दुनिया के दूसरे पूंजीवादी देशों को मॉडल के तौर पर देखें तो वे कथित 'डिटेंशन सेंटर' या 'हिरासत केंद्र' नहीं होंगे, वे मजदूरों की शक्ल में दासों या गुलामों के 'सप्लाई सेंटर' होंगे!
*भारत में वे दास कौन होंगे?*
अकेले असम में करीब उन्नीस लाख लोगों को 'डिटेंशन सेंटर' के कैदी होने की व्यवस्था की गई है! बारह लाख हिंदू, सात लाख मुसलमान! एनआरसी में छंटने के बाद हिंदुओं की नागरिकता तय होने की अवधि- कम से कम दस साल! तब तक 'हिरासत केंद्र' में स्वागत होगा!
अब किसी एजेंसी से उन करीब उन्नीस लाख हिंदुओं और मुसलमानों की सामाजिक यानी जातिगत पृष्ठभूमि का अध्ययन कराइए!
पता चल जाएगा कि किन लोगों और समूहों को दास-प्रथा की आग में झोंकने का इंतजाम किया जा रहा है!
ये सीएए यानी नागरिकता कानून और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर दोनों धर्मों के गैर-सवर्णों और आदिवासियों की गुलामी का दस्तावेज है!
संदर्भ : Mukesh Aseem की यह बेहद जरूरी पोस्ट -
नागरिकता छिनने का डर गरीब श्रमिकों को कम मजदूरी पर बिना संगठित हुए, बिना अपना कोई अधिकार माँगे काम करने पर मजबूर करने का भी बडा जरिया बनने वाला है। जब कोई वाजिब मजदूरी माँगे, यूनियन बनाने का प्रयास करे या कुछ और अधिकार माँगे, मालिक उनमें जो मुखर हों, उन्हें पुलिस से साँठगाँठ कर अवैध आप्रवासी घोषित करा सकते हैं। अमेरिका यूरोप में यह तरीका आजमाया जाता रहा है सस्ते मजदूरों को शोषण के फंदे में फँसाये रखने के लिए। जब तक मजदूर ऐसी कोई माँग न करें तब तक पूँजीपति, प्रशासन, मीडिया सब जानते चुप रहते हैं अन्यथा श्रमिकों के सवाल को अवैध आप्रवास के अंधभावनात्मक मुद्दे में तब्दील कर दिया जाता है। सऊदी व अन्य खाडी देश तो इसी कारण 50-60 साल से, दो तीन पीढियों से वहीं काम कर रहे दूसरे धर्म वालों को छोडिये मुसलमानों को भी नागरिकता नहीं देते क्योंकि यह उन्हें शोषण के खिलाफ संगठित होने, संघर्ष करने से रोकने का बडा तरीका है।
अमेरिका में अवैध आप्रवासी घोषित करने की धमकी के साथ एक और तरीका प्रयोग में है। वहाँ गरीब मेहनतकश विशेष तौर पर अफ्रीकी व हिस्पैनिक मूल वालों को छोटे से छोटे अपराधों में लंबे वक्त के लिए जेल भेजा जा रहा है या जमानत की शर्त इतनी कठिन रखी जाती है कि वे जेल में ही रहें। आबादी के अनुपात में अमेरिका में कैदियों की तादाद दुनिया में संभवतः सर्वाधिक है, उसमें भी ये दो समुदाय अधिक हैं। ऊपर से बहुत सी जेल निजी क्षेत्र को सौंप दी गईं हैं। निजी क्षेत्र को दो तरह से मुनाफा होता है - एक, सरकार से प्रति कैदी मिलने वाला पैसा; दूसरे, इन कैदियों से नाममात्र की मजदूरी पर कराया गया बेहद कठिन श्रम।
भारत में भी जैसे आर्थिक संकट गहरा रहा है, मजदूरों के शोषण को और तीक्ष्ण करने के लिए नागरिकता कानून का प्रयोग होगा। पूँजीवादी मीडिया में इसके पक्ष में प्रचार की यह भी एक बडी वजह है। इसीलिये भारत सरकार बांग्लादेश को बार बार आश्वासन भी दे रही है कि किसी को देश से निकाला नहीं जायेगा, यह तो पूर्णतया आंतरिक मामला है। यहाँ भी शोषण के दोनों रूप भविष्य में नजर आ सकते हैं, श्रमिकों को अवैध करार कराने की धमकी के जरिये दोहन और डिटेंशन केंद्र में बिना किसी श्रम कानून की सुरक्षा वाला भयंकर खास तौर पर स्वास्थ्य के लिए सबसे खतरनाक किस्म का श्रम।
यूपी बिहार वाले मजदूरों के खिलाफ विभिन्न राज्यों में जो नफरत फैलाई जाती है उसे भी इस संदर्भ में देखना चाहिए। कुछ को पीटने, मारने, सामान तोडने, जलाने का मकसद मजदूरों को भयभीत रखना होता है। जैसे ही भय बढकर वास्तविक पलायन में बदलता है, तब तक नफरत फैलाता मीडिया तुरंत जनवादी बनकर एकता, पलायन रोकने की बात करने लगता है क्योंकि मजदूर वास्तव में ही चले जायें तो उल्टा नुकसान हो जायेगा।
*भारत में वे दास कौन होंगे?*
अकेले असम में करीब उन्नीस लाख लोगों को 'डिटेंशन सेंटर' के कैदी होने की व्यवस्था की गई है! बारह लाख हिंदू, सात लाख मुसलमान! एनआरसी में छंटने के बाद हिंदुओं की नागरिकता तय होने की अवधि- कम से कम दस साल! तब तक 'हिरासत केंद्र' में स्वागत होगा!
