों में बच्चा बच्चा जानता है व उन्हें भगवान की तरह पूजा जाता है। डा0 विनयन एक बहुत बड़े विचारक थे जो जनता के संगठन बनाने में विश्वास रखते थे और उन्होंने हमेशा हथियार बंद कार्यवाही से जनता को सजक किया व उन्हें लोकतांत्रिक संघर्षों को लड़ने के लिए विचारों से लैस किया। आज उन्हीें की जन राजनैतिक शिक्षा का यह नतीजा है कि कैमूर के इतने पिछड़े इलाके में ऐसे बहुत से युवा है जो कि सामाजिक व राजनैतिक मुददों पर बेहद ही गहन विचार रखते हैं व संगठन को अपनी क्षमता से मजबूती से खड़ा किए हुए है।
यहां के स्थानीय संगठन द्वारा राष्ट्रीय संगठन के साथ जुड़ कर वनाधिकार कानून बनाने के संघर्ष में अपना योगदान दिया गया। और अंततः 2006 में हमारे देश के संसद ने ‘‘अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परम्परागत समुदाय वनाधिकारों को मान्यता काननू 2006’’ पारित किया गया। इस कानून के पारित होने के बाद से इस वनक्षेत्र में काफी परिवर्तन आने लगे व कैमूर मुक्ति मोर्चा के साथीयों के अथक प्रयासों से आखिर सन् 2010 तक बिहार सरकार ने यह घोषणा कि कैमूर क्षेत्र माओवादी से मुक्त हो गया है जिसमें बहुत बड़ा श्रेय वनाधिकार कानून को जाता है। वनाधिकार कानून के आने के बाद इस क्षेत्र में जनवादी परिसर भी बढ़ने लगा व लोग अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होने लगे व संघर्ष करने लगे। हांलाकि बिहार सरकार द्वारा इस कानून को लागू करने की कोई राजनैतिक इच्छा नहीं दिखाई गई लेकिन कैमूर क्षेत्र के लोगों ने स्वयं इस कानून में अपने आप को राजनैतिक रूप से जागरूक किया व प्रशासन को भी जागरूक करने का काम किया।
वनाधिकार कानून के प्रति बिहार सरकार की अनदेखी के कारण आज भी यहां के वनाश्रित समुदाय को आए दिन वनविभाग द्वारा बेदखल करने की कार्यवाही की जाती है और पुलिस बल का सहयोग लेकर उनपर असंख्य फर्जी मुकदमें, घरों को तोड़ना जलाना, फसलों को तबाह करना, खेती की भूमि पर गडडे खोदना, मारपीट करना, जेल भेजना आदि उत्पीड़न बादस्तूर ज़ारी है। जिसकी वजह से वनाश्रित समुदाय अपनी आम जीवन जीने के लिए काफी मुश्किीलों का सामना करते है।
इस वर्ष मार्च महीने से लॉकडाउन जब से शुरू हुआ तब से इस लॉकडाउन का फायदा उठाते हुए वनविभाग द्वारा अधौरा प्रखंड़ के कई गांवो जैसे गुल्लु, गुईयां, दीघार, बहाबार, डुमरावा, सरईनार आदि गांव में वनविभाग द्वारा आंतक किया जा रहा है। आदिवासीयों की खेती की भूमि पर वनविभाग द्वारा जबरी कब्ज़ा कर उनकी भूमि को हथियाने का काम किया जा रहा है व उन्हें बेदखल करने की कोशिश की जा रही है। जबकि माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा 28 फरवरी 2019 के वाईल्ड लाइफ फर्स्ट एवं यूनियन आफ इंडिया आईए न0 35782/2019 में कोर्ट द्वारा किसी भी तरह की बेदखली से रोक लगाई गई है।
इस केस में वनजन श्रमजीवी यूनियन द्वारा भी इन्टरवेंशन एप्लीकेशन न0 107284/2019 लगाई गई है जिसमें यूनियन की तरफ से आदिवासी समुदाय की महिलाए सोकालो गोंण और थारू आदिवासी निबादा राणा मुख्य वादी हैं।
कानून और इन सब आदेशों का हवाला देने के बावजूद भी वनविभाग द्वारा लोगों को बेदखल करने की कार्यवाही लगातार ज़ारी है। इससे लोगों में काफी आक्रोश है और इस मामले को लेकर दिनांक 15 जुलाई 2020 को दर्जनों गांव के हज़ारों वनाश्रित समाज के लोग अधौरा स्थित बी0डी0ओ आफिस पर प्रर्दशन करने के लिए उतर आए। इस बाबत उन्होनें एक पर्चा भी निकाला जो कि संलग्न है। जिसमें उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि किस तरह से लॉकडाउन का फायदा उठा कर वनविभाग लोगों के घरों को उजाड़ रहा है। सरईनार गांव में वनविभाग द्वारा अगरिया जनजाति के पचासों घरों को गिरा दिया गया। लॉकडाउन के तमाम नियमों का उल्लघंन खुद प्रशासन व वनविभाग कर रहा है। करौना त्रासदी के कारण एक तो क्षेत्र में लोग भुखमरी का शिकार है और दूसरी और वनविभाग आदिवासीयों की काश्त की भूमि हथिया कर उन्हें मौत के मुंह में धकेलने का कार्य कर रहा हैं। ऐसे में सरकार से राशन व रोजगार के पर्याप्त अवसर भी प्राप्त नहीं है ऐसे में बजाय इसके की लोगों को खेती के लिए प्रोत्साहित किया जाए उनकी आजीविका नष्ट करने की पूरी कोशिश की जा रही है।
आदिवासीयों के इस उत्पीड़न को लेकर अखिल भारतीय वनजन श्रमजीवी यूनियन बेहद ही गंभीर है चूंकि बिहार राज्य में वनाधिकार कानून को लेकर पूर्ण रूप से चुप्पी छाई हुई है। और शिकायत करने पर भी अधिकारीयों द्वारा ध्यान नहीं दिया जाता और न ही कोई जवाब दिया जाता है। इस मामले में जैसे तैसे आदिवासीयों द्वारा संपर्क कर खबरों को भेजा जाता है और अपने बलबूते इस उत्पीड़न का जवाब दिया जा रहा है। इस मामले में जल्द ही हमारा यूनियन बिहार सरकार को इन सब तथ्यों के बारे में जानकारी देते हुए पत्र लिखेगा और मांग करेगा कि कैमूर बिहार के वन बाहुल्य इलाके में जल्द ही वनाधिकार की बहाली कर लोगों को उनके अधिकार दिए जाए, उनका उत्पीड़न समाप्त हो और उन्हे सम्मान जनक नागरिक का दर्जा दिया जाए।