अब किसी एजेंसी से उन करीब उन्नीस लाख हिंदुओं और मुसलमानों की सामाजिक यानी जातिगत पृष्ठभूमि का अध्ययन कराइए!
पता चल जाएगा कि किन लोगों और समूहों को दास-प्रथा की आग में झोंकने का इंतजाम किया जा रहा है!
ये सीएए यानी नागरिकता कानून और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर दोनों धर्मों के गैर-सवर्णों और आदिवासियों की गुलामी का दस्तावेज है!
संदर्भ : Mukesh Aseem की यह बेहद जरूरी पोस्ट -
नागरिकता छिनने का डर गरीब श्रमिकों को कम मजदूरी पर बिना संगठित हुए, बिना अपना कोई अधिकार माँगे काम करने पर मजबूर करने का भी बडा जरिया बनने वाला है। जब कोई वाजिब मजदूरी माँगे, यूनियन बनाने का प्रयास करे या कुछ और अधिकार माँगे, मालिक उनमें जो मुखर हों, उन्हें पुलिस से साँठगाँठ कर अवैध आप्रवासी घोषित करा सकते हैं। अमेरिका यूरोप में यह तरीका आजमाया जाता रहा है सस्ते मजदूरों को शोषण के फंदे में फँसाये रखने के लिए। जब तक मजदूर ऐसी कोई माँग न करें तब तक पूँजीपति, प्रशासन, मीडिया सब जानते चुप रहते हैं अन्यथा श्रमिकों के सवाल को अवैध आप्रवास के अंधभावनात्मक मुद्दे में तब्दील कर दिया जाता है। सऊदी व अन्य खाडी देश तो इसी कारण 50-60 साल से, दो तीन पीढियों से वहीं काम कर रहे दूसरे धर्म वालों को छोडिये मुसलमानों को भी नागरिकता नहीं देते क्योंकि यह उन्हें शोषण के खिलाफ संगठित होने, संघर्ष करने से रोकने का बडा तरीका है।
अमेरिका में अवैध आप्रवासी घोषित करने की धमकी के साथ एक और तरीका प्रयोग में है। वहाँ गरीब मेहनतकश विशेष तौर पर अफ्रीकी व हिस्पैनिक मूल वालों को छोटे से छोटे अपराधों में लंबे वक्त के लिए जेल भेजा जा रहा है या जमानत की शर्त इतनी कठिन रखी जाती है कि वे जेल में ही रहें। आबादी के अनुपात में अमेरिका में कैदियों की तादाद दुनिया में संभवतः सर्वाधिक है, उसमें भी ये दो समुदाय अधिक हैं। ऊपर से बहुत सी जेल निजी क्षेत्र को सौंप दी गईं हैं। निजी क्षेत्र को दो तरह से मुनाफा होता है - एक, सरकार से प्रति कैदी मिलने वाला पैसा; दूसरे, इन कैदियों से नाममात्र की मजदूरी पर कराया गया बेहद कठिन श्रम।
भारत में भी जैसे आर्थिक संकट गहरा रहा है, मजदूरों के शोषण को और तीक्ष्ण करने के लिए नागरिकता कानून का प्रयोग होगा। पूँजीवादी मीडिया में इसके पक्ष में प्रचार की यह भी एक बडी वजह है। इसीलिये भारत सरकार बांग्लादेश को बार बार आश्वासन भी दे रही है कि किसी को देश से निकाला नहीं जायेगा, यह तो पूर्णतया आंतरिक मामला है। यहाँ भी शोषण के दोनों रूप भविष्य में नजर आ सकते हैं, श्रमिकों को अवैध करार कराने की धमकी के जरिये दोहन और डिटेंशन केंद्र में बिना किसी श्रम कानून की सुरक्षा वाला भयंकर खास तौर पर स्वास्थ्य के लिए सबसे खतरनाक किस्म का श्रम।
यूपी बिहार वाले मजदूरों के खिलाफ विभिन्न राज्यों में जो नफरत फैलाई जाती है उसे भी इस संदर्भ में देखना चाहिए। कुछ को पीटने, मारने, सामान तोडने, जलाने का मकसद मजदूरों को भयभीत रखना होता है। जैसे ही भय बढकर वास्तविक पलायन में बदलता है, तब तक नफरत फैलाता मीडिया तुरंत जनवादी बनकर एकता, पलायन रोकने की बात करने लगता है क्योंकि मजदूर वास्तव में ही चले जायें तो उल्टा नुकसान हो जायेगा।